आर्थिक अभावों और धनी उत्साह भरा रोमांचक बचपन
फ़िल्मकार मुजफ्फर अली के साथ होटल ताज आगरा में 5 जनवरी 2016 को यू पी प्रवासी दिवस में।
संस्मरण जन्मदिन १० फरवरी पर
'लखनऊ की सड़क से ओस्लो के नगर पार्लियामेन्ट तक.'
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' ओस्लो, नार्वे से
बहुत से सफल लेखक और कलाकार आमतौर पर अपने आरंभिक जीवन के बारे में कहने से संकोच करते हैं. हम उनके संघर्षमय जीवन से अनभिज्ञ रहते हैं. उनके खट्टे-मीठे अनुभवों को कभी इमली, बेर, कैथा और संतरा आदि फलों की तरह स्वाद नहीं ले पाते।
मुझे अनेक मित्रों ने प्रेरित किया कि मैं अपनी आप बीती लिखूँ। जिनमें प्रकाशक के अलावा मैं दो लोगों का नाम लेना चाहूँगा। राजेंद्र अवस्थी जी जब कादम्बिनी के संपादक थे उन्होंने कादम्बिनी में मेरे दो साक्षात्कार प्रकाशित किये थे. जब भी मैं भारत जाता तो कादम्बिनी कार्यालय जरूर जाता था वहाँ सदा राजेंद्र अवस्थी जी सभी का स्वागत करते दिखते थे । कादम्बिनी के कार्यालय में लेखकों और विद्वानों के आने-जाने का ताँता लगा रहता था. वहां पर बहुत से लेखकों से सम्पर्क हुआ उसमें प्रेमचंद साहित्य पर शोधपरक ग्रन्थ लिखने वाले आलोचक डॉ कमलकिशोर गोयनका जी थे जिन्होंने मुझे अपनी आपबीती यानि संस्मरण लिखने को कहा जो साहित्यिक और जीवन के उन पहलुओं का वर्णन करता हो जो मैंने स्वयं जिया हो.
अभी पिछले सप्ताह मुझे ब्रिटेन के नगर बर्मिंगम से डॉ कृष्ण कुमार जी ने फोन पर पुनः कहा,
"सुरेश जी आपने अपना जीवन किस तरह रेल की पटरियों के किनारे काम करते हुए शुरू किया और आज लेखक के रूप में प्रतिष्ठित है. आपकी कथाओं पर अनेकों लघु टेलीफिल्में बनी हैं."
उन्होंने हमारे माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का भी जिक्र किया और कहा,
" मोदी जी कहाँ कभी चाय बेचते थे और आज प्रधानमंत्री हैं. और आपने भी कम संघर्ष नहीं किया और आज भी कर रहे हैं. जरूर आपके जीवन से भी लोग सीख सकेंगे और आपके संघर्षों को जान सकेंगे।"
यह बात सही है कि अपने देश से दूर जाकर नार्वे जैसे देश की राजधानी ओस्लो नगर पार्लियामेंट में सन 2004 से 2007 तक सदस्य चुना गया था. इसी के साथ यह भी बात ध्यान देने वाली है कि रेलवे में लगभग आठ वर्ष (सन 1972 से 21 जनवरी 1980 तक नौकरी करते हुए स्नातक की शिक्षा और श्रमिक शिक्षक की शिक्षा पायी थी. लखनऊ में कभी-कभी समाचार पत्रों में मेरे समाचार और कवितायें छपती थीं. उस समय सभी अखबार साहित्य को अधिक स्थान देते थे.
विदेशों में हिन्दी साहित्य और भाषा का प्रचार-प्रसार
जब भी विदेशों में भारतीय संस्कृति और भाषाओँ (हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और तमिल) के प्रचार प्रसार और विदेशों में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता की बात की जायेगी मेरे 36 वर्षों तक हिन्दी पत्रिका के संपादन और इसके लिए योगदान को भुलाया नहीं जा सकेगा। सन 1980 से सन 1985 तक नार्वे की प्रथम हिन्दी पत्रिका परिचय का सम्पादन किया और सन 1988 से स्पाइल-दर्पण का सम्पादन कर रहा हूँ.
जब पिछले वर्ष 9 फरवरी 2015 को मेरे काव्य संग्रह 'गंगा से ग्लोमा तक' को मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का भवानी प्रास मिश्र काव्य पुरस्कार मिला और 14 सितम्बर 2015 को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का 'हिन्दी विदेश प्रसार सम्मान' मिला तो अच्छा लगा और अधिक सेवा करने की प्रेरणा मिली।
हिन्दी वैश्विक भाषा है और मेरी अस्मिता की पहचान
हिन्दी विश्व की एक बड़ी भाषा है. यह आम जनों की भाषा है. हिन्दी लेखक होने के नाते मुझे बहुत से देशों में सम्मान और पुरस्कार मिल चुके हैं जिसके लिए मैं हिन्दी वालों का और विदेशों में हिन्दी की सेवा में लगे लोगों का आभारी हूँ. मेरा मानना है कि जो लोग विदेश में रहते हैं उनसे निवेदन है कि वह अपने रोजमर्रा के कार्य करते हुए अपनी संस्कृति और भाषा को बचाये रखने के लिए वहां राजनीति में भी सक्रिय हों ताकि वह अपने कर्तव्य निभायें और अपनी भाषा और संस्कृति को अपना हक़ दिलायें।
पूर्वज-लेखक हमारे लिए प्रेरणा
यह मेरे मित्रों का बड़प्पन है कि वह मेरे बारे में अच्छा सोचते हैं और अपने विचारों से मेरा हौंसला बढ़ाते हैं.
एक तरफ से नजर उठाइये तो हमारे पूर्वज-लेखकों ने कम संघर्ष नहीं किया। गोस्वामी तुलसीदास जी का बचपन और कबीरदासजी, रैदास जी के कर्म हमारे लिए प्रेरणा और बहुत बड़े उदहारण हैं संघर्ष के.
