शनिवार, 16 फ़रवरी 2013

ब्लॉग लेखन और फेसबुक/ एस एम् एस कविता - suresh chandra shukla

ब्लॉग लेखन और फेसबुक/ एस एम् एस कविता आज जब समय की कमी है और संवाद जरूरी तब ऐसी लघु कवितायें जन्म लेती हैं।  
आज फोन पर  विश्वविद्यालय के अध्यापकों से बातचीत हो रही थी। उन्होंने बताया कि वहां शिक्षकों का शिक्षण चल रहा है.  जिसके कन्वेनर हैं प्रो. योगेन्द्र प्रताप सिंह। उन्होंने बताया कि वह भी ब्लागलेखन आरम्भ करेंगे। १४ जनवरी को लखनऊ के जयशंकर प्रसाद प्रेक्षागृह  में  स्पाइल और फिल्माचार्य आनंद शर्मा के नेतृत्व में एक आयोजन में भी ब्लॉग लेखन और लघु फिल्मों के माध्यम से संवाद की भूमिका पर मेरा वक्तव्य भी था.
आज मैंने फेसबुक पर लोगों को संवाद में उत्तर दिया लघु कविताओं के माध्यम से जिनकी एक झलक आप भी देखिये.
 
खुश रहोगे तुम तो जमाना भी खुशनुमा होगा,
तारों की चादर में चाँद भी खुशनुमा होगा। 
या दिल न तुम्हारा है न यह दिल हमारा है। 
जिसके लिए धड़के, उसी आँख का तारा है। 
शरद  यह प्रेम ऐसा है जो छिपायें नहीं छिपता,
बेला, चमेली, रातरानी सा चारो ओर  महकता है।
खुश रहो दुनिया में, दूजों से खुशी बाटो, 
अभिषेक के आँगन में हरसिंगार बरसेगा। 
शरद  आलोक, ओस्लो, १६-०२-१३      
 
 
जहाँ दिन में तारें हों, वहां राते बिछुड़ती हैं।
उनके आसमानों पर, जहाँ बादल घिरे रहते। 
अपनी जिन्दगी को, क्या वह संभाल  पाये हैं?
जिन्हें दूसरी की जिन्दगी का ख्याल नहीं होता। 
 
न चाँद तारे हों न खुशियों की वह भाषा है,  
जहाँ आधी रात को भी सूरज निकलता है।
और जब रात में चन्दा नहीं चमकता है, 
शरद तब बरफ की रोशनी  में राह दिखती है.
शरद  आलोक, ओस्लो, १६-०२-१३      
 
 
कामिनी जी शुभ आशीर्वाद,  
समय मुट्ठी में जिनके है, उन्हीं के पास दौलत है,
जो सोते हैं वे खोते हैं, उनसे दूर शोहरत है.
घड़ी की सुइयां गिनकर, जिनका दिन गुजरता है, 
जेब में पड़ी दमड़ी कभी उनकी नहीं होती। 
अपनी खुशी की परिभाषा जब अपने आप लिखते हैं।  
शरद तब न हार का दुःख है, न ही जीत में ख़ुशियाँ।
शरद ये दौलत का कोई पक्का घर-बार नहीं होता।
हाथों में  बालू सा , कभी ज्यादा नहीं ठहरता  है। 
शरद  आलोक, ओस्लो, १६-०२-१३      
 
 
रुपाजी, आपको और परिवार को धन्यवाद जन्मदिन पर बधायी के लिये.
'प्रेम एक पहेली है, जिसे सब बूझना चाहें, 
न कभी यह तोड़ने से टूटे, न  आँधियों से बिखरे।
डूबने से कब बचे हैं डूबने वाले,
जिन्हें तैरना नहीं आता, वे भी नदी में  कूद जाते है।'  
शरद  आलोक, ओस्लो, १६-०२-१३      
 
  

कोई टिप्पणी नहीं: