मंगलवार, 23 फ़रवरी 2016

नार्वे से प्रकाशित Speil स्पाइल-दर्पण अंक 1 -2016

Nå kan du lese Speil ved link nendenfor. takk
Speil Nr. 1- 2016
नीचे दिए लिंक में पढ़िये नार्वे से प्रकाशित Speil स्पाइल-दर्पण अंक 1 -2016
स्पाइल-दर्पण सांस्कृतिक द्विभाषी और द्वैमासिक पत्रिका है.
https://drive.google.com/open?id=0B-Yr4tfxYfDncWJzbGhIbU1IVFRJVkctYmNaREZHRlJib3Zv



रविवार, 21 फ़रवरी 2016

आज मात्र भाषा दिवस है और नार्वे के लोकप्रिय राजा हरल्ड पंचम का जन्मदिन है. हार्दिक बधाई। -Suresh Chandra Shukla

आज 21 फरवरी मात्र भाषा दिवस है 


Photo: Suresh Chandra Shukla


आज 21 फरवरी नार्वे के राजा हरल्ड पंचम का जन्मदिन भी है 



Photo: Webpage, Indian Embassy in Oslo

Gratulerer så mye med morsmålsdagen og bursdagen til Kong Harald. 
आपका दिन मंगलमय हो! आज मात्र भाषा दिवस है और नार्वे के लोकप्रिय राजा हरल्ड पंचम का जन्मदिन है. हार्दिक बधाई। स्कैंडिनेवियाई देशों में हिन्दी का प्रयोग इंटरनेट पर बढ़ा है. सभी को बधाई। आने वाले दिनों में हम आपसी सहयोग से Speil स्पाइल-दर्पण की तरफ से सभी भारतीय और हिन्दी और भारतीय भाषाओँ को प्रयोग करने वालों और सीखने वालों को आनलाइन और अपनी वेब पत्रिका पर सुगम तरीके से हिन्दी प्रयोग के बारे में सूचित करेंगे। चित्र में बायें से राजा हरल्ड और भारतीय राजदूत एन ए के ब्राउने

शनिवार, 20 फ़रवरी 2016

पुरानी यादें, मुद्दा छात्र जीवन में संघर्ष  


हाई स्कूल गोपीनाथ लक्ष्मण दास रस्तोगी इंटर कालेज ऐशबाग लखनऊ से 
गोपीनाथ लक्ष्मण दास रस्तोगी इंटर कालेज ऐशबाग लखनऊ में स्थित है जो मेरे ह्रदय में बसा रहा है. यहाँ से मेरी बहुत सी स्मृतियाँ जुडी हैं. यहाँ मैं  सांस्कृतिक परिषद का मंत्री और  साहित्य परिषद का उपाध्यक्ष  था इसी के साथ विज्ञान परिषद में पुस्तकालयाध्यक्ष था. सभी परिषदों के अध्यक्ष अध्यापक होते थे. यहाँ मुझे साहित्यिक संस्कार मिले और बहुत से कवि और विद्वानों को सुना। प्रधानाचार्य डा दुर्गा शंकर मिश्र, सुदर्शन सिंह एवं गंगाराम त्रिपाठी जी साहित्यिक और सांस्कृतिक गतिविधियों में बहुत रूचि लेते थे और सांस्कृतिक कार्यक्रम विद्यालय में करवाते थे. श्री विनय रस्तोगी जी विज्ञान सम्बन्धी कार्यक्रम और प्रदर्शनी करवाते थे. 
इन्टरमीडिएट डी ए वी इन्टर कालेज, लखनऊ से 
जब मैं डी ए वी इन्टर कालेज, लखनऊ का छात्र बना तो यहाँ उमाशंकर त्रिवेदी, रमेशचन्द्र अवस्थी और दिनेश मिश्रा जी के संपर्क में आया था जिनसे बहुत कुछ सीखा. यहाँ छात्रसंघ का चुनाव बहुत विकट हो गया अक्सर दो दलों में झड़प और मारपीट होती थी. मैं बिना किसी बड़े ग्रुप से जुड़ा चुनाव लड़ रहा था. यहाँ लोगों को कहते सुना था कि जो जितनी बार जेल जाता है वह उतना ही परिपक्व नेता होता है. 
लखनऊ में जब मैं छात्र नेता था तब अक्सर पुलिस गिरफ्त में आना पड़ता था. किसी गिरफ्तारी के बाबत नहीं केवल पूछताछ के लिए. 
पहले यह जानना जरूरी है कि मैं विद्यालय में किसी भी तरह हड़ताल के पक्ष में कभी नहीं रहा. वाकआउट के भी विरुद्ध था. बहुत से तरीके हैं अपनी मांगे रखने के लिए और समस्यायें सुलझाने के लिए. मैं शिक्षकों के विरोध के पक्ष में कभी नहीं रहा. 
मैं समस्याओं की शुरुआत में ही उसे हल करने के लिए पहले आपस में तय करके कि असल क्या मुद्दा है और कैसे उसकी पैरवी करनी है.
छात्रों का एकमत होना सबसे अच्छा है. फिर बातचीत के दौरान सभी के विचारों का स्वागत किया जाना चाहिये।  
मेरा मानना है कि क्षात्रनेता को अपने सहपाठियों से, कार्यालय से, शिक्षकों से अच्छे  सम्बन्ध और निरंतर संवाद रखना जरूरी है. छात्रनेता को चाहिये कि वह एक की बात दूसरे को न बताये बस उसी बात पर ध्यान दे और कहे जिससे सौहाद्र बनता हो और समस्या के सुलझाने के लिए जरूरी हो.
स्नातक किया मैंने बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ से 
मैंने बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ में शिक्षा प्राप्त करते समय जुलूस आदि को कालेज बंद होने के बाद ही समर्थन किया पर यदि अन्य कोई अपनी जिम्मेदारी पर ऐसा कर रहा है तो मैं उसमें रोड़ा नहीं बना और सामान्य रहने की कोशिश की. विद्यालय के प्रांगण में मैं आम सभा के पक्ष में नहीं रहा क्योंकि पढ़ाई और शान्ति में व्यवधान पड़ता था. इस बात को मेरे अध्यापक श्री त्रिवेदी जी ने जब मेरी चौथी पुस्तक काव्य संग्रह 'दीप जो बुझते नहीं' का विमोचन लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में हो रहा था तब जिक्र किया था, "सुरेशचन्द्र शुक्ल' क्रांतिकारी विचारों के होते हुए भी विद्यालय में वाक् आउट और हड़ताल के खिलाफ रहे. शिक्षकों के मध्य भी वह प्रिय थे.उनकी कहानियाँ विद्यालय की पत्रिका में प्रकाशित होती थीं. वह रेलवे में श्रमिक भी थे यह बात उन्होंने शुरू में छिपा रखी थी. इनकी कविता जब किसी अखबार में छपती तो वह दिखाते थे. अंतिम वर्ष में  जब हम लोगों (शिक्षकों) को  सुरेश के आर्थिक संघर्ष के बारे में पता चला तो हम लोगों में इनके प्रति और स्नेह उत्पन्न हो गया. इनके उज्जवल भविष्य की कामना एक अध्यापक के नाते भी करता हूँ. "
('दीप जो बुझते नहीं' का  लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में विमोचन हुआ था. उपस्थित लोगों में मुख्य थे विभागाध्यक्ष प्रो सूर्य प्रसाद दीक्षित, प्रो शम्भुनाथ चतुर्वेदी, डॉ दुर्गाशंकर मिश्र,  प्रसिद्द कवि और  उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान के उपाध्यक्ष  लक्ष्मी कान्त वर्मा, पूर्व प्रोफ़ेसर और जाने माने कवि आदरणीय कुंवर चन्द्र प्रकाश सिंह, के के वी में मेरे हिन्दी अध्यापक त्रिवेदी जी मौजूद थे.)

