सोमवार, 27 फ़रवरी 2012

हिन्दी ब्लागलेखन की विस्तृत भूमिका - - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , ओस्लो, नार्वे

हिन्दी ब्लागलेखन की विस्तृत भूमिका
- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , ओस्लो, नार्वे

(लेखक सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' गत ३२ वर्षों से नार्वे में हिन्दी का प्रचार-प्रसार कर रहे  है और गत 25 वर्षों से नार्वे प्रकाशित द्वैमासिक, द्वैभाषिक (हिन्दी-नार्वेजीय) पत्रिका स्पाइल-दर्पण के सम्पादक और 'वैश्विका' साप्ताहिक के संस्थापक हैं और स्वयं ब्लाग लेखन भी करते हैं. विदेशों में हिन्दी साहित्य और मीडिया में महत्वपूर्ण योगदान देने वालों में सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' का नाम महत्वपूर्ण है. आपके दो कहानी संग्रहों और आठ काव्य संग्रहों के अलावा नाटक संग्रह तथा अनुवाद साहित्य में नार्वे, स्वीडेन और डेनमार्क के साहित्य से हिन्दी में अनुवाद भी किया है: अनुवाद में  हेनरिक  इब्सेन  के नाटकों  'गुड़िया का घर' और 'मुर्गाबी'  कथाओं में  'नार्वे की लोककथायें' तथा डेनमार्क के एच  सी अन्दर्सन  कथायें  तथा  नार्वे,  स्वीडेन और   डेनमार्क  के प्रसिद्द कवियों की कविताओं का अनुवाद भी किया है.  )

आज सन् 2012 में हिन्दी ब्लॉग लेखन की बड़ी भूमिका है. एक दशक से हिंदी ब्लागिंग ने जन संचार में एक धूम मचाई है जिसकी जितनी प्रशंसा की जाए वह कम है.
भारत में मैंने हिन्दी को वैश्विक परिदृश्य में एक चमकते सितारे की तरह देखा है.
शोध पत्रिकाओं की अहम् भूमिका
पहले हिन्दी में शोध पत्रिकाओं का अभाव था पर जिस तरह अनेक नयी-नयी शोध पत्रिकायें प्रकाशित हो रही हैं वह हिन्दी के उज्जवल भविष्य की ओर संकेत कर रही हैं. विश्वविद्यालयों में शोधकर्ता और शोध गुरुओं द्वारा हिन्दी के वैश्विक धरातल पर स्तरीय वैश्विक शोध द्वारा हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित किया जा रहा है. जैसा कि अनेक दशकों पूर्व अंग्रेजी और यूरोप में अभी भी अनेक भाषाओँ के शोध मात्र सरकारी धन से ही संपन्न हो रहे हैं वहाँ हिन्दी का प्रचार-प्रसार निस्वार्थ भाव से देश विदेश के हिन्दी प्रचारक, लेखक और समाजसेवी कर रहे है. हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं को चाहिए कि वे अन्य भारतीय भाषाओँ की अच्छी -अच्छी रचनाओं और शोध कार्य को हिन्दी पाठकों के सामने रोचक और स्तरीय तरीके से प्रस्तुत करें. इससे किसी को भी हिन्दी द्वारा सभी भारतीय भाषाओँ के साहित्य के दर्शन होंगे. अनेक प्रवासी लेखकों और अनुवादकों ने विदेशी साहित्य को हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओँ में अनुवाद किया है और आगे भी कर रहे हैं जो हमारी भाषा और साहित्य के असीमित विस्तार की तरफ संकेत करता है. शोध पत्रिकाओं ने अपने नेट पृष्ठ भी बनाये हैं और ब्लागलेखन में भी सम्मिलित किया है.

फोन पर हिन्दी (देवनागरी) में सूचना और सन्देश

फोन पर हिन्दी (देवनागरी) में सूचना और सन्देश भेजना शुरू हो गया है. इंटरनेट पर तो हिन्दी में पत्राचार बहुत पहले शुरू हो गया था. दो दशक पूर्व वेबदुनिया ने पाठकों को अपने पृष्ट हिन्दी में बनाने और ई-पत्र की हिन्दी में सुविधा दे रखी थी. इसमें मुझे भी जुड़ने का अवसर दो दशक पूर्व मिला था. हालाँकि वह उतना विकसित नहीं था पर शुरुआत को बहुत प्रशंसनीय कहा जाएगा.

भारत सरकार के आई टी मंत्रालय ने तो हिन्दी के प्रोग्राम को निशुल्क देकर हिन्दी का बढ़-चढ़कर प्रचार-प्रसार किया था. इस सम्बन्ध में मैं एक बार रेलवे में राजभाषा के तत्कालीन निदेशक डॉ. विजय कुमार मल्होत्रा के कहने पर ओम विकास जी से मिलने गया था. ओम विकास जी और विजय कुमार मल्होत्रा की भी इंटरनेट में हिन्दी के विकास और प्रसार में महवपूर्ण भूमिका है जिसे भुलाया नहीं जा सकता है.

विदेशों में बसे हिन्दी के रचनाकारों के हिन्दी ब्लॉग लेखन ने नये आयाम दिए हैं. चाहे वेब पत्रिकाओं के स्तम्भ हों, या स्थापित और छोटे-बड़े समाचार पत्र के स्तम्भ समाचार वे ब्लॉग से जुड़े दिखाई देते हैं. नार्वे से सुरेशचन्द्र शुक्ल का ब्लाग, यू के कथा, अभिव्यक्ति नेट पत्रिका के साहित्यिक समाचार और सैकड़ों इसके अच्छे उदाहरण हैं. इस लेख में विस्तार से लिख पाना संभव नहीं हो रहा है पर जैसे ही लेखक को और जानकारी प्राप्त होगी निकट भविष्य में उसे प्रस्तुत किया जायेगा.

भारत में तो ब्लागलेखन के अनेक समूह वेब पर उभर के आये हैं. ब्लॉग लेखन पर पुस्तकें भी छप रही हैं भले ही वह अपनी छमता के कारण ब्लाग लेखन के विस्तार को अपनी पुस्तक में समाहित नहीं कर पाये हैं.

विश्व हिन्दी सम्मलेन न्यूयार्क में ब्लॉग लेखन पर गोष्ठी
ब्लॉग लेखन करने वाले प्रवासी लेखकों की एक बैठक सन् २००७ में विश्व हिन्दी सम्मलेन न्यूयार्क में होटल के प्रेस कक्ष में हुई थी. इसमें अनेक मीडिया के सदस्य भी उपस्थित थे. एक कवि गोष्ठी भी संपन्न हुई थी जिसका सीधा फोन के जरिये अमरीकी रेडियो में प्रसारण भी हुआ था इस कवि गोष्ठी में अभिनव शुक्ल आदि की प्रमुख भूमिका थी. दोनों गोष्ठियों में लेखक (सुरेशचन्द्र शुक्ल) स्वयं भी उपस्थित थे. इसमें विदेश विभाग के प्रतिनिधि के अलावा एक भारतीय दूतावास के हिन्दी अधिकारी भी उपस्थित थे.

