सोमवार, 8 मार्च 2010

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं

अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं
आज ८ मार्च है, अन्तर राष्ट्रीय महिला दिवस। भारत सरकार ने भारतीय सांसद में महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण का फैसला किया है हार्दिक अभिनन्दन। शुरुआत अच्छी है। पूरे विश्व में विशेषकर पश्चिमी देशों में महिला दिवस को बहुत कार्यक्रमों और सभाओं को आयोजित करके मनाते हैं। ओस्लो में शाम ५ बजे यंग्स थोरवे पर सभी एकत्र होंगे विशाल आम सभा में प्रतिनिधि संबोधित करेंगे और बाद में जूलुस निकलेगा।

रविवार, 7 मार्च 2010

क्या हिंदी कविता को संरक्षण की जरूरत है? अज्ञेय जी की जन्मशती पर विशेष-शरद आलोक

आज ७ मार्च को अज्ञेय का जन्मदिन(जन्मशती का पहला दिन)
अज्ञेय (जन्म:७ मार्च १९११ और मृत्यु: ४ जुलाई १९८७)


हीरानंद सचिचिदानंद वात्सायन 'अज्ञेय' जी का जन्म ७ मार्च १९११ में खुशीनगर, देवरिया, उत्तर प्रदेश में हुआ था। ६ वर्ष आजादी के आन्दोलन में कारावास काट चुके अज्ञेय हिंदी में पत्रकारिता में नए मानक स्थापित करने वाले, हिंदी में प्रयोगवादी कविता के नेता और सृजक का सारा जीवन परिवर्तन और सुधार से भरा पड़ा है।
साहित्य अकादमी, ज्ञानपीठ और भारत भारती पुरस्कार से सम्मानित अज्ञेय जी ने जिन कवियों को अपने नयी कविता के तारसप्तक, दूसरा सप्तक और तीसरा सप्तक संकलनों में स्थान दिया वे अधिकतर रचनाकार बहुत चर्चित हुए।

अज्ञेय जी से मेरी पहली मुलाकात दिल्ली में (स्थान ठीक से याद नहीं शायद त्रिवेणी कला संगम, दिल्ली) में हिंद पाकेट बुक की विश्व दर्शन पर छपी पुस्तकों की सीरीज के विमोचन के अवसर पर हुई थी। उस समय प्रकाशक दीनानाथ मल्होत्रा जिनसे आज भी मेरा संपर्क है और तीन सप्ताह पहले उनका पत्र प्राप्त हुआ , भी उपस्थित थे। अज्ञेय जी महिलाओं के साथ थे जो उनके परिवार की सदस्य रही होंगी। उनके अतिरिक्त रघुवीर सहाय, राजेंद्र अवस्थी और अन्य थे।

सन् १९८३ में पहली बार जैनेन्द्र जी से मुलाकात हुई थी उस समय मैं नार्वे से निकलने वाली प्रथम पत्रिका 'परिचय' पत्रिका के हिंदी विभाग में संपादक था। रघुवीर सहाय की माँ और छोटे भाई विजयवीर सहाय से मेरी मुलाकात 'स्वतन्त्र भारत' के सम्पादकीय विभाग में और माडल हॉउस लखनऊ के पास स्तिथ उनके पुस्तैनी मकान में हुआ करती थी जबकि उनके एक अन्य भाई धर्मवीर सहाय दिल्ली में नवभारत टाइम्स में पत्रकार थे से भी प्रेस में मुलाकात होती रही उनके अवकाश प्राप्त करने के पहले तक। नवभारत टाइम्स में बहुत से लोगों (लेखकों-पत्रकारों) से मुलाकात होती रही जो आज नामी ओग भी हैं और अवकाश प्राप्त हैं और कुछ लोग इस दुनिया में नहीं हैं ,पर यह चर्चा फिर कभी उचित समय करूंगा।