यह उस समय की बात है जब मैंने सन 1976 में बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ में दाखिला लिया था. उसके पहले डी ए वी कालेज में इंटर पास करने के बाद यहाँ पर ही डिग्री कालेज में दाखिला लिया था जहाँ शाम की  कक्षायें लगती थीं. शाम छह बजे कक्षाएं होने के कारण मैं कक्षाओं में अनुपस्थित रहता था. अतः एक वर्ष बर्बाद हो गया जिसका मुझे बाद में बहुत अफ़सोस हुआ. डी ए वी डिग्री कालेज की पत्रिका में मेरी पहली कहानी 'अपूर्व स्वप्न' कहानी प्रकाशित हुयी थी.  बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ की पत्रिका में जय प्रकाश नारायण जैसा मैंने पाया और कहानी 'आंसू रुक न सके'  विद्यालय की पत्रिका में छपी थी. 

गुरुवार, 18 फ़रवरी 2016

जो जितनी बार जेल जाता है वह उतना ही परिपक्व नेता होता है- Suresh Chandra Shukla

जो जितनी बार जेल जाता है वह उतना ही परिपक्व नेता होता है. 

सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'


ओस्लो नगर की मंत्री के साथ (चित्र २०१६)

पुरानी यादें, 

जो जितनी बार जेल जाता है वह उतना ही परिपक्व नेता होता है
मेरे साथ कोई राजनैतिक संगठन न होने के कारण बार-बार स्थानीय राजनेताओं के विरोध का कोपभाजन बनना पड़ा था. देश में इस समय सरकार बहुत अच्छी है. कोई दूसरा विकल्प नहीं है. जो चुनाव जीतेगा वही सरकार पर आसीन होगा। बार-बार लोग आज की राजनैतिक स्थिति की आपातकाल जैसा बता कर स्वयं गुमराह हो रहे हैं और मजाक उड़ा रहे हैं. आपातकाल का सोमरस मैंने भी चखा है. ईश्वर न करे कहीं उस तरह कभी आपातकाल लगे. 
मैं एक घटना का जिक्र कर रहा हूँ. लखनऊ में वजीरगंज थाना है उसी से थोड़ी दूर पर वहां का स्थानीय सांध्य  अखबार लखनऊ मेल का कार्यालय और प्रेस था. अपने विद्यालय बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ में एक छात्रों की बैठक के बाद लखनऊ मेल समाचार पत्र के कार्यालय से होकर जा रहा था. रास्ते में पुलिस के तीन सिपाही कुछ महिलाओं को हांके लिए जा रहे थे मैंने विरोध करके उन्हें पुलिस के चंगुल से छुड़ाया। पर पुलिस मुझे थाने  ले गयी मेरे साथ दो मित्र और थे जो अपनी साइकिल पर थे. पुलिस ने मुझे पहले थाने के बाहर बैठाया बाद में लाकर में बंदी बनाकर दाल दिया। उस समय मैं सामजिक संगठन 'छात्र युवा क्रांतिकारी संघ' का महामंत्री और उसके पूर्व मैं माध्यमिक विद्यालय क्षात्र महासंघ, लखनऊ का मंत्री रह चुका था जिसमें लखनऊ के १६ माध्यमिक विद्यालय सम्मिलित थे. मेरे मित्र केकेसी और केकेवी कालेज गए और मेरे थाने में गिरफ्तार होने की खबर  की खबर दी. 
दो घंटे बाद थाने के बाहर मुझे नारों की आवाज सुनायी दी. बहुत शोरगुल शुरू हो गया. मुझे थाने के बंदीगृह से बाहर लाकर बैठाया गया था. लेकर में अंदर दो रिक्शे वाले बेवजह बंदी बनाये गए थे. नगर के बहुत बड़े-बड़े अधिकारी मौजूद थे. और सड़क पर नारे लग रहे थे की मेरा नाम लेकर इसे छोड़ दो. इंकलाबी नारे लगाए जा रहे थे. पहली बार मुझे युवाओं की ताकत का पता चला और महसूस किया। शिशु कुमार सिंह बगावत जुलुस का नेतृत्व कर रहे थे. दूसरे-तीसरे दिन लखनऊ विश्वविद्यालय के अध्यक्ष और वर्तमान सचिव माननीय अतुल कुमार 'अनजान' और मंत्री और लखनऊ में वर्तमान विधायक रविदास मलहोत्रा जी ने जिलाधीश और उच्च पुलिस अधिकारी से शिकायत की और कार्यवाही की मांग की थी. मुझे बिना शर्त रिहा करने की बात कही तो मैंने रिक्शे वालों की मुक्ति की बात की जो मान ली गयी थी. यह समाचार भी समाचार पत्र में छपा था. 
धन्यवाद।


रविवार, 14 फ़रवरी 2016

Sushma Swaraj ji Happy birthday, जन्मदिन पर बहुत-बहुत बधायी! -Suresh Chandra Shukla

सुषमा स्वराज जी का आज जन्मदिन है  बहुत-बहुत बधायी!



