आँखियों के खरोखे में
सुरेश चंद्र शुक्ल
ओस्लो, नार्वे
एक
दिलासा दे रहे हैं अमलतास।
खिलखिलाते रहे हैं अमलतास।
झालरें ज्यों छू रही आकाश,
झूमरों से झूलते अमलतास।
कभी पूरी हो न सकी वह आस,
प्रेम कहीं हो ज्ञान का इतिहास।
तपती जेठ ग्रीष्म रथ पर सवार,
हाथ पीले कर रही अमलतास।
धू धू कर धधक कर
अमलतास खिल जाते हैं।
आँगन में पीले सफ़ेद
हरसिंगार बिछ जाते हैं।
हरसिंगार महकता बगिया में,
चाँदनी साथ खिलती थी।
भू से चुन चुनकर लाता,
फिर प्रिय को देने जाता।
सुदर्शन, बेला और चमेली,
गुलाब सदा हँसता था
रातरानी की महक से
पथिक भी रुकता था.
दो
कबूतर का आँख बंद गुटर गूँ,
पंछी का आँगन में चहचहचहाना।
तब बयार का द्वार खटखटाना,
सुराही सी याद तेरी आना।
पहरा दे, द्वार पर सो रही माँ,
छोटे घर में लाज ही दीवार।
बयार बैरन प्रिय खटखटाती,
आँख लगी है कौन खोले द्वार।
आकाश से आँगन उतरे पंछी,
सूप से अनाज बछोर रही माँ।
फुदक कर दाना चुग रही चिड़िया,
आज हमारी अँगुली पकड़े माँ।
ओस्लो, 13.05.25
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