विश्वहिंदी सम्मलेन समाचार बुलेटिन में स्थान की कमी और पहुँच के कारण ये समाचार प्रकाश में नहीं आ पाये. दूसरा कारण ये विषय विश्व हिन्दी सम्मलेन के किसी सत्र में समाहित नहीं किये गये थे. विदेशों में किये जा रहे हिन्दी ब्लागलेखन के योगदान को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि इनके लेखन में विविधता के साथ-साथ विस्तार भी है. हिन्दी की सरकारी और गैर सरकारी पत्रिकायें ब्लॉग लेखन और विदेशों में जा रहे हिन्दी लेखन की सूचना प्राप्त करने के लिए प्रयास कम करती हैं. ये पत्रिकायें प्राय भेजी गयी और अपनी परिधि में प्राप होने वाली सूचनायें और सामग्री प्रकाशित कर अपनी लेख संबंधी जरूरतें पूरा करती हैं.
आशा है कि आगे चलकर इस पर शोध किया जाएगा और नयी सूचनाओं और प्रगति की सूचनाओं के साथ देश विदेश की हिन्दी पत्रिकायें हिन्दी ब्लागलेखन पर विस्तृत और विश्वसनीय सूचनायें प्रकाशित करेंगी.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए जरूरी विचारों का प्रकाशन
प्रतिष्ठित समाचार पत्रों द्वारा अपने पत्रों के ब्लॉग समूह स्थापित किये गये हैं और पाठकों, लेखकों और अपने पत्रकारों को उसमें सम्मिलित भी किया है. ऑनलाइन प्रतिक्रिया को भी प्रकाशित करके हिन्दी में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को वह आयाम दिया है जो पहले अनेक कारणों से संभव नहीं था. आवाज दबाने से कभी भी हल नहीं निकलता और अभिव्यक्ति होने से उसके जवाब में भी प्रतिक्रिया होती है जो एक जनतंत्र और खुले समाज के लिए जरूरी है. किसके मन में क्या है उसका भी पता चल जाता है.

माँ बाप को बच्चा दिलाने के लिए भारतीय अधिकारी नॉर्वे में

माँ बाप को बच्चा दिलाने के  लिए भारतीय  अधिकारी नॉर्वे में
(साभार 'समाचार पत्र' २७.०२.१२) ओस्लो. भारत और नार्वे के मध्य अच्छे सम्बन्ध हैं.  भारतीय सरकार ने बच्चों को भारत ले जाने के लिए सार्थक प्रयत्न किये हैं जिसमें भारतीय राजदूत और नार्वेजीय राजदूत  एक सकारात्मक भूमिका निभा रहे हैं.
भारतीय विदेश मंत्रालय के एक वरिष्ठ अधिकारी को नॉर्वे भेजा गया है ताकि वो एक भारतीय दंपति को उनके बच्चों को सौंपने के सिलसिले में बातचीत कर सकें.

विशेष दूत मधूसुदन गणपति नॉर्वे के विदेश मंत्री और दूसरे उच्च अधिकारियों से बातचीत करेंगे.
इससे जुड़ी ख़बरें‘देखभाल’ के लिए बच्चे और मां-बाप जुदा नॉर्वे में बच्चों से मिले भारतीय दंपति 'ऐसा भी नहीं कि बच्चे अनाथ हैं और उनका कोई वतन नहीं'.  भारत भारतीय विदेश मंत्रालय के एक प्रवक्ता सईद अकबरुद्दीन ने ट्वीट पर कहा कहा कि विशेष दूत गणपति सभी जरूरी अधिकारियों से मिलेंगे.
नॉर्वे के बाल कल्याण अधिकारियों ने पिछले साल मई में अनुरूप भट्टाचार्य और उनकी पत्नी सागरिका को उनके दो छोटे बच्चों को ये कहते हुए उनसे छीन लिया कि वे बच्चों की ठीक से देखभाल नहीं कर पा रहे.
इस घटना को लेकर ख़ासा हंगामा हुआ और भारत सरकार को भी इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा है जिसने नॉर्वे के विदेश मंत्रालय से संपर्क किया है.
कुछ दिनों पहले नॉर्वे के तीसरे बड़े शहर स्तावान्गेर में काम कर रहे अनुरूप भट्टाचार्य और उनकी पत्नी सागरिका भट्टाचार्य को तीन महीने बाद अपने बच्चों से मिलने दिया गया था.
तीन वर्षीय अभिज्ञान और एक वर्षीया ऐश्वर्या - से उनकी कुछ घंटे की मुलाक़ात बाल कल्याण विभाग के एक दफ़्तर में हुई.
फ़िलहाल नॉर्वे के अधिकारी इन बच्चों को उनके चाचा को सौंपे जाने के बारे में विचार कर रहे हैं.
नॉर्वे के अधिकारियों ने उम्मीद जताई है कि अगले दो हफ़्ते में इस बारे में कुछ तय कर लिया जाएगा.
मगर बच्चों के माता-पिता का कहना है कि अभी कुछ भी तय नहीं हुआ है और उन्हें बताया गया है कि बच्चों को सौंपे जाने को लेकर देर हो सकती है.
इस बीच बंगाल में रहने वालों उन बच्चों के नाना-नानी दिल्ली में नॉर्वे की दूतावास के बाहर सोमवार से चार दिनों तक धरना कर रहे हैं.
ध्यान रहे बच्चों की सही देखभाल न करने और लापरवाही के कारण बच्चों की  सही देखरेख के अभाव में बच्चों की देखभाल माता-पिता से ले ली गयी थी.
नार्वे में बच्चों की देखभाल विश्व के उच्च स्तर  पर किया जाता है. यहाँ सामाजिक और उच्च स्तर पर बच्चों की परवरिश किये जाने में विश्व में बड़ा नाम है. यदि भारत सरकार सहयोग न करे तो बच्चे १८ वर्ष से पहले माता पिता को मिलना संभव नहीं है.  इस सम्बन्ध में भारत से दूत भेजे गए हैं जो नार्वे में सरकार के प्रतिनिधियों से इस बारे में मिलकर समझौता करने का प्रयास करेंगे.

मंगलवार, 21 फ़रवरी 2012

अन्ना मारा गया (कहानी) -सुरेशचंद्र शुक्ल ,शरद आलोक'