फोटो: Photo: Suresh Chandra Shukla
माननीय सुषमा स्वराज जी का आज जन्मदिन है. हिन्दी की विद्वान और विदेशमंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज जी को जन्मदिन पर  उन्हें बहुत-बहुत बधायी! 
आपसे १० जनवरी २०१६ को दिल्ली में मिलने और सामने बैठकर सुनने का अवसर मिला था. अवसर था विश्व हिन्दी दिवस। कार्यक्रम का आयोजन विदेश विभाग में था. ईश्वर उन्हें शतायु करे. 
हिन्दी की विद्वान और विदेशमंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज जी का १४ फरवरी को जन्मदिन है उन्हें बहुत-बहुत बधायी! 
Indias utenriksminister Sushma Swaraj har bursdag i dag, Gratulerer. 
मेरी माँ किशोरी देवी (१४ फरवरी २०१६ को मात्र दिवस पर) 
को कोटि-कोटि नमन 


Gratulerer med morsdag og Valentinedag. Jeg er med mor på bilde. पश्चिम में आज मात्र दिवस और वेलेंटाइन दिवस है. भारत में हर दिन मात्र दिवस होता है यदि हम माँ के चरण स्पर्श करते हैं, उन्हें स्मरण करते हैं और सभी बंधुओं, बहनों, भाइयों से शिष्टाचार से स्नेह देते और लेते हैं. अतः हम प्रेम से रहें और दूसरों की गलतियों को क्षमा करें। आपका दिन मंगलमय हो! अपनी कविता की , कबीरदास जी और रहीम दास की पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं: बुझा नहीं सकता वह दीपक प्रेम से जिसे जलाया है। 
प्रेम में कभी नहीं यह सोचें क्या खोया क्या पाया है॥
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुड़े, जुड़े गाँठ परि जाय॥
'पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुवा, पंडित भआ न कोय।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', ओस्लो
अपनी स्वर्गीय माँ किशोरीदेवी जी के साथ मैं, लखनऊ में.

आदरणीय स्व. भाभी श्रीमती किरण शुक्ल जी के जल्दी निधन के बाद मेरी माँ ने उनकी (जय प्रकाश, चन्द्र प्रकाश, ओम प्रकाश और आयुष्मती शैल की) माँ का रोल अदा किया और बीमार होने के बाद भी उनके नाम बहुत कुछ छोड़ गयीं। 
ऐसी माँ को कोटि-कोटि प्रणाम!  मेरी माँ सभी बच्चों  की सुनती थीं और उसे एक दूसरे से  कभी नहीं कहती थीं, यदि आवश्यक न हो और उस कहने से अच्छा असर पड़े, पर आज आप किसी एक सूचित कर दीजिये तो वह सन्देश बहुधा घर में सभी को  पहुँच जाता है. 


शनिवार, 13 फ़रवरी 2016

Speil स्पाइल i Vishv hindi Sammelan -Suresh Chandra Shukla

भोपाल में संपन्न 

विश्व हिन्दी सम्मलेन २०१५ में में Speil स्पाइल-दर्पण का बोलबाला रहा

चित्र में सभी लेखक बन्धुवर! Speil på Verdens hindi konferanse i 2015 i India.

चित्र में बायें से व्यापारी और लेखक दाऊजी गुप्त  गुप्त, लखनऊ विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर योगेन्द्र प्रताप सिंह, सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', लेखक और गवर्नर केशरी  नाथ त्रिपाठी, एक लेखिका, जर्मनी में प्रो राम प्रसाद भट्ट और बी एस एन वी डिग्री कालेज, लखनऊ , भारत  में अंगरेजी की शिक्षक और लेखिका प्रो शोभा बाजपेयी जी. 

१२ सितम्बर २०१५ को (विश्व हिन्दी सम्मलेन में) नार्वे से प्रकाशित पत्रिका स्पाइल-दर्पण को हाथ में लिए दर्शाते हुये। Alle forfattere på bilde holde Speil på Verdens hindi konferanse fra Bhopal i India som ble tatt den 12. september 2015. Å ha en fin dag.

रविवार, 7 फ़रवरी 2016

आपबीती दो - Suresh Chandra Shukla

आर्थिक अभावों और धनी उत्साह भरा रोमांचक बचपन 



फ़िल्मकार मुजफ्फर अली के साथ  होटल ताज आगरा में 5 जनवरी 2016 को  यू  पी  प्रवासी दिवस में। 