आज हिंदी कविता की टोलियाँ बिखरी पड़ी हैं। भारत में कविता की स्थिति आज भी सुखद है। स्थानीय कवियों ने उसे अधिकाधिक पोषित किया है। नगरपालिका के स्कूलों से लेकर कान्वेंट स्कूलों तक हिंदी का बोलबाला है।

सहकारिता भाव से हिंदी कवियों और स्थानीय साहित्यित्यिक संस्थाओं आज कविता के प्रकाशन में जितनी भूमिका निभाई है वह भारत के सभी व्यावसायिक प्रकाशकों को मिलकर भी नहीं निभाई जा सकी।
अज्ञेय जी का प्रयास इस रूप में प्रशंसनीय है। उन्होंने तारसप्तक के माध्यम से अधिकतर उन्हीं कवियों को प्रस्तुत किया जिनमें प्रतिभा और लेखकीय संभावनाएं थीं, उनका कोई भी कवितासंग्रह प्रकाशित नहीं हुआ था। अज्ञेय ने इनमें अपनी वृहद् भूमिका लिखकर और सफल संपादन करके कवियों को व्यावसायिक प्रकाशकों और आलोचकों से जोड़ा।

आज के सन्दर्भ में यह नहीं भूलना चाहिए हिंदी में प्रकाशन का बाजार भेदभावपूर्ण है। इसे सरकारी सहायता अधिक मिलनी चाहिए परन्तु यहाँ एक चीज और जोड़ने वाली है प्रतिष्ठित प्रकाशकों के साथ-साथ छोटे प्रकाशकों और लेखकों के निजी प्रकाशन को साथ लेते हुए अथवा हिंदी साहित्य को हर तरफ से संरक्षण देने की जरूरत है। अज्ञेय के इस कार्य को बहुधा राजधानी के लेखक और आचार्य भूल जाते हैं।
यह मेरी सोच है। शायद मैं गलत होऊं, इसलिए क्योंकि मैंने अधिकांश हिंदी सेवा विदेशों में रहकर की है। अज्ञेय ने हिंदी साहित्य और पत्रकारिता को अपना तन, मन और धन सभी से योगदान दिया। अज्ञेय जी प्रेरणा हैं आज प्रतिष्ठित लेखकों के लिए। आज सम्पादकों और आचार्यों के अतिरिक्त कम ही प्रतिष्टित लेखक बन्धु अज्ञेय जी क तरह सामूहिक हिंदी लेखन की चिंता करते हैं।
कुछ पंक्तियाँ अज्ञेय जी की स्मृति में प्रस्तुत है, जो मैंने आज ही लिखी है। प्रतिक्रिया भेजिए प्रोत्साहन मिलेगा और प्रखरता आएगी । धन्यवाद।

नयी दस्तक
कविता में गुलामी
गंध, दूर कर गए
स्वतंत्रता संग्रामी।
परिवर्तन हुआ नामी,
प्रयोग एक खोज
साहित्य-सैलानी,
कविता को करें तार -तार,
तारसप्तक की दस्तक
कलम नहीं करेगी विश्राम
सप्तकों में अब और नहीं होगी कैद
कविता -कहानी?

कविता बनी स्वच्छकार,
घर-देहरी-आँगन
गली-गली, गाँव- गाँव
बनकर कुम्हार,
गढ़ेगी ऐसे घड़े
जिनका पीकर पानी
सत्य और पौरुष ललकार उठे,
जगाकर यह कहे,
मत सो सैलानी,
धरती पर बढ़ते व्यभिचार,
अन्याय के विरुद्ध
बनाये अभिमानी।

अभय-श्रमजीवी!
कारीगर-शिक्षक!
निर्माता होकर देखते हो आसरा?
किसका रास्ता?
हे, मूर्तिकार कलाकार
कितनी मूर्तियों को पकडाया है कुदाल,
छेनी और हतौडा,
सूरज की संतान हैं हम?

