हमारी स्मृतियों में भारत
12 मार्च 2023 विचारों में खोजते बचपन
मैं जागूँ या सोऊँ एक बात तय है कि मुझे सबसे ज्यादा अपने देश के सपने देखता रहता हूँ। मेरे बारे में यह कहावत सही लगती है कि मैं सोते-जागते हुए दोनों तरह सपना देखता हूँ। अपने वतन के बारे में विचार कर मुझे बहुत अच्छा लगता है। शायद ही कोई ऐसा हो जिसे अपने प्यारे वतन, बचपन, मित्र और मोहल्ले वाले के सपने न देखता हो, अर्थात उन्हें स्मरण करके उसका मन पुलकित न होता हो।
हमारी स्मृत्यों में यह भारत सदा छाया की तरह पीछा करता है। हमारे मन में जो होता है उसकी आकृति भी हम देखना चाहते हैं।
स्वप्न टूटा फोन में अलार्म की आवाज से। स्वप्न में मैं रेल में विचरण कर रहा था। वह भी बुफे वाला डिब्बा। यानि मेरे डिब्बे में चाय पानी का पूरा इंतजाम था।
मैं सपनों में अक्सर अपना सामान भूल जाता हूँ या रेल से देरी से बाहर आता हूँ। कहा जाता है कि स्वप्न उल्टा होता है, यह बात यहाँ सत्य है क्योंकि मैं रेल में मैं समय से पहले पहुँचता हूँ। हाँ हवाई जहाज के लिए हवाई अड्डे पर देरी से अनेक बार पहुंचा हूँ और जहाज छूट गया।
अभी हाल में भी लख़नऊ एयरपोर्ट पर रायपुर के लिए इंडिगो एयरलाइंस से जहाज छूट गया है। दिन पर दिन एयर लाइंस की सेवा ख़राब होने लगी है इसका कारण सेवाओं की गुड़वत्ता से ज्यादा कमाई पर ध्यान देते हैं एयलाइंस वाले। आजकल यह बहाना ज्यादा बढ़ गया है जबसे एयरपोर्ट की जिम्मेदारी के नाम पर पैसा कमाने वाले हमारे शीर्षस्थ नेताओं के मित्र एयरपोर्ट से भरपूर क़ानूनी और गैरकानूनी तरीके से धन कमा रहे हैं। कहाँ मैं समाचार की तरह बाते करने लगा।
खैर मैं वापस लौटता हूँ जहाँ से बात शुरू की थी।
आज फोनकाल आया वीरेन्द्र वत्स (पूर्व संपादक, हिंदुस्तान लखनऊ) का उन्होंने साहित्य अकादमी दिल्ली के बारे में मुझसे कुछ जानकारी लेनी चाही और नए अध्यक्ष के बारे में पूछा। दूसरे फोनकाल पर मेरे रेलवे में युवावस्था में रहे मेरे राजनैतिक मित्र वीरेन्द्र मिश्र, नरेंद्र दुबे और बचपन बिताये मोहल्ले पुरानी ऐशबाग कालोनी, ऐशबाग के विशाल पाण्डेय और नीरू ने की।
आज भी 560 घरों और 70 ब्लाक में बसी यह पुरानी ऐशबाग कालोनी, लखनऊ मेरे लिए बड़ी दिलचस्प है। यहाँ से झरे हैं हजारों यादों के हरसिंगार। गरीब निम्न मध्य श्रेणी परिवार में जन्मे और पला और बड़े हुए। यह आनन्द चाँदी का चम्मच लेकर पैदा होने वाले क्या जानें।
जब भारत में रहता था तब अपने पास पड़ोस, नाते रिश्तेदार यानी कि एक सीमित दायरा था किसी को याद करने का। अब पूरा भारत एक परिवार लगने लगा। विदेशों में रहने वाले भारतीय भी जो मेरे संपर्क में हैं और फोन पर अथवा डिजिटल गोष्ठी में मिलते और बातचीत करते हैं तो वे भी विदेशी नहीं लगते। इसी अहसा ने मुझे इस पुस्तक लिखने की प्रेरणा दी।
हमारी स्मृतियों में भारत शीर्षक से लिखे संस्मरणों और आपबीती में दिए सभी उदाहरण और कथाएं केवल अपने देश और परिवार की भावनाओं में दुलार और प्रेम से पली-बड़ी हुई स्मृतियाँ मेरी साँसों का हिस्सा बन गयीं।
आप भी हमारी इन साँसों की नाव में स्मृतियों के सहारे सैर करें और सहयात्री बनें। आपको इसके लिए रेल, जहाज, पानी के जहाज अथवा रिक्शा, तिपहिया, बस, और मैट्रो से यात्रा नहीं करने पड़ेगी। मेरा वायदा है यह यात्रा मैं इस पुस्तक के माध्यम से कराऊंगा।
लखनऊ के मध्य में ऐशबाग ईदगाह के पीछे और ऐशबाग रोड, लखनऊ के किनारे बसी पुरानी श्रमिक बस्ती में तीन बड़े और दो बहुत छोटे पार्क हैं। इनके बड़े पार्कों के नाम इस प्रकार हैं: नेहरू पार्क (नेता वाली पार्क), नीम वाली पार्क, सेंटर वाली पार्क। छोटे दो पार्कों के नाम हैं कुँए वाली पार्क और गुरुद्वारे वाली पार्क। यहाँ पर मैंने कविता लिखी जिसमें आज कुछ पंक्तियाँ साझा कर रहा हूँ।
"जीवन में जिसकी सादगी ईमान रहा है,
पुरानी श्रमिक बस्ती में सालिकराम रहा है।
पप्पू, महेश धमीजा और दिलीप के बच्चे,
जहाँ उनके मकान थे, अब दूकान वहां है।
यह नेहरू पार्क, कुंआं और खजूर जहाँ रहा,
भारतवासी, शिव नारायण का घर वहां रहा।
संस्कृति - शिक्षा - समाज का सच्चा आइना,
सेंटर वाली पार्क सदा वह केन्द्र रहा है।
भगत जी, चावला बच्चों से तुड़वाते गुलेल थे,
अहिंसा और प्यार उन्हें सिखाते बड़े अदब से।
लगाए थे अनेकों पेड़ जो शिव मंदिर के पास हैं,
शाम को आसपास बाजार आबाद हो गये।
सेंटर वाली पार्क में फेलियर भले बहुत थे,
विदेश की भूमि पर पर झंडे गाड़े जरूर थे।
वी पी सिंह (55/8) आज भी उस दौर के गवाह,
दर्शन सिंह (69/8) साथी अब 90 बरस के हैं।
- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , 120323
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