संस्मरण  जन्मदिन  १० फरवरी  पर 
'लखनऊ की सड़क से ओस्लो के नगर पार्लियामेन्ट तक.'
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' ओस्लो, नार्वे से 
बहुत से सफल लेखक और कलाकार आमतौर पर अपने आरंभिक जीवन के बारे में कहने से  संकोच करते हैं. हम उनके संघर्षमय जीवन से अनभिज्ञ रहते हैं.  उनके खट्टे-मीठे अनुभवों को कभी इमली, बेर, कैथा और  संतरा आदि फलों की तरह स्वाद नहीं ले पाते। 
मुझे अनेक मित्रों ने प्रेरित किया कि मैं अपनी आप बीती लिखूँ।  जिनमें प्रकाशक के अलावा मैं दो लोगों का नाम लेना चाहूँगा। राजेंद्र अवस्थी जी जब कादम्बिनी के संपादक थे उन्होंने कादम्बिनी में मेरे दो साक्षात्कार प्रकाशित किये थे. जब भी मैं भारत जाता तो कादम्बिनी कार्यालय जरूर जाता था वहाँ सदा  राजेंद्र अवस्थी जी सभी का स्वागत करते दिखते थे ।   कादम्बिनी  के कार्यालय में  लेखकों और विद्वानों के आने-जाने का ताँता लगा रहता था. वहां पर बहुत से लेखकों से सम्पर्क हुआ उसमें प्रेमचंद साहित्य पर शोधपरक ग्रन्थ लिखने वाले आलोचक डॉ कमलकिशोर गोयनका जी थे जिन्होंने मुझे अपनी आपबीती यानि संस्मरण लिखने को कहा जो साहित्यिक और जीवन के उन पहलुओं का वर्णन करता हो जो मैंने स्वयं जिया हो. 
अभी पिछले सप्ताह मुझे ब्रिटेन के नगर बर्मिंगम से डॉ कृष्ण कुमार जी ने फोन पर पुनः कहा, 
"सुरेश जी आपने अपना जीवन किस तरह रेल की पटरियों के किनारे काम करते हुए शुरू किया और आज लेखक के रूप में प्रतिष्ठित है. आपकी कथाओं पर अनेकों लघु टेलीफिल्में बनी हैं." 
उन्होंने हमारे माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का भी जिक्र किया और कहा, 
" मोदी जी कहाँ कभी चाय बेचते थे और आज प्रधानमंत्री हैं. और आपने भी कम संघर्ष नहीं किया और आज भी कर रहे हैं. जरूर आपके जीवन से भी लोग सीख सकेंगे और आपके संघर्षों को जान सकेंगे।"  
यह बात सही है कि अपने देश से दूर जाकर नार्वे जैसे देश की राजधानी ओस्लो नगर पार्लियामेंट में सन 2004 से 2007  तक सदस्य चुना गया था.  इसी के साथ यह भी बात ध्यान देने वाली है कि रेलवे में लगभग आठ वर्ष (सन 1972 से 21  जनवरी 1980 तक नौकरी करते हुए स्नातक की शिक्षा और श्रमिक शिक्षक की शिक्षा पायी थी.  लखनऊ में कभी-कभी समाचार पत्रों में मेरे समाचार और कवितायें छपती थीं.  उस समय सभी अखबार साहित्य को अधिक स्थान देते थे.

विदेशों में हिन्दी साहित्य और भाषा का प्रचार-प्रसार
जब भी विदेशों में भारतीय संस्कृति और भाषाओँ (हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और तमिल) के प्रचार प्रसार और विदेशों में रचे  जा रहे हिन्दी  साहित्य और पत्रकारिता की बात की जायेगी मेरे 36  वर्षों तक हिन्दी पत्रिका के संपादन और इसके लिए योगदान को भुलाया नहीं जा सकेगा।  सन 1980  से सन 1985 तक नार्वे की प्रथम हिन्दी पत्रिका परिचय का सम्पादन किया और सन 1988 से स्पाइल-दर्पण का सम्पादन कर रहा हूँ.


जब पिछले वर्ष 9 फरवरी 2015 को मेरे काव्य संग्रह 'गंगा से ग्लोमा तक' को मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का भवानी प्रास मिश्र काव्य पुरस्कार मिला और 14 सितम्बर 2015 को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का 'हिन्दी विदेश प्रसार सम्मान' मिला तो अच्छा लगा और अधिक सेवा करने की प्रेरणा मिली।

हिन्दी वैश्विक भाषा है और मेरी अस्मिता की पहचान 
हिन्दी विश्व की एक बड़ी भाषा है. यह आम जनों की भाषा है. हिन्दी लेखक होने के नाते मुझे बहुत से देशों में सम्मान और पुरस्कार मिल चुके हैं जिसके लिए मैं हिन्दी वालों का और विदेशों में हिन्दी की सेवा में लगे लोगों का आभारी हूँ. मेरा मानना है कि जो लोग विदेश में रहते हैं उनसे निवेदन है कि वह अपने रोजमर्रा के कार्य करते हुए अपनी संस्कृति और भाषा को बचाये रखने के लिए वहां राजनीति में भी सक्रिय हों ताकि वह अपने कर्तव्य निभायें और अपनी भाषा और संस्कृति को अपना हक़ दिलायें।

पूर्वज-लेखक हमारे लिए प्रेरणा
यह मेरे मित्रों का बड़प्पन है कि वह मेरे बारे में अच्छा सोचते हैं और अपने विचारों से मेरा हौंसला बढ़ाते हैं.
एक तरफ से नजर उठाइये तो हमारे पूर्वज-लेखकों ने कम संघर्ष नहीं किया।  गोस्वामी तुलसीदास जी का बचपन  और कबीरदासजी, रैदास जी के कर्म  हमारे लिए प्रेरणा और बहुत बड़े उदहारण हैं संघर्ष के.
आजकल आधुनिक लेखकों का जीवन भी कम संघर्षपूर्ण नहीं रहा है. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' और  नागार्जुन  जी की तरह आदम गोंडवी जी जैसे लेखक अपना समुचित इलाज भी नहीं करा सके थे. कभी-कभी जब मैं भारतीय समाचारपत्रों में पढता हूँ कि किसी मेरी बेटी या बहन को नंगा घुमाया गया उसके साथ बदसलूकी हुई, प्रताड़ित किया गया, तब पढ़कर स्वयं बहुत दुखी होता हूँ.  सोचता  हूँ कि मुझे अपने देश भारत लौट आना चाहिए और दलितों, प्रताड़ित लोगों और दुनिया की जेल में बंद बच्चों और महिलाओं को छुड़वाने और उन्हें जेल के बाहर जिंदगी जीने के लिए सामूहिक घर दिलाने में मदद करनी चाहिये। पर क्या करूँ कभी-कभी लगता कि यह संभव है जब महान लोगों से मिलने की बात सोचता हूँ. इनमें कुछ लोगों का जिक्र करना चाहूँगा जिनसे मैं मिला हूँ. ये हस्तियां हैं: नेलसन मण्डेला, दलाई लामा, रेगुबेर्टा मेंचू , ओस्कर आरियास कैलाश सत्यार्थी और अन्य।  ये सभी नोबेल पुरस्कार विजेता हैं. जब ये लोग अपने संघर्ष में काफी हद तक सफल रहे तब मैं क्यों नहीं कर सकता।  कभी-कभी लगता कि यह कार्य लोहे के चने चबाने जैसा है. जैसा भी हो एक बार अपने माननीय  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी से मिलने का मौक़ा जब भी मिलेगा तो एक बार बातचीत करके प्रयास जरूर करूंगा।
आइये अब अपने जीवन के कुछ अंतरंग किस्से सुनाता हूँ.  अपनी आपबीती एक कविता 'बचपन की स्मृति' से शुरू करता हूँ.
मुझे स्मृति बहुत आती है,
मन  मोहक बचपन की.
रीता भरा लगा करता था
स्वप्न गगन गागर की.
आर्थिक अभाव था
स्वप्न बहुत थे
रंगबिरंगे मेरे।
तितली का पीछा
गुब्बारों सा जीवन
सुख-दुःख दोनों संग मेरे।
एक साथ छोड़ देता था
तब, दूजा संग आता था.
आँख मिचौली लगा खेल
छिपता फिर मिल जाता।
 तब प्रयास भी न जाने क्यों
मौसमी फूल लगे थे.
मन्दिर-ईदगाह के  जब तब
खट्टे - मीठे बेर लगे थे.

