मंगलवार, 29 मार्च 2011

अज्ञेय जी, ४ अप्रैल जिनकी पुण्य तिथि है और ७ मार्च उनकी जन्मशती थी -शरद आलोक

'अज्ञेय' (जन्म ७ मार्च १९११ -- मृत्यु अप्रैल १९८७) जी की जन्मशती पर हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन 'अज्ञेय' के बहाने अपनी बात - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' आधुनिक हिंदी साहित्य में एक सशक्त हस्ताक्षर हीरानंद सच्चिदानंद वात्सायन 'अज्ञेय' का जन्म ७ मार्च १९११ को भारत के उत्तर प्रदेश (देवरिया/कुशीनगर) के निकट स्थित एक पुरातत्व शिविर में सन् 1911 में हुआ था। और उनकी मृत्यु ४ अप्रैल १९८७ में हुई थी. अज्ञेय जी से मेरी मुलाकात वह एक अच्छे इंसान थे। अज्ञेय जी से मेरी मुलाकात मेरा अज्ञेय जी से व्यक्तिगत मिलना एक बार हुआ था यह बात सन १९८४ या १९८५ की है जब हिंद पाकेट बुक्स द्वारा प्रकाशित पश्चिमी देशों के दर्शन की पुस्तकों का विमोचन समारोह था. इस कार्यक्रम में अज्ञेय जी भी मुख्य वक्ताओं में से एक थे. हिंद पाकेट बुक्स के प्रकाशक के नाते दीनानाथ मल्होत्रा जी जो प्रकाशन जगत के सर्वाधिक लोकप्रिय व्यक्तियों में एक हैं कार्यक्रम के सूत्रधार थे. उस समय नार्वे से निकलने वाली प्रथम हिंदी पत्रिका 'परिचय का संपादन कर रहा था. मैंने अपना परिचय और अपना परिचय-पत्र दिया तथा उन्हें बताया, 'अज्ञेय जी हम नार्वे से हिंदी कि पत्रिका निकालते हैं. स्वयं भी हिंदी में कवितायें और कहानियां लिखते हैं." उनसे धर्मवीर भारती जी से अपने पत्राचार की बात भी बताई थी. उसी समय रघुबीर सहाय भी अपनी पुत्री के साथ उपस्थित थे. मुद्रा राक्षस और बहुत संख्या में साहित्यकार और पत्रकार मौजूद थे. अज्ञेय जी ने अपना परिचय पत्र देते हुए मुझे अपने साथ चाय पीने की दावत दी थी. मैंने धन्यवाद कहा. मैं अभी उदीयमान लेखक था. अज्ञेय जी की उदारता देखते नहीं बनती है. कहाँ वह इतने बड़े साहित्यकार और कहाँ मैं एक छोटा सा हिंदी सेवी जो विदेशों (नार्वे) में हिंदी की पत्रिका 'परिचय' का संपादन कर रहा था. कार्यक्रम में मैं अन्य लोगों से मिलता रहा. रघुवीर सहाय जी को बताया, "लखनऊ में आपके परिवार से, विशेषकर माताजी और भाई विजयवीर सहाय जी से मिलना होता है जो स्वतन्त्र भारत में पत्रकार हैं." उन्होंने मुझे अपनी कवितायें भेजने को कहा. मैंने उन्हें अपना दूसरा काव्य संग्रह 'रजनी' भेजा जिसके लिए उन्होंने शुभकामनाएं भी दी थीं. मैं अवस्थी जी के कादम्बिनी के कार्यालय में बैठा था और अज्ञेय जी का कार्ड दिखाते हुए बताया कि मुझे अज्ञेय जी ने चाय पर बुलाया है. तब उनके एक मित्र ने कहा कि कहाँ चक्कर में फंसे हो. मिलकर क्या करोगे। आदि बातें कहीं. मैं उनसे मिलने नहीं जा सका. मैंने दिल्ली के कुछ लेखकों को और उनकी डिप्लोमैटिक भाषा को समझने में असमर्थ था. पहले लखनऊ, उत्तर प्रदेश में अपने