शनिवार, 30 अप्रैल 2011
ओस्लो, नार्वे में 7 मई को लेखक गोष्ठी में आपका स्वागत है. FORFATTERKAFÉ med Devi Nagrani på Veitvet
Devi Nagrani देवी नागरानी
VELKOMMEN स्वागतम TIL FORFATTERKAFÉ लेखक गोष्ठी
VELKOMMEN TIL FORFATTERKAFÉ
लेखक गोष्ठी में आपका स्वागत है
शनिवार 7 मई
स्वतन्त्रता दिवस ८ मई के अवसर पर
वाइतवेत कल्चर सेंटर ओस्लो में
विशिष्ट अतिथि जानी-मानी कवियित्री देवी नागरानी, यू एस ए से
मुख्य अतिथि : स्थानीय मेयर थूर स्ताइन विंगेर
Lørdag den 23 april, kl 15:००
Tema: Frigjøringsdag
Veitvet kulturhus/SFO,
bak Veitvet skole...Veitvetveien 17, 0596 OSloProgram for dagen:
1 Foredrag
2Opplesning av dikt og noveller
3 Barna opptrer med dikt, musikk og sang
4 Alle deltar i dans til bollywood musikk
Dette er et gratis familiearrangement
Det blir lett servering
Alle barn som opptrer får en liten overraskelse :o)Ha en fin dag
Mvh
Suresh Chandra Shukla
अधिक सूचना के लिए संपर्क कीजिये
निम्न फोन नंबर पर : 47-90 07 03 18
रविवार, 24 अप्रैल 2011
पुस्तकें व्यक्ति और समाज से खुला सांस्कृतिक संवाद हैं- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
आलेक्स राष्ट्र गीत पढ़ते हुए
चेतना अपनी कविता पढ़ते हुए
इस अवसर पर हुई गोष्ठी में अनेक लेखकों और संस्कृति कर्मियों ने अपने विचार रखे और रचनायें पढ़ीं उनमें चेतना, साक्षी, भावना और इंदरजीत पाल, एकता लखनपाल, राज कुमार भट्टी, इंगेर मारिये लिल्लेएन्गेन, निकीता, आलाक्सान्दर और संगीता शुक्ल सीमोनसेन , सीगरीद मारिये रेफ्सुम, माया भारती, लीव सीवेनसेन, वासदेव भरत, दिया, आदि और अनुराग विद्यार्थी तथा सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' मुख्य थे। इंदरजीत पाल ने भारत में भविष्य की उर्जा सौर ऊर्जा पर ध्यान देने की जरूरत पर जोर दिया और अपनी रचनायें पंजाबी और नार्वेजीय भाषा में सुनायी। सुरेशचन्द्र शुक्ल ने अपनी नार्वेजीय रचनाओं के साथ-साथ हिन्दी रचनाओं का पाठ किया और रचनाकार को समाज का पहरेदार बताया।
शनिवार, 23 अप्रैल 2011
आज ओस्लो में 23 अप्रैल को तीन बजे(15:00) विश्व पुस्तक दिवस पर लेखक गोष्ठी में स्वागत है.