छोटे हमउम्र बच्चे जब
गली कूड़ा बीन रहे थे.
हम अपनी अम्मा से
श्रम रामायण सीख रहे थे.
ये अभाव है, भेदभाव है
दस्तक दे जाता है
सुनकर जब चुपचाप रहेंगे
बार-बार आता है.

अभाव -भेदभाव से
जमकर तुम लड़ना।
लगन-श्रम-शिक्षा से
उसे न जमने देना।
दिन भर जब श्रम से थकना,
रात में तारों और जुगनू सा
अंधियारे से लड़ना।
अन्तर्मन का दिया जलाना
कभी न बुझने देना।
बचपन के दिन जब से होश संभाला तब बड़ा ही उत्साह से भरा जीवन और उसके क्षण बहुत चुनौतीपूर्ण लगते थे. मैं अपने मामा के घर (ननिहाल) में था और जब मैं जब दो-तीन बरस का था तो मुझे बड़ी चेचक निकली  थी. मेरी  माँ  ने बतलाया था कि मेरे पूरे शरीर पर खुजलाने के कारण घाव हो जाते थे. आँखे भी चेचक से ढक गयी थीं.  मेरे पिताजी भी उस समय मुझे देखने नहीं आते थे. मेरी माँ को छोड़कर अनेक लोगों ने यह आशा नहीं की थी कि मैं बचूंगा।  अपने तीन  भाइयों और एक बहन में मैं सबसे छोटा था.  उस समय मुझे बड़ी चेचक निकली थी उस समय बड़ी चेचक दुनिया में विद्यमान थी. चेचक के निशान मेरे चेहरे पर अभी भी साफ़-साफ़ देखे जा सकते हैं.

'मैं अपने मामा (ननिहाल) के घर पर कानपुर जिले के एक आर्थिक रूप से पिछड़े बकौली ग्राम पोस्ट कठारा में था. मुझे बहुत नहीं याद है पर यह याद है कि वहां मेरी लगने वाली भाभियाँ भी अच्छे-बुरे मजाक करती थीं. सारे मजाक मैं नहीं समझ पाता था और शर्मा जाता था.  वहां घर एक दूसरे घरों से मिले हुए प्रतीत होते थे और  जिनकी छते करीब-करीब मिलती थीं. छत से करीब चार-पांच घरों के आँगन दिखायी देते थे. अतः उन घरों में रोजमर्रा के कार्य होते हुए दिखायी देते थे. कोई महिला अनाज सूप से पछोर रही होती थी, कोई ओखली में कुछ कूट रही होती तो कोई बड़ी मथानी से बड़े घड़ों में मक्खन निकालने के लिए मथ रही होती थी और कहीं सुबह-सुबह दूध बहुत बड़े भगौने में उबाल रही होती थी. सभी अपने अपने काम में लगे होते थे.
आपस में स्नेह भाव था. अधिकाँश महिलायें पढ़ना नहीं जानती थीं पर सफाई और बोलचाल तथा व्यवहार बहुत अच्छा था. पक्के घर कम थे.  पड़ोस के एक घर में तोता पला था.  तोता बहुत नकलची था. उस समय बैलगाड़ी और अच्छे बैलों से किसानों का स्तर यानी कौन समृद्ध है नापने का पैमाना होता था. मेरे पांच मामा थे जिनमें केवल दो ही बहुत समृद्ध थे पर सभी परिश्रमी थे.
एक मामा के घर पर तीन भैसें, दो बड़े बैल थे जिन्हें गाँव वाले हीरा और मोती  कहकर पुकारते थे तब पता चला कि कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'दो  बैलों की कथा' से बैलों के नामकरण किये गए थे .  यह कथा वहां एक ने पढ़कर सुनायी थी. बिजली नहीं थी. रात  को अँधेरा हो जाता था तो लोग अलाव जलाकर शाम को एकत्र होते और भूत प्रेत की कहानियाँ, अगिया बैताल आदि की कहानियां सुनाते थे जिनपर बचपन में वहां के अधिकाँश लोगों की तरह विश्वास  करने लगा था.   वहां भूत प्रेत की कहानियाँ सुनकर हम सभी रोमांचित होते और जिन कहानियों को सुनकर कभी खुशी और कभी डर लगता था।
वहां मामा के साथ जहाँ अनाज काटकर खलियानों में जमा होता था.  वहां पर मामा अनाज की रक्षा करने और मढ़ाई आदि के कारण सोने जाते थे और मैं भी उनके साथ रात खलियान में  सोता था.  रात को ठंडी-ठंडी हवा बहुत  सुहावनी और सुखद लगती थी. घास-फूस पेड़ों और अनाज के गट्ठरों से टकराती हुई जब बयार चलती थी कर्णप्रिय लगती जैसे संगीत बज रहा हो. मोरों के रह-रह कर बोलने की आवाज तथा रात को झींगरों के झिनझिनाने की आवाज फिल्म के रात के दृश्यों की तरह लगती थी.
दिनों में मैदानों में उगी घास चरने के लिए खच्चर में जुतने वाले घोड़े, गाय, बकरियां, भैंस आदि मैदानों में चरते थे.  पशु-पक्षियों की मिली जुली आवाजें और बंदरों का आसपास से गुजरना बहुत रोमांचक लगता था.  वहां रहकर मैंने पेड़ पर चढ़ना सीखा। स्वयं और अन्य बच्चों  के साथ चरने आये खच्चर में जुतने वाले घोड़े को टीले के पास हाँक कर ले जाता और उनके मुख में जल्दी से रस्सी से बांधकर उसकी पीठ पर बैठ जाता। यह सब बहुत फुर्ती से करना होता था। घुड़सवारी की  प्रक्रिया में कई बार घोड़े की पीठ से गिरा और घोड़ी की दुलत्ती भी खाई. घुड़सवारी में आनंद और चोट से तकलीफ भी होती जिसे जल्दी ही भूल जाता था. घुड़सवारी करना सीख गया था. घोड़े से गिरने  के कारण  मुझे कई बार चोट लगी थी. और ज्यादा घुड़सवारी करने से बैठने की रगड़ लगने का कारण  कभी-कभी घाव भी हो जाता था.
वहां कुछ दूरी पर बहने वाली नहर में भी नहाने  जाता था. बाद में भी स्कूल से गर्मियों की छुट्टी में हम मामा के पास जाते रहे और पृकृति के खुले वातावरण में खुले आसमान के नीचे मौज मनाते रहे.
कभी महुआ, गुल्लू  बीनना, गिरे हुए आम बीनना और प्रातः से लेकर शाम तक घूमना -फिरना याद करके कभी-कभी ऐसा लगता है कि काश वह बचपन दोबारा वापस आ जाये।