विद्यालयों में और 'उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान' तथा 'सूचना केंद्र' की साहित्यिक गोष्ठियों में ही साहित्यकारों से मिल पाया था और उनके विचार और उनकी रचनाएं और व्याख्यान सुने थे. जिसका जिक्र किसी अन्य लेख में करूंगा. दूसरे शब्दों में कहूं कि लखनऊ का एक सीधा-सादा व्यक्ति जिसने अपनी जिन्दगी छात्र और मजदूर के रूप में सन १९७२ से जनवरी २२ जनवरी १९८० तक व्यतीत की थी जो कभी कविता लिखकर और कभी स्थानीय पत्रों में अवैतनिक कार्य करके साहित्य और राजनीति को सीखने कि कोशिश कर रहा था. २६ जनवरी १९८० को नार्वे पहुंचकर नयी दिल्ली, कलकत्ता और मुंबई जैसे नगरों की हलचल और संस्कृति को सीखने का अवसर नहीं मिल पाया. इसी कारण आज भी लखनऊ और ओस्लो, नार्वे की मिली-जुली संस्कृति कि छाप मेरे व्यवहार में समाहित हो गयी है. बीच में एक बड़ा अंतराल है और यह गैप अभी भी महसूस करता हूँ। अज्ञेय जी का जीवन बहुत क्रन्तिकारी रहा है. उन्होंने आजादी की लडाई में जेल की हवा भी खाई है और साहित्य में वह बहुत कुछ दिया जो आधुनिक हिंदी कविता में रिक्त था. अज्ञेय जी ने पत्रकारिता में नए प्रतिमान और मानक स्थापित किये जो हिंदी की पत्रकारिता के लिए बहुत आवश्यक था. अज्ञेय जी के साथ छोटी सी परन्तु महत्वपूर्ण बातचीत हमेशा के लिए यादगार बन गयी. वहाँ ही मेरा परिचय 'हिन्द पाकेट बुक्स' के संस्थापक श्री दीनानाथ मल्होत्रा से हुआ था जिनसे आज भी सम्बन्ध बना हुआ है. जब भी भारत जाता हूँ तो दीनानाथ मल्होत्रा से मिलने जाता हूँ. यह बात अज्ञेय जी के बहाने लिख रहा हूँ। तीसरे विश्व हिंदी सम्मलेन में नार्वे का प्रतिनिधित्व डेनमार्क में मेरे मित्र और हिंदी के विद्वान फिन थीसेन ने ८३ में हुए दिल्ली के विश्व हिंदी सम्मलेन में भाग लिया था अनेक भाषाओं के विद्वान फिन थीसेन ने ’ डेनमार्क में हिंदी’ पर लेख लिखा था जिसे मैंने 'परिचय' में प्रकाशित किया था. फिन थीसेन ने तीसरे विश्व हिंदी सम्मलेन में 'परिचय' भी पहुंचाई थी. विश्व हिंदी सम्मलेन के आयोजक सदस्य श्री शंकर राव लोंढे जी ने मुझे इस सम्बन्ध में पत्र भी लिखा था। जब नार्वे में इंदिरा गाँधी जी आयीं थीं भारत की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी नार्वे आयी थीं. ओस्लो के फोरनेबू हवाई अड्डे पर नार्वे के प्रधानमंत्री कोरे विलोक ने अगवानी की थी. जिनसे मुझे भी मिलने का अवसर मिला था. इंदिरा जी ने ही भारत को महाशक्ति बनाया था. और उनकी हत्या होने के बाद पूरे विश्व में मातम छा गया था. नार्वे में भी इसका असर हुआ था. मैंने पूरी रिपोर्ट लखनऊ के समाचार पत्र ’स्वतन्त्र भारत’ में और अपनी पत्रिका ’परिचय’ में चित्र समेत प्रकाशित कराई थी जिसका जिक्र धर्मवीर भारती जी ने धर्मयुग में किया था. एक गलत पत्र छाप देने के कारण मैंने जब धर्मवीर भारती जी