शनिवार, 12 अक्तूबर 2013

 अपने में मस्त  अभिमन्यु अनथ को बहुत बधायी - शुभकामनायें

 

 अपने में मस्त रहने वाले लेखक हैं अभिमन्यु अनथ. चाहे वह १९ ९३ में मारीशस की अपनी धरती पर  या वह लन्दन, यू के में सम्पन्न संपन्न विश्व हिन्दी सम्मलेन हो. 

विश्व हिंदी पत्रिका- दीप्ति गुप्ता के ई-पत्र से  समाचार प्राप्त  कर अति प्रसन्नता हुई कि मारीशस के मशहूर साहित्यकार साथी अभिमन्यु अनत को भारत में साहित्य अकादमी द्वारा मानद महत्तर सदस्यता का सर्वोच्च सम्मान दिया गया है जो इसके लिए सम्माननीय पात्र हैं.

महान मारीशस की भूमि सदा ही हिन्दी के लिए उर्वरा रही है और महात्मा गांधी संस्थान, मोका और वसंत इसके अनेक उदाहरणों में से एक है. आगे चलकर कुछ वर्षों से विश्व हिन्दी सचिवालय ने भी हिन्दी के लिए अनेक उपक्रम कर रही हैं.  जो लोग मारीशस गए हैं या जो मारीशस के हिन्दी प्रेमियों से मिले हैं वे जानते हैं कि मारीशस के संस्कृतिकर्मियों और राजनीतिज्ञों में हिन्दी और भारत के प्रति सम्मान है हम भारतीय लोग भी मारीशस को बहुत सम्मान से देखते हैं.  श्री राजनारायण गति जी, मुकेश्वर चुन्नी जी, भी अभिमन्यु जी की तरह अनेको कार्यक्रमों में मिले हैं और पूरी सहानभूति और स्नेह दिया है. सरिता बुधू को भी भूलना आसान नहीं है. जगदीश  गोबर्धन भी भाषा को लेकर गतिशील रहते हैं. 

भारत से बाहर रहकर विदेशी जमीन पर बैठकर हिन्दी में साहित्य सृजन हिन्दी और  में करना सराहनीय और नयी चुनौतियों से भरा है. पर नार्वे में हमको वह स्थिति और वातावरण नहीं मिला फिर भी हिन्दी साहित्य के सृजन के साथ-साथ हिन्दी की शिक्षा देकर नयी पीढी को हिन्दी से अवगत कराना तथा पत्रिकाएं निकाल कर उसमें सभी हिन्दी और नार्वेजीय भाषियों को जोड़ना उन्हें अभिव्यक्ति देना कुछ हमारी निजी गतिविधियों में से है. नार्वे में हमारी पत्रिका स्पाइल-दर्पण इस वर्ष अपने २५ वर्ष पूरे कर रही है तब और भी सुखद लगता है कि भारत के बाहर हिन्दी की सेवा में लगे रहना कितना सुखकर मिशन है. 
सन १९९० में जब मैंने एक अंतर्राष्ट्रीय समारोह में भाग लिया था तब राजेन्द्र अवस्थी के पुत्र और वर्तमान में आथर्स गिल्ड आफ इंडिया के महामंत्री शिव शंकर अवस्थी के साथ उनके मारीशस में स्थित निवास पर  गया था.  राजेन्द्र  अवस्थी जी वहां पहले से उपस्थित थे.  साथ-साथ भोजन भी किया और विचार-विमर्श भी हुआ था. उनके आँगन में बागीचे में कुछ चित्र भी खींचे गये. एक चित्र उर्दू की पत्रिका 'बाजगश्त'  में सन १९९० में छपा था उसी पत्रिका में जैनेद्र कुमार के साथ लिया गया चित्र भी सन १९८५ में छपा था जिसमें मैं और ऐनक लगाए जैनेन्द्र जी कोकाकोला साथ पी रहे थे. अभिमन्यु अनत से अनेक साहित्यिक समारोहों में मिला जिसमें लन्दन में हुए सन १९९९ में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन और एक वर्ष पूर्व फोन पर मुम्बई में फोन पर कपिल कविराय के निवास पर फोन से बात हुई थी.
अपने मित्र अभिमन्यु अनत और साहित्य अकादमी को बहुत बधायी-शुभकामनायें और धन्यवाद देता हूँ उनके सहयोग और योगदान के लिए.  शेष आगामी ब्लाक में पढ़िये। 
सुरेशचन्द्र शुक्ल ´शरद आलोक´
सम्पादक, स्पाइल-दर्पण
POSTBOX 31, VEITVET
0518- OSLO
NORWAY