ज्ञान और उद्यम
सौर उर्जा पास है,
दिखा नहीं श्रम छिपी शक्ति,
बिजली के खम्बों पर
कब तक असीमित बोझ उठाएंगे
अनैतिक असंख्य लंगर
बांटकर खाना था,
छीनकर खाते हैं,
कितने लंगर डाले हैं?
पास में दूल्हा नगर में ढिंढोरा?
आसमान पर उर्जा-सूरज,
खम्बों पर लटका है हमारा स्वप्न,
ज्ञान को देकर तिलांजलि,
घर के दीपक की
जब तक करोगे अवहेलना,
लूटमार का होंगे शिकार,
नहीं चाहिए उधार की कार
जब तक सड़कों के मोहताज।

तुम्हारे दो हाथ हैं
फिर भी हैं अपढ़-लाचार ?
नायक हो तुम!
हिम्मत और देशभक्ति
पहचानों शक्ति,
अन्याय के मत हों शिकार।
मिलकर बनायें परिवार, समाज
रक्त के टूटे रिश्ते
धर्म के नाम पर तांडव,
युद्ध को थोपते अज्ञानी,
कितनों के अर्थहीन बलिदान
राम और कृष्ण की संतान!
जागो-जागो
अमर बेला है
मरा जपकर भी पाए थे राम!
हाथ पर हाथ पर रख,
मलने से अच्छा उठा लो फावड़ा
साफ़ करदो नदियाँ
मंदिर-मस्जिद की कतारों में
समय बर्बाद कार चुका हूँ
और नहीं करूंगा एकांतवास,
स्थिर, मौन, शांत और प्रतीक्षा?
कर्म-शक्ति-पूजा भक्ति,
अन्याय देखकर विमुखता
कायरता और नपुंसकता?

साहसी युवा,
तुम बनो रचनाकार,
शहीदों के बलिदान का प्रताप
जिनके पग पड़े जेल में,
सांच को आंच नहीं,
कर्म पथी को विश्राम नहीं।
कल कभी नहीं आता,
बस छोड़ जाता है कुछ
पदचिन्ह, संस्कार।

नया विद्रोही
बजा उठा विगुल
पुनः धर्म-पथ पर,
एक नयी आजादी का
शंखनाद, आज
मौन बैठे रचनाकार
दल से दलदल में?
कानून जब ढीला हो,
शासन अस्वस्थ बदल दो
चुनो ईमानदार नेतृत्व।

मिलावटी, बलात्कारी
आन्दोलनों के पथ-भ्रष्ट
रचनाकारों की कलम
को, बना नहीं सकते बंदी,
कविता का एकाधिकार
भवनों, महलों
वातानुकूलित कमरों से मुक्त,
जुलूसों, खेत, खलियानों और
सड़कों पर आ गयी है।

सुनो!
सब गाने लगे हैं, आज ?
पहचानने लगे हैं, दर्पण।
अब और नहीं टूटेंगे दर्पण,
साफ़ होंगे कालिख पुते चेहरे।
आज मजदूर और किसान
मंत्र गढ़ने लगे हैं।
अजान सड़क पर,
कारखानों से चारागाह तक
पूजा ही पूजा।
कौन है जो पूरी रोजी नहीं दे रहा
ढूढ़ रही है उसे कविता?
जल्दी ही मिल जायेंगे वे
तब कवि रोजी लिखेंगे,
रोटी और मकान लिखेंगे
रग्घू और तारा
शमीम और सुल्ताना
अमृता और बलवंत
श्रम दान करेंगे
उनके बच्चे भी भरपेट
भोजन करेंगे ,
कविता करेगी चिंता
कवि बोएगा बीज,
जागरण!

