विश्व हिंदी सम्मलेन न्यूयार्क, अमरीका २००७ के एक चित्र में कन्हैया लाल नंदन जी बाएं से अशोक चक्रधर, शरद आलोक, शेर बहादुर सिंह, शमशेर अहमद खान, प्रो कालीचरण स्नेही और कन्हैया लाल नंदन
७७ वर्ष की आयु में आज दिल्ली में हमारे प्रिय मित्र साथी अपने परिवार में दो बेटियों पत्नी और सभी हिंदी प्रेमियों को सदा के लिए छोड़कर चले गए। दिनमान, सारिका, पराग, नवभारत टाइम्स, सन्डे मेल , बहुत सी पत्र पत्रिकाओं के सलाहकार, अतिथि संपादक और अनेकों देश - विदेश की संस्थाओं के पदाधिकारी आदर्श लेखक, संवेदनशील कवि और पत्रकार कन्हैया लाल नंदन के जाने से हिंदी जगत को बहुत धक्का लगा है। डॉ कमल किशोर गोयनका जी की तरह नंदन जी का संपादन विश्व हिंदी सम्मलेन में 'गगनांचल' और अन्य परिकाओं -स्मारिकाओं में अद्वितीय था। वर्तमान समय में उनके जैसा दूसरा हिंदी लेखक नहीं है। वह अपने आप में अनोखे थे।
अभी परसों की बात
अभी परसों यानि २२ सितम्बर को अपने लेखक मित्र और चंडीगढ़, पंजाब से निकलने वाली पत्रिका 'प्रथम इम्पैक्ट' के राजनीति-संपादक कृपाशंकर जी के साथ अंसारी रोड दरिया गंज में टहल रहा था। मैं भी ' प्रथम इम्पैक्ट' पाक्षिक पत्रिका में विशेष संवाददाता हूँ। कृपाशंकर जी ने बताया और कहा कि वह देखो पहले यहाँ 'सारिका' और 'दिनमान' पत्रिका का कार्यालय हुआ करता था। तो मैंने उन्हें बताया कि यहाँ मैं सन १९८५ में कन्हैया लाल नंदन से मिलने आया था। और १९८६ में यहाँ पर ही सारिका के संपादक अवध नारायण मुदगल से मिलने आया था। मुदगल जी के साथ-साथ आगरा में कैंट होटल में एक साथ ठहरा था और एक बार मेरा और मुदगल जी का लखनऊ में 'नवभारत टाइम्स' में साक्षात्कार भी लिया गया था। पता चला कि मुदगल जी भी आजकल बीमार चल रहे हैं। इसी अवसर पर एक और रोचक बात कहना चाहता हूँ। सन १९८५ में मेरी विदेशी नार्वेजीय युवती पर आधारित कहानी 'आसमान छोटा है' सारिका में छपने के लिए स्वीकृत हुई थी। मेरी मुलाकात तत्कालीन कादंबिनी के संपादक राजेंद्र अवस्थी से हुई। अवस्थी जी ने मुझसे सारिका से कहानी वापस लेकर अपने यहाँ कहानी विशेषांक में छापने का आश्वाशन दिया। मैंने कहानी की दूसरी प्रति कादम्बिनी में दे दी । व्यस्तता के कारण मैं सारिका से संपर्क नहीं कर सका और फलस्वरूप यह कहानी दोनों पत्रिकाओं में छप गयी। इस पर मेरे पास बहुत से पत्र आये। मुदगल जी जिस दौर में सारिका के संपादक बने थे वह हिंदी कहानी में उतार - चढ़ाव का दौर था।
