बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

अंतर्राष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी कोल्हापुर में सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

२२-२३ को अंतर्राष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी शिवाजी विश्वविद्यालय, कोल्हापुर में सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
२० फरवरी मुंबई

२० फरवरी को प्रातः काल मैं मुंबई पहुँच गया था। वहाँ प्रदीप कुमार सिंह अपने मित्र के साथ प्रातः ४ बजे एयरपोर्ट पहुँच गए थे। वहाँ से दादर रेलवे स्टेशन पहुंचे। पहले एक चाय के रेस्टोरेंट में, बाद में स्टेशन पर बातचीत हुई।
२० फरवरी को ही दादर रेल स्टेशन से नो बजे पूना के लिए रवाना हुए। पूना नगर पहुंचकर वहाँ एक रात विश्राम करने के बाद 'पूना फिल्म इंस्टिट्यूट का अवलोकन किया। जोसेफ ने अवलोकन कराया तथा वहाँ मोहन जी जो जिन्हें सिनेमा में मेकअप करते हुए ४५ वर्ष हो गए , से मिलकर बहुत अच्छा लगा। उनका मेकअप बहुत सराहनीय था। कैमरा के अध्यापक सहित अनेकों अध्यापक और अधिकारियों से मिला और वापस अपने होटल में आ गया जो फिल्म इंस्टिट्यूट के समीप स्थित था।
२१ फरवरी को कोल्हापुर के लिए प्रस्थान करने के लिए बस स्टेशन गया वहाँ से निजी नीता बस सर्विस नीता
वोल्वो से सुखद यात्रा की। बस स्टेशन से विजय जी लेने आये जो प्राध्यापक हैं।
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी सफलता से संपन्न हुई जिसमें नार्वे, इटली, मारीशस, नेपाल और दक्षिण भारतीय विद्वानों सहित महाराष्ट्र, कर्णाटक, बंगाल, उड़ीसा आँध्रप्रदेश आदि से भाग लेने आये।
कार्यक्रम एक सफल कार्यक्रम था।
गोष्ठी शिवाजी विश्व विद्यालय के प्रांगन संपन्न हुई।

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

मुंबईया वादे, पूना की शैली, भूल कभी न पायेंगे. सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

मुंबईया वादे, पूना की शैली,
भूल कभी न पायेंगे।
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

आप अपनों से बात करें.
चंदा से दिन को रात करें,
वसंत में जब सावन होगा
उस पल का इन्तजार करें,

मौसम सा हम कपड़े बदलें
बादल जो भी आयें जाएं
उनको सपनों में ना लायें,
अपनों से अपनापन पायें.

कुछ खास छिपाना होता है,
जीवन अनजाना होता है,
शहद-गन्ने के रस का
असर बेगाना होता है।

हम भोले हैं अनजाने हैं,
मस्ती में झूमें दीवाने हैं।
दीपक लौ में जलकर
नयनों में काजल डाले हैं॥

पंछी से एक मुसाफिर को
चुनकर तिनका तो जाने दो,
मेरी किस्मत का दाना
मदमस्त हवा को आने दो॥

मुझको अब न कैद करो
पिंजरे से बाहर आने दो।
तूफानों से लड़ लड़ने वाली,
मैं पंछी हूँ उड़ जाने दो॥

आँखों के तारे बने नहीं
नयनों का तिनका बने यहाँ।
बंधन में बंधा न प्रेम यहाँ,
मिलकर छूटे हैं लोग यहाँ॥

अन्तरमन से मिलने वाले
क्षण भर में वह दे जाते हैं
रहती है पीड़ा साथ सदा
सुख क्षणभंगुर हो जाते हैं।

न करता मुंबईया वायदे
न पूना की फ़िल्मी शैली,
कभी सुगन्धित कलिका थी
पांवों से मस्तक तक फैली॥
इबसेन की बात सुनायेंगे
२२ -२३ फरवरी को शिवाजी विश्वविद्यालय में डॉ। पदमा पाटील के संयोजन में एक अंतर्राष्ट्रीय साहित्यिक गोष्टी हो रही है उसमें मैं भी भाग लेने जा रहा हूँ जहाँ इबसेन की बातें सुनाऊंगा।


वह धुल धूसरित मलिका
फिर भी स्वतन्त्र मन वाले हैं।
परदे में दुल्हन जैसे ही,
प्यालों पर पर्दा डाले हैं॥
ब्योर्नसन की बात बताएँगे

नार्वे के राष्ट्रीय साहित्यकार ब्योर्नस्त्यार्ने ब्योर्नसन

समय को मत आजमाओ तुम,
अभिनय तुम किसे सिखाओगे?
दुनिया के इस नाटक में,
जब विदूषक तुम बन जाओगे।।

ढाई आखर गर पढ़ा सको,
हम ऋणी सदा हो जायेंगे
शरद आलोक मिटना जाने
बालू का ढेर बनायेंगे।

जो अन्दर जितने अच्छे हैं,
बाहर उतने मतवाले हैं।
बाहर से कितने उजले,
जो अंतर्मन के काले हैं?