यहाँ गाय और भैंस लगभग अनेक घरों में थीं क्योकि यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय यहाँ गाँव से दूध ले जाकर कानपुर नगर में बेचना होता था. यहाँ से किसान दूध लेकर कठारा रोड रेलवे स्टेशन पर ले जाते थे जो बाँदा रेलवे लाइन के अंतर्गत आता है. चित्रकूट से आने वाली रेल भी यहाँ से होकर गुजरती थी.  कठारा रोड कानपुर के कुछ ही स्टेशन पहले पड़ता था.

रेल में दूध के लिए अलग डिब्बे 
रेल में दूध के अलग डिब्बे होते थे जिसमें अंदर तो लोग दूध के कैन रखते ही थे और उसे रेल के डिब्बे के बाहर  खिड़कियों में बांधकर लटकाते थे. दूध के कैन गीले टाट से लिपटे होते थे ताकि दूध ख़राब न हो.
उसी डिब्बे में कोई रामायण पढ़ रहा होता तो कोई आपस में बर्तालाप कर रहा होता।

ददिहाल में 
मैं अपने बाबा यानि ददिहाल में भी कुछ  छुट्टियां बितायी थीं. ददिहाल ग्राम मवैया, अचलगंज के पास , उन्नाव जिले में था मेरे गाँव से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चन्द्र शेखर आजाद का स्मारक थोड़ी दूर पर स्थित है.
यहाँ गुड़िया का तालाब, आम के पेड़ पर चढ़ना और तालाब में नहाना आदि अभी भी याद करके मन पुलकित हो जाता है. यहाँ के लोगों की दबंगई के कारण  लगभग अधिकाँश घरों और परिवारों में फौजदारी के मुक़दमे चलते-रहते थे. इस क्षेत्र में पुलिस भी संभल कर ऐक्शन लेती थी.

मेरी कर्म भूमि पुरानी श्रमिक बस्ती, लखनऊ  
लखनऊ में पुरानी श्रमिक बस्ती ऐशबाग में जहाँ हमारा घर था यहाँ मैंने इक्कीस वर्ष बिताये और लगातार इस कालोनी के संपर्क में आज 2016 तक संपर्क में हूँ. यहाँ मैं जन्म से मकान नम्बर 30/7 तथा 30/8 में सन 1962 तक और उसके बाद सन 1975 तक मकान नम्बर  41/3 में रहता था.
वहां अभी भी बहुत से पुराने लोग रहते हैं और स्नेह देते हैं.
जब भी लखनऊ जाता हूँ इस लेबर कालोनी में एक बार जरूर होकर गुजरता हूँ. यह कालोनी भी बहुत अच्छी जगह बसी है. कालोनी के एक ओर पानीघर, एक ओर ऐशबाग ईदगाह और एक ओर मोतीझील का एक बड़ा हिस्सा जो अब कूड़े से पटे जाने के कारण उसकी सुन्दरता जाती रही पर यह लखनऊ के मध्य में बसा है. पुरानी  लेबर कालोनी खुली-खुली बसी है. यहाँ ही रहकर समाजसेवा से जुड़ा और मेरे भीतर साहित्य के अंकुर फूटे।
इस कालोनी में तीन मुख्य पार्क हैं जिन्हें हम बचपन में सेंटर वाली पार्क, नीम वाली पार्क और नेताजी वाली पार्क कहकर पुकारते थे.
संघर्ष ही जीवन है 
इस कालोनी में बहुत से स्वतंत्रता संग्रामसेनानियों, नेताओं, शिक्षाविद और कलाकारों को लाने का श्रेय मुझे है. सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये यहाँ युवकों को रचनात्मक कार्यों से जोड़ा और खुद जुड़ा 'युवक सेवा संगठन' बनाकर उसके माध्यम से और स्वतन्त्र रूप से भी जुड़ा।  इस कालोनी ने मेरे अंदर फिल्मकार बनने के सपने,  कविता रचना  और और समाजसेवा करना  सिखाया जो आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं. 
मैं शहीद दिवस समारोह आयोजित करना चाहता था. अतः  मेरे एक मित्र जीत सिंह जो रेलवे में काम करते थे उन्होंने प्रताप सिंह रौतेला से मिलवाया  और उन्होंने राम कृष्ण खत्री से मिलवाया जो काकोरी कांड के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे. शचीन्द्र नाथ बक्शी जी ने भी आना था पर न आ सके थे. यह कार्यक्रम मैंने नेताजी वाली पार्क में कराया था. यहाँ कार्यक्रम स्थल पर स्वयं स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी गंगाधर गुप्ता जी आये  और आगे चलकर उन्होंने लखनऊ और गाजियाबाद में अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से मिलवाया। आयु में बड़े होने के बाद भी वह आजीवन मुझे मित्रवत ही मानते रहे.
यहाँ पुरानी लेबर कालोनी ऐशबाग लखनऊ में एक कार्यक्रम में राज्यपाल सत्यनारायण रेडडी जी आये थे उस कार्यक्रम में हमको उनके समीप नहीं जाने दिया गया था और वही सत्यनारायण रेडडी जी बाद में मेरे ओस्लो निवास पर मिलने  आये  और मुझे अपने साथ भारतीय राजदूत के निवास पर पंद्रह अगस्त को ले गये और मेरे घर तीन दिन तक आये और एक दिन तो मैं खरीदारी करने अपने साथ ले गया था तब उन्होंने मेरे सामान के पैसे दिए थे और वापस देने पर नहीं लिये थे. कभी-कभी ऐसा भी होता है.  चाहे सिटी मोन्टेसरी स्कूल के जगदीश गांधी या भारती गांधी हों या और अनेक  नेता और कलाकार
वह हमारे कार्यक्रम में आते थे. कालोनी में ही रहने वाले के के पाण्डेय जी को नहीं भुला सकता वह एक अच्छे इंसान और कलाकार थे उन्होंने न केवल हमारे कार्यक्रमों में  हिस्सा लिया था बल्कि उत्तर प्रदेश की कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था.

