लखनऊ को नमन
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
मेरा भी अभिवादन करना
लखनऊ नगर है अपना
जहाँ दो घूँट जल पीकर,
ममता का सागर बहना।
कोमल-कोपल लखनौआ,
पत्र और पत्रकारिता
सु रेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
Oslo, 09.02.14
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
मेरा भी अभिवादन करना
लखनऊ नगर है अपना
जहाँ दो घूँट जल पीकर,
ममता का सागर बहना।
ये यादों के गुलमोहर
कितने हरसिंगार बिछाये।
कितने हरसिंगार बिछाये।
लखनऊ नहीं यह जीवन!
सीने में चलचित्र सजाये।
कितने ही पीर छिपाए
कब्रगाहों -शमशानों से पूछों
बस परवाने जलते आये
ये है लखनऊ का वैभव,
या मेरा पागलपन है.
जहाँ गलियों में नुपुर बजते
वह मेरा घर-आँगन है!
जहाँ बचपन- यौवन बीता,
आवारा बन घूमा हूँ
तुलसी-अमीना के पग धोये
शिक्षा प्रसार में घूमा हूँ..
नार्वे की चमक निराली
पग-पग भरी सुंदरता
वैभव ने दिया आकर्षण
जहाँ न्योछावर हुयी भावुकता।
शिक्षा प्रसार में घूमा हूँ..
नार्वे की चमक निराली
पग-पग भरी सुंदरता
वैभव ने दिया आकर्षण
जहाँ न्योछावर हुयी भावुकता।
जहाँ जबान नहीं थकती थी,
प्रियतम के गुण गा -गाकर।
मानो नजर लगी पश्चिम की,
मानो नजर लगी पश्चिम की,
झूठी कसमें खा-खाकर।।
मेरा मालिक संसारी,
दुनिया का बड़ा खिलाड़ी।
जितना ऊपर उड़ना चाहूँ
मैं उतना बन उड़ूँ अनाड़ी। -शरद आलोक Oslo, 09.02.14
सु रेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
हिस्सेदारी बहुत जरूरी,
यह प्रेस की है मजबूरी।
मिल जाएँ विज्ञापन इतने,
समाचार नहीं लाचारी!
मालिक खा पकवान प्रेस के,
पत्रकारों की मारामारी।
प्रदर्शन जहाँ कमजोर वर्ग का,
पत्रकार के कैमरे मुंह मोड़ते।
यदि कोई मोटा मुर्गा हो,
उसका विज्ञापन जोर-शोर से!
ऐसे दैनिक भरे पड़े हैं,
जिनके तेवर गोलमोल से!
पत्रकार को कितनी आजादी?
चलती है प्रेस की दुनियादारी।
कारों से घूमें मालिक जी,
पत्रकार करे मूस सवारी।
प्रथम पेज पर समाचार को कम,
अब विज्ञापन को प्राथमिकता।
अच्छा पत्र नहीं कहलाता वह,
विज्ञापन जहाँ समाचार पर कब्जा करता।Oslo, 09.02.14