नार्वे में वसन्त - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
कहीं फिसलते-गिरते उठते,
शिशिर कणों के छोर बहुत हैं।
स्की पर जाते बाल-युवा वृद्ध,
पृकृति का लेते आनन्द मुकुंद.
राष्ट्रीय खेल है बरफ पर फिसलना,
मौसम के तेवर से मिलना।
आह शरद कितनी सुन्दर है,
न्यूनतम तापमान बेहतर है
कतारों में स्की पर फिसल रहे इतने हैं
जितने आसमान पर तारे दिखते।
नए-नए जब यहाँ आये थे.
खिड़की से ताका करते थे.
मौसम से जब घुल मिल जाते
पृकृति में तब सुंदरता पाते।
बर्फ गिरी है बाहर आओ,
बरफ से अपनी घर-मूर्ति बनाओ।
जैसे भारत में नदी सागर तट पर
बालू के ढेरों पर महल बनाते।
देख उसे कितने खुश होते
चाहे जल्दी ही मिट जाते।
अपने स्वप्न महल अपने हैं
सपने तो बस सपने हैं
आओ अपने स्वप्न सजायें
वासंती के कुछ नग्में गायें।
भारत में वसन्त आया है ,
नार्वे में चहुओर बरफ है.कहीं फिसलते-गिरते उठते,
शिशिर कणों के छोर बहुत हैं।
स्की पर जाते बाल-युवा वृद्ध,
पृकृति का लेते आनन्द मुकुंद.
राष्ट्रीय खेल है बरफ पर फिसलना,
मौसम के तेवर से मिलना।
आह शरद कितनी सुन्दर है,
न्यूनतम तापमान बेहतर है
कतारों में स्की पर फिसल रहे इतने हैं
जितने आसमान पर तारे दिखते।
नए-नए जब यहाँ आये थे.
खिड़की से ताका करते थे.
मौसम से जब घुल मिल जाते
पृकृति में तब सुंदरता पाते।
बर्फ गिरी है बाहर आओ,
बरफ से अपनी घर-मूर्ति बनाओ।
जैसे भारत में नदी सागर तट पर
बालू के ढेरों पर महल बनाते।
देख उसे कितने खुश होते
चाहे जल्दी ही मिट जाते।
अपने स्वप्न महल अपने हैं
सपने तो बस सपने हैं
आओ अपने स्वप्न सजायें
वासंती के कुछ नग्में गायें।
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