रविवार, 6 अक्तूबर 2013

डायरी 06-10-13, Oslo

मुझे अपनी डायरी लिखनी चाहिये। 

मुझे आलोचक और प्रेमचंद पर विशद साहित्य लिखने वाले कमल किशोर गोयनका जी ने कहा था की मुझे अपनी डायरी लिखनी चाहिये।  अतः जो कुछ स्मरण है और चाह रहा हूँ लिख रहा हूँ. 
कल शनिवार था, ५ अक्टूबर २०१३, ओस्लो में मौसम बहुत खूबसूरत था. दिन सामान्य था कवितामय था तो एक विवाहोत्सव में जाना था.
मेरे घर के पीछे मित्रो स्टेशन वाइतवेत है जो इस क्षेत्र का भी नाम है.. मैट्रो   से सेंटर गया. मैंने अकेले एक परिक्रमा की ओस्लो सेंटर की. नगर के मध्य में अनेक कार्यक्रम आयोजित थे. फोल्केतहूस 'ओस्लो कांफ्रेंस सेंटर' में विभिन्न परिधान पहने सैकड़ों सुन्दर और विचित्र भेष-भूषा में आकर्षक युगल, ग्रुप आदि जा रहे थे एक विशाल कार्यक्रम में.  
काव्य संध्या  
शाम छ: बजे स्तोवनेर, ओस्लो में स्थित फोस्सुमगोर में एक काव्यसंध्या थी. कार्यक्रम १८:४० पर शुरू हुआ चालीस मिनट देरी से.  लगभग तीस लोग उपस्थित थे. वहां मैंने अपनी तीन नार्वेजीय कवितायें सुनायी साथ ही लोगों को एक हिन्दी कविता भी सुनायी जिससे लोगों को हिन्दी-उर्दू का भी आनन्द मिले।  


डैनियल और प्रीती के विवाह के रिसेप्शन/प्रीत भोज में  
बड़ा अच्छा लगता है जब किसी उस व्यक्ति की शादी में शामिल होना जिसे आपने जन्म से लेकर विवाह तक देखा हो तो बात और होती है. कल वहां पर मैंने उस युवती के विवाह पर अपनी एक कविता लिखी और आशीर्वाद रूप सुनायी। यह युवती और कोई नहीं चरणजीत और अंजू की बेटी है जो कभी विवाह के पूर्व चरणजीत (चन्नी) वाइतवेत, ओस्लो में  जहाँ मैं रहता हूँ उसी के पास रहते थे.
डैनियल और प्रीती की जोड़ी को दिया अपनी बेटी संगीता और माया भारती के साथ जाकर दिया आशीर्वाद!
चित्र विहीन बचपन 
यदि मैं अपने बचपन पर निगाह डालता हूँ तो मेरा बचपन एक तरह चित्र विहीन रहा है.  कक्षा तीन में पढता था तब सहपाठियों के साथ एक सामूहिक चित्र खींचा गया था. वह भी पैसे के अभाव में नहीं ले सका था. परन्तु जब हाईस्कूल में आया तब से चित्र का शौक ही ऐसा हुआ की चित्र की धीरे-धीरे कमी दूर हो गयी.क्योकि पढाई के साथ-साथ मैं रेलवे के मालडिब्बे और सवारी डिब्बे कारखाने में काम करने लगा था.  
बल्कि अभी कुछ वर्षों से ऐसा हुआ है कि वहुत से समृद्ध (पैसे से समृद्ध) लोगों के पास अपने मृत्यु प्राप्त करने वाले व्यक्ति के चित्र नहीं थे अतः उन्होंने मेरा सहयोग लिया और मुझसे अपने दिवंगत लोगों के चित्र प्राप्त किये जो मैंने अनेक अवसरों पर लिए थे. आदमी मना नहीं कर पाता।
बड़ी विडंबना है. एक कविता साझा कर रहा हूँ: 
एक कविता
"मृत्यु प्रमाण पत्र,
इन्हीं से मिलने हैं बीमा का धन, सुपुत्र!
धन की खबर कभी उनको दी ही नहीं
जिनके थे वे हकदार कुपुत्र!
लड़की का बराबर हक़ है अपने माता-पिता की छोड़ी जायजाद में?
बेटों को भी नहीं बक्शते, हट्टे खट्टे, मुश्टंडे,
स्त्री विमर्श और दलित विमर्श के ठेकेदार अमीर विचित्र! "
 
