कवितायेँ - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
1
जो दहेज़ देते हैं
जो दहेज़ लेते हैं
जब दोनों ही कायरता
फिर कायर क्यों कहलाना.
जब तक हम आश्रित हैं
आर्थिक स्वतन्त्र नहीं हैं,
पिजड़े के पक्षी सा
परतंत्र सदा रह जाना.
2
वे बुझे हुए दीपक हैं
उनसे क्या आशा रखना
जितना भी उन्हें जलाओ
उनको आता बस बुझना.
गिरकर उठती हैं लहरें
उठकर ही उन्हें संभालना.
जो सदा हवा में उड़ते
क्या जाने भू पर चलना..
ठोकर लगकर ही आया
जीवन में आगे बढ़ना
जिस पथ पर चल कर आये
उसका हिसाब भी रखना..
1
जो दहेज़ देते हैं
जो दहेज़ लेते हैं
जब दोनों ही कायरता
फिर कायर क्यों कहलाना.
जब तक हम आश्रित हैं
आर्थिक स्वतन्त्र नहीं हैं,
पिजड़े के पक्षी सा
परतंत्र सदा रह जाना.
2
वे बुझे हुए दीपक हैं
उनसे क्या आशा रखना
जितना भी उन्हें जलाओ
उनको आता बस बुझना.
गिरकर उठती हैं लहरें
उठकर ही उन्हें संभालना.
जो सदा हवा में उड़ते
क्या जाने भू पर चलना..
ठोकर लगकर ही आया
जीवन में आगे बढ़ना
जिस पथ पर चल कर आये
उसका हिसाब भी रखना..
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