सत्य के रथ पर, सवार
माफियाओं के जाल,
जंजाल में राख़ को फूक कर
बना दो चिंगारी, धू-धू कर उठे
निर्लज्ज अकाल,
देकर काल को आमंत्रण,
फिर भरनी पड़ेगी जेल,
अनजाने, निरपराध योगियों,
जनता-जनार्दन हो मुक्त।
कविता बन जाए मंत्र
कवि एक आहुति
चले अग्रिम पंक्ति
शीर्षक फिर कभी नहीं
होंगे बंदी।

कितने ही बालक पल रहे
कारागार की बन्द दीवारों के पीछे।
हम और हमारे बच्चे
उनकी जगह पा रहे मुक्त
शिक्षा और भोजन।
जब मुक्त होंगे
जेल से, दुनिया के
थानों से,
टूटेंगी दीवारें
बनेंगे हमसफ़र।

अधूरी स्वतंत्रता,
नयी कविता
उगाएगी
नयी फसल, उगेंगे
जमानती दस्तावेज
मुक्त होंगे जेलों से
कृष्ण की तरह जन्म लेने वाले
कारागार में बच्चे,
खाली होगी जगहें
उन अपराधियों के लिए
जिन्होंने कैद किया :
अपने गोदामों में भूख,
अनाज में पथरी,
मसाले में गोबर,
दूध में जहर,
मौन बुद्धिजीवी की
उदासीनता, को आगाह करे,
वही आज होगी
नयी कविता।
महलों, भवनों से मुक्त होकर
श्रम के बनाएगी पुजारी ?
खबरदार!

होशियार!
छोड़ दो अपराध, अत्याचार!
आ रही है, पास
धमनियों में खून में दौड़ने
को आतुर नयी कविता,
नागार्जुन नहीं आयेंगे!
अज्ञेय के प्रयोगवाद को
नासमझ बनाकर अपनी टोली,
कविता-साहित्य की बोली,
अब नहीं होगी शक्ति-दिल्ली?
ठेकेदारों से मुक्त होने
को बेचैन,
आतुर, जागरूक ।
सहकारिता ने कदम बढ़ाया है,
अमीर को मिलेगी मंहगी
और गरीब को निशुल्क पुस्तक।
नयी कविता की
नए समय की मांग
नयी दस्तक!
-शरद आलोक
(अज्ञेय जी के जन्मदिन ७ मार्च २०१० पर ओस्लो, नार्वे)

बुधवार, 3 मार्च 2010

परदे पर नई बहस है

परदे पर नयी बहस है -शरद आलोक

जब -जब दुविधा होती है
मुद्दे चर्चित होते हैं।
राजनीति चौपालों में
तब किस्से गरम होते हैं॥

अपने आँगन का कचरा,
दूजे द्वारे डालेंगे ।
विपरीत हवा में फिरसे,
अपनी हद में पायेंगे॥

अर्चना सुमन स्तवन में,
अज्ञान दे रही निराशा।
अब दिया कोई बुझाता,
तब उद्यमी उसे जलाता।.

तुम हताश कभी न होना,
दुःख-दर्द निवारण करना।
कर्म श्रम साधना अव्यय,
नव उर्जा उत्साह बढ़ाना॥

कैसे जाने -अनजाने,
कपड़ों पर बहस छिड़ी है।
आजादी दुहाई देते जो
कपड़े प्रतिबंधित करते॥

हम तुम क्या पहनेंगे
पहले कानून पढ़ेंगे।
कठपुतली से नाच रहे,
अब और नहीं नाचेंगे॥

सर ढका हुआ है मेरा,
तुमको तकलीफ बहुत है।
बालों को छिपा रहे हैं,
पगड़ी, हिजाब आफत है॥

आदर्श ढोल पीटेंगे ,
क्या पत्थर युग लौटेंगे।
नव ज्ञान पड़ गया फीका,
क्या पैदल सदा चलेंगे?
(आजकल अनेक पश्चिमी देशों में बुरका, हिजाब, ko को लेकर राजनैतिक और मीडिया में बहस हो रही है।
कपड़ो को आप अपने चुनाव से ही पहनेंगे। जैसे पगड़ी तो सिख धर्म का एक महत्वपूर्ण परिधान में आता है।
पगड़ी और हिजाब तथा स्कॉट या स्कार्फ से केवल व्यक्ति सर या बाल ढकता है। माना बुरका से मुख ढकता है। परन्तु बुरका, हिजाब आदि को पगड़ी से तुलना करना धार्मिक लिहाज से तर्क सम्मत नहीं है.-शरद आलोक, Oslo )