दलित- स्त्री विमर्श
मैंने दो अध्यापन  करने वाले दलित विद्वानों के घर पर बालकों को कार्य करते देखा तो हैरान हो गया. क्या बाल मजदूरी  कराना अच्छा है? क्या अच्छा है,  मेरे पूछने पर भी उन्हें साथ बैठने और चाय पीने की पेशकश ठुकरा देना।  उन्हें हमारे साहित्य में दलित, स्त्री विमर्श कम दीखता है शायद उन्होंने स्वयम जातिवादी चश्में पहन रखें हैं जो आज तर्कसंगत नहीं है.
दुनिया कहाँ से  कहाँ तरक्की कर  आगे बढ़ रही है और हम अभी भी दकियानूसी ख्यालों में जकड़े हैं? और कब तक?
ऐसा ही जब मैंने मेरठ में डा महेश दिवाकर जी के साथ श्री सिसौदिया जी के निवास पर सफाई कर्मचारी को कुर्सी देने का आग्रह किया तो वहां उन्हें कोई दिक्कत नहीं हुई, उन्हें बैठाया और चाय पिलाई, और बताया कि ये तो इनका घर है चाहे जब चाय पी सकती हैं और चाय पीती भी रहती हैं. 
गंज बासौदा में श्री संजीव कुमार जैन के महाविद्यालय द्वारा  विश्वविद्यालय आयोग के सहयोग से आयोजित तीन दिवसीय सम्मलेन में जिसका विषय था कि 'हिन्दी उपन्यासों में भूमंडलीकरण' वहां मैं भी एक सत्र में मुख्या वक्ता था. इसका जिक्र इस लिए कर रहा हूँ की दो बातें  कहनी हैं. एक सेमीनार में स्त्री विमर्श को लेकर मेरा नार्वे के सन्दर्भ में वक्तव्य और कमलेश्वर के उपन्यासों 'समुद्र में खोया आदमी' और 'कितने पाकिस्तान' पर मेरा  आलोचनात्मक वक्तव्य.
सेमीनार के बाद दूसरी बात तब की है जब मैं अपने मित्र राजेन्द्र रघुवंशी जी के साथ उनके सम्बन्धियों के घर गंज बासौदा में ही उनके निवास पर गया तो लगा कि किसी पुराने जमीदार के घर पर आ गया हूँ. आवाभगत के बाद बाहर देखा कि तीन महिला सफाईकर्मी झाड़ू लगा रही थीं. उस समय जो परिचर्चा हुई उसी से जन्मी मेरी कविता 'पर्यावरण की देवी' जो कविता संग्रह 'गंगा से ग्लोमा' में संग्रहित है.
परिचर्चा जारी रहेगी। . . . . . . आगामी पोस्ट में देखिये!