अन्ना  मारा गया  (कहानी) पहला  भाग -सुरेशचन्द्र शुक्ल ,शरद आलोक'
 'अन्ना मारा गया, मशहूर समाजसेवक अन्ना मारा गया. आज की ताजा खबर.', 'आइये लीजिये मुफ्त अख़बार-नए-नए ताजे समाचार.  लखनऊ नगर का मशहूर चारबाग़ रेलवे स्टेशन पर एक अखबार बेचने वाला आवा ज लगा रहा है. लोग उसकी तरफ देखते हैं जो जल्दी में नहीं हैं वह अख़बार लेते जा रहे हैं. हाकर की फुर्ती उसकी सक्रियता का बयां कर रही थी. वह बिना थके गोहार  लगा रहा है, आइये नवाब साहेब, बहनजी ताजा समाचार है, चाय के साथ नाश्ता करना भूल जायेंगी, नवाब साहेब आइये और मिर्च और मुरब्बे सी ख़बरों का लुफ्त उठाइये'. यात्रियों की भीड़ स्टेशन की ओर उमड़कर जा रही है. अखबार वाला सड़क के मध्य बने डिवाइडर पर अखबार रखे हैं. उसके बगल में बैठी एक महिला नीम की दातून बेच रही है. आज भी कुल्ला करने का पुराना तरीका. एक सज्जन मुख में दातून दबाए दातून  को अपनी अँगुलियों से  घुमाते हुए दूसरे हाथ  से अखबार पकड़ते हैं और अखबार वाले से पूछते हैं, 'किसने दी है परमिशन अखबार बेचने के लिए.'
'इसमें अनुमति की क्या जरूरत है भाई साहेब',  कहते हुए अखबार  वाला लोगों को अखबार पकड़ा रहा था. निडर. बेख़ौफ़. दातुन वाले ने पूछा,
'क्या नाम है तुमारा?'
'अन्ना.'
'तुम  तो  कह  रहे हो  अन्ना मारा गया.'  उसने दातून की कूची मुख से निकली और वहीं बगल में थूकते हुए पूछा था.
'हाँ बाबूजी, पर हम क्या करें? क्या अन्ना मेरा नाम नहीं हो सकता.' अखबार वाले ने जवाब दिया और  शुरू हो गया अपने अखबार का प्रचार करने'
'बेरोजगारी का नया व्यापार, नरेगा का  पैसा लूटकर नेता मालदार.' 
'अखबार बेच रहे हो या कविता कर रहे हो.'
'हाँ, जनाब कविता भी कर लेता हूँ.'  उसने आगे कहा, 'आप लखनऊ के नहीं लगते हो तभी आपको नहीं मालुम कि लखनऊ का हर दूसरा शहरी शायराना अंदाज में बात करता है.' तभी उस अखबार वाले के मोबाइल फोन की घंटी बजी. 'उसने मोबाइल फोन उठाया. और कहा बीच सड़क पर छोटी लाइन के सामने' वह दातून से कुल्ला करने वाला आदमी अखबार वाले के नजदीक आ गया और पूछने लगा, 
' किससे टर-टर कर रहा है ?'
अखबार वाले ने वहां से हटकर अपने मोबाइल फोन पर कुछ कहा और खुला मोबाईल अखबार के पास रखकर अखबार के गठ्ठर के पास आ गया.
दातून वाला आदमी उसके पीछे -पीछे आ गया. तभी एक मोटर साइकिल से सवार दो युवक उतरे और अपना कमरा एक युवक के पीछे छुपकर रिकार्ड करने लगे. 
अखबार वाले ने पूछा,' क्या कहते हो भैया? मुझे अखबार क्यों नहीं बेचने देते?''
'यहाँ मेरा ठेका चलता है. मुझे भी उगाही करके देना पड़ता है.' अखबार वाला उसकी बात सुनकर अपना मोबाईल हाथ में लेकर दोबारा पूछने लगा क्या कहा भैया, शोर में सुनायी नहीं पड़ा? जरा जोर से बोलो?
' मैंने कहा मेरा यहाँ ठेका चलता है. मुझे भी आगे पासे देने होते हैं. तुम्हें भी कुछ न कुछ देना पड़ेगा.' दातून कर रहे आदमी ने अपनी दातून बीच सड़क पर फेकते हुए बोला.
'हमने तो सुना था यहाँ सरकार राज है, पर यहाँ तो आपका राज लगता है.', अखबार वाले ने व्यंग्यात्मक लहजे में  और कहने लगा,  दातून वाला सुनकर आग बबूला हो गया.
,  'तुम यहाँ बिना कुछ लिए दिए अखबार नहीं बेच सकते?'
'देखो भैया घूस लेना और देना जुर्म है' दातून वाले ने कंधे पर लटके झोले से एक स्वेटर निकाल  और उसे पहन लिया स्वेटर के मुड्ढे पर पुलिस का बिल्ला लगा था. 
'अख़बार वाले के मुख में कोई शिकन नहीं थी. वह बेधड़क अखबार बेचने की गोहार लगाता  जा रहा था,
'आज की ताजा  खबर, खुलेआम पुलिस सिपाही घूस मांग रहा, जनता बेखबर.'
उसके यह कहते ही वहां भीड़ एकत्रित होने लगी. सिपाही पहले हड़बड़ाया फिर  संभलकर आरोप लगाता हुआ  बोला, 
'बीच सड़क में खड़े होकर रास्ता जाम करते हो. तुम्हें थाने  में बन्द करवा दूंगा.' 
अखबार वाले ने जवाब दिया, ''जब आप मुझपर दबाव डाल  रहे हो घूस के लिए, तो चलो देता हूँ. मेरे पास जरा छुट्टे रूपये नहीं हैं सौ का नोट है. जरा इसे तोड़ा लूं.' कहकर  वह मोटरसाइकिल वाले एक युवक से पास आ गया. नोट देने का इशारा करता है, सिपाही पीछे-पीछे आता है.
'बढ़ाओ हाथ और पकड़ो अपनी उगाही.''  सिपाही से ऊपर हाथ उठाकर पैसे लेने को कहता है. सिपाही पचास का नोट जेब में डालने का इशारा करता है. पर अखबार वाला कहता है ,
'एक तो आप जबरदस्ती पैसे मांग रहे हो, ऊपर से लेने से डरते भी हो.'
सिपाही को मानो ताव आ गया और उसने कहा, 'कौन डरता है, लाओ उसने हवा में हाथ उठाया और पचास का नोट पकड़ लिया. और कहा 'या तुम्हरे फुटपात  का किराया है.'   
'तो फिर रसीद भी दोगे?' अखबार वाले ने कहा. 
'काहे की रसीद.' कहकर वह सिपाही की वर्दी में सिपाही जाने लगा, पर अखबार वाले ने जिद की तो उस आदमी ने अखबार वाले को अपना परिचयपत्र दिखाया और बताया कि वह पास के थाने  में सिपाही है.
(शेष कहानी आगे पढ़िए .....इसी ब्लॉग पर धन्यवाद. )
 
 
  वह  दूसरी और  motar
   


 खबरदार.' दूर करें' नरेगा का उपहार'   
     

शनिवार, 18 फ़रवरी 2012

विदेशों (नार्वे) में हिन्दी शिक्षा - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

दिल्ली के साहित्यिक परिवेश और विदेशों (नार्वे) में हिन्दी शिक्षा - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

चित्र  में:  हिन्दी  स्कूल  नार्वे में रंगों के पर्व होली पर रंबिरंगे चेहरे   


दिल्ली के साहित्यिक परिवेश को लेकर मेरे अन्दर कुछ धारणाएं हैं. दो बार समाचार पत्रों में साक्षात्कार के बाद भी उन धारणाओं को किसी ने सार्वजनिक रूप से जवाब नहीं दिया. दिल्ली में साहित्यिक लेखकों का बटाव और अलगाव केवल विचारधारा को लेकर ही नहीं है. साधारणतया राजनैतिक विचारधारा से भी नहीं बंधे हैं लेखक और उनके खेमे. अपने तर्क को उचित ठहराने और तार्किकता से दूर रहने के कारण बहुत से लेखकों ने वर्षों से विदेशों में रची जा रही साहित्यिक सेवाओं (भारतीय भाषाओँ के लिए जिनमें मुख्यता हिंदी, पंजाबी, उर्दू, तमिल, मराठी, तेलगू और अन्य भारतीय भाषाओँ) का ठीक से जिक्र न ही अपने संस्मरण में किया है न ही अपनी अन्य रचनाओं में. इसीलिए हमने यह बीड़ा उठाया है कि विदेशों में हिंदी, पंजाबी, उर्दू का प्रचार-प्रसार करते हुए विदेशों में रचे जा रहे सामयिक उपलब्धियों को ऐतिहासिक, साहित्यिक और राजनैतिक कृतियों में स्वयं भी लिखेंगे और अन्य अपने जैसे सैकड़ों रचनाकारों और अन्य प्रतिभाशाली लोगों के बारे में भी लिखेंगे ताकि, सही तस्वीर उपस्थित दर्ज हो सके.


भारतीय और विदेशी विश्वविद्यालयों का साहित्यिक और सांस्कृतिक रूप से देश-विदेश में की जा रही सेवाओं और कृतियों को प्रकाश में लाने और उन्हें प्रकाशित तथा प्रसारित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है.

विदेशों में भारतीय भाषाओं के और अपने प्रवास-निवास के देश की भाषा के साहित्यकारों ने ऐतिहासिक भूमिका निभायी है इन संकलनों में यहाँ केवल उन्हें ही सम्मिलित कर रहा हूँ जिन्होंने खुली दृष्टि से बिना भेदभाव के सही तस्वीर अपने साहित्य में अपने साक्षात्कारों में और अपने व्याख्यानों में प्रस्तुत किया है. यहाँ धार्मिक लेखन का जिक्र नहीं है.