आजकल आधुनिक लेखकों का जीवन भी कम संघर्षपूर्ण नहीं रहा है. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' और नागार्जुन जी की तरह आदम गोंडवी जी जैसे लेखक अपना समुचित इलाज भी नहीं करा सके थे. कभी-कभी जब मैं भारतीय समाचारपत्रों में पढता हूँ कि किसी मेरी बेटी या बहन को नंगा घुमाया गया उसके साथ बदसलूकी हुई, प्रताड़ित किया गया, तब पढ़कर स्वयं बहुत दुखी होता हूँ. सोचता हूँ कि मुझे अपने देश भारत लौट आना चाहिए और दलितों, प्रताड़ित लोगों और दुनिया की जेल में बंद बच्चों और महिलाओं को छुड़वाने और उन्हें जेल के बाहर जिंदगी जीने के लिए सामूहिक घर दिलाने में मदद करनी चाहिये। पर क्या करूँ कभी-कभी लगता कि यह संभव है जब महान लोगों से मिलने की बात सोचता हूँ. इनमें कुछ लोगों का जिक्र करना चाहूँगा जिनसे मैं मिला हूँ. ये हस्तियां हैं: नेलसन मण्डेला, दलाई लामा, रेगुबेर्टा मेंचू , ओस्कर आरियास कैलाश सत्यार्थी और अन्य। ये सभी नोबेल पुरस्कार विजेता हैं. जब ये लोग अपने संघर्ष में काफी हद तक सफल रहे तब मैं क्यों नहीं कर सकता। कभी-कभी लगता कि यह कार्य लोहे के चने चबाने जैसा है. जैसा भी हो एक बार अपने माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी से मिलने का मौक़ा जब भी मिलेगा तो एक बार बातचीत करके प्रयास जरूर करूंगा।
आइये अब अपने जीवन के कुछ अंतरंग किस्से सुनाता हूँ. अपनी आपबीती एक कविता 'बचपन की स्मृति' से शुरू करता हूँ.
मुझे स्मृति बहुत आती है,
मन मोहक बचपन की.
रीता भरा लगा करता था
स्वप्न गगन गागर की.
आर्थिक अभाव था
स्वप्न बहुत थे
रंगबिरंगे मेरे।
तितली का पीछा
गुब्बारों सा जीवन
सुख-दुःख दोनों संग मेरे।
एक साथ छोड़ देता था
तब, दूजा संग आता था.
आँख मिचौली लगा खेल
छिपता फिर मिल जाता।
तब प्रयास भी न जाने क्यों
मौसमी फूल लगे थे.
मन्दिर-ईदगाह के जब तब
खट्टे - मीठे बेर लगे थे.
छोटे हमउम्र बच्चे जब
गली कूड़ा बीन रहे थे.
हम अपनी अम्मा से
श्रम रामायण सीख रहे थे.
ये अभाव है, भेदभाव है
दस्तक दे जाता है
सुनकर जब चुपचाप रहेंगे
बार-बार आता है.
अभाव -भेदभाव से
जमकर तुम लड़ना।
लगन-श्रम-शिक्षा से
उसे न जमने देना।
दिन भर जब श्रम से थकना,
रात में तारों और जुगनू सा
अंधियारे से लड़ना।
अन्तर्मन का दिया जलाना
कभी न बुझने देना।
बचपन के दिन जब से होश संभाला तब बड़ा ही उत्साह से भरा जीवन और उसके क्षण बहुत चुनौतीपूर्ण लगते थे. मैं अपने मामा के घर (ननिहाल) में था और जब मैं जब दो-तीन बरस का था तो मुझे बड़ी चेचक निकली थी. मेरी माँ ने बतलाया था कि मेरे पूरे शरीर पर खुजलाने के कारण घाव हो जाते थे. आँखे भी चेचक से ढक गयी थीं. मेरे पिताजी भी उस समय मुझे देखने नहीं आते थे. मेरी माँ को छोड़कर अनेक लोगों ने यह आशा नहीं की थी कि मैं बचूंगा। अपने तीन भाइयों और एक बहन में मैं सबसे छोटा था. उस समय मुझे बड़ी चेचक निकली थी उस समय बड़ी चेचक दुनिया में विद्यमान थी. चेचक के निशान मेरे चेहरे पर अभी भी साफ़-साफ़ देखे जा सकते हैं.
'मैं अपने मामा (ननिहाल) के घर पर कानपुर जिले के एक आर्थिक रूप से पिछड़े बकौली ग्राम पोस्ट कठारा में था. मुझे बहुत नहीं याद है पर यह याद है कि वहां मेरी लगने वाली भाभियाँ भी अच्छे-बुरे मजाक करती थीं. सारे मजाक मैं नहीं समझ पाता था और शर्मा जाता था. वहां घर एक दूसरे घरों से मिले हुए प्रतीत होते थे और जिनकी छते करीब-करीब मिलती थीं. छत से करीब चार-पांच घरों के आँगन दिखायी देते थे. अतः उन घरों में रोजमर्रा के कार्य होते हुए दिखायी देते थे. कोई महिला अनाज सूप से पछोर रही होती थी, कोई ओखली में कुछ कूट रही होती तो कोई बड़ी मथानी से बड़े घड़ों में मक्खन निकालने के लिए मथ रही होती थी और कहीं सुबह-सुबह दूध बहुत बड़े भगौने में उबाल रही होती थी. सभी अपने अपने काम में लगे होते थे.
आपस में स्नेह भाव था. अधिकाँश महिलायें पढ़ना नहीं जानती थीं पर सफाई और बोलचाल तथा व्यवहार बहुत अच्छा था. पक्के घर कम थे. पड़ोस के एक घर में तोता पला था. तोता बहुत नकलची था. उस समय बैलगाड़ी और अच्छे बैलों से किसानों का स्तर यानी कौन समृद्ध है नापने का पैमाना होता था. मेरे पांच मामा थे जिनमें केवल दो ही बहुत समृद्ध थे पर सभी परिश्रमी थे.
एक मामा के घर पर तीन भैसें, दो बड़े बैल थे जिन्हें गाँव वाले हीरा और मोती कहकर पुकारते थे तब पता चला कि कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'दो बैलों की कथा' से बैलों के नामकरण किये गए थे . यह कथा वहां एक ने पढ़कर सुनायी थी. बिजली नहीं थी. रात को अँधेरा हो जाता था तो लोग अलाव जलाकर शाम को एकत्र होते और भूत प्रेत की कहानियाँ, अगिया बैताल आदि की कहानियां सुनाते थे जिनपर बचपन में वहां के अधिकाँश लोगों की तरह विश्वास करने लगा था. वहां भूत प्रेत की कहानियाँ सुनकर हम सभी रोमांचित होते और जिन कहानियों को सुनकर कभी खुशी और कभी डर लगता था।
वहां मामा के साथ जहाँ अनाज काटकर खलियानों में जमा होता था. वहां पर मामा अनाज की रक्षा करने और मढ़ाई आदि के कारण सोने जाते थे और मैं भी उनके साथ रात खलियान में सोता था. रात को ठंडी-ठंडी हवा बहुत सुहावनी और सुखद लगती थी. घास-फूस पेड़ों और अनाज के गट्ठरों से टकराती हुई जब बयार चलती थी कर्णप्रिय लगती जैसे संगीत बज रहा हो. मोरों के रह-रह कर बोलने की आवाज तथा रात को झींगरों के झिनझिनाने की आवाज फिल्म के रात के दृश्यों की तरह लगती थी.
