शनिवार, 21 जुलाई 2012

जनता की बैचेनी ही लोकतंत्र का विकल्प बनेगी. - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

 जनता की बैचेनी ही लोकतंत्र  का विकल्प बनेगी.  -
सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'
जनता की बैचेनी ही लोकतंत्र  का विकल्प बनेगी. 
जनता का निर्णय सत्य हुआ तो कायाकल्प करेगी।
महंगाई से रोई जनता कब तक अब सोयेगी
दूजों का बोझ बहुत उठाया, अब अपना बोझ उठाएगी।

अपना नेता चुना जिन्हें था, कुछ  तो मद में खोये हैं.
जनता का पैसा लुटा रहे हैं कुछ,  खुद भी लूट रहे हैं?
सहकारिता से एकजुट होकर  अपना संसार रचेंगे।
देश की खाने, बीमार मिलों को फिर से वापस लायेंगे।

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई  का  भारत देश महान है
गांधी सुभाष आजाद भगत  के सपनों की खान है
जब तक अपना सम्मान है तब तक अपना अभिमान है
 दुनिया में सदा महान रहा है भारत और  सदा महान है. 

हम कर भी देंगे, श्रमदान करेंगे, देश को खुशहाल करेंगे।
बेईमानों को  इमान सिखाकर  मिलकर नेतृत्व  करेंगे ।
पहले तो बहुत टूटे हैं भैया, अब हम गरीब नहीं टूटेंगे।
गरीब -अमीर दोनों के  खातिर सामान द्वार खोलेंगे।

नार्वे में लेखक गोष्ठी में लेखक सम्मानित - माया भारती

नार्वे में लेखक गोष्ठी में लेखक सम्मानित - माया भारती
भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम के तत्वावधान में आयोजित लेखक गोष्ठी में लेखकों को सम्मानित किया गया।  लेखकों को सम्मानित करते हुए नार्वे में हिंदी के साहित्यकार  और गत 24 वर्षों से नार्वे से प्रकाशित एकमात्र द्वैमासिक, सांस्कृतिक-साहित्यिक पत्रिका  स्पाइल-दर्पण के सम्पादक  सुरेशचंद्र शुक्ल ने नार्वे में एक वर्ष पहले आतंकी हमले में मारे जानेवाले बेक़सूर लोगों को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि आज हिंसा और शक्ति के  दुरूपयोग से बदलाव नहीं आएगा वरन प्रजातंत्र और मानवाधिकारों की बहाली से ही बदलाव आएगा। उन्होंने नार्वे के प्रधानमत्री के उस बयान को दोहराते हुए कहा ' रोमा लोगों को एक समूह के रूप में किसी भी तरह विरोध और घृणा नहीं की जानी चाहिए।   एक वर्ष पूर्व आतंकी हमले के बाद हमने प्रेम और सहयोग से एक दूसरे  के साथ  सम्मान पूर्वक रहने की बात दोहराई थी. तब ओस्लो में दो लाख लोगों ने घृणा के खिलाफ प्रेम को प्रमुखता देते हुए गुलाब मार्च किया था। अभी हाल में नार्वे में  में रोमानिया से लगभग दो हजार रोमा लोग आर्थिक तंगी से ऊब कर नार्वे  हुए हैं, इनमें से सैकड़ों लोगों भीख मांगकर  अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। रोमा लोगों ने अनेक जगह अपने शिविर-तम्बू तान रखे हैं जहाँ उनके पीने के पानी और शौचालय की समस्या आती है।  पास - पड़ोस के नार्वेजीय लोग इससे परेशान हैं. 6000 लोगों के ओस्लो में एक सर्वेक्षण के अनुसार 74 प्रतिशत लोग भीक मांगने के खिलाफ प्रतिबन्ध के पक्ष में हैं।  स्थानीय लोगों के खिलाफत के बाद नार्वे के प्रधानमंत्री ने रोमा लोगों का बचाव करते हुए उनसे सम्मान पूर्वक व्यवहार करने और विरोध और घृणा को समाप्त करने की बात कही। क्योंकि नार्वे (यहाँ) के मीडिया के अनुसार  सोशल मीडिया में बहुत से लोगों ने नार्वे में हाल ही आये रोमा लोगों के खिलाफ अपने सख्त विचार व्यक्त किये थे।
 ओस्लो की स्थानीय सरकार ने प्रतिबन्ध का प्रस्ताव भी पास किया है पर राष्ट्रीय पार्लियामेंट ने कोई प्रतिबन्ध का क़ानून नहें बनाया है न ही प्रतिबन्ध लगाने को जरूरी समझा है।  ओस्लो के स्थानीय पार्लियेमेंट के पूर्व सदस्य और बिएरके बीदेल में लेबर पार्टी के चुनाव समिति के सदस्य सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'  ने आगे कहा कि भीख मांगने पर प्रतिबन्ध लगाना  समस्या का समाधान नहीं है। हर एक को अपनेलिए सहायता मांगने का अधिकार होना चाहिए। उन्होंने कहा महात्मा गांधी ने हमेशा प्रेम, शांति और अहिंसा को सर्वोपरि रख कर विश्व में शांति स्थापना का कार्य किया जिसका नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग,  दलाई लामा आदि ने अनुसरण किया।
सम्मानित होने वाले लेखकों और सांस्कृतिक कर्मियों जिनको पदक देकर सम्मानित किया गया उनके नाम हैं राजकुमार, राय  भट्टी,  इन्दर खोसला,  सुरागुल घैयरात, सिग्रीद मारिये रेफ्सुम, इंगेर मारिये लिल्लेएंगेन और  चरण सिंह सांगा थे। कार्यक्रम के अंत में कविगोष्टी  संपन हुई. 