लेखक गोष्ठियों और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भारतीय भाषाओं हिन्दी, पंजाबी और अन्य भाषाओँ का प्रचार और प्रसार
नार्वे, स्वीडेन, फिनलैंड और डेनमार्क में साहित्यिक और भारतीय भाषाओँ को, वहां की भाषाओँ और वहां बच्चों और युवाओं की सामाजिक और सामयिक आवश्यकताओं के अनुसार शिक्षा द्वारा और साहित्यिक, लेखक गोष्ठियों द्वारा प्रचारित करने का जो आन्दोलन शुरू किया है. हिन्दी स्कूलों और अन्य संस्थाओं के माध्यम से सहकारिता भाव से हिन्दी शिक्षा को दिया जाना और सीखने वाले देश विदेश के क्षत्रों अपने कार्यक्रमों में सम्मानित किया जाना चाहिए.
बच्चों को द्विभाषीय सांस्कृतिक राजदूत बनाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय  भाषा हिन्दी की शिक्षा जरूरी
हिन्दी की शिक्षा देवनागरी लिपि में जरूरी है. क्योंकि देवनागरी लिपि वैज्ञानिक, सहज और प्रायोगिक है. किसी भी संस्कृति को अपनी मात्रभाषा और मूल भाषा सीखे बिना संभव नहीं है. अपनी भाषा-संस्कृति, उसकी जड़ों से जुड़े बिना हमारी पहचान अधूरी है. यह अविभावकों और सामजिक कार्यकर्ताओं का फर्ज है कि मात्रभाषा और मुख्य भारतीय भाषा हिन्दी के जरिये हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ की शिक्षा देना और उसमें भारत सरकार की रचनात्मक और उसकी उपलब्धियों की जानकारी देते हुए, भारतीय राष्ट्रीय और सांस्कृतिक पर्वों की जानकारी देते हुए अन्य धर्मों से सद्भाव रखने की की शिक्षा देते हुए जिस देश में रह रहे हैं उसके साहित्य और संस्कृति और सामयिक विषयों की जनकारी पत्य्क्रम में होना जरूरी है. तभी हम हिंदी सीखने वाले छात्र-छात्राओं को भाषा का सांस्कृतिक दूत बनाने में सफल हो सकेंगे जो अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद आने वाली पीढी को अपने देशों में हीनी कि शिक्षा के द्वारा प्रचार प्रसार न योगदान देते रहेंगे.
हिन्दी की शिक्षा सभी धर्म के मानने वालों या धर्म को न मानने वालों के लिए भी बहुत जरूरी है. हिंदी शिक्षा किसी का भेदभाव नहीं करेगी. हिन्दी शिक्षा को किसी के विचारों और और स्वतंत्रता का हनन नहीं करेगी और कट्टरवादिता से बचेगी.

नार्वे में हिन्दी की शिक्षा का प्रचार अनेक नगरों में
नार्वे में हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओँ की शिक्षा का प्रचार अनेक नगरों में हो रहा है. नार्वे में हिन्दी-स्कूल में अविभावकों द्वारा दी जा रहे शिक्षा के माडेल को स्वीडेन, डेनमार्क और फिनलैंड में भी प्रचारित किया जाना चाहिए जिसमें भारतीय राष्ट्रीय त्योहारों, राजनैतिक सिस्टम, पर्वों, धर्मिक और सामाजिक नाटकों और यहाँ जिस देश में हिन्दी की शिक्षा दी जा रही है यहाँ के पर्वों, परम्पराओं की भी शिक्षा को सम्मिलित किया जाना बेहद जरूरी है. बच्चों को आत्म निर्भर बनाने और नेतृत्व करने की क्षमता का विकास करने के लिए ओस्लो में दी जा रही हिन्दीस्कूल के तर्ज पर हिंदी की शिक्षा बहुत जरूरी है.

भारतीय राजदूत आर के त्यागी जी का आश्वासन
नार्वे में भारतीय राजदूत आर के त्यागी जी ने भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम और नार्वे से गत २४ वर्षों से प्रकाशित स्पाइल-दर्पण पत्रिका तथा हिन्दी स्कूल और अन्य संस्थाओं को आश्वासन दिया है कि यदि भारतीय दूतावास के सहयोग की जरोरत हो तो वह पूरा करेंगे और इस कार्य को प्रोत्साहित करेंगे जो स्वागत योग्य कदम है.
सभी को समान हिन्दी शिक्षा
हिन्दी को नार्वे के विभिन्न नगरों में प्रचारित करते हुए इसे विभिन्न उत्तरीय(स्कैंडिनेवियाई देशों: नार्वे, स्वीडेन, फिनलैंड, ग्रीनलैंड और आइसलैंड) में अपने भाई-बहनों, देशवासियों और अन्य राजनैतिक सहयोगी मित्रों के सहयोग से हिन्दी शिक्षा के माध्यम से और बढाया जाएगा.
हमारे बच्चे चाहे वह भारतीय मूल के हों या मूल स्कैंडिनेवियाई हों, लगन, परिश्रम और सहकारिता भाव से सभी को समान और अच्छी शिक्षा दे जायेगी.

शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

सपनों का महत्व जानने की कोशिश-1 -शरद आलोक

सपनों का महत्व जानने  की कोशिश -शरद  आलोक
चित्र  में कविता महोत्सव का दृश्य  

परसों स्वप्न देखा की मेरे दो अग्रज लेखक मित्र स्वप्न में दिखे और उनसे बात चीत हुई.
स्वप्न टूटने के बाद उन्हें संजोना या उन्हें उसी तरह याद रख पाना स्मृति शक्ति की सीमा से परे होता है. भले ही कुछ स्वप्न याद रह जाते हैं. ये दोनों लेखक मित्र थे कन्हैया लाल नंदन और राजेंद्र अवस्थी.  कन्हैया लाल नंदन ने एक शांति स्वरूप गंभीर व्यक्तित्व के धनी  कवि और सम्पादक के रूप  में प्रतिष्ठा पा चुके थे जबकि राजेंद्र अवस्थी जी कहीं गंभीर तो कहीं एक चंचल मनचले व्यक्तित्व, कहानीकार और साहित्यिक संपादक के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके थे.  उनके मझिले बेटे शिवशंकर अवस्थी (मुन्नू) आजकल अवस्थी जी के बाद आथर्स गिल्ड आफ इंडिया के महामंत्री हैं.  इन दोनों लेखकों में आपस में मित्रता नहीं थी. क्योंकि एक हिंदुस्तान टाइम्स ग्रुप के साथ था तो एक टाइम्स आफ इंडिया समूह के साथ.
दिल्ली के साहित्यिक परिवेश को लेकर मेरे अन्दर कुछ धारणाएं हैं. दो बार समाचार पत्रों में साक्षात्कार के बाद भी उन धारणाओं को किसी ने सार्वजनिक रूप से जवाब नहीं दिया. दिल्ली में साहित्यिक लेखकों का बटाव और अलगाव केवल विचारधारा को लेकर ही नहीं है. साधारणतया  राजनैतिक विचारधारा से भी नहीं बंधे हैं लेखक और उनके खेमे. अपने तर्क को उचित ठहराने और तार्किकता  से दूर रहने के कारण बहुत से लेखकों ने वर्षों से विदेशों में  रची जा रही साहित्यिक सेवाओं (भारतीय भाषाओँ के लिए जिनमें मुख्यता  हिंदी, पंजाबी, उर्दू, तमिल, मराठी, तेलगू और अन्य  भारतीय भाषाओँ)  का ठीक से जिक्र न ही अपने संस्मरण में किया है न ही अपनी अन्य  रचनाओं में. इसीलिए हमने यह बीड़ा उठाया है कि विदेशों में हिंदी, पंजाबी, उर्दू का प्रचार-प्रसार  करते हुए विदेशों में रचे जा रहे सामयिक उपलब्धियों को ऐतिहासिक, साहित्यिक और राजनैतिक कृतियों में स्वयं भी लिखेंगे और अन्य अपने जैसे सैकड़ों रचनाकारों और अन्य प्रतिभाशाली लोगों के बारे में भी लिखेंगे ताकि, सही तस्वीर उपस्थित दर्ज हो सके.