दिनों में मैदानों में उगी घास चरने के लिए खच्चर में जुतने वाले घोड़े, गाय, बकरियां, भैंस आदि मैदानों में चरते थे. पशु-पक्षियों की मिली जुली आवाजें और बंदरों का आसपास से गुजरना बहुत रोमांचक लगता था. वहां रहकर मैंने पेड़ पर चढ़ना सीखा। स्वयं और अन्य बच्चों के साथ चरने आये खच्चर में जुतने वाले घोड़े को टीले के पास हाँक कर ले जाता और उनके मुख में जल्दी से रस्सी से बांधकर उसकी पीठ पर बैठ जाता। यह सब बहुत फुर्ती से करना होता था। घुड़सवारी की प्रक्रिया में कई बार घोड़े की पीठ से गिरा और घोड़ी की दुलत्ती भी खाई. घुड़सवारी में आनंद और चोट से तकलीफ भी होती जिसे जल्दी ही भूल जाता था. घुड़सवारी करना सीख गया था. घोड़े से गिरने के कारण मुझे कई बार चोट लगी थी. और ज्यादा घुड़सवारी करने से बैठने की रगड़ लगने का कारण कभी-कभी घाव भी हो जाता था.
वहां कुछ दूरी पर बहने वाली नहर में भी नहाने जाता था. बाद में भी स्कूल से गर्मियों की छुट्टी में हम मामा के पास जाते रहे और पृकृति के खुले वातावरण में खुले आसमान के नीचे मौज मनाते रहे.
कभी महुआ, गुल्लू बीनना, गिरे हुए आम बीनना और प्रातः से लेकर शाम तक घूमना -फिरना याद करके कभी-कभी ऐसा लगता है कि काश वह बचपन दोबारा वापस आ जाये।
यहाँ गाय और भैंस लगभग अनेक घरों में थीं क्योकि यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय यहाँ गाँव से दूध ले जाकर कानपुर नगर में बेचना होता था. यहाँ से किसान दूध लेकर कठारा रोड रेलवे स्टेशन पर ले जाते थे जो बाँदा रेलवे लाइन के अंतर्गत आता है. चित्रकूट से आने वाली रेल भी यहाँ से होकर गुजरती थी. कठारा रोड कानपुर के कुछ ही स्टेशन पहले पड़ता था.
रेल में दूध के लिए अलग डिब्बे
रेल में दूध के अलग डिब्बे होते थे जिसमें अंदर तो लोग दूध के कैन रखते ही थे और उसे रेल के डिब्बे के बाहर खिड़कियों में बांधकर लटकाते थे. दूध के कैन गीले टाट से लिपटे होते थे ताकि दूध ख़राब न हो.
उसी डिब्बे में कोई रामायण पढ़ रहा होता तो कोई आपस में बर्तालाप कर रहा होता।
ददिहाल में
मैं अपने बाबा यानि ददिहाल में भी कुछ छुट्टियां बितायी थीं. ददिहाल ग्राम मवैया, अचलगंज के पास , उन्नाव जिले में था मेरे गाँव से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चन्द्र शेखर आजाद का स्मारक थोड़ी दूर पर स्थित है.
यहाँ गुड़िया का तालाब, आम के पेड़ पर चढ़ना और तालाब में नहाना आदि अभी भी याद करके मन पुलकित हो जाता है. यहाँ के लोगों की दबंगई के कारण लगभग अधिकाँश घरों और परिवारों में फौजदारी के मुक़दमे चलते-रहते थे. इस क्षेत्र में पुलिस भी संभल कर ऐक्शन लेती थी.
मेरी कर्म भूमि पुरानी श्रमिक बस्ती, लखनऊ
लखनऊ में पुरानी श्रमिक बस्ती ऐशबाग में जहाँ हमारा घर था यहाँ मैंने इक्कीस वर्ष बिताये और लगातार इस कालोनी के संपर्क में आज 2016 तक संपर्क में हूँ. यहाँ मैं जन्म से मकान नम्बर 30/7 तथा 30/8 में सन 1962 तक और उसके बाद सन 1975 तक मकान नम्बर 41/3 में रहता था.
वहां अभी भी बहुत से पुराने लोग रहते हैं और स्नेह देते हैं.
जब भी लखनऊ जाता हूँ इस लेबर कालोनी में एक बार जरूर होकर गुजरता हूँ. यह कालोनी भी बहुत अच्छी जगह बसी है. कालोनी के एक ओर पानीघर, एक ओर ऐशबाग ईदगाह और एक ओर मोतीझील का एक बड़ा हिस्सा जो अब कूड़े से पटे जाने के कारण उसकी सुन्दरता जाती रही पर यह लखनऊ के मध्य में बसा है. पुरानी लेबर कालोनी खुली-खुली बसी है. यहाँ ही रहकर समाजसेवा से जुड़ा और मेरे भीतर साहित्य के अंकुर फूटे।
इस कालोनी में तीन मुख्य पार्क हैं जिन्हें हम बचपन में सेंटर वाली पार्क, नीम वाली पार्क और नेताजी वाली पार्क कहकर पुकारते थे.
संघर्ष ही जीवन है
इस कालोनी में बहुत से स्वतंत्रता संग्रामसेनानियों, नेताओं, शिक्षाविद और कलाकारों को लाने का श्रेय मुझे है. सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये यहाँ युवकों को रचनात्मक कार्यों से जोड़ा और खुद जुड़ा 'युवक सेवा संगठन' बनाकर उसके माध्यम से और स्वतन्त्र रूप से भी जुड़ा। इस कालोनी ने मेरे अंदर फिल्मकार बनने के सपने, कविता रचना और और समाजसेवा करना सिखाया जो आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं.
मैं शहीद दिवस समारोह आयोजित करना चाहता था. अतः मेरे एक मित्र जीत सिंह जो रेलवे में काम करते थे उन्होंने प्रताप सिंह रौतेला से मिलवाया और उन्होंने राम कृष्ण खत्री से मिलवाया जो काकोरी कांड के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे. शचीन्द्र नाथ बक्शी जी ने भी आना था पर न आ सके थे. यह कार्यक्रम मैंने नेताजी वाली पार्क में कराया था. यहाँ कार्यक्रम स्थल पर स्वयं स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी गंगाधर गुप्ता जी आये और आगे चलकर उन्होंने लखनऊ और गाजियाबाद में अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से मिलवाया। आयु में बड़े होने के बाद भी वह आजीवन मुझे मित्रवत ही मानते रहे.
यहाँ पुरानी लेबर कालोनी ऐशबाग लखनऊ में एक कार्यक्रम में राज्यपाल सत्यनारायण रेडडी जी आये थे उस कार्यक्रम में हमको उनके समीप नहीं जाने दिया गया था और वही सत्यनारायण रेडडी जी बाद में मेरे ओस्लो निवास पर मिलने आये और मुझे अपने साथ भारतीय राजदूत के निवास पर पंद्रह अगस्त को ले गये और मेरे घर तीन दिन तक आये और एक दिन तो मैं खरीदारी करने अपने साथ ले गया था तब उन्होंने मेरे सामान के पैसे दिए थे और वापस देने पर नहीं लिये थे. कभी-कभी ऐसा भी होता है. चाहे सिटी मोन्टेसरी स्कूल के जगदीश गांधी या भारती गांधी हों या और अनेक नेता और कलाकार
वह हमारे कार्यक्रम में आते थे. कालोनी में ही रहने वाले के के पाण्डेय जी को नहीं भुला सकता वह एक अच्छे इंसान और कलाकार थे उन्होंने न केवल हमारे कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था बल्कि उत्तर प्रदेश की कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था.