सोमवार, 16 जुलाई 2012

नार्वे में लेखक गोष्ठी Velokommen til Forfatterkafe

Velokommen til स्वागतम 
Forfatterkafe  नार्वे में  लेखक गोष्ठी 

Vi markerer 22. juli, ved å lese dikt
og minne de som har mistet liv. 
Suresh Chandra Shukla holder foredrag og
og dikt på hindi, urdu, punjabi og tamil blir lest.
 
torsdag den 19. juli kl. 18:00
på Chilensk kulturhus,  Veitvet senter 
Veitvetveien 8, Oslo

Alle er velkomne.
Arrangør: Indisk-Norsk Informasjons -og Kulturforum
Postboks 31, Veitvet
0595 Oslo 

नार्वे में  लेखक गोष्ठी
लेखक गोष्ठी  में आपका स्वागत है
बृहस्पतिवार  19 जुलाई   को 18:00 बजे 
लेखक गोष्ठी  में आपका स्वागत है 
चिली कल्चर हाउस, वाइतवेत  सेंटर, ओस्लो में 
शोक सभा और कविता पाठ 
भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम 
ओस्लो, नार्वे    
अधिक सूचना एवं संपर्क के लिए : फोन: 22 25 51 57  

शनिवार, 14 जुलाई 2012

कवितायेँ - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'


1
जो दहेज़ देते हैं
जो दहेज़ लेते हैं
जब दोनों ही कायरता
फिर कायर क्यों कहलाना.

जब तक हम आश्रित हैं
आर्थिक स्वतन्त्र नहीं हैं,
पिजड़े के पक्षी सा
परतंत्र सदा रह जाना.

2
वे बुझे हुए दीपक हैं
उनसे क्या आशा रखना
जितना भी उन्हें जलाओ
उनको आता बस बुझना.

गिरकर उठती हैं लहरें
उठकर ही उन्हें संभालना.
जो सदा हवा में उड़ते
क्या जाने भू पर चलना..

ठोकर लगकर ही आया
जीवन में आगे बढ़ना
जिस पथ पर चल कर आये
उसका हिसाब भी रखना..



दारा सिंह खेल की दुनिया में आदर्श पहलवान और हिंदी फिल्मों के पहले सफल बलशाली अभिनेता थे - सुरेशचंद्र शुक्ल

दारा  सिंह खेल की दुनिया में आदर्श पहलवान और हिंदी फिल्मों के  पहले  सफल  बलशाली  अभिनेता थे - सुरेशचंद्र शुक्ल

दारा सिंह अपने समय के सफल पहलवान थे उनकी अंतर्राष्ट्रीय कुश्ती देखने के लिए स्टेडियम तक दर्शकों से भर जाते थे।  फिल्मों में   इतने आकर्षक  थे मुमताज ने उनके साथ 16 फिल्मो में अभिनय तो किया ही  साथ ही  दारा सिंह से शादी का प्रस्ताव भी रखा.  आम लोगों से लेकर खास लोग भी उनके प्रशंसक  थे। फिल्म अभिनेता मनोज कुमार ने उन्हें एक फ़रिश्ता कहा।  आइये पढ़िए दारा सिंह के बारे में एक लेख - सुरेशचंद्र शुक्ल
दारा सिंह ने खेल और मनोरंजन की दुनिया में समान रुप से नाम कमाया
दारा सिंह ने खेल और मनोरंजन की दुनिया में समान रुप से नाम कमाया और अपने काम का लोहा मनवाया। यही वजह है कि उन्हें अभिनेता और पहलवान दोनों तौर पर जानते हैं। अखाड़े से फिल्मी दुनिया तक का सफर दारा सिंह के लिए काफी चुनौती भरा रहा। बचपन से ही पहलवानी के दीवाने रहे दारा सिंह का पूरा नाम दारा सिंह रंधावा है। हालांकि चाहनेवालों के बीच वे दारा सिंह के नाम से ही जाने गए। सूरत सिंह रंधावा और बलवंत कौर के बेटे दारा सिंह का जन्म ( 19 नवंबर 1928 -12 जुलाई 2012) को पंजाब के अमृतसर के धरमूचक (धर्मूचक्क/धर्मूचाक/धर्मचुक) गांव के जाट-सिख परिवार में हुआ था। उस समय देश में अंग्रेजों का शासन था। दारा सिंह के पिताजी बाहर रहते थे। दादाजी चाहते कि बडा होने के कारण दारा स्कूल न जाकर खेतों में काम करे और छोटा भाई पढाई करे। इसी बात को लेकर लंबे समय तक झगडा चलता रहा। वह हंसते हुए बताते हैं, मां मेरे उठने से पहले मेरा बस्ता छुपा देतीं ताकि मैं दादाजी का कहना मान खेतों पर चला जाऊं।




दारा सिंह ने अपनी जीवन के शुरूआती दौर में ही काफी मुश्किलें देखी हैं। अपनी किशोर अवस्था में दारा सिंह दूध व मक्खन के साथ 100 बादाम रोज खाकर कई घंटे कसरत व व्यायाम में गुजारा करते थे। कम उम्र में ही दारा सिंह के घरवालों ने उनकी शादी कर दी। नतीजतन महज 17 साल की नाबालिग उम्र में ही एक बच्चे के पिता बन गए लेकिन जब उन्होंने कुश्ती की दुनिया में नाम कमाया तो उन्होंने अपनी पसन्द से दूसरी शादी सुरजीत कौर से की।



आज दारा सिंह के भरे-पूरे परिवार में तीन बेटियां और तीन बेटे हैं। उन्हें टीवी धारावाहिक रामायण में हनुमानजी के अभिनय से अपार लोकप्रियता मिली जिसके परिणाम स्वरूप 2003 में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता भी प्रदान की। दारा सिंह 2003 से 2009 तक राज्यसभा के सासद रह चुके हैं। 1978 में दारा सिंह को रुस्तम-ए-हिंद के खिताब से नवाजा गया।

