भारत में शिक्षा और चिकित्सा सभी के लिए एक जैसी हो और अमीरों से अधिक टैक्स /कर लिया जाये और भ्रष्टाचार की ज़रा सी भी गुंजाइश न हो - -
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , ओस्लो, नार्वे (01.05.13)
Torstein Winger थूरस्ताइन विन्गेर
Prof Per Fugli प्रो पेर फ्यूग्ली स्पाइल-दर्पण की प्रति संपादक सुरेशचंद्र शुक्ल Suresh Chandra Shukla से प्राप्त करते हुए
पहली मई को क्रिस्तियानिया होटल, ओस्लो में एक जनसभा हुई, ठीक पहली मई के परम्परात्मक मार्च के बाद। प्रो. पेर फूगली मुख्य वक्ता थे। इस बार 30.000 (तीस हजार ) लोगों ने जुलुस में सम्मिलित होकर श्रमिक दिवस मनाया। लाल झंडों, बैनरों जिसमें श्रमिकों के नारे लिखे थे साथ ही अनेक प्रसिद्ध बैंड, श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधिगण उपस्थित थे। मेरे साथ इस बार मेरे साथ क्षेत्र के पूर्व स्थानीय मेयर थूरस्ताइन विन्गेर थे। मैं भी नार्वेजीय लेबर पार्टी के स्थानीय इकाई में चयन समिति का सदस्य हूँ, नार्वे में पत्रकार और गत 25 वर्षों से प्रकाशित हिन्दी और नार्वेजीय पत्रिका 'स्पाइल-दर्पण' का संपादक हूँ।
थूरस्ताइन विन्गेर के साथ मैंने सामूहिक भोजन किया। सभी लोगों ने काफी समय एक पंक्ति में पंक्तिबद्ध होकर भोजन खरीदा। एक बहुत बूढ़े नेता ने कहा कि लेनिनग्राद की याद आ गयी वहां बहुत देर लगी थी और सभी एक पंक्ति में लगकर भोजन प्राप्त करते थे।
पेर फूगली सोशल मेडिसिन के प्रोफ़ेसर रह चुके हैं उन्होंने जीवन, समाज, मानवीय मूल्य, सुरक्षा, पूंजीवाद और सोशल डेमोक्रेटिक मूल्यों पर चर्चा की। यैसे वक्ताओं के वक्तव्य काश भारत के हमारे नेताओं ने सुनकर उसे गृहण किया होता तो भारत में गरीबी कम होती, विकास अधिक होता, मानवीय मूल्यों को पूंजीवाद की जगह स्थान मिलता। भ्रष्टाचार कम हो सकता था और कोआपरेटिव द्वारा श्रमिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का ध्यान दिया जाता और गरीबों तथा अमीरों के मध्य आर्थिक और वैचारिक अंतर कम होता। तब राजनीति से जुडा कोई भी व्यक्ति स्वयं और अपने परिवार के सदस्य को पूंजीपति बनाने की बात न सोंचता अपितु कोआपरेटिव भाव से श्रमिक संगठनों और कामगरों द्वारा संचालित और सोशल डेमोक्रेटिक राजनैतिक
ढाँचे को मजबूत करने में मदद मिलती।
इसी के साथ भारत की अभी तक की सभी सरकारें जिन्होंने टैक्स /कर के लिए मजबूत पैमाना तैयार नहीं किया। लोगों को टैक्स देने के लिए जागरूक नहीं किया। कर का सीधे गरीब, श्रमिकों के साथ सभी को सुविधाओं और आधारभूत अधिकार नहीं मिले।
एक भारतीय नेता ने ओस्लो नार्वे में अपने भाषण में कहा था कहा था,
"आये दिन निजी /प्राइवेट संस्थाओं और पूंजीपतियों को अस्पताल, स्कूल और बचत बैंक का अधिकार देकर मनमानी लूट की छूट दे दी है जिससे बहुत से गरीबों को बेइलाज रहना पड़ रहा है।"
