जन-जन के राम
तुम जन-जन के राम मेरे:
तुम राम हो
तुम समाज के दीपक हो,
तुम राजा हो पर, राज मुकुट का गर्व नहीं,
तुम राम हमारे!
तुम राम आम आदमी के हो! हे राम! तेरा मंदिर में काम नहीं।
इसलिए जगत में घूम-घूम करते जन-जन की सेवा तुम
जो सोते को जगा रहे,
कमजोरों में भर रहे उत्साह
ताकि युवा फिर उठा लें कुदाल,
कर दें धमाल,
भारत की मिट्टी लगे उगाने स्वर्ण पुनः।
अच्छा है तुम राम हमारे जन-जन के
तुम हो चिकित्सक सा तटस्थ
अच्छे-बुरे सभी के तुम घाव धो रहे.
रामायण के थे एक राम
पर जन-जन के लाखों राम,
वही जो सच्चे हैं इंसान,
वह तुम चाहे चिकित्सक हो,
हो सड़कों पर मजदूर या खेतों पर किसान।
एक भाव से सेवा करते।
क्या किसान भी भेदभाव से अनाज उगाते,
क्या अमीरों के लिए अलग खेत
और गरीबों के हों अलग खेत?
इनका अनाज उनका अनाज?
क्या वह चिकित्सक हो सकता है, जो भेदभाव करे?
धर्मों में क्या कभी बटा खून?
तुम राम मेरे जिसमें जुनून
ग़रीबों सर्वहारा को दे रहा सुकून
अपनी सेवा से मरते को जिला दिया जिसने
भूखे को अन्नदाता बना दिया जिसने।
छोटे-बड़े का न भेदभाव?
अपनी भाषा अपनी संस्कृति पर उसको गुमान
जो है धरती पर सच्चा इंसान!
न झुके शक्ति वालों से कभी
वी आई पी से सदा रहे दूर।
मुझको शिक्षा और सीख बड़ी, हे राम मेरे!
लगते हैं दूसरों के दुःख और संग्राम मेरे।
धैर्य, दया सेवा, हिम्मत और साथ दिया
मंदिर-मस्जिद-गुरुद्वारों और बौद्ध मठों से
निकल बनो तुम राम! समाज के.
तुम मिटा सकते हो सड़क से धुंआ,
भ्रष्टाचार का कुआँ, जहाँ पानी भी मोल बिके?
नहीं करो तुम चाकरी उनकी,
जो चार दिनों के पद वाले?
सत्ता के गलियारों की न भीड़ बनो?
तुम समाज की रीढ़ बनो
श्रम से, शिक्षा से और समर्पण,
जन-जन के तुम कल्याण बनो.
तुम राम बनो, तुम राम बनो.
धरती बोझ बनो नहीं बनो अन्यायी बनकर।
भ्रस्ट हाथ में नहीं बिको बंदी बनकर।
स्वछंद बनो, निष्पक्ष बनो
जैसे चिकित्सक और न्यायधीश?
शीश बनो, तुम देश समाज के रखवाले।
दुखियों का संगीत बनो,
अन्यायी के विरुद्ध तुम युद्ध करो।
गरीबों और असहायों के नेतृत्व बनो
आत्मनिर्भरता का सन्देश भरो
दृढ़ता से संकल्प करो!
यह देश समाज और विश्व हमारा
मंदिर-मस्जिद से बढ़कर कर्म सत्य है।
भूखे को भोजन,
अस्पताल में घायल को खून देकर अमरत्व भरो।
तुम कर्म करो तुम वीर बनो
हे बंधू तुम राम बनो जन-जन के
अन्याय विरुद्ध संग्राम करो,
न्याय करो।
तुम जनता के राम बनो।
न ही राजाओं के प्रसाद में
तुम लेते-देते साथ उसी का जो धरती का असली पुत्र
हो राजा - धनियों के कृपापात्र भी
पर नहीं लिया उनका साथ कभी।
तुम्हारे लिए है असहाय जनो की सत्ता सबसे ऊपर।
तुम मित्र बने, वानर के, बनवासी के, केवट के
मेहमान बने जन -जन के
शबरी के जूठे बेर चखे
भेदभाव से परे राम हो।
करुणानिधान हो।
तुम जो मंदिर के बाहर सेवक हो, तुम राम मेरे।
लड़ते सारे संग संग्राम मेरे।
ऐसे बनो तुम राम मेरे।
-सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक', Oslo, 26.06.19
स्वामी विवेकानन्द जन्म:12 जनवरी 1863 और मृत्यु: 4 जुलाई 1902 की
पुण्यतिथि पर काव्यांजलि:
हे विवेकानन्द कोटि-कोटि नमन
हे महामानव!
श्रमदान तुम्हारा नारा था,
जनसेवा ही आधार जहाँ
विवेक का सत्कार वहाँ था,
तुम सच्चे हिन्दू!
सच्चे मानव!
उठो, युवा तुम,
मेड़ बनाओ, जल बचाओ।
पेड़ पौधों की खेप लगाओ।
कागज़ नगर में पेड़ लगाने
पहुंची थी एक महिला अधिकारी,
पीट-पीट कर घायल करते
जो हट्टे-कट्टे मुस्टंडे तिलचट्टे!
उनके दाँत न कर पाये खट्टे,
ताकि दोबारा जुर्म न ढायें।
हे सन्त विवेकानन्द महान सुनो!
अब भारत देश बदल रहा है,
फिर से आना विवेकानन्द यहाँ,
पानी की किल्लत,
भूखी गायें चौराहों घूम रहीं,
दूध की किल्लत।
दवा और चिकित्सक बिन बच्चे मर रहे यहाँ?
वे सब समाज पर बोझ बने हैं,
हाथ पर हाथ रखे जो घर बैठे हैं।
विवेकनन्द को याद करो!
जुट जाओ शिक्षा घर-घर पहुँचाने,
देश में साक्षर सभी बनेंगे,
एक -दूजे के लिए जियेंगे।
लें आज शपथ
यही हमारी श्रद्धांजलि हो,
हे महापुरुष विवेकानन्द महान।
दूर करो जलवाय प्रदूषण,
ट्राफिक में अनुशासन हो।
जब तक हर घर आँगन अलमारी में
हरे-हरे पौधे न होंगे
तब तक युवा न चैन से बैठेंगे।
गाँव-गाँव में बस्ती-बस्ती में,
मेढ़-तालाब, पिआऊ बनायें।
कोई न प्यासा-भूखा रह जाये।
पर यह अपने आप न होये,
श्रमदान से ही सब कर पायें।
सभी को साफ़ हवा-पानी पहुंचायें।
जब सभी यहाँ साक्षर होंगे,
जनसँख्या स्वतः कम हो जाये।
जीवन को अनमोल बनायें।
(स्वामी विवेकानंद जी कि आज पुण्यतिथि है उन्हें कोटि-कोटि नमन. जब भारत में सूखा और महामारी फ़ैल रही थी तब उन्होंने गरीबों की आजीवन सेवा की और देश विदेश में मान दिलाया।)
-सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक', 04.07.19
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