कुश्ती में
दारा सिंह अपने जमाने के विश्व प्रसिद्ध फ्रीस्टाइल पहलवान हैं। साठ के दशक में पूरे भारत में उनकी फ्री स्टाइल कुश्तियों का बोलबाला रहा। दारा सिंह को पहलवानी का शौक बचपन से ही था। बचपन अपने फार्म पर काम करते-करते गुजर गया, जिसके बाद ऊंचे कद मजबूत काठी को देखते हुए उन्हें कुश्ती लड़ने की प्रेरणा मिलती रही। दारा सिंह ने अपने घर से ही कुश्ती की शुरूआत की। दारा सिंह और उनके छोटे भाई सरदारा सिंह ने मिलकर पहलवानी शुरू कर दी और धीरे-धीरे गांव के दंगलों से लेकर शहरों में कुश्तियां जीतकर अपने गांव का नाम रोशन करना शुरू कर दिया और भारत में अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश में जुट गए।
दारा सिंह ने अखाड़े में पहलवानी सीखी। उस दौर में दारा सिंह को राजा महाराजाओं की ओर कुश्ती लड़ने का न्यौता मिला करता था। हाटों और मेलों में भी कुश्ती की और कई पहलवानों को पटखनी दी।
आजादी के दौरान 1947 में दारा सिंह सिंगापुर पहुंचे। वहां रहते हुए उन्होंने भारतीय स्टाइल की कुश्ती में मलेशियाई चैंपियन त्रिलोक सिंह को पराजित कर कुआलालंपुर में मलेशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप जीती। उसके बाद उनका विजयी रथ अन्य देशों की ओर चल पड़ा और एक पेशेवर पहलवान के रूप में सभी देशों में अपनी कामयाबी का झंडा गाड़कर वे 1952 में भारत लौट आए। करीब पांच साल तक फ्री स्टाइल रेसलिंग में दुनियाभर (पूर्वी एशियाई देशों) के पहलवानों को चित्त करने के बाद दारा सिंह भारत आकर सन 1954 में भारतीय कुश्ती चैंपियन (राष्ट्रीय चैंपियन) बने। दारा सिंह ने उन सभी देशों का एक-एक करके दौरा किया जहां फ्रीस्टाइल कुश्तियां लड़ी जाती थीं।
इसके बाद उन्होंने कॉमनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैंपियन किंग कॉन्ग को भी धूल चटा दी। दारा सिंह की लोकप्रियता से भन्नाए कनाडा के विश्व चैंपियन जार्ज गार्डीयांका और न्यूजीलैंड के जॉन डिसिल्वा ने 1959 में कोलकाता में कॉमनवेल्थ कुश्ती चैंपियनशिप में उन्हें खुली चुनौती दे डाली। नतीजा वही रहा। यहां भी दारा सिंह ने दोनों पहलवानों को हराकर विश्व चैंपियनशिप का खिताब हासिल किया।
कॉमनवेल्थ चैपियनशिप के बाद दारा सिंह का मिशन था पूरी दुनिया को अपना दम-खम दिखाना। भारत के इस पहलवान ने दुनिया के लगभग हर देश के पहलवान को चित किया। आखिरकार अमेरिका के विश्व चैंपियन लाऊ थेज को 29 मई 1968 को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैंपियन बन गए। कुश्ती का शहंशाह बनने के इस सफर में दारा सिंह ने पाकिस्तान के माज़िद अकरा, शाने अली और तारिक अली, जापान के रिकोडोजैन, यूरोपियन चैंपियन बिल रॉबिनसन, इंग्लैंड के चैपियन पैट्रॉक समेत कई पहलवानों का गुरूर मिट्टी में मिला दिया।
1983 में कुश्ती से रिटायरमेंट लेने वाले दारा सिंह ने 500 से ज्यादा पहलवानों को हराया और खास बात ये कि ज्यादातर पहलवानों को दारा सिंह ने उन्हीं के घर में जाकर चित किया। उनकी कुश्ती कला को सलाम करने के लिए 1966 में दारा सिंह को रुस्तम-ए-पंजाब और 1978 में रुस्तम-ए-हिंद के खिताब से नवाज़ा गया।
दारा सिंह ने करीब 36 साल तक अखाड़े में पसीना बहाया और अब तक लड़ी कुल 500 कुश्तियों में से दारा सिंह एक भी नहीं हारे, जिसकी बदौलत उनका नाम ऑब्जरवर न्यूजलेटर हॉल ऑफ फेम में दर्ज है। दारा सिंह की कुश्ती के दीवानों में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समेत कई दूसरे प्रधानमंत्री भी शामिल थे। सही मायने में दारा सिंह कुश्ती के दंगल के वो शेर थे, जिनकी दहाड़ सुनकर बड़े-बड़े पहलवानों ने दुम दबाकर अखाड़ा छोड़ दिया।



कुश्ती के करियर को खत्म करने से पहले दारा सिंह ने सोच लिया था कि अब उन्हें क्या करना है। सामने कामयाबी का एक और रास्ता दिखाई दे रहा था। चुनौतियां तो थीं लेकिन दारा सिंह को तो मुश्किलों से जूझने में मानो मजा आने लगा था लिहाजा वो निकल पड़े बॉलीवुड के सफर पर।