चिकित्सा और शिक्षा में सामान सुविधा और एक जैसी सुविधा सभी को होनी चाहिए। जैसा की नार्वे में है। जो जितना कमाए उसे उतना अधिक कर भी देना चाहिए। शासन ऐसा हो भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही नहीं हो।
मैंने 01.05.13 मई के इण्डिया टुडे में पढ़ा है जिसमें 50 ताकतवर लोगों में पूंजीपतियों को दिखाया गया है जो लोगों को बहकाने वाली और पूंजीपतियों को आवश्यकता से अधिक इज्जत देने की कोशिश की गयी है। इससे अच्छा होता की अपनी सांस्कृतिक धरोहर लोकगीत, लोक नाटक, हस्तकला, भाषा, संगीत और वास्तुकला आदि को सुरक्षित रखने और उसका प्रचार करने में लगे लोगों के बारे में लिखकर कहा जाता कि इन्हें प्रोत्साहित करने और लुप्त होने के लिए बचाने में कार्य करने वाले लोगों की प्रशंसा की जाती। कहा जाता है कि भारत और गरीब देशों में अच्छे टैक्स सिस्टम के अभाव में और जो है उसका दुरूपयोग, और राजनैतिक भर्ष्टाचार के कारण देश को सही कर नहीं मिल पाता।
काश देश की बड़ी पत्रिकाएं कभी यह भी छापें कि 100 देश के सबसे अमीरों के दादा के पा क्या 50 वर्ष पहले वाजिब जूते थे? इसका पता पत्रिकाएं अपने श्रोत से पता लगाती तो कुछ रहस्य जरूर खुलते?
आइये श्रमिक दिवस पर हम शपथ लें कि गरीब देशों और भारत में अपना तन -मन -धन लगायेंगे। जिस देश में भी रह रहे हैं वहां ईमानदार होकर कार्य करेंगे और टैक्स देंगे तथा राजनीति में सक्रिय हिस्सा लेंगे ताकि अपनी भाषा और संस्कृति के लिए भी कार्य किया जा सके। राजनीतिज्ञों की राजनैतिक शिक्षा आज के समय के अनुसार नहीं होने का कारण, और ईच्छाशक्ति की कमी के कारण देश की योजनाओं को दीर्घजीवी नहीं बनाया जा सक रहा है। असमान वितरण और अधिक नौकरियों की कमी भी कोआपरेटिव प्रोजेक्टों की कमी/अनदेखी करना भी बड़ा कारन है।
कोआपरेटिव किसी प्राइवेट मालिक द्वारा संचालित करना ठीक नहीं है इसे जब चाहे पूंजीपति किसी को बेच सकता है। जनता का कोआपरेटिव जिसमें उसे प्रतिनिधित्व से लेकर संचालन करने का अधिकार हो तभी देश विशेषकर गरीब देशों के पक्ष में और उन्हें नौकरी के बहुत अधिक अवसर दिए जा सकते हैं, कामगार कर देकर उसे मजबूत बना सकते है।
अनेक आर्थिक एक्सपर्ट/विशेषज्ञों का कहना है कि गरीब देशों में प्रति वर्ष 15 हजार रूपये वर्ष कमाई पर टैक्स होना चाहिये। इससे पूरे देश में निशुल्क और एक जैसी शिक्षा मिल सकेगी। आज गरीब देशों में सभी को स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाती कारण जो भी हो, सरकारी स्कूलों में पढाई पर प्रश्नचिन्ह लगाए जाते हैं। भ्रष्टाचार बहुत आसान है। निजी भाषा में शिक्षा न मिलने के कारण हम उचित और अधिक संख्या में स्किल्ड वर्कर नहीं पैदा कर पा रहे हैं। निजी संस्थान इतनी फीस लेते हैं की गरीब के लिए प्रवेश लेना नामुमकिन है।
काम देने वाले को भी टैक्स और मजदूर के पेंशन की कटौती करके देश का धन बढाया जाना चाहिये। लेखक को भारत के टैक्स सिस्टम की जानकारी नहीं है। पर यह पता है कि अमीर और गरीब में तेजी से अंतर और दूरी बढ़ रही है जो देश की अर्थ व्यवस्था और के लिए अच्छा नहीं है।
- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , ओस्लो, नार्वे (01.05.13)
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , ओस्लो, नार्वे (01.05.13)
Torstein Winger थूरस्ताइन विन्गेर
Prof Per Fugli प्रो पेर फ्यूग्ली स्पाइल-दर्पण की प्रति संपादक सुरेशचंद्र शुक्ल Suresh Chandra Shukla से प्राप्त करते हुए
पहली मई को क्रिस्तियानिया होटल, ओस्लो में एक जनसभा हुई, ठीक पहली मई के परम्परात्मक मार्च के बाद। प्रो. पेर फूगली मुख्य वक्ता थे। इस बार 30.000 (तीस हजार ) लोगों ने जुलुस में सम्मिलित होकर श्रमिक दिवस मनाया। लाल झंडों, बैनरों जिसमें श्रमिकों के नारे लिखे थे साथ ही अनेक प्रसिद्ध बैंड, श्रमिक संगठनों के प्रतिनिधिगण उपस्थित थे। मेरे साथ इस बार मेरे साथ क्षेत्र के पूर्व स्थानीय मेयर थूरस्ताइन विन्गेर थे। मैं भी नार्वेजीय लेबर पार्टी के स्थानीय इकाई में चयन समिति का सदस्य हूँ, नार्वे में पत्रकार और गत 25 वर्षों से प्रकाशित हिन्दी और नार्वेजीय पत्रिका 'स्पाइल-दर्पण' का संपादक हूँ।
थूरस्ताइन विन्गेर के साथ मैंने सामूहिक भोजन किया। सभी लोगों ने काफी समय एक पंक्ति में पंक्तिबद्ध होकर भोजन खरीदा। एक बहुत बूढ़े नेता ने कहा कि लेनिनग्राद की याद आ गयी वहां बहुत देर लगी थी और सभी एक पंक्ति में लगकर भोजन प्राप्त करते थे।
पेर फूगली सोशल मेडिसिन के प्रोफ़ेसर रह चुके हैं उन्होंने जीवन, समाज, मानवीय मूल्य, सुरक्षा, पूंजीवाद और सोशल डेमोक्रेटिक मूल्यों पर चर्चा की। यैसे वक्ताओं के वक्तव्य काश भारत के हमारे नेताओं ने सुनकर उसे गृहण किया होता तो भारत में गरीबी कम होती, विकास अधिक होता, मानवीय मूल्यों को पूंजीवाद की जगह स्थान मिलता। भ्रष्टाचार कम हो सकता था और कोआपरेटिव द्वारा श्रमिकों के अधिकारों और कर्तव्यों का ध्यान दिया जाता और गरीबों तथा अमीरों के मध्य आर्थिक और वैचारिक अंतर कम होता। तब राजनीति से जुडा कोई भी व्यक्ति स्वयं और अपने परिवार के सदस्य को पूंजीपति बनाने की बात न सोंचता अपितु कोआपरेटिव भाव से श्रमिक संगठनों और कामगरों द्वारा संचालित और सोशल डेमोक्रेटिक राजनैतिक
ढाँचे को मजबूत करने में मदद मिलती।
इसी के साथ भारत की अभी तक की सभी सरकारें जिन्होंने टैक्स /कर के लिए मजबूत पैमाना तैयार नहीं किया। लोगों को टैक्स देने के लिए जागरूक नहीं किया। कर का सीधे गरीब, श्रमिकों के साथ सभी को सुविधाओं और आधारभूत अधिकार नहीं मिले।
एक भारतीय नेता ने ओस्लो नार्वे में अपने भाषण में कहा था कहा था,
"आये दिन निजी /प्राइवेट संस्थाओं और पूंजीपतियों को अस्पताल, स्कूल और बचत बैंक का अधिकार देकर मनमानी लूट की छूट दे दी है जिससे बहुत से गरीबों को बेइलाज रहना पड़ रहा है।"
चिकित्सा और शिक्षा में सामान सुविधा और एक जैसी सुविधा सभी को होनी चाहिए। जैसा की नार्वे में है। जो जितना कमाए उसे उतना अधिक कर भी देना चाहिए। शासन ऐसा हो भ्रष्टाचार की गुंजाइश ही नहीं हो।