शनिवार, 11 फ़रवरी 2012

सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' का जन्मदिन मनाया गया लेखक गोष्ठी में (हिंदी में पढ़ने केलिए नीचे पढ़ें.) Flere norske dikt ble presentert på Forfatterkafe på Veitvet


Forfatterkafe markerte Shukla 58. fødselsdag den 10. februar på Veitvet i Oslo

Dikt av flere farfattere ble presentert på Forfatterkafe på Veitvet i går den 10. februar på Bjerke familiesenter, Veitvetsenter i Oslo.
Hovedgjeten var tidligerer BU-leder Torstein Winger som leste dikt av Sgbjørn Østfelder og kastet  lys over bursdagsbarn Suresh Chandra Shuklas kjærlighet for Groruddalen og deres kultur og samfunn. 
Inger Marie Lilleengen leste sine dikt og tekster fra sin bok mens Sirid marie Refsum sang sine sanger med gitar. Anurag Sam Shaw har sunget raga med indisk trekkspill harmonium.
Suresh Chandra Shukla leste dikt av Paal Brekke,  Gunvor Hofmo, Øvind  og egne dikt.
I denne anledning fikk han hilsen fra D K Nanda fra den Indiske ambasaaden,  Akhtar Chaudhry visepresident i stortinget og flere som var ikke tilstede.
Barna sang sanger og leste dikt. 

१० फरवरी को लेखक गोष्ठी में कविताओं के बीच मनाया गया सुरेशचंद्र शुक्ल का जन्म दिन.
बियरके फैमिली  सेंटर ओस्लो में लेखक गोष्ठी में कविता, गीत-संगीत और संस्मरणों और शुभकामनाओं के साथ मनाया गया सुरेशचंद्र शुक्ल का जन्मदिन.

शुक्रवार, 10 फ़रवरी 2012

Takk for oppmerksomheten, har du tid stikk innom i dag (10. februar kl. 18:00) på Bjerke Familiesenter på Veitvetsenter, Oslo

10. februar, en dag for poesi

Takk for oppmerksomheten, og vi vil gjerne invitere deg til 'Forfatterkafe i dag 10. februar kl. 18:00 på
Bjerke Familiesenter, på Veitvetsenter,
Veitvetveien 8, Oslo.


Fri inngang.

Ha med godt humør
og del et dikt med oss på norsk.
Et smil teller mer enn blomst.
Med vennlig hilsen.
Suresh Chandra Shukla

शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' से साक्षात्कार

 सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' से साक्षात्कार, 10 फरवरी जन्मदिन  पर  

प्रवासी भारतीय दिवस में शरद आलोक महात्मा गांधी जी की पौत्री  इला गांधी को स्पाइल और वैश्विका भेंट करते हुए
  

१० फरवरी को आपका जन्मदिन है, आपको शुभकामनायें. आपने लेखन कब शुरू किया?
धन्यवाद.  अपनी कविता 'आकुल वसंत' की कुछ पंक्तियों  से आपका स्वागत करता हूँ.   
'आओ रुको यहाँ कुछ देर बन्धु!
समय ने बांधे यहाँ सेतु बन्धु,
आकुल वसंत अपने गाँव बन्धु,
मिलेगी यहाँ सबको छाँव बन्धु!'
जब कक्षा ९ में था तब मेरी पहली कविता  का प्रकाशन १९६९ में हुआ जब मैं कक्षा  नौ में पढता था.  पहली कविता वर्षा पर आधारित थी. मेरी शिक्षा १ से ३ तक पूनम शिक्षा निकेतन, कक्षा चार और पांच की शिक्षा नगरपालिका स्कूल में हुई. मैंने हाई स्कूल गोपी नाथ लक्ष्मणदास रस्तोगी इंटर कालेज, लखनऊ  में और माध्यमिक शिक्षा दयानंद ऐंग्लो वैदिक कालेज में तथा स्नातक की शिक्षा बी एस एन वी डिग्री कालेज लखनऊ में हुई थी. 
आपको बचपन में किन लेखकों से प्रेरणा मिली?
कक्षा नौ में पढ़ते हुए एक कविता लिखी थे जिसकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:
'अगर तुम दूजों पर आधीन,
चढ़ोगे क्या उन्नति सोपान?
करोगे कठिन परिश्रम वीर,
बनोगे स्वावलंबी इंसान!
 मेरी माँ कठिन परिश्रमी थीं और रामायण का रोज पाठ करती थीं. मुझे भी पढाई से अधिक रामायण पढ़ने पर जोर देती थीं. स्कूल  में अध्यापकों ने मेरे ऊपर प्रभाव डाला. मेरी माँ की शिक्षा का ही फल है कि जहाँ कहीं भी सोने को मिले छे वह कठोर हो या नरम वहां सो जाऊं और जो भी ईमानदारी और स्वाभिमान से रूखा-सूखा  मिल जाए उसे खाकर गुजरा करना.   
नगरपालिका स्कूल में मेरे अध्यापक रामविलास और नन्हां महाराज और रस्तोगी कालेज में दुर्गाशंकर मिश्र और सुदर्शन सिंह का सानिध्य मिला तथा डी  ए वी इंटर कालेज में रमेशचन्द्र अवस्थी, देवेन्द्र मिश्र, उमादत्त त्रिवेदी और वी पी सिंह का स्नेह मिला.  इन्हीं विद्यालयों में मुझे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और लेखकों से मिलने का अवसर मिला जिनके विचारों ने मेरे ऊपर प्रभाव डाला.  क्रांतिकारियों  में शचीन्द्र नाथ बक्शी, गंगाधर गुप्ता,  रामकृष्ण खत्री, दुर्गा भाभी, प्रकाशवती के साथ-साथ लेखकों में महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रमई काका, अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, शिवसिंह 'सरोज', आदि से मिल चुका था और जिन्हें समारोहों में सुना भी था.  आयु में असमानता होने के बाद भी गंगाधर गुप्ता जी मेरे मित्र थे जिन्होंने मुझे अनेक अपने मित्र स्वतंत्रता सेनानियों से मिलवाया था.  इन्हीं लोगों का मेरे ऊपर असर पड़ा होगा. वैसे तो तारों की टिमटिमाहट, फूलों की महक, तितलियों के पीछे भागकर पकड़ने की ललक में चुपके से आकर कोई कुछ दे गया हो तो मुझे स्मरण नहीं है.  स्कूल-कालेजों पर आयोजित अन्त्याक्षरी और वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेकर बहुत कुछ सीखा था.