से बातचीत की जो परिचय के सम्बन्ध में था तो उन्हें दुःख हुआ और छमा मांगी और लिखकर पत्र व्यवहार किया. इतने महान लेखक धर्मवीर भारती जी ने मुझ जैसे छोटी पत्रिका के संपादक को पत्र लिखा मैं बहुत बड़ी बात समझता हूँ. धर्मवीर भारती जी से पत्र व्यवहार और कुछ समय तक कभी-कभी फोन से भी संपर्क रहा. उन्हें ’परिचय’ भी भेजता रहा था। अज्ञेय जी अनेक पत्रों से जुड़े रहे उन्होंने देश भी देखा विदेश भी और उनके साहित्य में विस्तार आसानी से देखा जा सकता है. अज्ञेय जी के शब्दों में: “लेखकों को (मोटे तौर पर) दो वर्गों में बांटा जा सकता है। एक वर्ग उनका है जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपने को अपना ‘हीरो’ मानकर चलते हैं, जीते हैं और लिखते हैं; दूसरा उनका जो कुछ भी करें, अपनी नजर में अभियुक्त ही बने रहते हैं। मैं कहूं कि मैं इनमें से दूसरे वर्ग का हूं, तो यह न आत्मश्लाघा है, न मुझसे भिन्न वर्ग के लोगों पर व्यंग्य; यह केवल लक्ष्य की पहचान और स्वीकृति है।’’ अज्ञेय जी लिखते हैं: “मैं ‘स्वान्त:सुखाय’ नही लिखता। कोई भी कवि केवल स्वान्त:सुखाय लिखता है या लिख सकता है, यह स्वीकार करने में मैंने अपने को सदा असमर्थ पाया है। अन्य मानवों की भांति अहं मुझमें भी मुखर है, और आत्माभिव्यक्ति का महत्व मेरे लिये भी किसी से कम नही है, पर क्या आत्माभिव्यक्ति अपने-आप मे सम्पूर्ण है? अपनी अभिव्यक्ति-किन्तु किस पर अभिव्यक्ति? इसीलिए ‘अभिव्यक्ति’ में एक ग्राहक या पाठक या श्रोता मै अनिवार्य मानता हूं, और इसके परिणामस्वरुप जो दायित्व लेखक या कवि या कलाकार पर आता है उससे कोई निस्तार मुझे नही दीखा। अभिव्यक्ति भी सामाजिक या असामाजिक वृत्तियों की हो सकती है, और आलोचक उस का मूल्यांकन करते समय ये सब बातें सोच सकता है, किन्तु वे बाद की बातें हैं। ऐसा प्रयोग अनुज्ञेय नहीं है जो ‘किसी की किसी पर अभिव्यक्ति’ के धर्म को भूल कर चलता है। जिन्हें बाल की खाल निकालने में रुचि हो, वे कह सकते हैं कि यह ग्राहक या पाठक कवि के बाहर क्यों हो-क्यों न उसी के व्यक्तित्व का एक अंश दूसरे अंश के लिए लिखे? अहं का ऐसा विभागीकरण अनर्थहेतुक हो सकता है; किन्तु यदि इस तर्क को मान भी लिया जाये तो भी यह स्पष्ट है कि अभिव्यक्ति किसी के प्रति है और किसी की ग्राहक (या आलोचक) बुद्धि के आगे उत्तरदायी है। जो (व्यक्ति या व्यक्ति-खण्ड) लिख रहा है, और जो (व्यक्ति या व्यक्ति-खण्ड) सुख पा रहा है, वे हैं फ़िर भी पृथक्। भाषा उन के व्यवहार का माध्यम है, और उस की माध्यमिकता इसी में है कि एक से अधिक को बोधगम्य हो, अन्यथा वह भाषा नहीं है। जीवन की जटिलता को अभिव्यक्त करने वाले कवि की भाषा का किसी हद तक गूढ़, ‘अलौकिक’ अथवा दीक्षा द्वारा गम्य हो जाना अनिवार्य है, किन्तु वह उस की शक्ति नही, विवशता है; धर्म नही; आपद्धर्म है।”