मैंने 01.05.13 मई के इण्डिया टुडे में पढ़ा है जिसमें 50 ताकतवर लोगों में पूंजीपतियों को दिखाया गया है जो लोगों को बहकाने वाली और पूंजीपतियों को आवश्यकता से अधिक इज्जत देने की कोशिश की गयी है। इससे अच्छा होता की अपनी सांस्कृतिक धरोहर लोकगीत, लोक नाटक, हस्तकला, भाषा, संगीत और वास्तुकला आदि को सुरक्षित रखने और उसका प्रचार करने में लगे लोगों के बारे में लिखकर कहा जाता कि इन्हें प्रोत्साहित करने और लुप्त होने के लिए बचाने में कार्य करने वाले लोगों की प्रशंसा की जाती। कहा जाता है कि भारत और गरीब देशों में अच्छे टैक्स सिस्टम के अभाव में और जो है उसका दुरूपयोग, और राजनैतिक भर्ष्टाचार के कारण देश को सही कर नहीं मिल पाता।
काश देश की बड़ी पत्रिकाएं कभी यह भी छापें कि 100 देश के सबसे अमीरों के दादा के पा क्या 50 वर्ष पहले वाजिब जूते थे? इसका पता पत्रिकाएं अपने श्रोत से पता लगाती तो कुछ रहस्य जरूर खुलते?
आइये श्रमिक दिवस पर हम शपथ लें कि गरीब देशों और भारत में अपना तन -मन -धन लगायेंगे। जिस देश में भी रह रहे हैं वहां ईमानदार होकर कार्य करेंगे और टैक्स देंगे तथा राजनीति में सक्रिय हिस्सा लेंगे ताकि अपनी भाषा और संस्कृति के लिए भी कार्य किया जा सके। राजनीतिज्ञों की राजनैतिक शिक्षा आज के समय के अनुसार नहीं होने का कारण, और ईच्छाशक्ति की कमी के कारण देश की योजनाओं को दीर्घजीवी नहीं बनाया जा सक रहा है। असमान वितरण और अधिक नौकरियों की कमी भी कोआपरेटिव प्रोजेक्टों की कमी/अनदेखी करना भी बड़ा कारन है।
कोआपरेटिव किसी प्राइवेट मालिक द्वारा संचालित करना ठीक नहीं है इसे जब चाहे पूंजीपति किसी को बेच सकता है। जनता का कोआपरेटिव जिसमें उसे प्रतिनिधित्व से लेकर संचालन करने का अधिकार हो तभी देश विशेषकर गरीब देशों के पक्ष में और उन्हें नौकरी के बहुत अधिक अवसर दिए जा सकते हैं, कामगार कर देकर उसे मजबूत बना सकते है।
अनेक आर्थिक एक्सपर्ट/विशेषज्ञों का कहना है कि गरीब देशों में प्रति वर्ष 15 हजार रूपये वर्ष कमाई पर टैक्स होना चाहिये। इससे पूरे देश में निशुल्क और एक जैसी शिक्षा मिल सकेगी। आज गरीब देशों में सभी को स्कूली शिक्षा नहीं मिल पाती कारण जो भी हो, सरकारी स्कूलों में पढाई पर प्रश्नचिन्ह लगाए जाते हैं। भ्रष्टाचार बहुत आसान है। निजी भाषा में शिक्षा न मिलने के कारण हम उचित और अधिक संख्या में स्किल्ड वर्कर नहीं पैदा कर पा रहे हैं। निजी संस्थान इतनी फीस लेते हैं की गरीब के लिए प्रवेश लेना नामुमकिन है।
काम देने वाले को भी टैक्स और मजदूर के पेंशन की कटौती करके देश का धन बढाया जाना चाहिये। लेखक को भारत के टैक्स सिस्टम की जानकारी नहीं है। पर यह पता है कि अमीर और गरीब में तेजी से अंतर और दूरी बढ़ रही है जो देश की अर्थ व्यवस्था और के लिए अच्छा नहीं है।
- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , ओस्लो, नार्वे (01.05.13)
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