यहाँ रहकर ही मैंने जाना और समझा कि संघर्ष ही जीवन है और बिना परिश्रम और त्याग के कुछ नहीं मिलता। संघर्ष और कठिन परिश्रम से आप अपने अलावा दूसरों की भी सेवा कर सकते हैं.
मैं गोपीनाथ लक्ष्मणदास रस्तोगी इंटर कालेज, ऐशबाग, लखनऊ में पढता था और यहाँ से ही मैंने हाईस्कूल उत्रीण किया था. यहाँ मैं साहित्य परिषद का उपाध्यक्ष और सांस्कृतिक परिषद का मंत्री और विज्ञान परिषद का लाइब्रेरियन चुना गया था. साहित्य परिषद और सांस्कृतिक परिषद के अध्यक्ष अध्यापक होते थे. अतः लेखक सुदर्शन सिंह और गंगाराम त्रिपाठी जी इन संस्थाओं के अध्यक्ष थे और लेखक दुर्गाशंकर मिश्र विद्यालय के प्रधानाचार्य थे. यहाँ मैंने अनेको स्वरचित कवितायें विद्यालयों के आयोजन में सुनायीं थीं.
जब मैं है स्कूल में 1970 में अनुत्रीण हुआ तो मेरे पिताजी मेरी नौकरी के बारे में सोचने लगे. सन 1972 में मेरे गोपीनाथ लक्षमण दास रस्तोगी इंटर कालेज से हाईस्कूल पास करते ही आलमबाग लखनऊ स्थित मालगाड़ी और सवारी डिब्बे कारखाने लखनऊ में एक सबसे मामूली कर्मचारी खलासी के रूप में नौकरी लगवाई। इस कारखाने में मेरे दादा जिन्हें मैं बाबा कहता था ने भी कार्य किया था और मेरे पिता जी भी कार्यरत थे.
इसके पहले मैंने अपने एक मित्र रतन गुलाटी के साथ एक रामनगर ऐशबाग में साबुन की फैक्ट्री में ढाई रूपये प्रतिदिन के हिसाब से दो सप्ताह काम किया था और एक मित्र अहमद अली के साथ गर्मी की छुट्टियों में आम रखने वाली पेटियाँ बनायी थी.
मुझे लगा, आ गया ऊँठ पहाड़ के नीचे। आगे पढ़ने के बड़े-बड़े अरमान धूमिल होते दिखने लगे. पिताजी की ख़राब आर्थिक स्थिति होने के कारण मुझे अपने पिता का निर्णय बाद में सही लगा.
"हाथ पर हाथ रखकर कभी कुछ होना नहीं।
काटना क्यों चाहते हो नई फसल जब तुम्हें बोना नहीं।"
जब मैं निराश और परेशान कविता लिखता और कवितायें गुनगुनाता था. मंच से भी कवितापाठ करने लगा था वह भी मोहल्ले और विद्यालय के मंच से.
आवारागर्दी ने मुझे बहुत अपनापन दिया
आवारागर्दी ने मुझे बहुत अपनापन दिया और ईमानदारी , उदारता , स्वच्छंदता , सहृदयता, अल्हड़पन, घुमक्कड़ी और खेलकूद से जोड़ा मुझे अपने दोस्तों के साथ आवारागर्दी में. यह आवारागर्दी अपराध से जोड़ने वाली नहीं थी पर उमंगों को नया रंग बंधन से मुक्त प्रेम की तरह थी, जिसमें मेरे अपने सपनों की उड़ान थी जिसका कोई ठौर नहीं रहा. मेरे इन अधिक आवारागर्दी भरे तीन वर्षों ने ( सन 1969 से 1972 तक) मुझे आटा दाल का भाव बता दिया था. स्वतंत्रता और बंधनमुक्त परिश्रम और संघर्ष मेरी रोजमर्रा की जिंदगी का अधिकाँश जीवन हिस्सा रहा जिसने अनुशासन से कभी प्रेम न करते हुए भी उसे अपनाया पर कभी गले नहीं लगा सका.
"सपने सत्य नहीं होते तो, मैं सपनों से प्रेम करूँ क्यों?"
प्रेम ने मुझसे नाता तोड़ दिया और सदा अनचाहे दूसरों को आजीवन प्रेम करता रहा, मेरे शुभचिंतक इस प्रेम को आवारगी कहते हैं, हालाँकि मेरा सहमत होना और न होना मायने नहीं रखता। मुझे लगता है प्रेम बाँटने से प्रेम बढ़ता है. संकीर्णता प्रेम का अंग नहीं हो सकती।
"बुझा नहीं सकता वह दीपक, ह्रदय ने जिसे जलाया है।
"प्रेम में कभी नहीं यह सोचें, क्या खोया क्या पाया है।।"
डी ए वी कालेज में लेखक (कवि) बना
दी ए वी कालेज में मेरे अध्यापक उमादत्त त्रिवेदी और रमेशचन्द्र अवस्थी जी थे जिनसे मुझे सदा प्रोत्साहन मिलता था. त्रिवेदी जी एक साहित्यिक संस्था और एक पत्रिका छापते थे जबकि रमेश अवस्थी जी विद्यालय की पत्रिका के संपादक थे. दिनेश मिश्रा जी यहाँ छात्र यूनियन के अधिकारी भी थे जो विद्यालय में होने वाले कार्यक्रमों के संयोजक भी रहते थे. इस विद्यालय में मैंने छात्रसंघ का चुनाव अध्यक्ष पद के लिए लड़ा.
पहला काव्य संग्रह वेदना प्रकाशित हुई
इस विद्यालय में मैंने खेल में तीन पुरस्कार जीते और इंटर पास करते ही सन 1975 में मेरी पहली काव्य पुस्तक 'वेदना' प्रकाशित हो गयी थी. ध्यान रहे मैं विद्यालय रोज नहीं जा पाता था. जब शाम की या रात की शिफ्ट में काम होता तभी कालेज जा पाता था. रेलवे में कर्मचारी रहते हुए कालेज से रेगुलर इंटर पास करके मुझे खुशी हुई थी. इसी वर्ष मैंने अपना पासपोर्ट बनवा लिया था. उस समय पासपोर्ट बनवाना मुश्किल कार्य था.