रविवार, 20 मार्च 2011

आज २० मार्च को वाइतवेत सेंटर में हेनरिक इबसेन का जन्मदिन मनाया गया.

आज २० मार्च को वाइतवेत सेंटर में हेनरिक इबसेन का जन्मदिन मनाया गया।
वाइतवेत सेंटर में भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम की ओर से आयोजित लेखक गोष्ठी में हेनरिक इबसेन का जन्मदिन मनाया गया। लेखक गोष्ठी में स्थानीय मेयर थूरस्ताइन विंगेर ने हेनरिक इबसेन पर अपना व्याख्यान दिया। कविता , कहानी पाठ किया इंगेर मारिये लिल्लेएन्गेन और फैसल नवाज चौधरी ने तथा हेनरिक इबसेन के नाटक 'गुड़िया का घर' का हिंदी अनुवाद अनुवादक सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' ने पढ़कर सुनाया।

ओस्लो, नार्वे के हिंदी स्कूल में होली




२० मार्च, आज हिंदी स्कूल नार्वे में होली धूमधाम से मनाई गयी।
कुछ चित्र देखिये






शनिवार, 19 मार्च 2011

हेनरिक इबसेन का जन्मदिन लेखक गोष्ठी में आयोजित -आप सभी आमंत्रित

हेनरिक इबसेन का जन्मदिन लेखक गोष्ठी में आयोजित -आप सभी आमंत्रित
Velkommen til 'forfatterkafe' på Veitvet senter den 20 mars kl. 15:00 på Veitvetsenter (Inngang fra Veitvetveien), Oslo. Vi feirer Henrik Ibsens fødselsdag.


१७ मार्च को वाइतवेत सेंटर में नार्वे की सांस्कृतिक मंत्री को अपनी अनुवादित हेनरिक इबसेन की पुस्तकें भेंट करते हुए सुरेशचंद्र शुक्ल
१७ मार्च को वाइतवेत सेंटर में सांस्कृतिक सप्ताह का उद्घाटन किया नार्वे की सांस्कृतिक मंत्री हेनिक्केन हयुत्वेत ने और इस अवसर पर अनेक कार्यक्रमों के साथ शुरू हुआ सांस्कृतिक सप्ताह। भारतीय लेखक और स्पाइल के संपादक सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद अलोक' ने नार्वेजीय भाषा से हिंदी में अनुवाद की हुई हेनरिक इबसेन के दो नाटकों की प्रतियां 'गुड़िया का घर' और 'मुर्गाबी' भेंट की।
२० मार्च को १५: बजे वाइतवेत सेंटर, ओस्लो में लेखक गोष्ठी में इन पुस्तकों के बारे में सुनिए लेखक हेनरिक इबसेन के जन्मदिन पर। आप सभी का हार्दिक स्वागत है। अधिक जानकारी के लिए संपर्क कीजिये +४७-२२ २५ ५१ ५७ पर।

मंगलवार, 15 मार्च 2011

Forfatterkafe २० मार्च को वाइतवेत सेंटर ओस्लो में लेखक गोष्ठी में हेनरिक इबसेन का जन्मदिन मनाया जाएगा

Velkommen til स्वागतम
Forfatterkafe लेखक गोष्ठी

Den 20. mars 20 kl. 15:00
på Veitvetsenter, Oslo
(Lokale til den tidligere fargehandel)
Vi feirer Henrik Ibsens fødselsdag.
20 मार्च को 15:00 बजे
वाइतवेत सेंटर ओस्लो में
(जहाँ रंग-रोगन maling की दुकान थी.)
लेखक गोष्ठी में
हेनरिक इबसेन का जन्मदिन मनाया जाएगा ।
अधिक जानकारी के लिए फोन पर संपर्क कीजिये:
सुरेशचन्द्र शुक्ल +47-22 25 51 57

गुरुवार, 10 मार्च 2011

शिवाजी विश्व विद्यालय, महाराष्ट्र भारत में तीन दिन -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