चित्रों से प्याले दूर रहें,
जीवन में चाहे पास रहें,
ये तो बस इतने अच्छे
नीबू शरबत की बात करें॥

दे ना सके पल-दो पल
तुम साथ कहाँ निभाओगे।
पोथी की शिक्षा जीवन में,
दो पल में आग लगाओगे॥

आओ मिल जुलकर बैठें
कुछ तुम मेरे, कुछ हम तेरे।
पिंजरे से उड़कर देखो,
ये सारा गगन तुम्हारा है॥

वायु ने घुंघरू बजाये हैं,
आकाश से बादल गरजे हैं।
तुम भीग न पाए तुम जानो,
मेघा खुलकर तो बरसे हैं॥

महा शिवाजी की धरती
हम कोल्हापुर भी जायेंगे,
गौरव इतिहास की गाथा
का प्रसाद वहाँ से पायेंगे॥

शिवाजी का पौरुष देख वहाँ
हम नतमस्तक हो जायेंगे
इबसेन को भी गोहरायेंगे,
ब्योर्नसन की बात बताएँगे॥
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
१३.०२.११ , ओस्लो, नार्वे

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

१० फरवरी जब मेरा जन्मदिन था- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

दस फरवरी को मेरा जन्मदिन था जिसे मैंने अपने परिवार, नार्वेजीय और भारतीय मित्रों के साथ मनाया।
अपनी माँ का सोने के पहले स्मरण किया। सपने में माँ दिखीं। जो हम सोचते हैं वह अक्सर हम सपने में भी पाते हैं। पर क्या सारे सपने सच हो सकते हैं? मैं मानता हूँ कि लेखक को राजनीति क मर्मग्य होना चाहिए और एक्टिविस्ट भी। मैंने अपनी मात्रभूमि और दुनिया के दलित बंधुओं को जिन्हें मैं अपना हिस्सा मानता हूँ। कभी -कभी सोचता हूँ कि उन्हें अपना क्यों ना कहूं। किसी भी चीज को समझने के लिए शब्द देना होता है।
जब मैं अपने बचपन के नगर लखनऊ में, भोपाल में, मुंबई में या अमृतसर और दिल्ली में होता हूँ। तो अपने इन मित्रों से मिलता हूँ। इस बात कि परवाह नहीं करता कि दिन है या रात है। स्त्री है कि पुरुष है। स्त्री -पुरुष के बीच भी भेदभाव करना हमारे समाज में ज्यादातर घुट्टी कि तरह पिलाया जाता है। मेरे लखनऊ में एक मित्र हैं वीरेंद्र मिश्र और साथ ही वकील इलाहाबादी ये समाज के ऐसे पात्र हैं जिन्होंने समाज की विषमताओं को नजदीक से देखा है। एक शायरा मित्र बहन थीं जिनका नाम था मुन्नव्वर हसन। उन्होंने मेरे सम्मान में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान लखनऊ में हुए समारोह में अपने सपनों को उजागर किया था। इस समारोह के मुख्य अतिथि थे तत्कालीन दूरदर्शन लखनऊ के निदेशक और प्रसिद्ध रंगमंच कर्मी विलायत जाफरी, संस्थान के निदेशक और प्रसिद्ध कवि विनोदचंद पाण्डेय भी मौजूद थे। उस समय मैंने सोचा था कि मुन्नव्वर हसन की पुस्तक छपने में मुझे मदद करनी चाहिए।
जब पिछले वर्ष अनेक वर्षों के बाद मैंने उनके बारे में पता लगाया तो देर हो चुकी थी। लखनऊ विश्व विद्यालय में प्रो योगेन्द्र प्रताप सिंह के साथ था तब डॉ अमरनाथ ने बताया कि उनके विभाग में कार्यरत कवियित्री मुनाव्वर हसन हम सभी को छोड़कर दुनिया से जा चुकी हैं। कितना अच्छा होता कि कुछ पहले उनके जीवित रहते ही उनकी पुस्तक छपने में मैं सहायता कर पाता। कई बार आप किसी बात पर विचार करते हैं। पर आपके वे विचार बहुत समय बाद पुनर्जीवित होते हैं। कितनी देर हो चुकी होती है। दिल्ली में जामिया मीलिया में भी जब अपने विद्वान मित्र और प्रोफ़ेसर काजी उबैदुर रहमान हाशमी जी ने मेरे सम्मान में मेरा वक्तव्य मेरी कहानियों को लेकर रखाया था। उस समय एक युवा शायरा जिसके पिता भी शायर थे नाम शबनम था उस बैठक में मौजूद थी जिन्होंने कहानियों पर मेरा वक्तव्य पसंद किया था उनके बारे में बार बाद में पता चला कि वह अस्पताल में दाखिल थी और उसके पिता का देहांत हो चुका था। आशा है कि वह कवियित्री भी कुशल और मंगल होगी। हमारे समाज में बहुत कुछ अभी बहुत पुराने ख्यालों का बोलबाला है। इसी कारण और संकोच और लोक-लाज में बहुत से लोगों की मदद नहीं हो पाती ।
वापस मैं अपने दलित विचार-विमर्श पर आ रहा हूँ ।
मैंने एक कविता लिखी जिसे आपके साथ बांटना चाहता हूँ।

