नार्वे से प्रवासी कविता
जो परिवार के नाम नाम पर कलंक है
वह परिभाषा बता रहा है.
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
जो परिवार के नाम कलंक है,
वह परिभाषा बता रहा है,
सत्ता की ताकत से
देश को गुमराह कर रहा है।
जो देश को लुटाता रहा ,
कहता है कि वह बेघर है.
अपने मित्रों को देश के पोर्ट, खानें
सौंपता रहा कहता है कि मैं फ़क़ीर हूँ
दस लाख का सूट बदलता रहा
कह रहा है कि मैं गरीब हूँ।
तुम केवल प्रधानमंत्री हो,
भ्रस्टाचार के आरोप तुम पर हैं,
आंदोलन में किसानों की मौत के
एक बड़े जिम्मेदार हो।
राष्ट्र की सम्पत्ति और शक्ति का
करते रहे दुरूपयोग।
पूर्वजों को गरियाते रहे
उनसे बराबरी करने के लिए,
पर तुम कीचड़ में पत्थर फेकते रहे,
छीटों के लिए दूसरों को जिम्मेदार बता रहे हो?
एलेक्ट्रोरल बॉन्ड में पायी रकम छिपा रहे हो
जो कुछ घंटों में आन लाइन हो जाता?
अपने दोस्त के बेटे की शादी में
कानूनों को ताक में रखकर रातोरात
जामनगर को अंतर्राष्ट्रीय एयरपोर्ट बनाया।
सच बताना कि तुम चुनाव के लिए योग्य हो?
शक्ति, अंधभक्ति और दौलत के जोर पर
मर्दानगी दिखा रहे हो उस जनता को ,
जनता से मर्दानगी दिखाना
जैसे सूरज को दिया दिखाना है।
अमीरों के एजेन्ट दिखते हो तुम।
शीशा साफ़ करके दोबारा अपनी शक्ल देखो
यदि अपना चेहरा दागदार लगे तो,
शीशा तोड़ने या विपक्ष को गरियाने से
तुम्हारा चेहरा साफ़ नहीं होगा।
तुम राष्ट्र के नहीं हुए,
परिवार के नहीं हुए,
अपने धर्म के नहीं हुए,
अपनी पत्नी और माँ के नहीं हुए ,
पत्नी छोड़ दिया,
माँ की मृत्यु पर सर और दाढ़ी नहीं मुड़ाया?
शीशे में अपना मुँह देखकर
विपक्ष और शीशे को दोष देते रहे।
अपने ही कर्मों से हुए नापाक,
देश के बच्चे स्कूल को तरस रहे,
उन पैसों से अपनी सेल्फी प्वाइंट,
झूठे विज्ञापनों में
अपनी दागदार तस्वीर छपवा रहे हो।
तुम्ही बताओ:
मोहम्मद खालिद और आजम खान
तुमसे बेहतर हैं?
एक निर्दोष है लोकतंत्र के लिए जेल में?
दूसरा तुम्हारा राजनैतिक प्रतिद्वंदी,
तुम्हारी घृणा से जेल में है क्या?