शिवाजी विश्व विद्यालय में यादगार तीन दिन, अनेक चित्रों का अवलोकन कीजिये। सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक को सम्मानित करते हुए शिवाजी विश्वविद्यालय के विज्ञ कुलपति डॉ न जा पवार विभागाध्यक्ष हिंदी का कक्ष, शिवाजी विश्वविद्यालय सांस्कृतिक कार्यक्रम में कलाकारों का उत्कृष्ट प्रदर्शन बहुत समय तक याद किया जाएगा : बहुत ही साहसी और रोमांचक ढंग से कलाकारों ने कार्यक्रम प्रस्तुत किया परम्परात्मक ढंग से पदमा जी को धन्यवाद देते हुए भाषा विभाग के प्रांगन में शिवाजी, डॉ पदमा पाटील, स्वयं और झाँसी की रानी फुर्सत के क्षण विमर्श करते हुए राजेन्द्र मोहन भटनागर, डॉ पदमा पाटील और शरद आलोक हिंदी शिक्षार्थियों के साथ किले का अवलोकन करने के बाद विद्वतगण शोधर्थियों और कार्यकर्ताओं के साथ सभागार में कार्यक्रम के बाद कार्यक्रम स्थल पर प्रतिभागी गण शिक्षार्थियों के साथ सफल अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी २२-२३ फरवरी २०११ को शिवाजी विश्व विद्यालय में संपन्न २२-२३ फरवरी को प्रो (डॉ) पदमा पाटील के संयोजन में शिवाजी विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय हिंदी संगोष्ठी संपन्न हुई। इसमें भाग लेने मैं भी नार्वे से गया था। मैंने हेनरिक इबसेन के साहित्य और इतिहास पर प्रकाश डाला। इस कार्यक्रम में भारत के विभिन्न प्रान्तों से आये हिंदी के विद्वानों ने पाने विचार रखे। कार्यक्रम की अध्यक्षता विज्ञ उपकुलपति डॉ ना ज पवारजी ने की थी जिन्होंने सभी विद्वानों को सम्मानित भी किया। इस अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन शिवाजी विश्वविद्यालय, दक्षिण भारत हिंदी परिषद् और केन्द्रीय हिंदी संस्थान के संयुक्त सहयोग से किया गया था। इसमें अनेक सत्र संपन्न हुयेजिसमें इतिहास के सम्मानित नायकों, क्षत्रपति शिवाजी, महाराणा प्रताप, साहूजी, रानी लक्ष्मी बाई और बहुत से ऐतिहासिक नायकों की साहित्य में उपस्थिति और भूमिका पर वृहद् विचार किया गया । अंतर्राष्ट्रीय सत्र की अध्यक्षता का कार्यभार मुझे सौंपा गया था। डॉ वसंत मोरे, डॉ चंदुलाल दुबे, डॉ शेशन, डॉ रामचंद्र राय डॉ ठाकुर समेत इटली, नार्वे, नेपाल, श्री लंका, मारीशसऔर भारत के विद्वानों ने अपने आलेख पढ़े और सार्थक विवेचना की। कार्यक्रम 'अंतर्राष्ट्रीय संगोष्ठी' की अध्यक्ष डॉ पदमा पाटील जी बड़े आदरभाव से सभी का स्वागत कर रही थी, और सुचारू रूप से सञ्चालन कर रही थीं। इस विश्वविद्यालय में अनेक विद्वान अध्यापकों द्वारा शिक्षा दी जा रही है। बहुत अच्छा कार्यक्रम था। विश्वविद्यालय में प्रातःकाल कैंटीन से चहल-पहल शुरू होती है जो शाम तक चलती रहती है। यह महाराष्ट्र का एक जाना-माना शिक्षा संस्थान है। बहुत यादगार दिन रहे जिसकी यादें सदा मन में बसी रहेंगी।

Kvinnedagen 2011 i Oslo ओस्लो में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

