रोज-रोज हम नीड़ बनाते
धरती पर विश्राम किया है.
हम तो पंछी हुए प्रवासी,
कभी नहीं आराम किया है.
डालर -पौंड लेकर आते,
प्रेम के दाने जब चुगने आते.
बहेलिये-अपने जाल बिछाते,
प्रवासी पंछी फँसते जाते.
निर्भर नहीं जो किसी कपाट के.
हम पानी पीते घाट -घाट के.
रोज-रोज हम नीड़ बनाते,
घर के रहे न किसी घाट के,
कभी बवंडर आँधी-पानी,
नीड़ हमारा तोड़ रहे हैं.
जिस घर से निष्काशित हैं ,
अपना नाता जोड़ रहे हैं."
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