घनिष्ट सम्बन्ध नंदन जी से मेरा परिचय पुराना है। पर उनसे मेरे सम्बन्ध लन्दन में होने वाले छठे विश्व हिंदी सम्मलेन से अधिक घनिष्ट हुए। अक्सर मेरी बातचीत यानि तीन या छ महीने में एक बार हुआ करती थी वह भी फोन पर। इसी वर्ष मेरी उनसे अंतिम बातचीत उनके लन्दन में एक साहित्यिक कार्यक्रम के आगमन पर हुई थी। वह कहते थे कि प्रवासी लेखकों को भी सम्मान मिले। इसपर उन्होंने मुझसे भी बातचीत की थी। लन्दन में डॉ सत्येन्द्र श्रीवास्तव उनके अच्छे मित्रों में थे।
नंदन जी विश्व हिंदी सम्मलेन में रात के समय अक्सर लन्दन में अपने मित्र के घर चले जाते थे। मुझे जिन हिंदी के लेखकों ने विश्व हिंदी सम्मलेन में प्रभाव डाला उसमें नामवर सिंह, कमलेश्वर, कन्हैया लाल नंदन, नरेन्द्र मोहन (जागरण के संपादक) और विद्या निवास मिश्र प्रमुख थे। मेरे कमरे में कमलेश्वर, विजय प्रकाश बेरी, गंगा प्रसाद 'विमल', जगदीश चतुर्वेदी, विदेशों और दक्षिण भारत के अनगिनत विद्वान आते थे क्योंकि वे अपनी उपस्थिति के रूप में मुझे अपना आशीष देना चाहते थे। मैं सोचता था उत्तर भारत के विद्वान तो मुझे कभी न कभी मिल ही जायेंगे पर विदेशी हिंदी सेवी और अहिन्दी भाषी भार- तीय विद्वान इतनी आसानी से नहीं मिलेंगे जिनका हिंदी के अंतर्राष्ट्रीय प्रचार-प्रसार में बहुत महत्व है।
एक वाक्या मुझे छठे विश्व हिंदी सम्मलेन का स्मरण आ रहा है। उद्घाटन सत्र था। जिसमें विद्या निवास मिश्र, दैनिक जागरण के मेरे मित्र नरेन्द्र मोहन, विदेश राज्य मंत्री विजय राजे सिंधिया, डॉ लक्ष्मी मल सिंघवी, प्रकाशक विजय प्रकाश बेरी, नामवर सिंह, रुपर्ट स्नेल, डॉ विद्याविन्दु सिंह, राजेंद्र अवस्थी और बहुत से हिंदी सेवी और विद्वान मौजूद थे। यह एक बहुत अच्छा विश्व हिंदी सम्मलेन था। उद्घाटन सत्र में फोटो खीचना माना था क्योंकि फोटो खीचने से आग लगने का अलार्म बोलने का खतरा था। ऐसा बताया गया था। मैंने और अन्य लोगों ने फोटो खीचना जारी रक्खा । कार्यक्रम का संचालन मेरे अग्रज मित्र प्रो महेंद्र के वर्मा कर रहे थे।
मंच और फोटो खीचने वालों में संवाद शुरू हो गया। नंदन जी मेरे पीछे वाली सीट पर बैठे थे। उन्होंने कहा सुरेश जी आप इस सम्मलेन के अंतर्राष्ट्रीय समिति के सदस्य हैं और आपही जब संवाद करेंगे तो क्या असर पड़ेगा। आयोजक समिति के लन्दन के पदाधिकारियों पर इसका क्या प्रभाव पड़ेगा। मुझे उनकी बात एक बार में समझ में आ गयी। तब मैंने भी औरों को भी फोटो खीचने के सम्बन्ध में संवाद करने से मना किया और शान्ति की स्थापना हुई। नंदन जी ने धन्यवाद दिया।
इस विश्व हिंदी सम्मलेन में मुझे एक सत्र की अध्यक्षता, एक की सह-अध्यक्षता और एक का सह-संचालन करने का अवसर मिला था। नरेन्द्र मोहन और सिंघवी जी कि कृपा से मेरे काव्यसंग्रह का लोकार्पण भारतीय हाई कमीशन में विजय राजे सिंधिया के द्वारा हुआ था।