ओस्लो में अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
कुछ चित्र


ओस्लो, ८ मार्च को यंग्सथोर्गे ओस्लो पर एक विशाल जनसभा हुई जिसमें दो हजार लोग महिला दिवस मनाने के लिए एकत्र हुए। उसके बाद जूलुस निकला जो मध्य ओस्लो में पार्लियामेंट होता हुआ यंग्स थोर्गे में समाप्त हो गया।
नार्वे में तो महिला और पुरुष में काफी समानता है कानून को लेकर, पार्लियामेंट और सभी संस्थाओं में कार्यकारिणी में महिलाओं का अनुपात ४० प्रतिशत होना जरूरी है। अभी प्रवासी और शरणार्थी महिलायें नार्वेजीय महिलाओं के मुकाबले में अनेक अधिकारों से वंचित हैं उनके कम जागरूक होने के कारण।

मंगलवार, 8 मार्च 2011

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर बधाई-शरद आलोक

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर बधाई-शरद आलोक ८ मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है आप सभी को हार्दिक बधाई। साक्षरता और आर्थिक स्वतंत्रता दो बहुत बड़ी आवश्यकता है पुरुष और नारी के संबंधों को मजबूत बनाने में। खासकर दोनों को समान अवसर और अधिकार के लिए। समाचार पत्र और दूरदर्शन पर देखा की एक बेटे ने अपनी माँ को जंगल में छोड़ आया । आम तौर से अशिक्षा के कारण लड़कियों को कम पढ़ाते हैं और उनका विवाह कम आयु में करते हैं। ईश्वर ऐसे निरक्षर और नासमझ पिताओं को सद्बुद्धि सदबुद्धि दें जो ऐसा करते हैं ताकि वह आगे से ऐसा न करें। इस अवसर पर एक कविता प्रस्तुत है।

बेटों के हाथों नहीं मरेगी अम्मा

सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' बेटों के हाथों नहीं मरेगी अम्मा अब नहीं बिकेंगी, पैसों के खातिर। शीर्षक नारी नहीं बनेगी, कविता की अंतिम पंक्ति। मुट्ठी में आसमान दिया करती थी, बच्चों को जिसने पाल पोस कर बड़ा किया भूख, प्यास, दुःख दर्द पहाड़ों को झेला बच्चों को अपनी कोख, गोद और आँचल में पोसा, उनके हाथों में बन्दूक देख, धोखाधड़ी को पहचान गयी है अम्मा। भेड़ों से हांक चुके कितना तुम, नजर के खातिर बहुत लगाये काजल टीका, अब वह तलवार की नोक से सुरमा तुम्हें लगाएगी, अब चुनाव में अंगूठा नहीं लगाएगी अम्मा। पढ़ लिखकर अब वह नयी पार्टी बनाएगी। परदे, बुर्के में बहुत छिपाया खुद को, आदमी ने क्या-क्या पाठ पढाया उसको, मनुष्य की काली करतूतों का अब पर्दाफाश करेगी अम्मा। नारी ने बहुत बनाया मुखिया, ईश्वर पुरुषों को, आर्थिक बंधन में बहुत जकड़ रखा है, इसीलिए औरत को अनपढ़ बना रखा है। अब कोई ओट, दीवार न रोकेगी नारी को। परम्परा की खोखली दीवार गिराएगी अम्मा। सदियों से गोबर-मिटटी-शरीर से कितना सृजन कर रही अम्मा। देहरी पर हुक्का, चिलम पी रहे पुरुषो, से घास-फूस निकालती आयी अम्मा, दिन रात मरी है घर-बाहर परिवार समाज के पीछे, अब और नहीं सताई जायेगी नारी। अब समान शिक्षा और रोजी की बात करोगे, बहुत सहा है, अब और सहा न जाता, धोखा पा हर रोज रिश्तों को तोड़ जायेगी अम्मा। अब भी समय है नारी को अब न और दबाओ, पुरुष! नारी से एक सा व्यवहार निभाओ। मिलजुलकर बाटेंगे सुख-दुःख तेरे। खुद भूखे रहकर इन्तजार सबका करती थी, अब साथ बैठकर खाना खाएगी अम्मा.