फ़िल्मकार मुजफ्फर अली के साथ होटल ताज आगरा में 5 जनवरी 2016 को यू पी प्रवासी दिवस में।
संस्मरण जन्मदिन १० फरवरी पर
'लखनऊ की सड़क से ओस्लो के नगर पार्लियामेन्ट तक.'
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' ओस्लो, नार्वे से
बहुत से सफल लेखक और कलाकार आमतौर पर अपने आरंभिक जीवन के बारे में कहने से संकोच करते हैं. हम उनके संघर्षमय जीवन से अनभिज्ञ रहते हैं. उनके खट्टे-मीठे अनुभवों को कभी इमली, बेर, कैथा और संतरा आदि फलों की तरह स्वाद नहीं ले पाते।
मुझे अनेक मित्रों ने प्रेरित किया कि मैं अपनी आप बीती लिखूँ। जिनमें प्रकाशक के अलावा मैं दो लोगों का नाम लेना चाहूँगा। राजेंद्र अवस्थी जी जब कादम्बिनी के संपादक थे उन्होंने कादम्बिनी में मेरे दो साक्षात्कार प्रकाशित किये थे. जब भी मैं भारत जाता तो कादम्बिनी कार्यालय जरूर जाता था वहाँ सदा राजेंद्र अवस्थी जी सभी का स्वागत करते दिखते थे । कादम्बिनी के कार्यालय में लेखकों और विद्वानों के आने-जाने का ताँता लगा रहता था. वहां पर बहुत से लेखकों से सम्पर्क हुआ उसमें प्रेमचंद साहित्य पर शोधपरक ग्रन्थ लिखने वाले आलोचक डॉ कमलकिशोर गोयनका जी थे जिन्होंने मुझे अपनी आपबीती यानि संस्मरण लिखने को कहा जो साहित्यिक और जीवन के उन पहलुओं का वर्णन करता हो जो मैंने स्वयं जिया हो.
अभी पिछले सप्ताह मुझे ब्रिटेन के नगर बर्मिंगम से डॉ कृष्ण कुमार जी ने फोन पर पुनः कहा,
"सुरेश जी आपने अपना जीवन किस तरह रेल की पटरियों के किनारे काम करते हुए शुरू किया और आज लेखक के रूप में प्रतिष्ठित है. आपकी कथाओं पर अनेकों लघु टेलीफिल्में बनी हैं."
उन्होंने हमारे माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का भी जिक्र किया और कहा,
" मोदी जी कहाँ कभी चाय बेचते थे और आज प्रधानमंत्री हैं. और आपने भी कम संघर्ष नहीं किया और आज भी कर रहे हैं. जरूर आपके जीवन से भी लोग सीख सकेंगे और आपके संघर्षों को जान सकेंगे।"
यह बात सही है कि अपने देश से दूर जाकर नार्वे जैसे देश की राजधानी ओस्लो नगर पार्लियामेंट में सन 2004 से 2007 तक सदस्य चुना गया था. इसी के साथ यह भी बात ध्यान देने वाली है कि रेलवे में लगभग आठ वर्ष (सन 1972 से 21 जनवरी 1980 तक नौकरी करते हुए स्नातक की शिक्षा और श्रमिक शिक्षक की शिक्षा पायी थी. लखनऊ में कभी-कभी समाचार पत्रों में मेरे समाचार और कवितायें छपती थीं. उस समय सभी अखबार साहित्य को अधिक स्थान देते थे.
विदेशों में हिन्दी साहित्य और भाषा का प्रचार-प्रसार
जब भी विदेशों में भारतीय संस्कृति और भाषाओँ (हिन्दी, पंजाबी, उर्दू और तमिल) के प्रचार प्रसार और विदेशों में रचे जा रहे हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता की बात की जायेगी मेरे 36 वर्षों तक हिन्दी पत्रिका के संपादन और इसके लिए योगदान को भुलाया नहीं जा सकेगा। सन 1980 से सन 1985 तक नार्वे की प्रथम हिन्दी पत्रिका परिचय का सम्पादन किया और सन 1988 से स्पाइल-दर्पण का सम्पादन कर रहा हूँ.
जब पिछले वर्ष 9 फरवरी 2015 को मेरे काव्य संग्रह 'गंगा से ग्लोमा तक' को मध्य प्रदेश साहित्य अकादमी का भवानी प्रास मिश्र काव्य पुरस्कार मिला और 14 सितम्बर 2015 को उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का 'हिन्दी विदेश प्रसार सम्मान' मिला तो अच्छा लगा और अधिक सेवा करने की प्रेरणा मिली।
हिन्दी वैश्विक भाषा है और मेरी अस्मिता की पहचान
हिन्दी विश्व की एक बड़ी भाषा है. यह आम जनों की भाषा है. हिन्दी लेखक होने के नाते मुझे बहुत से देशों में सम्मान और पुरस्कार मिल चुके हैं जिसके लिए मैं हिन्दी वालों का और विदेशों में हिन्दी की सेवा में लगे लोगों का आभारी हूँ. मेरा मानना है कि जो लोग विदेश में रहते हैं उनसे निवेदन है कि वह अपने रोजमर्रा के कार्य करते हुए अपनी संस्कृति और भाषा को बचाये रखने के लिए वहां राजनीति में भी सक्रिय हों ताकि वह अपने कर्तव्य निभायें और अपनी भाषा और संस्कृति को अपना हक़ दिलायें।
पूर्वज-लेखक हमारे लिए प्रेरणा
यह मेरे मित्रों का बड़प्पन है कि वह मेरे बारे में अच्छा सोचते हैं और अपने विचारों से मेरा हौंसला बढ़ाते हैं.
एक तरफ से नजर उठाइये तो हमारे पूर्वज-लेखकों ने कम संघर्ष नहीं किया। गोस्वामी तुलसीदास जी का बचपन और कबीरदासजी, रैदास जी के कर्म हमारे लिए प्रेरणा और बहुत बड़े उदहारण हैं संघर्ष के.
आजकल आधुनिक लेखकों का जीवन भी कम संघर्षपूर्ण नहीं रहा है. सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' और नागार्जुन जी की तरह आदम गोंडवी जी जैसे लेखक अपना समुचित इलाज भी नहीं करा सके थे. कभी-कभी जब मैं भारतीय समाचारपत्रों में पढता हूँ कि किसी मेरी बेटी या बहन को नंगा घुमाया गया उसके साथ बदसलूकी हुई, प्रताड़ित किया गया, तब पढ़कर स्वयं बहुत दुखी होता हूँ. सोचता हूँ कि मुझे अपने देश भारत लौट आना चाहिए और दलितों, प्रताड़ित लोगों और दुनिया की जेल में बंद बच्चों और महिलाओं को छुड़वाने और उन्हें जेल के बाहर जिंदगी जीने के लिए सामूहिक घर दिलाने में मदद करनी चाहिये। पर क्या करूँ कभी-कभी लगता कि यह संभव है जब महान लोगों से मिलने की बात सोचता हूँ. इनमें कुछ लोगों का जिक्र करना चाहूँगा जिनसे मैं मिला हूँ. ये हस्तियां हैं: नेलसन मण्डेला, दलाई लामा, रेगुबेर्टा मेंचू , ओस्कर आरियास कैलाश सत्यार्थी और अन्य। ये सभी नोबेल पुरस्कार विजेता हैं. जब ये लोग अपने संघर्ष में काफी हद तक सफल रहे तब मैं क्यों नहीं कर सकता। कभी-कभी लगता कि यह कार्य लोहे के चने चबाने जैसा है. जैसा भी हो एक बार अपने माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी से मिलने का मौक़ा जब भी मिलेगा तो एक बार बातचीत करके प्रयास जरूर करूंगा।
आइये अब अपने जीवन के कुछ अंतरंग किस्से सुनाता हूँ. अपनी आपबीती एक कविता 'बचपन की स्मृति' से शुरू करता हूँ.