इसी सम्मलेन में अपने आयोजक सदस्यों के सहयोग से एक सत्र असंतुष्टों का अतिरिक्त कराने की अनुमति मिल गयी थी। काश यदि इसी प्रकार अमेरिका में होने वाले हिंदी सम्मलेन में प्रवासी विषयों पर हुए सत्रों में उन्हें सही प्रतिनिधित्व न मिलने पर उनका यदि एक सत्र और आयोजित होता और विदेशों से आये प्रवासी साहित्यकारों और लेखकों की बात सुनने का सुनहरा अवसर सभी को मिलता। आशा है कि भारत सरकार आने वाले सम्मलेन में इसका ध्यान रखेगी। नंदन जी के बहाने हम हिंदी की ही बात कर रहे हैं।
नंदन जी के साथ-साथ दो बार मैं यू के में होने वाले अनेकों कवि सम्मेलनों में सम्मिलित हो चुका हूँ। मैनचेस्टर और लन्दन में साथ-साथ कवितायेँ पढ़ने का अवसर मिला। मैं और नंदन जी मैनचेस्टर में एक कमरे में घंटों रहे। नंदन जी एक अच्छे मंच संचालक भी थे।
न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र संघ के बड़े हाल में नंदन जी द्वारा सम्पादित विश्व हिंदी विशेषांक का लोकार्पण मंत्री आनन्द शर्मा जी ने किया था। हमारे राजदूत महामहिम निरुपम सेन, रोनेन सेन और अनेक लोग वहाँ उपस्थित थे।मैंने भी नंदन जी की तस्वीर खीची थी और अपनी पत्रिका भी भेंट की थी।
यहाँ लोकार्पण समारोह में माननीय गिरिजा व्यास के साथ मंच पर उपस्थित रहकर बहुत सी पुस्तकों, पत्रिकाओं और ग्रंथों के लोकार्पण का साक्षात् गवाह बन गया था। यहाँ पर ही अपनी टिप्पणियों के कारण संवाद में अलग-थलग दिखे विद्वान डॉ कमल किशोर गोयनका का साथ देकर लेखकीय साथ निभाया था परन्तु लोकार्पण में मंच पर मुझे देख कर शायद गोयनका जी को लगा की एक जूनियर लेखक किस तरह लोकार्पण के मंच पर आसीन है और वह मेरे द्वारा दिए गए साथ को कुछ देर तक भूल गए थे पर बाद में अहसास हुआ तो उन्होंने मुझे धन्यवाद भी दिया।
भारतीय विद्या भवन न्यूयार्क और विदेश विभाग के प्रतिनिधियों के सहयोग के कारण मेरी मंच पर उपस्थिति संभव हो सकी थी क्योंकि विदेशों में मेरी हिंदी सेवा से वे प्रभावित थे जिसका मैं प्रतिनिधित्व कर रहा था। नंदन जी ने अनेकों विश्व हिंदी सम्मेलनों में गगनांचल पत्रिका का संपादन किया। गगनांचल के संपादक आजकल अजय कुमार गुप्ता जी हैं।
नंदन जी अनेकों पत्र पत्रिकाओं के सफल संपादक रहे हैं और हिंदी पत्रकारिता में शालीनता का परिचय दिया। वह एक अच्छे कवि और चिन्तक लेखक थे। उनकी कविताओं में रामधारी सिंह दिनकर सा ओज था और पन्त जैसी पृकृति कि सुकुमारिता थी नंदन जी कि कविता में। नंदन जी काफी समय से पेसमेकर के साथ चल रहे थे।
जब मैंने कुछ महीने पूर्व नार्वे आने का निमंत्रण दिया तो उन्होंने कहा यदि आप मेरे पेसमेकर का स्पांसर बन जाएं तो मैं आपके कार्यक्रम में आ सकता हूँ। मैंने नार्वे कि सरकार के साथ बातचीत कि थी पर आगामी वर्ष के पहले यह संभव नहीं था। क्या पता था कि नंदन जी नार्वे में हमारे कार्यक्रम में आये बिना ही चले जायेंगे।
