गुरुवार, 16 जनवरी 2014

विश्व हिंदी दिवस 10 जनवरी को - suresh chandra shukla

विश्व हिंदी दिवस विदेश सेवा संस्थान में दिल्ली में -शरद  आलोक 













 चित्र में बाएं से भाषा की सम्पादक अर्चना त्रिपाठी, सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' स्पाइल और वैश्विका के सम्पादक और देशबंधु दैनिक के यूरोपीय सम्पादक,  सरोज शर्मा नेट हिंदी बुलेटिन प्रवासी दुनिया की सम्पादक और एक हिंदी सेवी। (फोटो:स्पाइल)



भारतीय विदेश मंत्रालय में विशेष सचिव नवतेज सिंह सरना ने स्पाइल पत्रिका प्राप्त की और अपना आशीर्वाद संपादक को दिया तथा हिंदी दिवस पर  पुरस्कार और सम्मान वितरण किया। (फोटो:स्पाइल)

 सबसे पहले मैं विश्व हिंदी दिवस पर स्कैंडिनेवियाई देशों में हिंदी  सेवियों को बधाई देता हूँ. इस बार 10 जनवरी को विश्व हिंदी दिवस पर आयोजित इस कार्यक्रम में सम्मिलित होने का श्रेय अनिल जोशी जी और सुनीति शर्मा जी को है जिन्होंने मुझे भाग लेने के लिए आमंत्रित किया था.
अनिल  जी से मेरी पहली मुलाकात लन्दन में भारतीय हाईकमीशन में हुयी थी, जहाँ मैं उस समय 10-15 वर्षों से आदरणीय श्रीमती कमला सिंघवी जी और आदरणीय लक्ष्मीमल सिंघवी जी की वजह से उनके साहित्यिक कार्यक्रमों में नार्वे का प्रतिनिधित्व करने जाता रहा था.  अनिल जी शीघ्र ही फिजी जाने वाले हैं हमारी उन्हें बधाई और आशा करते हैं कि उनके कार्यकाल में हमारा भारतीय दूतावास सांस्कृतिकमय हो जाएगा।
विश्व हिंदी दिवस हम नार्वे में भी मनाते हैं. कभी 10 जनवरी को तो कभी उसके बाद आने वाले शुक्रवार, शनिवार और इतवार में से एक दिन.
इस बार विश्व हिंदी दिवस दिल्ली में सम्मिलित होने का एक अलग अनुभव था. कार्यक्रम में कुछ पुराने और कुछ नये (मेरे लिए नये) लोगों से मिलना था. प्रभाकर क्षोतिय, नवतेज सिंह सरना, श्रीमती अर्चना त्रिपाठी, सरोज शर्मा,  और नूतन पाण्डेय के अलावा प्रो डॉ मोहन, कवित्रय: डॉ अशोक चक्रधर जी, ममता किरण और प्रवीण शुक्ल जिन्होंने कविता पाठ किया।
अनेक कवि बंधुवर मंच से बाहर भी सामने शोभा बढ़ा रहे थे उनमें मशहूर गजलकार डॉ लक्ष्मी शंकर बाजपेयी, दोहों के सिद्धहस्त रचैयता नरेश शांडिल्य, स्वयं मैं (शरद आलोक) और 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' में मेरे साथ तीन महीने साथ-साथ रहे, हिमांशु जोशी आये और उनसे  वार्तालाप करता इसके पूर्व ही वह चले गए.
मैं साप्ताहिक हिंदुस्तान में राजेंद्र अवस्थी और बालेश्वर अग्रवाल जी के सानिध्य में हिंदी पत्रकारिता के गुर सीख रहा था और उन्हीं के नेतृत्व में उस समय साप्ताहिक हिंदुस्तान में मेरे दो लेख एक ही अंक में छपे थे: एक दक्षिण अफ्रीका पर और एक पर्यटक स्थल ऊटी पर और  यह सन 1985 की बात है. जोशी से पहली मुलाक़ात तब हुई थे जब वह ओस्लो के समर स्कूल में सन 1982 छात्र बनकर आये थे उनके साथ उस समय बनारस के कृष्णमोहन गुप्ता जी भी थे.
फेसबुक से जुड़े अनेक मित्र मिले जिनमें भरत तिवारी से साक्षात्कार हुआ. डॉ विमलेश कांति वर्मा जो सम्भवत: उन विरले लोगों में से हैं जिन्होंने विश्वविद्यालय में 50 वर्षों तक पढ़ाया है. उन्हीं के करकमलों पर चलने का प्रयास कितने ही लोग करते हैं पर उनमें  कितने सफल होते यहाँ  यह एक प्रश्नचिन्ह है? काश मुझे भी यह अवसर मिलता। यदि जीवित रहा तो हो सकता है कि पत्रकारिता के क्षेत्र में यह अवसर मिल जाए.
इस समारोह में नरेश शांडिल्य जी ने पुनः मीठी सी ना टालने वाली शिकायत की अभिनन्दन ग्रन्थ न मिलने की और एक बार फिर मैंने उन्हें पुनः आश्वासन देकर काम चलाया।  मुझे स्मरण है जब पहले बार युवा साहित्यकार प्रवीण शुक्ल, यशपाल जैन, सुनील जोगी, महेंद्र शर्मा आदि एक कार में एक साहित्यिक कार्यक्रम में गए थे. एक गम्भीर लेखक, शिक्षक ने मंच पर हास्य-व्यंग्य कविताओं में भाई प्रवीण शुक्ल ने स्थान बनाया है यह देखकर बहुत खुशी हुयी।