फिल्मी पिछले 60 साल में दारा सिंह ने हिंदुस्तान के दिल पर राज किया है। आज की पीढ़ी को शायद अंदाज़ा भी ना हो कि अखाड़े से अदाकारी के मैदान में उतरे दारा सिंह बॉलीवुड के पहले हीमैन माने जाते हैं। वो टारजन सीरीज़ की फिल्मों के हीरो रहे हैं। फिल्म अभिनेत्री मुमताज का करियर संवारने में भी सबसे बड़ा सहारा दारा सिंह का साथ ही साबित हुआ।
बॉलीवुड में बॉडी दिखाकर स्टारडम पाने का रास्ता ना खुलता, अगर दारा सिंह ना होते। जी हां, बॉलीवुड में आज हर सुपरस्टार पर शर्ट खोलकर मसल्स दिखाने की जो धुन सवार है, वो चलन शुरू हुआ था दारा सिंह के जरिए। जिस वक्त पूरी दुनिया में दारा सिंह की पहलवानी का सिक्का चल रहा था, तब 6 फीट 2 इंच लंबे इस गबरू जट्ट पर बॉलीवुड इस कदर फिदा हुआ कि पहलवान दारा सिंह बन गए एक्टर दारा सिंह।
आज भी बॉलीवुड दारा सिंह को उस सितारे के तौर पर जानता है, जिसकी शोहबत में आने के बाद ही मुमताज जैसी अदाकारा शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचीं। दारा सिंह अपनी मजबूत कद काठी की वजह से फिल्मों में आए। दारा सिंह ने अपने समय की मशहूर अदाकारा मुमताज के साथ हिंदी की स्टंट फिल्मों में प्रवेश किया और कई फिल्मों में अभिनेता बने। यही नहीं कई फिल्मों में वह निर्देशक व निर्माता भी बने। दारा सिंह ने कई हिंदी फिल्मों का निर्माण किया और उसमें खुद हीरो रहे। दारा सिंह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में कई फिल्मों में नायक के तौर पर नज़र आ चुके हैं।
दारा सिंह की पहली फिल्म ‘संगदिल’ 1952 में रिलीज़ हुई, जिसमें दिलीप कुमार और मधुबाला लीड रोल में थे। 1955 में वो फिल्म ‘पहली झलक’ में पहलवान बनकर आए, जिसमें मुख्य किरदार किशोर कुमार और वैजयंती माला ने निभाया था। कुश्ती और फिल्मों में एक साथ मौजूदगी दर्ज़ कराते रहे दारा सिंह की बतौर हीरो पहली फिल्म थी ‘जग्गा डाकू.’ जिसके बाद वो बॉलीवुड के पहले एक्शन हीरो के तौर पर छा गए।
उनकी असल पहचान बनी 1962 में आई फिल्म ‘किंग कॉन्ग’ से। इस फिल्म ने उन्हें शोहरत के आसमान पर पहुंचा दिया। ये फिल्म कुश्ती पर ही आधारित थी। किंग कांग के बाद रुस्तम-ए-रोम, रुस्तम-ए-बगदाद, रुस्तम-ए-हिंद आदि फिल्में कीं। सभी फिल्में सफल रहीं। मशहूर फिल्म आनंद में भी उनकी छोटी-सी किंतु यादगार भूमिका थी। उन्होंने कई फिल्मों में अलग-अलग किरदार निभाए हैं। साल 1966 में दारा की पहली फिल्म नौजवान आई।
वर्ष 2002 में शरारत, 2001 में फर्ज, 2000 में दुल्हन हम ले जाएंगे, कल हो ना हो, 1999 में ज़ुल्मी, 1999 में दिल्लगी और इस तरह से अन्य कई फिल्में। अपने 60 साल लंबे फिल्मी करियर में दारा सिंह ने 100 से ज्यादा फिल्मों में काम किया जिनमें सबसे ज्यादा 16 फिल्में अभिनेत्री मुमताज के साथ की।
