पुरस्कार लौटने से अच्छा अन्याय के लिए आवाज उठाना
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', ओस्लो, नार्वे
(लेखक नार्वे में गत 35 वर्षों से ओस्लो, नार्वे से प्रकाशित हिन्दी-नार्वेजीय द्वैमासिक पत्रिका स्पाइल-दर्पण के सम्पादक, देशबन्धु के यूरोप सम्पादक और प्रतिष्ठित लेखक हैं.)
साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने से ज्यादा जरूरी है ये लेखक अन्याय के खिलाफ निरवरत आवाज उठायें।
हमको अपने अकादमी और अन्य पुरस्कार पाये और बिना पुरस्कार वाले लेखकों पर गर्व है.
लेखक का काम है अन्याय के खिलाफ आवाज उठाना। यह काम घर से शुरू हुआ यह अच्छा है पर पुरस्कार वापसी से नहीं अन्याय के खिलाफ घर वापसी से होना चाहिये।
"क्या यह पुरस्कारों की घर वापसी है? यह कटु सत्य है कि आप आदमी के जो अधिकार हैं वे आजादी के बाद से गिरवी पड़े हैं. सरकारें आती हैं और जाती हैं. जनता मूक या चिल्ला चीख कर चुप हो जाती है. फिर वही रोजमर्रा की जिंदगी और भेदभाव के वातावरण में जनता घुटन और संत्रास की जिंदगी में भी अपने विवेक और धैर्य से जय श्रीराम और अल्लाह ओ अख़बार कहकर चुप हो जाती है.
पहली बात राजनीति और लेखनी अलग नहीं हो सकती और लेखकों को भारत में ही नहीं वरन पड़ोसी देशों में
हो रहे अल्पसंख्यकों के साथ अन्याय के खिलाफ भी आवाज उठानी चाहिये।
स्वयं बहुत से लेखक बेइलाज मर जाते हैं, बहुत से लेखक बुजुर्ग हैं और कोई देखभाल करने वाला नहीं है.
मानवाधिकार के लिए यदि भारतीय लेखक एक साथ जुट जाएँ और अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक अगुवाई करें
तो कितना ही सुखद होगा देश के युवाओं के लिए, नयी पीढ़ी के लिए.
मैंने स्वयं अकादमी प्राप्त कुछ लेखकों और अन्य प्रतिष्ठित लेखकों के घर में बच्चों को काम करते देखा है क्या यह सही है. बच्चों से काम कराना उनकर बचपन की आजादी और स्कूल जाने के समय का क़त्ल करना है. हालांकि अधिकाँश लेखक मानवाधिकार के लिए बहुत जागरूक हैं.
पुरस्कार लौटने की जगह ये लेखक और अन्य लेखकों के साथ जुड़कर अभी से अन्याय के खिलाफ आवाज उठायें। बहुत से मुद्दे हैं.
मातृभाषा की शिक्षा भारत के हर स्कूल में अनिवार्य हो चाहे प्राइवेट स्कूल हों. कोई रोजगार के हुनर जैसे बढ़ई, काष्ठकला, सिलाई, बुनाई आदि स्कूलों में अनिवार्य हो ताकि सभी बच्चे स्वावलम्बी बनें और वी आई पी संस्कृति से दूर हों. देश में समानता हो और भेदभाव समाप्त हो.
सभी को विदित है यदि निराला जी के पास कोई लेखकीय आर्थिक सहायता मिलती तो वह अपना और अपनी बेटी का इलाज करा सकते थे. अदम गोंडवी का इलाज पहले शुरू हो जाता तो आज हमारे बीच जीवित होते। ये कुछ मुद्दे हैं.
अनेक मुद्दों पर संघर्ष, बातचीत और सम्मेलन किये जा सकते हैं और यह निरवरत चलना चहिये।
ऐसा नहीं है कि कोई मुद्दे और समस्यायें रातोरात या कुछ महीनों से हैं ये असमानता, आस्मान वितरण, भेदभाव और हिंसा की घटनाओं ने सदा ही हम सभी को प्रभावित-परेशान किया है यह सिलसिला दशकों से चल रहा है पर शायद अब जागरण का समय आ गया है.
काश यह सही हो कि हम लेखक जाग गए हैं और हम मिलकर अन्याय की लड़ाई को आगे बढ़ायेंगे।
चाहे प्रदर्शन, बातचीत, सम्मेलन अथवा चुनाव के जरिये। निशुल्क कार्यशालाएं, नुक्कड़ नाटकों में ये लेखक भाग लें और समाज-देश के बच्चों और नौजवानों को प्रशिक्षित और शिक्षित करें तो हम उन पर और अधिक गर्व कर सकेंगे।
मैंने लिखा था शायद ये पंक्तियाँ सार्थक हों:
"कुँए खेत सूख रहे गाँव में
गाँव के स्कूल जुएँ दाँव में।
काटना जो चाहते हो बेड़ियाँ,
खड़े होना अगले चुनाव में.।"
"हाथ पर हाथ रखकर कभी कुछ होना नहीं।
काटना क्यों चाहते हो नई फसल जब तुम्हें बोना नहीं।"
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