मुझे स्मृति बहुत आती है,
मन मोहक बचपन की.
रीता भरा लगा करता था
स्वप्न गगन गागर की.
आर्थिक अभाव था
स्वप्न बहुत थे
रंगबिरंगे मेरे।
तितली का पीछा
गुब्बारों सा जीवन
सुख-दुःख दोनों संग मेरे।
एक साथ छोड़ देता था
तब, दूजा संग आता था.
आँख मिचौली लगा खेल
छिपता फिर मिल जाता।
तब प्रयास भी न जाने क्यों
मौसमी फूल लगे थे.
मन्दिर-ईदगाह के जब तब
खट्टे - मीठे बेर लगे थे.
छोटे हमउम्र बच्चे जब
गली कूड़ा बीन रहे थे.
हम अपनी अम्मा से
श्रम रामायण सीख रहे थे.
ये अभाव है, भेदभाव है
दस्तक दे जाता है
सुनकर जब चुपचाप रहेंगे
बार-बार आता है.
अभाव -भेदभाव से
जमकर तुम लड़ना।
लगन-श्रम-शिक्षा से
उसे न जमने देना।
दिन भर जब श्रम से थकना,
रात में तारों और जुगनू सा
अंधियारे से लड़ना।
अन्तर्मन का दिया जलाना
कभी न बुझने देना।
बचपन के दिन जब से होश संभाला तब बड़ा ही उत्साह से भरा जीवन और उसके क्षण बहुत चुनौतीपूर्ण लगते थे. मैं अपने मामा के घर (ननिहाल) में था और जब मैं जब दो-तीन बरस का था तो मुझे बड़ी चेचक निकली थी. मेरी माँ ने बतलाया था कि मेरे पूरे शरीर पर खुजलाने के कारण घाव हो जाते थे. आँखे भी चेचक से ढक गयी थीं. मेरे पिताजी भी उस समय मुझे देखने नहीं आते थे. मेरी माँ को छोड़कर अनेक लोगों ने यह आशा नहीं की थी कि मैं बचूंगा। अपने तीन भाइयों और एक बहन में मैं सबसे छोटा था. उस समय मुझे बड़ी चेचक निकली थी उस समय बड़ी चेचक दुनिया में विद्यमान थी. चेचक के निशान मेरे चेहरे पर अभी भी साफ़-साफ़ देखे जा सकते हैं.
'मैं अपने मामा (ननिहाल) के घर पर कानपुर जिले के एक आर्थिक रूप से पिछड़े बकौली ग्राम पोस्ट कठारा में था. मुझे बहुत नहीं याद है पर यह याद है कि वहां मेरी लगने वाली भाभियाँ भी अच्छे-बुरे मजाक करती थीं. सारे मजाक मैं नहीं समझ पाता था और शर्मा जाता था. वहां घर एक दूसरे घरों से मिले हुए प्रतीत होते थे और जिनकी छते करीब-करीब मिलती थीं. छत से करीब चार-पांच घरों के आँगन दिखायी देते थे. अतः उन घरों में रोजमर्रा के कार्य होते हुए दिखायी देते थे. कोई महिला अनाज सूप से पछोर रही होती थी, कोई ओखली में कुछ कूट रही होती तो कोई बड़ी मथानी से बड़े घड़ों में मक्खन निकालने के लिए मथ रही होती थी और कहीं सुबह-सुबह दूध बहुत बड़े भगौने में उबाल रही होती थी. सभी अपने अपने काम में लगे होते थे.
आपस में स्नेह भाव था. अधिकाँश महिलायें पढ़ना नहीं जानती थीं पर सफाई और बोलचाल तथा व्यवहार बहुत अच्छा था. पक्के घर कम थे. पड़ोस के एक घर में तोता पला था. तोता बहुत नकलची था. उस समय बैलगाड़ी और अच्छे बैलों से किसानों का स्तर यानी कौन समृद्ध है नापने का पैमाना होता था. मेरे पांच मामा थे जिनमें केवल दो ही बहुत समृद्ध थे पर सभी परिश्रमी थे.
एक मामा के घर पर तीन भैसें, दो बड़े बैल थे जिन्हें गाँव वाले हीरा और मोती कहकर पुकारते थे तब पता चला कि कथाकार मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'दो बैलों की कथा' से बैलों के नामकरण किये गए थे . यह कथा वहां एक ने पढ़कर सुनायी थी. बिजली नहीं थी. रात को अँधेरा हो जाता था तो लोग अलाव जलाकर शाम को एकत्र होते और भूत प्रेत की कहानियाँ, अगिया बैताल आदि की कहानियां सुनाते थे जिनपर बचपन में वहां के अधिकाँश लोगों की तरह विश्वास करने लगा था. वहां भूत प्रेत की कहानियाँ सुनकर हम सभी रोमांचित होते और जिन कहानियों को सुनकर कभी खुशी और कभी डर लगता था।
वहां मामा के साथ जहाँ अनाज काटकर खलियानों में जमा होता था. वहां पर मामा अनाज की रक्षा करने और मढ़ाई आदि के कारण सोने जाते थे और मैं भी उनके साथ रात खलियान में सोता था. रात को ठंडी-ठंडी हवा बहुत सुहावनी और सुखद लगती थी. घास-फूस पेड़ों और अनाज के गट्ठरों से टकराती हुई जब बयार चलती थी कर्णप्रिय लगती जैसे संगीत बज रहा हो. मोरों के रह-रह कर बोलने की आवाज तथा रात को झींगरों के झिनझिनाने की आवाज फिल्म के रात के दृश्यों की तरह लगती थी.
