सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
आशिकों का दौर है बच के रहा करो,
एक पाँव संघर्ष में है और एक जेल में.
अच्छा तो तुम जान गए
आत्मा बिकती नहीं,
फिर भी खड़े कतार में, इस इंकलाब के.
अब वह न मालिक रहे न अखबार बाजार में,
जेल में भी बैठकर लिखने का हौंसला दें सकें.
सच क्या है मत कहो, बिकने का मौसम है,
खेत में उगी फसल की तरह जला दिए गये.
चार दशक तक अखबारनवीसी से सीखा है,
सर उठाकर मरना यहाँ अपना ही कत्ल है.
तुम कहते थे प्रेम करते हैं जान लुटा देंगे,
वक्त आया जमानत का तो पाला बदल लिया।
दलबदल कला है अवसर की तलाश का,
अब तो कौम को गिरवी रखने का वक्त है.
- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
Oslo, 31.03.21
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