आपकी पहली पुस्तक कब छपी? आप इस पर क्या कहना चाहेंगे?
मेरे बड़े भाई राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल जब कक्षा दस में थे तो उन्होंने शौखिया कवितायें लिखीं थीं. मेरे अध्यापक नन्हा महाराज भी छंद और सवैया लिखते थे.  मैंने भी एक गणेश वंदना लिखी. मेरे बड़े भाई ने बड़े जोर का थप्पड़ मारा. वे सोच रहे थे कि कहीं पढ़ाई-लिखाई छोड़कर केवल मेरा मन कविता कहानी में न लग जाये.  और जब भी मुझे खेलकूद में पदक मिलता था तो वह बहुत प्रोत्साहित करते थे.  वही भाई १५ अगस्त १९७० को साइकिल से विश्व यात्रा करने निकल पड़े.  मुझे भाई की कमी बहुत खलने लगी. मेरे मझिले भाई रमेशचंद्र शुक्ल पी ए सी (पुलिस) में भरती हो गए थे.  सन १९९२ में मेरी नौकरी अपने  पिताजी के साथ कारखाने 'सवारी एवं मालडिब्बा कारखाना, लखनऊ' में लग गयी.  उस समय मैंने केवल दसवीं कक्षा ही पास  की थी.  पिता की आर्थिक मदद के लिए की गयी नौकरी से पता चला कि श्रमिक जीवन क्या होता है?  कारखाने  की संस्कृति से मजदूरों की स्थितियों से परिचित हुआ.  सन १९७५ में डी एवी कालेज से इंटर पास करते ही मेरी पहली पुस्तक 'वेदना' प्रकाशित होकर आ गयी.  विद्यालय और आस पड़ोस के  लोगों की निगाह में एक कवि  परन्तु स्वयं उस समय मैं अपने आपको  और अधिक संघर्षशील बनाता गया. पुस्तकालय में पठन-पाठन बढ़ने लगा. सामजिक सेवा में भी उन्मुख होता रहा.  'वेदना' के बारे में 'स्वतन्त्र भारत' और 'नवजीवन'  दैनिक समाचारपत्र में समीक्षा छपी. मेरी कविता और कहानी  विद्यालय की पत्रिका में छपी. 

आपका नार्वे कब और कैसे जाना हुआ?
मेरी पहली काव्य पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थे. मेरे भाई १९७२ में नार्वे पहुंचकर वहीं रहने लगे थे. उन्होंने वहां से एक पत्रिका १९७८ में आरम्भ की जिसका नाम 'परिचय' था. वह चाहते थे कि मैं उनके कार्य में हाथ बटाऊँ  अतः उन्होंने मुझे लिखा और कहा कि स्नातक होना जरूरी है. मैंने बी एस एन वी डिग्री कालेज में १९७७ में दाखिला ले लिया  था. साथ में मेरी रेलवे की नौकरी भी चलती रही.
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राजनैतिक आन्दोलन चला. इंदिरा गांधी जी ने आपातकाल की स्थिति घोषित की.  इस सारे प्रकरण में जो कालेज की पढाई दो साल में होनी चहिये थी वह तीन साल में हुई.  २३  जनवरी १९८० को लखनऊ के चारबाग  रेलवे स्टेशन पर प्रातः मुझे बहुत से मित्र और परिवार के सदस्य छोड़ने आये थे. एयरफ्लोट जहाज से मास्को में एक दिन के विश्राम के बाद २६ जनवरी को मैं ओस्लो के फोर्नेब्यु  एयरपोर्ट पर पहुँच गया था.  वहाँ पर रहने के लिए मुझे पढ़ाई करनी थी अतः ओस्लो विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया.

आपको कभी न भूलने वाले लोगों में आप किन्हें याद करेंगे?
भारत में महादेवी वर्मा, जैनेन्द्र कुमार,  कमलेश्वर, अमृता प्रीतम, श्याम सिंह शशि,  दुर्गा भाभी, गंगाधर गुप्ता  और जयप्रकाश नारायण तथा नार्वे में इंदिरा गांधी,  नोबेल पुरस्कार विजेताओं:  नेलसन मंडेला,  देशमांद टूटू, दलाई लामा,  नेताओं: ग्रू हार्लेम ब्रुंतलांद,  
 मारित नीबाक,  हाइकी होल्मोस,  येन्स  स्तूलतेनबर्ग,  थूरस्ताइन  विन्गेर, आन कैथ  वेस्तली  आदि को भुला नहीं सकता.  साथ में अपनी माँ किशोरी देवी शुक्ल  और पत्नी माया भारती को जिन्होंने मुझे बहुत साथ दिया.

प्रश्न: आपको दिल्ली में १० से १२ जनवरी को संपन्न हुए अंतर्राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव 2012 में आकर कैसा लगा.
हर सम्मलेन एक उत्सव होता है और  एक संगम भी इन अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में बहुत कुछ सीखने को मिलता है. हिन्दी भाषा पर बहुत से विद्वानों के विचारों  को सुनने, अपनी बात कहने और  देश विदेश में हिन्दी के विकास  और उसके  नए आयामों का पता चलता है.  शोध लेखों को पढ़ा जाता है, समस्याएं और समाधानों पर विचार विमर्श होता है.
जयपुर में ७ से ९ जनवरी २०१२ तक होने वाले प्रवासी भारतीय दिवस में भाग लेने के बाद  आजाद भवन और  हंसराज स्नातकोत्तर महाविद्यालय दिल्ली में साहित्य महोत्सव में सम्मिलित हुआ.मुझे अंतर्राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव में सम्मिलित होकर अच्छा लगा. उद्घाटन समारोह में सभी वक्ताओं के विचार सुनना बहुत सुखद लगा.
तीन दिन तक चलने वाले इस विशाल अंतर्राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव में अनेक मुद्दों पर चर्चा हुई.   

हिंदी साहित्य ने विश्व में प्रसार बहुत पाया है और उसकी लोकप्रियता भी देश-विदेश में बढ़ रही है. इससे हिदी जगत संतुष्ट है परन्तु हिंदी साहित्य और भाषा को वह संरक्षण नहीं मिला है जो विश्व की बड़ी भाषाओँ को प्राप्त है.

प्रवासी साहित्य पर आपके क्या विचार हैं?
प्रवासी साहित्य दिशा और दृष्टि पर एक सत्र हंसराज कालेज के सेमिनार कक्ष में हुआ था.  उपस्थित होने वालों की अहम् भूमिका थी, जिसमें विदेश में रहने वाले हिन्दी रचनाकारों में डॉ. श्याम मनोहर  पाण्डेय, उमेश अग्निहोत्री,  दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, शैल अग्रवाल,  राजी सेठ,  और स्वयं मैं और अन्य  थे.
इसमें नारायण कुमार, परमानन्द पांचाल,  डॉ. महेश दिवाकर, प्रो. डॉ. बाबूराम, डॉ. स्वाती पवार, महेश भारद्वाज, राकेश पाण्डेय, अनिल जोशी,  प्रेम कुमार शुक्ल, संजू मिश्र और जय प्रकाश शुक्ल थे.
मेरे विचार से साहित्य को शोध अथवा अध्यापन की दृष्टि से बेशक कोई नाम दें, जैसे साहित्य में वादों  के नाम जैसे: छायावाद और प्रगतिवाद आदि. या दूसरे शब्दों में आप हमारे साहित्य को विदेश में लिखा जाने वाला हिन्दी साहित्य कहिये, प्रवासी साहित्य कहिये  शरणार्थी साहित्य कहिये या आम हिन्दी साहित्य; मुझे कोई आपत्ति नहीं है.  आप उसे क्या समझते हैं किस दृष्टि से देखते हैं.
क्या प्रवासी साहित्य को आरक्षण की जरूरत है या नहीं है? इस पर भी सभी के विचार अलग-अलग हो सकते हैं? सभी को किसी भी साहित्यिक विचारधारा को सुनने और पढ़ने में ऐतराज नहीं होना चहिये बेशक उससे सहमत हों या नहीं हों. हर एक के किसी भी विषय पर स्वतंत्रता से दिए उसके विचार हो सकते हैं.   सहमत और असहमत होना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
साहित्य अकादमी ने आरक्षित प्रवासी साहित्य प्रकाशित किया है.  जो अधूरा ही नहीं बल्कि संपादक के आरक्षण के तरीके पर सवाल भी उठाता है, आज पत्रकार, लेखक और संपादक को खोजी होना चाहिए, यदि कोई संकलन सम्पादित कर रहा है तो सम्बंधित पत्रिका और भारतीय पत्रिकाएं पढनी चाहिए और सूचनाएं एकत्र करने की जिम्मेदारी केवल उसकी होनी चाहिए. शायद उसके सम्पादक स्वयम भी साहित्यिक आरक्षण से आये होंगे? 
मैं तेजेन्द्र शर्मा से सहमत हूँ कि हमको साहित्यिक आरक्षण नहीं चाहिए.  वर्तमान साहित्य की ओर  से प्रो. मुशाब्बीर और प्रो. असगर वजाहत तथा कृपा शंकर  ने विदेशों में लिखे जा रहे  साहित्य को बहुत पहले उजागर कर दिया था.   डॉ. इला प्रसाद  की भावना को भली भांति समझता  हूँ जहां वह अपने साहित्य को प्रवासी नहीं कहलाना चाहती हैं. विदेशों में ३२ वर्षों से तीन पत्रिकाओं का संपादन करते हुए विदेशों में विभिन्न देशों में रहने वाले रचनाकारों की अनेक रचनाएं हमारी पत्रिकाओं में स्थान पाकर उसकी शोभा बढ़ा  चुकी हैं.