यहाँ रहकर ही मैंने जाना और समझा कि संघर्ष ही जीवन है और बिना परिश्रम और त्याग के कुछ नहीं मिलता। संघर्ष और कठिन परिश्रम से आप अपने अलावा दूसरों  की भी सेवा कर सकते हैं.
मैं गोपीनाथ लक्ष्मणदास रस्तोगी इंटर कालेज, ऐशबाग, लखनऊ में पढता था और यहाँ से ही मैंने हाईस्कूल उत्रीण किया था. यहाँ मैं साहित्य परिषद का उपाध्यक्ष और सांस्कृतिक परिषद का मंत्री और विज्ञान परिषद का लाइब्रेरियन चुना गया था.  साहित्य परिषद और सांस्कृतिक परिषद के अध्यक्ष अध्यापक होते थे. अतः लेखक सुदर्शन सिंह और गंगाराम त्रिपाठी जी इन संस्थाओं के अध्यक्ष थे और लेखक दुर्गाशंकर मिश्र विद्यालय के प्रधानाचार्य थे. यहाँ मैंने अनेको स्वरचित कवितायें विद्यालयों के आयोजन में सुनायीं थीं.
जब मैं है स्कूल में 1970 में अनुत्रीण  हुआ तो मेरे पिताजी  मेरी नौकरी के बारे में सोचने लगे. सन 1972 में मेरे गोपीनाथ लक्षमण दास रस्तोगी इंटर कालेज से हाईस्कूल पास करते ही  आलमबाग लखनऊ स्थित मालगाड़ी और सवारी डिब्बे कारखाने लखनऊ  में एक सबसे मामूली कर्मचारी खलासी के रूप में नौकरी लगवाई।  इस कारखाने में मेरे दादा जिन्हें मैं बाबा कहता था ने भी कार्य किया था और मेरे पिता जी भी कार्यरत थे.
इसके पहले मैंने अपने एक मित्र  रतन गुलाटी के साथ एक रामनगर ऐशबाग में साबुन की फैक्ट्री में ढाई रूपये प्रतिदिन के हिसाब से दो सप्ताह काम किया था और एक मित्र अहमद अली के साथ गर्मी की छुट्टियों में आम रखने वाली पेटियाँ बनायी थी.
मुझे लगा, आ गया ऊँठ पहाड़ के नीचे।  आगे पढ़ने के बड़े-बड़े अरमान धूमिल होते दिखने लगे. पिताजी की ख़राब आर्थिक स्थिति होने के कारण  मुझे अपने पिता का निर्णय बाद में सही लगा.
          "हाथ पर हाथ रखकर कभी कुछ होना नहीं।
          काटना क्यों चाहते हो नई फसल जब तुम्हें बोना नहीं।"
जब मैं निराश और परेशान कविता लिखता और कवितायें गुनगुनाता था.  मंच से भी कवितापाठ करने लगा था वह भी मोहल्ले और विद्यालय के मंच से.
आवारागर्दी ने मुझे बहुत अपनापन दिया
आवारागर्दी ने मुझे बहुत अपनापन दिया और  ईमानदारी , उदारता , स्वच्छंदता , सहृदयता, अल्हड़पन, घुमक्कड़ी और खेलकूद से जोड़ा मुझे अपने दोस्तों के साथ आवारागर्दी में. यह आवारागर्दी अपराध से जोड़ने वाली नहीं थी  पर उमंगों को नया रंग  बंधन से मुक्त प्रेम की तरह थी, जिसमें मेरे अपने सपनों की उड़ान थी जिसका कोई ठौर नहीं रहा. मेरे इन अधिक आवारागर्दी भरे तीन वर्षों ने ( सन 1969 से 1972 तक) मुझे आटा दाल का भाव बता दिया था.  स्वतंत्रता और  बंधनमुक्त परिश्रम और संघर्ष मेरी रोजमर्रा की जिंदगी का अधिकाँश जीवन हिस्सा रहा जिसने अनुशासन से कभी प्रेम न करते हुए भी उसे अपनाया पर कभी गले नहीं लगा सका.
          "सपने सत्य नहीं होते तो,  मैं सपनों से प्रेम करूँ क्यों?"
प्रेम ने मुझसे नाता तोड़ दिया और सदा अनचाहे दूसरों को आजीवन प्रेम करता रहा, मेरे शुभचिंतक इस प्रेम को आवारगी कहते हैं, हालाँकि मेरा सहमत होना और न होना मायने नहीं रखता।  मुझे लगता है प्रेम बाँटने  से प्रेम बढ़ता है. संकीर्णता प्रेम का अंग नहीं हो सकती।
          "बुझा नहीं सकता वह दीपक, ह्रदय ने जिसे जलाया है।
          "प्रेम में कभी नहीं यह सोचें, क्या खोया क्या पाया है।।"
डी ए वी कालेज में लेखक (कवि) बना 
दी ए वी कालेज में मेरे अध्यापक उमादत्त त्रिवेदी और रमेशचन्द्र अवस्थी जी थे जिनसे मुझे सदा प्रोत्साहन मिलता था. त्रिवेदी जी एक साहित्यिक संस्था और एक पत्रिका छापते थे जबकि रमेश अवस्थी जी विद्यालय की पत्रिका के संपादक थे. दिनेश मिश्रा जी यहाँ छात्र यूनियन के अधिकारी भी थे जो विद्यालय में होने वाले कार्यक्रमों के संयोजक भी रहते थे.  इस विद्यालय में मैंने छात्रसंघ का चुनाव अध्यक्ष पद के लिए लड़ा.