भारतीय नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम की ओर से लेखक गोष्ठी में आपका स्वागत है।
Lørdag den 23. april, kl 15:00
Tema: verdens bokdagVeitvet kulturhus/SFO,
bak Veitvet skole...Veitvetveien 17, 0596 OSlo
Program for dagen:
1 Opplesning av dikt og noveller
2 Barna opptrer med dikt, musikk, sang mm
3 Antakshari, en sanglek på hindi
4 Alle deltar i dans til bollywood musikkDette er et gratis familiearrangementDet blir lett servering।Alle barn som opptrer får en liten overraskelse :o)
Ha en fin dag
Arrangør:
Indisk-Norsk Informasjons og Kulturforum
Postboks 31, Veitvet
0518-Oslo
गुरुवार, 21 अप्रैल 2011
VELKOMMEN TIL FORFATTERKAFÉ
23.04.11 klokka 15:00
VELKOMMEN TIL FORFATTERKAFÉ
VELKOMMEN TIL FORFATTERKAFÉ (Verdens bokdag)
Lørdag den 23. april, kl 15:00Tema: verdens bokdagVeitvet kulturhus/SFO, bak Veitvet skole...Veitvetveien 17, 0596 OSlo
Program for dagen:1 Opplesning av dikt og noveller2 Barna opptrer med dikt, musikk, sang mm3 Antakshari, en sanglek på hindi4 Alle deltar i dans til bollywood musikk
Dette er et gratis familiearrangementDet blir lett servering.Alle barn som opptrer får en liten overraskelse :o)
Ha en fin dag
शनिवार, 16 अप्रैल 2011
ओस्लो में बैसाखी मनाई गयी-सुरेशचन्द्र शुक्ल
गुरुवार, 14 अप्रैल 2011
आज बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की जयंती है. बहुब-बहुत बधाई- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
अंबेडकर की दलित चेतना
डॉ तुलसीराम (जवाहर लाल विश्व विद्यालय, दिल्ली में प्रोफ़ेसर हैं )समय बीतने के साथ-साथ बाबासाहेब अंबेडकर के विचारों की प्रासंगिकता बढ़ती ही जा रही है। दलितों तथा गैर दलितों के बीच उनकी तरह-तरह से व्याख्या की जा रही है। अंबेडकर के विचारों के तीन प्रमुख स्रोत थे। पहला उनका अपना अनुभव, दूसरा-महात्मा ज्योतिबा फूले का सामाजिक आंदोलन तथा तीसरा-बुद्धिज्म। इन स्रोतों की जड़ में भारत की अमानवीय जाति व्यवस्था थी। डॉ. अबेडकर को भी छुआछूत तथा जातीय घृणा का शिकार होना पड़ा था, जिससे खिन्न होकर उन्होंने इस खत्म करने का अभियान चलाया। उन्होंने जाति व्यवस्था की ईश्वरीय अवधारणा का तीखा विरोध किया और इसे मानव निर्मित बताया। इस संदर्भ में उनके महात्मा गांधी से वैचारिक मतभेद उभर कर सामने आए। गांधीजी कहते थे कि छुआछूत मानव की देन है इसलिए मानव प्रदत्त छुआछूत से तो लड़ना चाहिए, जबकि ईश्वरीय जाति व्यवस्था के विरुद्ध आवाज नहीं उठानी चाहिए। गांधीजी की इस ईश्वरीय अवधारणा के विरुद्ध अंबेडकर चट्टान की तरह खड़े हो गए। यद्यपि छुआछूत निवारण के अभियान में गांधीजी की भूमिका को अनदेखा नहीं की जा सकती, लेकिन उनकी ईश्वरीय अवधारणा की दलितों ने तीव्र आलोचना की। जाति की ईश्वरीय अवधारणा के चलते डॉ. अंबेडकर ने जाति व्यवस्था को हिंदू धर्म की प्राणवायु बताया और साफ शब्दों में कहा कि ऊंच-नीच के भेदभाव के चलते हिंदू धर्म कभी मिशनरी धर्म नहीं बन पाया, जबकि अन्य धर्म जैसे बौद्ध धर्म अनेक देशों की सीमाएं पार कर गए। जाति व्यवस्था विरोधी, अहिंसक तथा विश्वबुंधत्ववादी होने के कारण डॉ. अंबेडकर ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया। इन्हीं कारणों से उन्होंने बौद्ध धर्म को दलितों के लिए सबसे उचित धर्म बताया। संक्षेप में डॉ. अंबेडकर का यही सामाजिक चिंतन था। संविधान के माध्यम से उन्होंने भारतीय जनतंत्र को विकासशील बनाया, जिस कारण देश की एकता मजबूत हुई। डॉ. अंबेडकर का राजनीतिक चिंतन