आप  ३२ वर्षों से नार्वे में हैं वहां हिंदी की पत्रकारिता की क्या स्थिति है?
नार्वे से इस समय तीन पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं.  १- 'स्पाइल-दर्पण' जिसका प्रकाशन १९८८ में आरम्भ हुआ और अभी भी नियमित छपती है.  २००७ में वैश्विका  शुरू हुई जो बाद में बंद हो गयी थी. अभी दिसंबर २०११ से वैश्विका दोबारा छपना शुरू हो गयी है.
इसके आलावा एक पत्रिका 'प्रवासी' नाम से कभी-कभी छपती है.  इसके अलावा सन २००६ के बाद से जनवरी २०१२ तक नार्वे से कोई भी दूसरी पत्रिका छपी दिखाई नहीं पड़ी. 
अमेरिका न्यूयार्क में हुए आठवें  विश्व हिन्दी सम्मलेन याद आ गयी. जो एक यादगार सम्मेलन  था.
जिसमें  नार्वे से प्रकाशित हिंदी की दो पत्रिकाओं 'स्पाइल-दर्पण' और 'वैश्विका' का भी लोकार्पण हुआ था. अन्य दर्जनों साहित्यिक पत्रिकाओं और पुस्तकों के साथ और यह कार्य अपने कर कमलों से किया गया था गिरिजा व्यास जी ने.
वैश्विका का प्रकाशन अब साप्ताहिक के रूप में दोबारा शुरू किया है.  जयपुर में 'भारतीय प्रवासी दिवस में इसके  'भारतीय प्रवासी दिवस अंक  २०१२'  का बहुत स्वागत हुआ. वैश्विका का लोकार्पण पद्मश्री श्याम सिंह शशि ने 'स्पाइल-दर्पण' के  जोरबाग, नयी दिल्ली कार्यालय में विश्व हिन्दी दिवस १० जनवरी २०१२ को किया था.  

विश्व हिन्दी सम्मलेन का उद्घाटन  संयुक्तराष्ट्र संघ के भवन में संपन्न हुआ था उस समय संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारे राजदूत निरुपम सेन जी थे.  भारत के अमेरिका में राजदूत रोनेन सेन थे जो पहले ब्रिटेन में भारत के राजदूत थे.  यहाँ देश विदेश के हिन्दी प्रेमियों और विद्वानों से मिलना हुआ था और विचार-विमर्श हुआ था.
भारतीय प्रवासी दिवस में इस बार प्रवासी कार्य मंत्रालय के अनेक छोटे बड़े अधिकारियों से वार्तालाप में अनेक विषय और  प्रश्न सामने आये थे जिसमें भारतीय प्रवासियों द्वारा किये जा रहे उत्कृष्ट कार्यों के लिए दिए जा रहे प्रोत्साहन की सराहना के साथ आर्थिक दृष्टि से किये जा रहे कार्यों कार्यों पर भी चर्चा हुई थी .
नार्वे में हिन्दी का शिक्षण
नार्वे में हिन्दी की शिक्षा संगीता शुक्ल के नेतृत्व में हिन्दी स्कूल, विश्वविद्यालय में प्रो पेतेर जोलर  तथा मीना ग्रोवर और कुछ हिन्दी सेवियों द्वारा धार्मिक  संस्थाओं द्वारा दी जाती है. विदेशों में ३२ वर्षों तक हिन्दी के  प्रचार -प्रसार में लगे रहकर  और अनेक हिन्दी की पत्रिकाओं का सम्पादन करते हुए देखा  है कि हिन्दी का प्रसार शुरू में धीमी गति से और बाद में तीव्र गति से बढ़ा  है. जिसके लिए मुझे और मेरे परिवार को अधिकाधिक समय और धन खर्च करना पड़ा है. लेकिन हिन्दी सिखाने के लिए प्रवासी भारतीयों ने अपने बच्चों को हिंदी सिखाने की हमारी बात मानी और अपने बच्चों को हिन्दी सिखाने के लिए भेजने लगे. कुछ अविभावक जो पहले अंगरेजी शिक्षा के लिए अपने बच्चों पर दबाव डालते थे उन्होंने देखा कि बच्चों को न ही अंगरेजी अच्छी तरह आ रही है और न ही हिन्दी. हिन्दी जिनकी मात्र  भाषा है और साथ ही जिनकी मात्रभाषा हिंदी नहीं है उन्होंने भी अपने बच्चों को मात्र भाषा घर में और हिंदी निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ने के लिए भेजना शुरू किया जिसका असर अच्छा पड़ा.
हिन्दी शिक्षा से आत्मविश्वास और अभिव्यक्ति करने की क्षमता बड़ी
बच्चों के मन में आत्मविश्वास बढ़ा और उनकी अभिव्यक्ति करने की क्षमता भी बड़ी क्योंकि हिंदी स्कूल में उन्हें योग शिक्षा, अभिव्यक्ति करने के लिए सभी बच्चों को सभी के बीच में जो सीखा है उसे कहने के  अभ्यास ने उनके आत्मविश्वास में बढ़ोत्तरी की थी. 
भारत में मुझे अनेक बेसिक स्कूलों में जाने का अवसर मिला है. मैंने देखा है कि बच्चों को मेरी बात सुनने के बाद हिन्दी को भी अन्य विषयों जैसे गणित, विज्ञान और अंग्रेजी की तरह समय देने का वायदा किया और उन्होंने अपनी अपनी बढ़ती रूचि का इजहार किया.  यदि हम हिन्दी और किसी भी भारतीय भाषा में प्रवीण होंगे तो विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति में प्रवीणता हासिल होगी जो विकास के लिए बहुत जरूरी है. शब्द के उच्चारण और उसकी समझ तेजी से बढ़ती है. हिंदी के अध्यापक का हिन्दी के अच्छे ज्ञान का होना जरूरी है. यदि अध्यापक को ही हिन्दी नहीं आयेगी तब वह अपने शिक्षार्थियों को क्या सिखाएगा.

