बाएं से नामवर सिंह श्रीलाल और कुंवर नारायण
लखनऊ में अब नहीं मिलेंगे श्रीलाल शुक्ल पर हमेशा याद आते रहेंगे. -सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'
श्रीलाल शुक्ल जी से मेरा एक दशक पुराना सम्बन्ध था, वह भी लेखकीय सम्बन्ध. उनके जाने से मैंने देश के प्रसिद्ध साहित्यकार और लखनऊ के उदार व्यक्तित्व के रूप में बड़े भाई जैसा एक ऐसा व्यक्ति खो दिया जो अपनी बेबाक टिप्पणी और सहयोगी स्वभाव के लिए आजीवन याद आता रहेगा. अंतिम बार मैंने उनसे उनके निवास पर बातचीत की थी जिसमें लखनऊ विस्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर योगेन्द्र प्रताप सिंह मेरे साथ थे. उन्होंने मुझे अपने दिल्ली में प्रकाशक से मिलने और उनका सहयोग प्राप्त करने के लिए कहा था. और इतने बड़े साहित्यकार होने के बावजूद उन्होंने मेरे जैसे एक आयु में छोटे और विदेश में निवास करते हिंदी साहित्य और हिंदी सेवा में लगे हुए व्यक्ति की सराहना करते हुए कहा था कि 'सुरेश जी मैं आपकी रचनायें और आपके बारे में निरंतर पढ़ता रहता हूँ. प्रोफ़ेसर योगेन्द्र प्रताप सिंह जी ने इसे मेरे लिए एक उपलब्धि बताया था.
मुझे लखनऊ की एक घटना याद आ रही है. एक अन्य कार्यक्रम की जिसमें एक देश के दूसरे महान साहित्यकार और नयी कहानी के जनकों में से एक 'हँस' के सम्पादक राजेन्द्र यादव जी ने लखनऊ में हो रहे उमानाथ राय बली हाल में संपन्न तीन दिवसीय साहित्यिक गोष्ठी में आयोजक साहित्यकार शैलेन्द्र सागर से मुझे विदेशी हिंदी साहित्य का उद्दरण देते हुए दलित और नारी विमर्श पर टिप्पणी करने के लिए समय माँगा था तो उन्होंने मना कर दिया था. जिन राजेंद्र यादव जी का सम्पूर्ण हिंदी जगत सीधे या नाक सिकोड़ते ही सही बहुत ईज्जत करता है और ह्रदय से सम्मान करता है, उन जैसों की बात को काटकर और बिना समन्वय स्थापित किये इतिहास का हिस्सा बनने की लालसा बेईमानी है. हमको भाई श्री लाल शुक्ल, मित्र कमलेश्वर जी, अग्रज मित्र कुंवर नारायण, डॉ. रमा सिंह और राजेंद्र यादव जैसे महान साहित्यकारों से समन्वय रखने और अच्छे आयोजक बनने की प्रेरणा लेनी चाहिए.
एक घटना और वह है लन्दन में संपन्न हुये छठे विश्व हिंदी सम्मलेन की. लन्दन में संपन्न हुए हिंदी सम्मलेन में लखनऊ के बहुत से हिंदी के लेखकों ने हिस्सा लिया था. साथ ही प्रसिद्ध काव्य आलोचक नामवर सिंह, डॉ. विद्या विन्दु सिंह और बहुत से देश-विदेश के साहित्यकारों के साथ देश के बड़े पत्रकार मित्रों ( दैनिक जागरण के सम्पादक स्व. नरेंद्र मोहन और नव भारत टाइम्स के सम्पादक रहे डॉ. विद्या निवास मिश्र, महान राजनीतिज्ञ और ९ वर्षों तक यू के में भारतीय राजदूत रहे डॉ. लक्ष्मी मल सिंघवी) का सानिध्य और सहयोग भावना देखते नहीं बनती थी. इस सम्मलेन में मेरे काव्य संग्रह 'नीड़ में फँसे पंख' जिसका प्रकाशन हिंदी प्रचारक संस्थान वाराणसी के विजय प्रकाश बेरी ने किया था. काव्य संग्रह 'नीड़ में फँसे पंख' का लोकार्पण नरेंद्र मोहन जी की सलाह और डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी जी और एक सचिव की मदद से विदेश राज्यमंत्री विजय राजे सिन्धिया जी के हाथों भारतीय हाई कमिश्नर जी के निवास पर रात्रि भोज पर हुआ था. इस सम्मलेन में डॉ. महेंद्र के वर्मा, डॉ. कृष्ण कुमार और पद्मेश गुप्त, उषा राजे सक्सेना सहित बहुत से आयोजक सदस्यों का प्रेम भुलाना किसी के लिए संभव नहीं था.
वहाँ तीन सत्रों में १- दलित साहित्य २- विदेशों में हिंदी पत्रकारिता ३- विदेशों में हिन्दी साहित्य सृजन में मंच पर स्वयं बैठे हुए भी संचालन में परिवर्तन करते हुए बहुत से प्रतिभागियों को मौका मिला था जिनका नाम भी वहाँ मौजूद नहीं था. यह हिंदी सम्मलेन एक मात्र ऐसा हिन्दी सम्मलेन था जहाँ असुन्तुष्टों और आलोचकों के लिए एक अलग सत्र का प्रबंध किया गया था जिसमें मेरे सुझाव का अनुमोदन करते हुए उपरोक्त बंधुओं ने संभव कराया था. मैं वापस लखनऊ आता हूँ. यह सब जो लिख रहा हूँ वह समन्वय भावना को ध्यान में रखकर श्रीलाल जी की याद के बहाने कुछ यादें बाँट रहा हूँ.
लखनऊ में उमानाथ राय बली हाल, कैसरबाग लखनऊ में सत्र में तब दीदी स्व. डॉ. रमा सिंह जी ने मुझे बुलाकर अग्रिम पंक्ति में बैठा दिया था. अचानक मरी लेखक मित्र बहन शीला मिश्र ने बिना मुझे बताये शैलेन्द्र से पुन: परिचय कराया और बताया की मैं विदेशों में रहकर लिखने वाला बड़ा साहित्यकार हूँ. हलाकि मैं अभी तक अपने को एक आम लेखक मानता हूँ और सभी को बराबर मानने की अभिलाषा रखता हूँ. मुझे मौका न भी मिला हो मुझे कोई शिकायत नहीं है परन्तु तीन समाचारों ने मेरी टिप्पणी दलित साहित्य और नारी विमर्श पर कर दी थी मुझे ख़ुशी हुई की पत्रकारों की नजर विस्तृत देख पाती है जबकि कई बार आयोजक की नजर पास रहते हुए भी नहीं देख पाती.
आज जब श्री लाल जी नहीं हैं और उनकी बात मैंने भी नहीं मानी थी अब मानूंगा और उनके प्रकाशक किताबघर से मिलूंगा. एक बात मैंने जैनेद्र कुमार जी की नहीं मानी थी और मेरे काव्यसंग्रह में महादेवी जी की भूमिका से वाचित रह गया था. उस समय मेरे साथ हिमांशु जोशी थे जिन्हें और जिनके बड़े बेटे की कभी बहुत सहायता की थी जैसे आज भी बिन आगे-पीछे देखे यहाँ ओस्लो नार्वे में सहायता किया करता हूँ.