भी जाति व्यवस्था से उत्पन्न परिस्थितियों से प्रभावित हुआ था। वह 1920 के दशक से ही दलितों के लिए पृथक मतदान की मांग करने लगे थे। इसके पीछे उनका तर्क था कि ऐसा होने से जाति व्यवस्था के विरोध तथा दलितों के हित में काम करने वाले ही चुनकर विधानसभा तथा लोकसभा में पहुंच सकेंगे अन्यथा दलित स्थापित पार्टियों के दलाल बनकर रह जाएंगे। गांधीजी के प्रबल विरोध और आमरण अनशन के कारण पृथक मतदान की मांग वापस ले ली गई, जिसके बदले मौजूदा आरक्षण व्यवस्था लागू हुई। यह व्यवस्था पूना पैक्ट (1932) के नाम से जानी जाती है। पूना पैक्ट का सबसे अधिक प्रभाव शिक्षा के क्षेत्र में पड़ा। लाखों की संख्या में दलित शिक्षित होकर हर श्रेणी की नौकरियों में शामिल हुए और उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की दिशा बदल दी। लेकिन आरक्षण नीति सही ढंग से लागू न होने के कारण दलित समाज का नुकसान भी हुआ है। डॉ. अंबेडकर की आशंका सही सिद्ध हुई। विधानसभा तथा लोकसभा में चुने हुए प्रतिनिधि दलित मुक्ति के सवाल पर नकारात्मक भूमिका में आ गए। सालों-साल चलती रही इसी भूमिका के कारण काशीराम की बहुजन समाज पार्टी का 1984 में उदय हुआ। काशीराम ने वर्तमान जनतांत्रिक प्रणाली में दलितों की भूमिका को चमचा युग बताया। इसलिए उन्होंने बसपा का जो वैचारिक आधार खड़ा किया वह डॉ. अंबेडकर की आरंभिक राजनीतिक समझ यानी 1920 तथा 30 के दशक के विचारों पर आधारित है। यही कारण है कि उनके क्रियाकलाप में राजनीतिक तीखापान अधिक झलकता है। डॉ. अंबेडकर 1920 तथा 30 के दशक में जाति व्यवस्था के विरुद्ध उग्र रूप धारण किए हुए थे। बाद में उन्होंने सत्ता में भागीदारी के माध्यम से दलित मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने की कोशिश की। काशीराम ने सत्ता में भागीदारी को सत्ता पर कब्जा में बदल दिया। इस उद्देश्य से उन्होंने नारा दिया अपनी-अपनी जातियों को मजबूत करो। इस नारे के तहत सर्वप्रथम बसपा ने विभिन्न दलित जातियों का सम्मेलन करके उन्हें अपनी तरफ आकर्षित किया। साथ ही उसने पिछड़ी जातियों को अपनी तरफ लाने की कोशिश की जिसका परिणाम था बसपा का 1993 में समाजवादी पार्टी से समझौता। दो साल बाद इस गठबंधन के टूट जाने के बाद बसपा का झुकाव भारतीय जनता पार्टी की तरफ बढ़ा तथा उसके सहयोग से मायावती तीन बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। किंतु 2007 में उत्तर प्रदेश के पिछले आम चुनाव में मायावती के नेतृत्व में बसपा ने दलित-ब्रांाण एकता के नारे के साथ बहुमत हासिल कर लिया। यह बहुमत प्रचंड जातीय धु्रवीकरण के आधार पर मिला था। वैसे भी भारतीय चुनाव प्रणाली में हमेशा जातीय, क्षेत्रीय और सांप्रदायिक धु्रवीकरण आम प्रक्रिया का हिस्सा रहा है। किंतु मंडल कमीशन के लागू होने के बाद जातीय धु्रवीकरण बेहद उग्र रूप में जनता के समक्ष आया है। उत्तर प्रदेश में इस धु्रवीकरण से बसपा को सबसे अधिक फायदा पहुंचा है, जिस कारण वह सत्ताधारी पार्टी बन गई। इस संदर्भ में एक गंभीर सवाल यह उठता है कि जातीय ध्रवीकरण के आधार पर चुनाव जीत कर सत्ताधारी तो बना जा सकता है, किंतु डॉ. अंबेडकर की जाति-उन्मूलन की विचारधारा को मूर्त रूप नहीं दिया जा सकता। बुद्ध से लेकर अंबेडकर तक ने जाति-विहीन समाज में ही दलित मुक्ति की कल्पना की थी, किंतु आज का भारतीय जनतंत्र पूर्णरूपेण जातीय, क्षेत्रीय एवं सांप्रदायिक जनतंत्र में बदल चुका है। ऐसा जनतंत्र राष्ट्रीय एकता के लिए वास्तविक खतरा है। डॉ. अंबेडकर की उक्ति- जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना स्वराज प्राप्ति का कोई महत्व नहीं, आज भी विचारणीय है। (लेखक जेएनयू में प्रोफेसर हैं)