विदेशी छात्र और छात्राओं ने हिंदी में जिस उत्साह और स्नेह और लगन से संगीत, गीत, निबंधों को सुनाकर हमारा मन मोह लिया जो  काबिले तारीफ़ की बात है.
इस समारोह में मुझे जबलपुर, मध्य प्रदेश का दो दिवसीय पत्रकारिता पर आधारित राष्ट्रीय संगोष्ठी की याद आ गयी जो एक न भूलने वाला प्रेणात्मक कार्यक्रम था. काश वहाँ की पुराने समाचार पत्रों की प्रदर्शनी भी दिल्ली और अन्य देश विदेश के हिंदी कार्यक्रमों का हिस्सा होती।
देश के विशेषकर सभी विशेषकर  बड़े-बड़े साहित्यकारों और नेताओं ने जिस तरह नार्वे से प्रकाशित 'स्पाइल' (दर्पण) की रजत जयन्ती पर सराहा और शुभकामनाएं दीं परन्तु उसे मंच देने से कतराते रहे. इसमें अपवाद भी हैं.  यदि स्पाइल (दर्पण) केवल किसी विदेशी भाषा की पत्रिका होती और भारत में छपती तो उसी की रजत जयन्ती पर न केवल अपने देश में बल्कि भारत में भी बहुत सराहा जाता।  आशा है कि इस समाचार छपने के बाद शिक्षा संस्थानों द्वारा स्नेह, सहयोग और मंच मिलेगा जो देश-विदेश के उभरते साहित्यकारों के लिए एक अभिन्न मंच बनती  जा रही है.
नार्वे में हमारी मासिक साहित्यिक गोष्ठियों में जब कोई व्यक्ति, संस्था कोई आवश्यक सूचना या भागीदारी करना चाहती है यदि वह धार्मिक और राजनैतिक न हो तो उसे ससम्मान के साथ कार्यक्रम में सम्मिलित किया जाता है और उसे पात्रानुसार सम्मान भी दिया जाता है. शायद यही कारण है कि नयी पीढ़ी भी हिंदी के प्रचार-प्रसार में अपनी सहभागिता कर रही है. - शरद आलोक

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