सर्वहारा (किसान, मजदूर और फ़ौजी) की पुकार- सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'
महुआ महके, बौर आम के, महके बगिया हमार.
फागुन आया, चैत द्वार पर दस्तक दे दस बार.
भ्रष्टाचार की आंधी आयी, दे गयी कितनी मार,
ऊपर से महंगाई आयी, आम आदमी हुआ लाचार.
पहले पसीना फिर खून बहाया खेतों पर फसल उगाई
सर-कन्धों पर ढोकर गारा, ईंट की नीवं बनायी.
इसी नीवं के नीचे दबकर सपने देते रहे दुहाई.
नहीं पढ़ा पाया बच्चों को , किसका दोष है भाई.
इसी लिए क्या सन ४७ में आजादी है पायी.
सत्य अहिंसा के खातिर ही बापू ने जान गवाईं.
नयी चेतना, नयी उमंगों से फिर भरना होगा,
इस बार अब देश के अन्दर दुश्मन से लड़ना होगा.
श्रमिक सड़क पर, किसान खेत में और जवान सरहद पर
प्राण तक निछावर कर देता है, हंसकर अपने देश पर.
बच्चों को मिले न शिक्षा और इलाज, मिले न रोजी-रोटी
देश का पैसा लूट रहे, कर नहीं देते, बना रहे हैं कोठी.
दूध नहीं मिलता बच्चों को, हमारा पानी हमको बेच रहे हैं,
ये नहीं दूसरे, अपने देशवासी, आँखों में धूल झोक रहे हैं.
मात्रभूमि की हवा पानी से पलकर कैसा फर्ज निभाते
न जाने जननी के दूध का मोल चुकाना, देश के जोंक बने हैं.
सूखा-बाढ़ से निपटने खातिर हमने कितने उपाय किये हैं
अपनी जान से प्यारे पशु को किसान रोकर बेच रहे हैं.
नहीं अगर है भोजन खुद का, पशु को कहाँ खिलाएं,
अखबारों की सुर्खी कहती है, किसान आत्महत्या तक करते हैं.
दूध नहीं मिलता बच्चों को, हमारा पानी हमको बेच रहे हैं,
ये नहीं दूसरे, अपने देशवासी, आँखों में धूल झोक रहे हैं.
मात्रभूमि की हवा पानी से पलकर कैसा फर्ज निभाते
न जाने जननी के दूध का मोल चुकाना, देश के जोंक बने हैं.
सूखा-बाढ़ से निपटने खातिर हमने कितने उपाय किये हैं
अपनी जान से प्यारे पशु को किसान रोकर बेच रहे हैं.
नहीं अगर है भोजन खुद का, पशु को कहाँ खिलाएं,
अखबारों की सुर्खी कहती है, किसान आत्महत्या तक करते हैं.
ओस्लो, १८.०४.१२
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