दिनों में मैदानों में उगी घास चरने के लिए खच्चर में जुतने वाले घोड़े, गाय, बकरियां, भैंस आदि मैदानों में चरते थे. पशु-पक्षियों की मिली जुली आवाजें और बंदरों का आसपास से गुजरना बहुत रोमांचक लगता था. वहां रहकर मैंने पेड़ पर चढ़ना सीखा। स्वयं और अन्य बच्चों के साथ चरने आये खच्चर में जुतने वाले घोड़े को टीले के पास हाँक कर ले जाता और उनके मुख में जल्दी से रस्सी से बांधकर उसकी पीठ पर बैठ जाता। यह सब बहुत फुर्ती से करना होता था। घुड़सवारी की प्रक्रिया में कई बार घोड़े की पीठ से गिरा और घोड़ी की दुलत्ती भी खाई. घुड़सवारी में आनंद और चोट से तकलीफ भी होती जिसे जल्दी ही भूल जाता था. घुड़सवारी करना सीख गया था. घोड़े से गिरने के कारण मुझे कई बार चोट लगी थी. और ज्यादा घुड़सवारी करने से बैठने की रगड़ लगने का कारण कभी-कभी घाव भी हो जाता था.
वहां कुछ दूरी पर बहने वाली नहर में भी नहाने जाता था. बाद में भी स्कूल से गर्मियों की छुट्टी में हम मामा के पास जाते रहे और पृकृति के खुले वातावरण में खुले आसमान के नीचे मौज मनाते रहे.
कभी महुआ, गुल्लू बीनना, गिरे हुए आम बीनना और प्रातः से लेकर शाम तक घूमना -फिरना याद करके कभी-कभी ऐसा लगता है कि काश वह बचपन दोबारा वापस आ जाये।
यहाँ गाय और भैंस लगभग अनेक घरों में थीं क्योकि यहाँ के लोगों का मुख्य व्यवसाय यहाँ गाँव से दूध ले जाकर कानपुर नगर में बेचना होता था. यहाँ से किसान दूध लेकर कठारा रोड रेलवे स्टेशन पर ले जाते थे जो बाँदा रेलवे लाइन के अंतर्गत आता है. चित्रकूट से आने वाली रेल भी यहाँ से होकर गुजरती थी. कठारा रोड कानपुर के कुछ ही स्टेशन पहले पड़ता था.
रेल में दूध के लिए अलग डिब्बे
रेल में दूध के अलग डिब्बे होते थे जिसमें अंदर तो लोग दूध के कैन रखते ही थे और उसे रेल के डिब्बे के बाहर खिड़कियों में बांधकर लटकाते थे. दूध के कैन गीले टाट से लिपटे होते थे ताकि दूध ख़राब न हो.
उसी डिब्बे में कोई रामायण पढ़ रहा होता तो कोई आपस में बर्तालाप कर रहा होता।
ददिहाल में
मैं अपने बाबा यानि ददिहाल में भी कुछ छुट्टियां बितायी थीं. ददिहाल ग्राम मवैया, अचलगंज के पास , उन्नाव जिले में था मेरे गाँव से स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चन्द्र शेखर आजाद का स्मारक थोड़ी दूर पर स्थित है.
यहाँ गुड़िया का तालाब, आम के पेड़ पर चढ़ना और तालाब में नहाना आदि अभी भी याद करके मन पुलकित हो जाता है. यहाँ के लोगों की दबंगई के कारण लगभग अधिकाँश घरों और परिवारों में फौजदारी के मुक़दमे चलते-रहते थे. इस क्षेत्र में पुलिस भी संभल कर ऐक्शन लेती थी.
मेरी कर्म भूमि पुरानी श्रमिक बस्ती, लखनऊ
लखनऊ में पुरानी श्रमिक बस्ती ऐशबाग में जहाँ हमारा घर था यहाँ मैंने इक्कीस वर्ष बिताये और लगातार इस कालोनी के संपर्क में आज 2016 तक संपर्क में हूँ. यहाँ मैं जन्म से मकान नम्बर 30/7 तथा 30/8 में सन 1962 तक और उसके बाद सन 1975 तक मकान नम्बर 41/3 में रहता था.
वहां अभी भी बहुत से पुराने लोग रहते हैं और स्नेह देते हैं.
जब भी लखनऊ जाता हूँ इस लेबर कालोनी में एक बार जरूर होकर गुजरता हूँ. यह कालोनी भी बहुत अच्छी जगह बसी है. कालोनी के एक ओर पानीघर, एक ओर ऐशबाग ईदगाह और एक ओर मोतीझील का एक बड़ा हिस्सा जो अब कूड़े से पटे जाने के कारण उसकी सुन्दरता जाती रही पर यह लखनऊ के मध्य में बसा है. पुरानी लेबर कालोनी खुली-खुली बसी है. यहाँ ही रहकर समाजसेवा से जुड़ा और मेरे भीतर साहित्य के अंकुर फूटे।
इस कालोनी में तीन मुख्य पार्क हैं जिन्हें हम बचपन में सेंटर वाली पार्क, नीम वाली पार्क और नेताजी वाली पार्क कहकर पुकारते थे.
संघर्ष ही जीवन है
इस कालोनी में बहुत से स्वतंत्रता संग्रामसेनानियों, नेताओं, शिक्षाविद और कलाकारों को लाने का श्रेय मुझे है. सांस्कृतिक कार्यक्रमों के जरिये यहाँ युवकों को रचनात्मक कार्यों से जोड़ा और खुद जुड़ा 'युवक सेवा संगठन' बनाकर उसके माध्यम से और स्वतन्त्र रूप से भी जुड़ा। इस कालोनी ने मेरे अंदर फिल्मकार बनने के सपने, कविता रचना और और समाजसेवा करना सिखाया जो आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ रहे हैं.
मैं शहीद दिवस समारोह आयोजित करना चाहता था. अतः मेरे एक मित्र जीत सिंह जो रेलवे में काम करते थे उन्होंने प्रताप सिंह रौतेला से मिलवाया और उन्होंने राम कृष्ण खत्री से मिलवाया जो काकोरी कांड के स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे. शचीन्द्र नाथ बक्शी जी ने भी आना था पर न आ सके थे. यह कार्यक्रम मैंने नेताजी वाली पार्क में कराया था. यहाँ कार्यक्रम स्थल पर स्वयं स्वतंत्रतासंग्राम सेनानी गंगाधर गुप्ता जी आये और आगे चलकर उन्होंने लखनऊ और गाजियाबाद में अनेक स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से मिलवाया। आयु में बड़े होने के बाद भी वह आजीवन मुझे मित्रवत ही मानते रहे.