उन्होंने मेरे अभिनन्दन ग्रन्थ में अपनी शुभकामनाएं भेजी थीं जो विश्व पुस्तक प्रकाशन नयी दिल्ली से छपा था। उन्होंने मेरी रचनाएं अपनी पत्र पत्रिकाओं में भी प्रकाशित की थीं।
दस बारह साल पहले तक राजेंद्र अवस्थी से दोस्ती होने के कारण मुझे उसके कुछ फायदे हुए तो उसके नुक्सान भी बहुत उठाने पड़े। मेरे व्यव्हार, चरित्र और लेखन के तरीके और राजेंद्र अवस्थी जी के लेखन में कहीं भी समानता नहीं थी। बहुत से दिल्ली के साहित्यकार मुझसे दूर रहे। दस -बारह साल से मैं दिल्ली के लेखकों के किसी गुट में भी नहीं हूँ। बल्कि सभी का हूँ, मानवतावादी हूँ। गांधीवादी हूँ विष्णु प्रभाकर और सोहन लाल द्विवेदी कि तरह। नार्वे में सोशलिस्ट लेफ्ट पार्टी की तरफ से ओस्लो नगर पार्लियामेंट का सदस्य भी २००३ से २००७ तक रहा पर कभी भी अपने भारतीय प्रगतिशील लेखकों का कभी भी आमंत्रण नहीं आया। यदि किसी ने याद किया तो रंगमंच की संस्था इप्टा, भारत सरकार की तरफ से प्रवासी दिवस में, विश्वविद्यालयों और निजी संस्थाओं ने।
मेरी रचनाएं ही सभी गुटों को मोहने का सामर्थ्य रखती हैं। वैसे ही नंदन जी भी गुट से परे एक सच्चे पत्रकार और निर्भीक और शालीन लेखक थे। दिल्ली तक हिंदी के सिकुड़ने के भय से मैं दूसरे प्रदेशों के कार्यक्रम को भी दिल्ली से कम महत्त्व नहीं देता। अभी नयी तकनीकी और अत्य आधुनिक संसाधनों से हिंदी के जुड़ने से दो बहुत बड़ी खुशखबरी है हिंदी के विश्व में तेजी से विस्तार और प्रवासी लेखकों की रचनाओं का स्वतन्त्र मूल्यांकन के लिए ।
नंदन जी ने मेरी और अन्य प्रवासी साहित्यकारों की प्रतिभा पहचानी थी।
नार्वे से निकलने वाली २२ वर्ष पुरानी हिंदी और नार्वेजीय भाषा की पत्रिका 'स्पाइल -दर्पण' को विश्व हिंदी सम्मलेन, न्यूयार्क मारीशस से निकलने वाली विश्व हिंदी सचिवालय की पत्रिका 'विश्व हिंदी पत्रिका' आदि पहचानती नहीं है जबकि भारतीय विश्विद्यालय में इस पर शोध हो चुका है। इस पत्रिका ने यूरोप और अमेरिका में रहने वाले अनेक प्रतिष्ठित प्रवासी लेखकों कि प्रथम रचना छपने का सौभाग्य प्राप्त किया है। नार्वे में पिछले छ वर्षों से एक मात्र नियमित पत्रिका है। हम यह सदा सोचते हैं कि हिंदी हमारी अस्मिता की पहचान है। हिंदी के लिए हम क्या कर सकते हैं उस पर ध्यान देना चाहिए। और इस भाषा को अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में देखने के लिए प्रयत्नशील हूँ मुझे उम्मीद है कि मेरा यह सपना साकार होगा। ईश्वर से प्रार्थना है कि वह नंदन जी के परिवार को इस अपार दुःख सहने की शक्ति दें और उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करें।