मुमताज के साथ दारा सिंह की जोड़ी बनी 1963 में फिल्म ‘फौलाद’ से। शोख-चुलबुली मुमताज और हीमैन दारा सिंह की जोड़ी का जादू करीब पांच साल तक सिल्वर स्क्रीन पर छाया रहा। दारा सिंह और मुमताज ने ‘वीर भीमसेन’, ‘हरक्यूलिस’, ‘आंधी और तूफान’, ‘राका’, ‘रुस्तम-ए-हिंद’, ‘सैमसन’, ‘सिकंदर-ए-आज़म’, ‘टारज़न कम्स टु डेल्ही’, ‘टारज़न एंड किंगकांग’, ‘बॉक्सर’, ‘जवां मर्द’ और ‘डाकू मंगल सिंह’ समेत करीब डेढ़ दर्ज़न फिल्मों में साथ काम किया।
उम्र जब तक ढली नहीं, तब तक दारा सिंह बॉलीवुड में एक्शन और धार्मिक फिल्में बनाने वाले फिल्मकारों के सबसे पसंदीदा कलाकार बने रहे और उम्र ढ़लने के बाद वो बन गए सुपरस्टार के बाप। कुश्ती के बाद दारा सिंह को सबसे ज़्यादा प्यार फिल्मों से ही रहा। उन्होंने मोहाली के पास दारा स्टूडियो बनाया और ढे़र सारी फिल्में भी।
उन्होंने पहली फिल्म बनाई अपनी मातृभाषा पंजाबी में नानक दुखिया सब संसार। भक्ति भावना वाली यह फिल्म जबर्दस्त हिट रही। इसके बाद ध्यानी भगत, सवा लाख से एक लडाऊं व भगत धन्ना जट्ट आदि फिल्मों का निर्माण भी उन्होंने किया। अब तक करीब सवा सौ फिल्मों में काम कर चुके हैं वह, धारावाहिकों में अभी भी लगातार काम कर रहे हैं।
दारा सिंह ने हिंदी और पंजाबी में 8 फिल्में प्रोड्यूस कीं, 8 फिल्मों का निर्देशन किया और 7 फिल्मों की कहानी भी खुद ही लिखी। सौ से ज़्यादा फिल्मों में अदाकारी कर चुके दारा सिंह की आखिरी यादगार फिल्म थी 2007 में इम्तियाज अली की फिल्म ‘जब वी मेट’, जिसमें उन्होंने करीना कपूर के दादाजी का किरदार निभाया। वो आखिरी दम तक फिल्मों में जुड़ा रहना चाहते थे, लेकिन बढ़ती उम्र और बिगड़ती सेहत साथ नहीं दे रही थी, लिहाज़ा दारा सिंह ने 2011 में लाइट-कैमरा और एक्शन को अलविदा कह दिया।
कोई एक किरदार कैसे किसी की मुकम्मल पहचान बदल देता है, इसकी मिसाल हैं दारा सिंह। सीरियल रामायण में हनुमान के किरदार ने उन्हें घर-घर में ऐसी पहचान दी कि अब किसी को याद भी नहीं कि दारा सिंह अपने ज़माने के वर्ल्ड चैंपियन पहलवान थे।
ये वो किरदार है, जिसने पहलवान से अभिनेता बने दारा सिंह की पूरी पहचान बदल दी। 1986 में रामानंद सागर के सीरियल रामायण में दारा सिंह हनुमान के रोल में ऐसे रच-बस गए कि इसके बाद कभी किसी ने किसी दूसरे कलाकार को हनुमान बनाने के बारे में सोचा ही नहीं।
रामायण सीरियल के बाद आए दूसरे पौराणिक धारावाहिक महाभारत में भी हनुमान के रूप में दारा सिंह ही नज़र आए। 1989 में जब ‘लव कुश’ की पौराणिक कथा छोटे परदे पर उतारी गई, तो उसमें भी हनुमान का रोल दारा सिंह ने ही किया। 1997 में आई फिल्म ‘लव कुश’ में भी हनुमान बने दारा सिंह।