यहाँ पुरानी लेबर कालोनी ऐशबाग लखनऊ में एक कार्यक्रम में राज्यपाल सत्यनारायण रेडडी जी आये थे उस कार्यक्रम में हमको उनके समीप नहीं जाने दिया गया था और वही सत्यनारायण रेडडी जी बाद में मेरे ओस्लो निवास पर मिलने आये और मुझे अपने साथ भारतीय राजदूत के निवास पर पंद्रह अगस्त को ले गये और मेरे घर तीन दिन तक आये और एक दिन तो मैं खरीदारी करने अपने साथ ले गया था तब उन्होंने मेरे सामान के पैसे दिए थे और वापस देने पर नहीं लिये थे. कभी-कभी ऐसा भी होता है. चाहे सिटी मोन्टेसरी स्कूल के जगदीश गांधी या भारती गांधी हों या और अनेक नेता और कलाकार
वह हमारे कार्यक्रम में आते थे. कालोनी में ही रहने वाले के के पाण्डेय जी को नहीं भुला सकता वह एक अच्छे इंसान और कलाकार थे उन्होंने न केवल हमारे कार्यक्रमों में हिस्सा लिया था बल्कि उत्तर प्रदेश की कुछ फिल्मों में अभिनय भी किया था.
यहाँ रहकर ही मैंने जाना और समझा कि संघर्ष ही जीवन है और बिना परिश्रम और त्याग के कुछ नहीं मिलता। संघर्ष और कठिन परिश्रम से आप अपने अलावा दूसरों की भी सेवा कर सकते हैं.
मैं गोपीनाथ लक्ष्मणदास रस्तोगी इंटर कालेज, ऐशबाग, लखनऊ में पढता था और यहाँ से ही मैंने हाईस्कूल उत्रीण किया था. यहाँ मैं साहित्य परिषद का उपाध्यक्ष और सांस्कृतिक परिषद का मंत्री और विज्ञान परिषद का लाइब्रेरियन चुना गया था. साहित्य परिषद और सांस्कृतिक परिषद के अध्यक्ष अध्यापक होते थे. अतः लेखक सुदर्शन सिंह और गंगाराम त्रिपाठी जी इन संस्थाओं के अध्यक्ष थे और लेखक दुर्गाशंकर मिश्र विद्यालय के प्रधानाचार्य थे. यहाँ मैंने अनेको स्वरचित कवितायें विद्यालयों के आयोजन में सुनायीं थीं.
जब मैं है स्कूल में 1970 में अनुत्रीण हुआ तो मेरे पिताजी मेरी नौकरी के बारे में सोचने लगे. सन 1972 में मेरे गोपीनाथ लक्षमण दास रस्तोगी इंटर कालेज से हाईस्कूल पास करते ही आलमबाग लखनऊ स्थित मालगाड़ी और सवारी डिब्बे कारखाने लखनऊ में एक सबसे मामूली कर्मचारी खलासी के रूप में नौकरी लगवाई। इस कारखाने में मेरे दादा जिन्हें मैं बाबा कहता था ने भी कार्य किया था और मेरे पिता जी भी कार्यरत थे.
इसके पहले मैंने अपने एक मित्र रतन गुलाटी के साथ एक रामनगर ऐशबाग में साबुन की फैक्ट्री में ढाई रूपये प्रतिदिन के हिसाब से दो सप्ताह काम किया था और एक मित्र अहमद अली के साथ गर्मी की छुट्टियों में आम रखने वाली पेटियाँ बनायी थी.
मुझे लगा, आ गया ऊँठ पहाड़ के नीचे। आगे पढ़ने के बड़े-बड़े अरमान धूमिल होते दिखने लगे. पिताजी की ख़राब आर्थिक स्थिति होने के कारण मुझे अपने पिता का निर्णय बाद में सही लगा.
"हाथ पर हाथ रखकर कभी कुछ होना नहीं।
काटना क्यों चाहते हो नई फसल जब तुम्हें बोना नहीं।"
जब मैं निराश और परेशान कविता लिखता और कवितायें गुनगुनाता था. मंच से भी कवितापाठ करने लगा था वह भी मोहल्ले और विद्यालय के मंच से.
आवारागर्दी ने मुझे बहुत अपनापन दिया
आवारागर्दी ने मुझे बहुत अपनापन दिया और ईमानदारी , उदारता , स्वच्छंदता , सहृदयता, अल्हड़पन, घुमक्कड़ी और खेलकूद से जोड़ा मुझे अपने दोस्तों के साथ आवारागर्दी में. यह आवारागर्दी अपराध से जोड़ने वाली नहीं थी पर उमंगों को नया रंग बंधन से मुक्त प्रेम की तरह थी, जिसमें मेरे अपने सपनों की उड़ान थी जिसका कोई ठौर नहीं रहा. मेरे इन अधिक आवारागर्दी भरे तीन वर्षों ने ( सन 1969 से 1972 तक) मुझे आटा दाल का भाव बता दिया था. स्वतंत्रता और बंधनमुक्त परिश्रम और संघर्ष मेरी रोजमर्रा की जिंदगी का अधिकाँश जीवन हिस्सा रहा जिसने अनुशासन से कभी प्रेम न करते हुए भी उसे अपनाया पर कभी गले नहीं लगा सका.
"सपने सत्य नहीं होते तो, मैं सपनों से प्रेम करूँ क्यों?"
प्रेम ने मुझसे नाता तोड़ दिया और सदा अनचाहे दूसरों को आजीवन प्रेम करता रहा, मेरे शुभचिंतक इस प्रेम को आवारगी कहते हैं, हालाँकि मेरा सहमत होना और न होना मायने नहीं रखता। मुझे लगता है प्रेम बाँटने से प्रेम बढ़ता है. संकीर्णता प्रेम का अंग नहीं हो सकती।
"बुझा नहीं सकता वह दीपक, ह्रदय ने जिसे जलाया है।
"प्रेम में कभी नहीं यह सोचें, क्या खोया क्या पाया है।।"
डी ए वी कालेज में लेखक (कवि) बना
दी ए वी कालेज में मेरे अध्यापक उमादत्त त्रिवेदी और रमेशचन्द्र अवस्थी जी थे जिनसे मुझे सदा प्रोत्साहन मिलता था. त्रिवेदी जी एक साहित्यिक संस्था और एक पत्रिका छापते थे जबकि रमेश अवस्थी जी विद्यालय की पत्रिका के संपादक थे. दिनेश मिश्रा जी यहाँ छात्र यूनियन के अधिकारी भी थे जो विद्यालय में होने वाले कार्यक्रमों के संयोजक भी रहते थे. इस विद्यालय में मैंने छात्रसंघ का चुनाव अध्यक्ष पद के लिए लड़ा.
पहला काव्य संग्रह वेदना प्रकाशित हुई
इस विद्यालय में मैंने खेल में तीन पुरस्कार जीते और इंटर पास करते ही सन 1975 में मेरी पहली काव्य पुस्तक 'वेदना' प्रकाशित हो गयी थी. ध्यान रहे मैं विद्यालय रोज नहीं जा पाता था. जब शाम की या रात की शिफ्ट में काम होता तभी कालेज जा पाता था. रेलवे में कर्मचारी रहते हुए कालेज से रेगुलर इंटर पास करके मुझे खुशी हुई थी. इसी वर्ष मैंने अपना पासपोर्ट बनवा लिया था. उस समय पासपोर्ट बनवाना मुश्किल कार्य था.
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