पहला काव्य संग्रह वेदना प्रकाशित हुई

इस विद्यालय में मैंने खेल में तीन पुरस्कार जीते और इंटर पास करते ही सन 1975  में  मेरी पहली काव्य पुस्तक 'वेदना' प्रकाशित हो गयी थी. ध्यान रहे मैं विद्यालय रोज नहीं जा पाता था. जब शाम की या रात की शिफ्ट में काम होता तभी कालेज जा पाता था.  रेलवे में कर्मचारी रहते  हुए कालेज से रेगुलर इंटर पास करके मुझे खुशी हुई थी.  इसी वर्ष मैंने अपना पासपोर्ट बनवा लिया था. उस समय पासपोर्ट बनवाना मुश्किल कार्य था.
















सोमवार, 1 फ़रवरी 2016

संसमरण -आप बीती - Suresh Chandra Shukla

संस्मरण  -आप बीती - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' ओस्लो, नार्वे (०१.०२.१६)


विश्व हिन्दी सम्मलेन, न्यूयार्क में संयुक्त राष्ट्र संघ भवन में. सन 2007 में डॉ लक्ष्मीमल सिंघवी जी के साथ.    

आज से अपने संस्मरण लिखने  की शुरुआत के रूप में भूमिका बना रहा हूँ और शीघ्र  ही लिखना आरम्भ  करूंगा। अभी यह समझ लीजिये कि अपनी स्मृति के पन्ने  पलट रहा हूँ और कुछ नाम सामने ला  रहा हूँ जिनमें कुछ पर संस्मरण भी लिखूंगा। दिल्ली के डॉ कमल किशोर गोयनका और बर्मिंगम के कृष्ण कुमार जी ने अनेक बार सुझाव दिया कि  मुझे अपनी आपबीती लिखनी चाहिये। 
नार्वे में 
बहुत से भारतीय लेखकों से मिले।  कुछ भारतीय लेखक यहाँ कार्यक्रम में भाग लेने आये जैसे लेखक सेमीनार, कविसम्मेलन या मुशायरा में भाग लेने आये.
लेखकगण जो नार्वे में साहित्यिक कार्यक्रम में भाग लेने आये और मेरे ओस्लो स्थित मेरे घर पर भी रुके वे हैं: मनोरमा जफ़ा, रमणिका गुप्ता, वासंती, सरोजनी प्रीतम, डॉ विद्याविन्दु सिंह, डॉ के डी सिंह, डॉ रामेश्वर मिश्र , शकुंतला मिश्रा,  राजेन्द्र अवस्थी, डॉ सत्य भूषण वर्मा, डॉ गिरिजा शंकर त्रिवेदी, डॉ निर्मला एस मौर्या, विक्रम सिंह, उर्दू के लेखक राम लाल, गोपीचन्द  नारंग, हरमहिंदर सिंह बेदी, शमशेर सिंह शेर, डॉ कृष्ण कुमार, महेंद्र वर्मा, उषा वर्मा, डॉ विजय कुमार मेहता,  प्रो राम प्रसाद भट्ट, और अन्य।
नार्वे में जिनके साथ कवितापाठ किया और कार्यक्रम में साथ-साथ हिस्सा लिया वे हैं:
अमृता प्रीतम, कुर्अतुल ऐन  हैदर, अहमद फराज, कैफ़ी आजमी, जावेद अख्तर,  प्रभाकर क्षोत्रिय, शंकर दयाल सिंह, इंद्र नाथ चौधरी, कमलेश्वर, सुनील जोगी, केशरी नाथ त्रिपाठी, भीष्म नारायण सिंह, सत्य नारायण रेड्डी,

यू के (ब्रिटेन) में:
सबसे पहले विष्णुदत्त शर्मा जी से मिले लन्दन में स्थित साउथ हाल में एक मंदिर के पास, फिर उनसे मिलना जुलना शुरू हो गया वह बामपंथी विचारधारा के लन्दन में सशक्त नेता थे. उन्होंने ही मुझे साउथहॉल में अनेक लोगों से मिलवाया।   साउथहॉल में एक गुप्ता जी चाट वाले और कुछ लेबर पार्टी के कार्यकर्ता से मिले जिन्होंने मुझे वहां ब्रिटिश मूल के सांसद से मिलाया यह सन 1986 -1987 की बात रही होगी।  विष्णु दत्त शर्मा जी ने मुझे हिन्दी साप्ताहिक 'अमरदीप' के संपादक जगदीश मित्र कौशल और वीरेन्द्र  शर्मा (वर्तमान सांसद) जी से मिलने को भी कहा.
जगदीश मित्र कौशल जी के घर पर अनेक बार गया और उन्होंने आवभगत की और भोजन साथ-साथ किया उन्होंने हिन्दी का प्रेस लगाया था उसमें अपना साप्ताहिक प्रकाशित करते थे. अमरदीप पत्रिका की रामधारी सिंह दिनकर जी ने भी तारीफ़ की थी.
यहाँ मैं ओंकारनाथ श्रीवास्तव-कीर्ति चौधरी के घर पर गया, मेरे साथ एक मित्र संपादक भी थे. उन्होंने अपनी रचनाएं सुनाईं, विचार विमर्श किया और भोजन कराया।
विष्णुदत्त शर्मा जी के बाद मेरी मुलाकात डॉ लक्ष्मीमल सिंघवी जी से हुई. वह वहां भारत के हाई कमिश्नर थे और वहां हिन्दी के कार्यक्रम करवाते थे जहाँ मैंने आना-जाना शुरू किया जिससे वहां के टीवी से भी जुड़ा और अनेक इंटरव्यू हुए.  श्रीमती डॉ लता पाठक, सरिता सबरवाल, डॉ सतीश पाठक से मिलना हुआ. सरिता सबरवाल हमारे शुरुवाती कविसम्मेलनों की संचालक थीं. इस कविसम्मेलन का प्रसारण भी टी वी पर हुआ था.