मंगलवार, 2 मार्च 2010

जीवन में पुण्य कमायें

जीवन में पुण्य कमायें - शरद आलोक

रो-धोकर बीत रहा है,
यह समय हाय हमारा।
बहुधा सुनते रहते हैं,
बेचैन यहाँ बेचारा॥

हर ओर चमक हरियाली,
नव हिम से ढकी हुई है।
सूरज की चाहत में सब,
खुशियाँ छिपी हुई हैं॥

भारत से आने वाले,
ग्रीष्म ऋतुओं को रोते।
जब मात्र भूमि जाते हैं,
वातानुकूल में सोते॥

दो संस्कृति मध्य झूलते,
आकाश उठा लेते हैं।
जितना भी धन होता,
उतने को हम रोते हैं॥

श्रमदान यहाँ करते हैं,
मिलजुलकर भार उठाते।
क्या कुलियों, रिक्शे वालों,
महरिन को गले लगाते?

जब भेदभाव है मन में,
अन्याय वहीं होता है।
जो पहरेदारी करता
फुटपातो पर सोता है।।

मंदिर मस्जिद जाते हैं
बेशक जाएं गुरुद्वारा ।
हर स्वदेश यात्रा में
धरती में कुछ बो आयें॥

हम मात्रभूमि गुरु दक्षिणा
देकर कर्त्तव्य निभाएं।
जीवन में पुन्य कमायें,
कोई अच्छा वृक्ष लगाएं॥

सोमवार, 1 मार्च 2010

विचारों की होली

आपको होली पर हार्दिक शुभकामनाएं -शरद आलोक



अर्चना पेन्यूली की पुस्तक का विमोचन होली में
बहुत-बहुत बधाई।




विचारों की होली

न्यूनतम तापमान, होली में जमता रंग,
पिचकारी कैसे भरूँ, बरफबारी के संग।
इन्टरनेट की आड़ में, देख बधाई पत्र,
फागुन भर की याद से, रंग दिखा सर्वत्र। ।

हिंदी स्कूल नार्वे में, खूब मचा हुडदंग
एक दूजे के गाल में लगा दिया है रंग।
अर्चना की किताब का बहुत चढ़ा गुलाल
लोकार्पण से हुआ ऊँचा हिंदी भाल॥

मारीशस के अनथ सुने कपिल कुण्डलियाँ,
होली में भाने लगीं हैं मुंबई की गलियां।
जीत गए यदि वीरेंद्र शर्मा चुनावी बोली
ब्रिटेन -संसद में खेलें आगामी होली।।

बेशक लिबरल की सांसद हैं रूबी धल्ला,
कनाडा वासी खेलें होली खुल्लम खुल्ला।
शरद आलोक यहाँ होली में बरफ तापते
अपनी गाडी से एक हाथ भर बरफ हटाते॥

नहीं झुकाया सर, यूरो डालर के पीछे,
इसी लिए नहीं दिखी कोई पीछे-पीछे।
जब भी भारत जायेंगे एक पेड़ लगायेंगे,
नदी का पानी एक ड्रम साफ़ करेंगे॥

जब करोड़ भारती नदिया साफ़ करेंगे
आगामी होली में नदियों में रंग घोलेंगे।
आपस में मिलकर शिकवे दूर करेंगे,
असमानता की खाई को तब पूरेंगे।

होली, हमजोली आँख मिचौली खेले,
जैसे नेता भारत की जनता को तौले॥
जो भी भेजे मेल- बेमेल ई परियों के।
बुरा न मानो होली में छोटी त्रुटियों से॥
शरद आलोक
ओस्लो, ०१.०३.१०