अच्छा पत्रकार वह जो आलोचनात्मक और समन्वयात्मक दृष्टि रखे
जो अच्छा पत्रकार नहीं है वह अच्छा संपादक कैसे हो सकता है.  समन्वयात्मक, आलोचनात्मक और क्रिएटिव होना एक अच्छे अध्यापक और संपादक को  होना बहुत जरूरी है.  जो संपादक समन्वय भावना नहीं रखता और खोजी नहीं है वह अच्छे संकलन का संपादक नहीं कर सकता. 
कुछ लेखकों को कमलेश्वर जी के सामने रोते हुए देखा, जिन्होंने कहा कि उन्होंने बहुत साहित्य लिखा है पर उनको कोई नहीं पूछता. क्योंकि उनकी एक भी रचना लोकप्रिय या चर्चित नहीं हैं.  कमलेश्वर जी कहते थे कि एक अच्छे रचनाकार को मूल रचना लिखनी पड़ेगी. उसे आलोचनात्मक रुख से अपनी रचनाओं की आत्मपरख करनी होगी.  साहित्यकार और संपादक मित्र कन्हैया लाल नंदन जी ने मुझसे कहा था कि साहित्य में भेदभाव रखने वाले साहित्यकार को उसके जीवित रहते ही नकार दिया जाता है. 
क्या आप नार्वे में हिन्दी लेखकों के बारे में प्रकाश डालेंगे?
पहले नार्वे में भारतीयों के बारे में प्रकाश डालते हैं. नार्वे में भारतीयों ने आना लगभग सौ वर्ष पहले शुरू किया. जिसमें प्रोफ़ेसर बाराल कलकत्ता से आये थे जिन्होंने अपना विवाह एक नार्वेजीय लड़की से किया था, जिनके नाम से थ्रोंद फ्येल( पहाड़ी) में एक म्यूजियम है. वैसे भारतीय घुमक्कड़ स्वभाव के होते हैं. अधिक संख्या में भारतीयों का आना सन १९७० से सन १९७५ तक हुआ. इसके बाद पढ़ाई, विवाह करके, या परिवार  के सदस्यों को बुलाकर  भारतीयों की संख्या बढ़ी. पिछले चार-पांच वर्षों से अभी तक अनेक कंप्यूटर के क्षेत्र में कार्य करने लोग आये.
आज नार्वे में भारतीयों की संख्या साढ़े दस हजार है, जबकि पूरे नार्वे की आबादी पैंतालीस लाख है.
बाराल ने अंगरेजी में कुछ पुस्तकें लिखी थी.  हरे कृष्णा मिशन ने गीता की तीन लाख प्रतियाँ नार्वेजीय भाषा में भावानुवाद के साथ नार्वे में घर-घर पहुंचाई है जिसमें संस्कृत और हिन्दी भी है.
प्रोफ़ेसर ब्रोरवीक ने गीता का अलग अनुवाद किया था.
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल  सन १९७२ में नार्वे आये थे जिनकी अपनी साईकिल यात्रा पर दो पुस्तकें वन्दे मातरम प्रेस लखनऊ से सन १९७३ और १९७५ में प्रकाशित हुई थीं. सन १९७८ में नार्वे में भारतीय कल्याण परिषद् (इन्डियन वेलफेयर सोसाइटी) के नेतृत्व में पहली हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन हुआ. जिसमें सन १९८० से लेकर १९८५ तक मुझे भी संपादन करने का अवसर मिला. 
मेरा नार्वे आना २६ जनवरी १९८० को हुआ. मेरा पहला काव्य संग्रह १९७५ में वेदना शीर्षक से छप चुका था.  अन्य भारतीय जिनकी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं उनके नाम हैं:  स्वर्गीय पूर्णिमा चावला, स्वर्गीय हरचरण चावला,  इन्दर खोसला,  संगीता शुक्ल, सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'  और
मीना ग्रोवर हैं.  इसके अलावा पात्र पत्रिकाओं में जिनकी कहानियां छपी हैं उनके नाम हैं: अरुणा शुक्ल की पांच कहानियां, शाहेदा बेगम की चार कहानियां,  अलका भटनागर की दो कहानियां और फैजल नवाज चौधरी की दो कहानियां हिन्दी में स्पाइल-दर्पण में छप चुकी हैं.  कवितायें लिखने वालों में राय भट्टी, इंदरजीत पाल, माया भारती हैं पर इनकी कोई पुस्तक नहीं छपी है. 
अनुवादकों में, संगीता शुक्ल, मीना ग्रोवर, आस्त्री घोष  और सुरेशचंद्र शुक्ल प्रमुख हैं. 
आपकी प्रिय रचना कौन सी है?
आठ काव्य संग्रहों में 'रजनी', 'नंगे पांवों का सुख', 'नीड़ में फंसे पंख' और 'गंगा से ग्लोमा तक' काव्यसंग्रहों  की कुछ हद तक चर्चा हुए है. अर्धरात्रि का सूरज और प्रवासी कहानियां को भी थोड़ी बहुत चर्चा मिली. 
मेरी कुछ कविताओं ने और कहानियों ने पत्य्क्रम में जगह पायी है और जिन्होंने पाट्यक्रम  में लगाया है उनमें से अधिकाँश लोगों से मैं नहीं मिला हूँ.  'मंजिल के करीब', 'मदरसों के पीछे', 'वापसी' और 'लाहोर छूटा अब दिल्ली न छूटे'   कहानियां और नीड़ में फंसे पंख,  'सड़क पर विचरते देवदूत', 'बेरोजगारों का दर्द', 'विरोधाभास' और 'पर्यावरण देवी' आदि हैं.
मुझे लग रहा है कि मुझे अपनी प्रिय रचना की तलाश है, शायद अभी वह रची नहीं गयी.
आप विदेशों में रहने वाले लेखकों और हिन्दी प्रेमियों को क्या सन्देश देना चाहेंगे?
पहला कि साहित्य और राजनीति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और बिना राजनैतिक दृष्टिकोण के कोई भी साहित्य पूर्ण नहीं हो सकता.  दूसरा कि जो लोग विदेश में रहते हैं वे जिस देश में भी रह रहे हैं वहां की राजनीति में सक्रिय हिस्सा लें.  इससे वह अपना वहां के अंग बनकर हर कार्य में वहां के मूल लोगों के साथ हिस्सा बटाएँगे  और अपनी भाषा और संस्कृति को उसका हक़ दिलाएंगे.
मुझे ओस्लो पार्लियामेंट और राष्ट्रीय पार्लियामेंट में मेरी नार्वे में पार्टी ने चुनाव लड़ाया और जीतकर २००३ से २००७ नगर पार्लियामेंट का प्रतिनिधि रहा.  आज भी राजनैतिक पार्टी और सांस्कृतिक संस्थाओं का प्रतिनिधि हूँ.  
अपनी भाषा, अपने देशवासियों और अपनी संस्कृति से प्रेम करना और उसपर गर्व करना सीखिए और अपने बच्चों को सिखाइये. आपके बच्चे आप पर गर्व करेंगे और आपका आजीवन साथ निभाएंगे.  
अंत में हिन्दी का और अपनी मात्रभाषा का प्रयोग कीजिये और दूसरी भाषा  में भी प्रवीण होइए. खासकर जिस देश और समाज में रह रहे हैं वहां की भाषा और संस्कृति का पूरा ज्ञान रखिये. आप स्वयं, अपने बच्चो और अपने बुजुर्गों को कंप्यूटर और अत्याधुनिक उपकरणों की शिक्षा देकर प्यार से उन्हें जोड़िये.  जो अपनापन अपने लोगों से मिलता है वह किसी अन्य से नहीं मिल सकता. बेशक दूसरों से साधन अधिक मिल जाएगा.
'क्या दे पायेंगे अपनापन,
यह स्वचालित काफी चाय संयंत्र
जो कभी मिलता था
माँ, बहन, बेटी के हाथों 
एक प्याला चाय का सोंधापन!'   
अंत में: यह मत सोचिये कि देश ने आपको क्या दिया है यह सोचिये कि आपने देश को क्या दिया है. हिन्दी की पुस्तकें उपहार में दीजिये और पत्रव्यवहार में अधिक से अधिक हिन्दी का उपयोग कीजिये.  फोन, कम्पूटर, ई-पैड, पर हिन्दी आ चुकी है. हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है, उसकी लिपि अत्यन्त  सरल और प्रायोगिक है.  
शून्य के पंछी चलते चलो
पूर्णिमा की मत देखो राह
अमावस  का फैला साम्राज्य
कर रहे चन्द्रकला की चाह..
निरुत्तर आज सभी हैं प्रश्न
प्रश्न का उत्तर केवल एक
सूर्य है आज अकेला यहाँ
अंधियारे के दीप अनेक'..