दिलचस्प बात ये है कि बॉलीवुड को अपने हनुमान उन दारा सिंह में दिखे, जिनकी फिल्मी पारी पहलवान और डाकू जैसी भूमिकाओं से शुरू हुई थी। बाद में वो राजा और रोमांस के राजकुमार भी बने। और जब 1960 और 70 के दशक में पौराणिक फिल्मों का दौर लौटा, तो दारा सिंह की कदकाठी देखते हुए उन्हें कभी भीम बनाया गया, कभी बलराम तो कभी महादेव शिव।
1964 में फिल्म ‘वीर भीमसेन’ में दारा सिंह ने भीम का रोल निभाया। अगले साल आई फिल्म ‘महाभारत’ में भी दारा सिंह ही भीम बने। 1968 में फिल्म ‘बलराम श्रीकृष्ण’ में दारा सिंह कृष्ण के बड़े भाई बलराम की भूमिका में नज़र आए। 1971 में फिल्म ‘तुलसी विवाह’ में दारा सिंह पहली बार भगवान शिव के रोल में सामने आए। भगवान शिव की भूमिका उन्होंने ‘हरि दर्शन’ और ‘हर-हर महादेव’ में भी निभाई।
दारा सिंह को पहली बार हनुमान बनाया निर्माता-निर्देशक चंद्रकांत ने। 1976 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘बजरंग बली’ में दारा सिंह हनुमान की भूमिका में थे। इस फिल्म में तब तक चॉकलेटी हीरो विश्वजीत राम के रोल में थे, जबकि लक्ष्मण की भूमिका शशि कपूर ने निभाई और रावण बने थे प्रेमनाथ।
‘बजरंग बली’ रिलीज़ होने के बारह साल साल बाद जब रामायण सीरियल शुरू हुआ, तो रामानंद सागर के जेहन में हनुमान के रोल को लेकर कोई दुविधा नहीं थी। वो पूरी तरह इस बात से सहमत थे कि हनुमान की भूमिका के लिए दारा सिंह से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता।
एक सफल पहलवान, एक सफल अभिनेता, निर्देशक और निर्माता के तौर पर दारा सिंह ने अपने जीवन में बहुत कुछ पाया और साथ ही देश का गौरव बढ़ाया
1947 में दारा सिंह सिंगापुर आ गये। वहाँ रहते हुए उन्होंने भारतीय स्टाइल की कुश्ती में मलेशियाई चैम्पियन तरलोक सिंह को पराजित कर कुआला लंपुर में मलेशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप जीती। उसके बाद उनका विजय रथ अन्य देशों की चल पड़ा और एक पेशेवर पहलवान के रूप में सभी देशों में अपनी धाक जमाकर वे 1952 में भारत लौट आये। भारत आकर सन 1954 में वे भारतीय कुश्ती चैम्पियन बने।
उसके बाद उन्होंने कामनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैम्पियन किंगकांग को परास्त कर दिया। बाद में उन्हें कनाडा और न्यूजीलैण्ड के पहलवानों से खुली चुनौती मिली। अन्ततः उन्होंने.कलकत्ता में हुई कामनवेल्थ कुश्ती चैम्पियनशिप में कनाडा के चैम्पियन जार्ज गार्डियान्को एवं न्यूजीलैण्ड के जान डिसिल्वा को धूल चटाकर यह चैम्पियनशिप भी अपने नाम कर ली। यह 1959.की घटना है।
दारा सिंह ने उन सभी देशों का एक-एक करके दौरा किया जहाँ फ्रीस्टाइल कुश्तियाँ लड़ी जाती थीं। आखिरकार अमरीका के विश्व चैम्पियन लाऊ थेज को 29 मई 1968 को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैम्पियन बन गये। 1983 में उन्होंने अपराजेय पहलवान के रूप में कुश्ती से सन्यास ले लिया।
जिन दिनों दारा सिंह पहलवानी के क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त कर चुके थे उन्हीं दिनों उन्होंने अपनी पसन्द से दूसरा और असली विवाह सुरजीत कौर नाम की एक एम०ए० पास लड़की से किया। आज दारा सिंह के भरे-पूरे परिवार में तीन बेटियाँ और दो बेटे हैं।
12 जुलाई 2012 को कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी अस्पताल मुम्बई में उनका निधन हो गया।

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

नार्वे में हिंदी स्कूल का वार्षिक कार्यक्रम


नार्वे में हिंदी स्कूल का वार्षिक कार्यक्रम 'मधुरम'  धूमधाम से  संपन्न
  
चित्र में हिन्दी के लेखक  सुरेशचन्द्र शुक्ल हिन्दी स्कूल के अध्यापिकाओं को उनके योगदान के लिए प्रतीक चिन्ह देते हुए। 




ओस्लो,, नार्वे में हिंदी स्कूल के शिक्षार्थी 'हमको ऐसी शक्ति देना' प्रार्थना प्रस्तुत करते हुए.  कविता, नित्य के अतिरिक्त कार्यक्रम में तीन एकांकी प्रस्तुत किये गए. कार्यक्रम के अंत में सभी ने मिलकर  भारत का राष्ट्रीयगान प्रस्तुत किया। भारतीय संस्कृति को अपने बच्चों को सिखाने के लिए हिन्दी स्कूल हर संभव प्रयास कर रहा है। हिन्दी स्कूल नार्वे पर सभी को गर्व होना चाहिए।

रविवार, 1 जुलाई 2012