'भूखे -नंगो को तुम भोजन घर देना,
जो अमीर हो ज्यादा उससे कर लेना।
अब दलित और ना कुचले जायेंगे
मानवता का पाठ मनों में भर लेना॥

जो चौका-बर्तन करते समाज रतन,
कपड़ा धोने आये उनके मन धोना।
सबके अंदर सपने और इच्छाएं हैं,
सब बच्चे सुन्दर उनको बचपन देना॥

स्वच्छकार हम अपने मन साफ़ करें,
समाजवाद की तब उनसे बात करें।
साफ़-वस्त्र, घर आँगन जिनके खातिर
उनके उधार चुकता कर अपनी बात करें।।'

आज ओस्लो नगर में तापमान - १२ है। आसमान साफ़ है। मौसम बहुत अच्छा है। सूरज चमक रहा है। पढ़ पौधों पर बरफ कि परत चढी हुई है। लगता है कि सभी पेड़ -पौधों को रुई के फाहों से सजाया गया है। कल जम शाम को मेरा जन्मदिन मनाया जा रहा था बाहर तापमान -१५ था। घर के अन्दर २० था गरम और सुहावना।
मित्रों और परिवारजनों की उपस्थिति में और भी सुखमय वातावरण बन पड़ा था।
कल शुक्रवार प्रातःकाल जब मैं मैट्रो स्टेशन पर खड़ा था। तेज बर्फीली हवा चल रही थी। सरसराती हुई बहुत ठंडी हवा सारे बदन को स्पर्श कर रही थी। बेशक ठंडक थी पर मुझे सुखद लगा था। लग रहा था की पर्वत पर हूँ और बर्फीली ठंडी हवा आनन्द दे रही है। महादेवी वर्मा जी की तरह मुझे भी पीड़ा और कठिन समय सुख देता है क्योंकि वह प्रेरणा बनकर सुख और दुःख के बीच सेतु का कार्य करता है। अधि ठण्ड और अधिक गर्मी और अधिक बरसात भी सुख देती है। प्रो योगेन्द्र प्रताप सिंह जी इसे भली भांति जानते हैं। पिछले वर्ष मैं घनघोर बरसात में रात साढ़े ग्यारह बजे भीगता हुआ लखनऊ विश्वविद्यालय के पीछे उनके बंगले पर मिलने गया था। उनके आवेदन पर भी मैंने उनके साथ छाया में रहना उचित नहीं समझा था। इसी बहाने लखनऊ की भीगते हुए लगभग अनेकों घंटे की सैर की थी जिसमें मेरे चचेरे भाई प्रशांत भी साथ थे।
ओस्लो, 12 फरवरी 2011

सोमवार, 7 फ़रवरी 2011

६ फरवरी सामी लोगों के राष्ट्रीय दिवस पर बधाई.

६ फरवरी सामी लोगों के राष्ट्रीय दिवस पर बधाई. -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
६ फरवरी को सामी लोगों का राष्ट्रीय दिवस था। सामी लोग नार्वे, स्वीडेन, फिन्लंत और रूस के उत्तरी भाग में रहते हैं जिनका मुख्य कार्य ध्रुवीय मृगों और मछली पालन है। कहा जाता है की कभी बहुत पहले सामी लोगों के पूर्वज भारत से आये थे। नार्वे की राजधानी ओस्लो में भी काफी संख्या में सामी लोग रहते हैं पर वह ओस्लो में इतने ज्यादा मिल - घुल गए हैं कि पता नहीं चलता। सामी लोगों को बधाई।
'चन्द्रा कला
प्रतिछाया की भांति,
गगन में घटता बढता चाँद
दूज-तीज अमावस्या- पूर्णिमा
गिन-गिनकर दिन काट रहा है
मौसम सा बदला करते हैं
इच्छाएं अरमान।
चन्द्रा कला की तरह
सूर्य का घटता -बढ़ता वैभव।