लखनऊ विश्वविद्यालय के शिक्षक डॉ. कृष्णाजी नहीं रहे
- सुरेश चन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’
मित्रों आपके साथ एक दुःखद सूचना साझा कर रहा हूँ कि
हम सबके प्रिय प्रो. कृष्णाजी श्रीवास्तव नहीं रहे। डॉ. कृष्णा जी का लम्बी बीमारी के बाद बुधवार 11 जून को तड़के उनका आकस्मिक निधन हो गया।
उनका अंतिम संस्कार भैंसा कुंड, लखनऊ में किया गया. लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी तथा आधुनिक भाषा विभाग के प्रोफेसर वाई पी सिंह ने बताया कि आलमबाग सुजानपुरा के निवासी डॉ. कृष्णा जी श्रीवास्तव की सेवा 2029 तक थी
जो लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी तथा आधुनिक भाषा विभाग के एसोसिएट प्रोफेसर एवं कार्य परिषद् के सदस्य थे। उन्होंने अनेक पुस्तकें भी लिखीं और शोध कराये।
लखनऊ विश्वविद्यालय के हिंदी तथा आधुनिक भाषा विभाग के विभागाध्यक्ष प्रोफ़ेसर पवन अग्रवाल के अनुसार,
"डॉ. कृष्णा जी बड़े कर्मठ और अच्छे अध्यापक थे। रंगमंच के क्षेत्र में उनकी विशेषज्ञता थी। वह निरंतर विभागीय सहयोगियों, क्षेत्रों के साथ सौहाद्र बनाये रखते थे। उनकी मृदुभाषिता , सहजता और कर्मठता सदैव अनुकरणीय रहेगी।
उनके निधन से हम सभी हतप्रभ हैं ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि उनकी आत्मा को सद्गति प्रदान करें और परिजन को इस गहन दुःख सहन करने का संबल प्रदान करें।"
आधुनिक भाषा विभाग के पूर्व विभागाध्यक्ष डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित के अनुसार, " मेरे प्रिय शिष्य और सहयोगी कृष्णा जी हिन्दी विभाग में लगभग 35 वर्ष पूर्व व्यावहारिक रंगमंच के सहायक रूप में आए थे। इस पाठ्यक्रम को चलाने में उन्होंने बहुत मदद की थी।"
कई महीनों से वह बीमार थे और इलाज करा रहे थे। उनकी बहन जी से समाचार मिल जाते थे।
लखनऊ में जब भी फिल्माचार्य आनन्द शर्मा के निर्देशन में मेरे स्वरचित नाटक मंचित होते थे तब वह देखने ज़रूर आते थे। उनसे लखनऊ में रंगमंच और फिल्मी हस्तियों की भूमिका पर बहुत विचार होता था।
लखनऊ विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के अलावा उनके साथ पत्रकारिता विभाग में भी प्रो. कृष्णाजी श्रीवास्तव के साथ प्रो. मुकुल श्रीवास्तव जी से मिलने जाता था जो पत्रकारिता विभाग के विभागाध्यक्ष थे।
डॉ. कृष्णा जी के निर्देशन में मेरी (सुरेश चन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' की ) कहानियों पर शोधार्थी पूनम ने शोध किया था। उनके साथ विश्वविद्यालय, स्टेडियम और हजरतगंज में चाय पीने जाते थे। मेरा सपना है कि हमारा लखनऊ में निजी - सार्वजानिक थिएटर हों जहाँ रंगकर्मियों का मिलने और मंचन करने की सुविधा हो।
- सुरेशचन्द्र शुक्ल ‘शरद आलोक’
11 जून 25 को (30.06.25 को प्रकाशित)
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