मीडिया के महत्वपूर्ण रचनाकार हरी सिंह पाल
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
मेरी पहली मुलाकात हरी सिंह पाल जी से दूरदर्शन और आकाशवाणी, दिल्ली में हुई थी. आकाशवाणी दिल्ली से मेरा ढाई दशकों से अधिक का नाता रहा है वह भी वहाँ कवितायें पढ़ने और साक्षात्कार देने के कारण. दिल्ली आकाशवाणी और दूरदर्शन में साहित्यकारों की ऐसी बिरादरी मौजूद है जो अपने आप में विशिष्ट ही नहीं वरन अपने क्षेत्रों में माहिर भी है. यदि मैं दिल्ली दूरदर्शन में जाता तो आकाशवाणी में भी जाता था. एक समय ऐसा था कि जब दूरदर्शन से अधिक आकाशवाणी में प्रोत्साहन मिलता था इसी कारण मेरे पाँव वहीं रुक जाते थे.
कुछ लोगों से मिलकर आपको एक सुखद अनुभूति होती है और आपके इरादे और बुलंद होते हैं इस पर आपके साथ अपनी स्वरचित एक कविता साझा करता हूँ.
यदि आपने कभी अपना साक्षात्कार कभी रेडियो, टी वी अथवा मंच पर दिया हो या आपने अपनी रचनाएं वहां पढ़ी हों तो आपका केवल मंच पर साक्षात्कार लेने वाले से ही संवाद नहीं होता वरन आपका संवाद अन्य लोगों से भी होता है और यह मौन संवाद आपसे कुछ-न कुछ कह जाता है. इस पर मैंने एक कविता लिखी है वह प्रिय मित्र हरी सिंह पाल को समर्पित कर रहा हूँ जिन्होंने सैकड़ों कलाकारों और लेखकों का साक्षात्कार कराते हुए स्वयं भी अनुभव किया होगा और उनके सहकर्मियों ने भी.
’’पंक्तियों के मध्य भी पढ़ते हैं हम!
मूक इरादों ने मुझे भाप लिया मेरा इरादा
टटोल लिया मेरा मन
चाहकर भी नहीं लिया उनका नाम.
धूप बन कब वह आयी!
छाया बन कौन आया?
स्टूडियो में साक्षात्कार देते - रिकार्डिंग कराते
भूले-बिसरे क्षणों में जब स्मरण करता,
स्टूडियो की दीवार के पार और कैमरे के पीछे वे
कितनी बार चाहकर क्यों नहीं नजदीक आये
पर जो हमको, सबके सामने लाये
यही है व्यावसायिक धरती और उससे जुड़ा रिश्ता!
एक ही मुलाकात में टूटता है..!
जो दूसरे साक्षात्कार में
पुनः जुड़ जाता है,
अपने पुराने सम्बन्धों को खोजता हुआ.
सृजन में जुट जाता है रचनाकार-कलाकार.
कभी सोचा है?
वह सम्प्रेषण सा दिखने वाला मौन चितेरा
जो बोल नहीं पाता,
सुन्दर गूंगे-बधिर के ह्रदय में बसे अमर प्रेम
दृष्टिहीन के अंतर में महसूस करने वाली अंतरिम गहराई,
मुझे समझ आयी, बहुत देर हो गयी थी,
जैसे रेल के एक स्टेशन पर लगी हो प्यास,
प्रतीक्षा करते - करते कब मिली
प्यास बुझाने वाली पनिहारिन,
कितने स्टेशनों बाद मिला पानी!
जिन्हें तुम देख रहे हो,
वह तुम्हें देख नहीं पाते,
जो तुम्हारी प्यास बुझाते हैं,
वह अपनी प्यास नहीं बुझा पाते,
जो तुम्हें चाय पिलाते हैं चाय की दुकानों में लाचार!
कितनी बार पिलाई है तुमने उन्हें चाय,
कभी पूछा है उनसे कि उन्होंने कब पी थी आख़िरी चाय?
अभिव्यक्ति के तरीके है अपने
पृकृति ने दिए हैं सबको सपने
कोई सपनों को देखता है तो कोई महसूस करता है.’’
एक बार ऐसा भी हुआ कि मुझसे अपनी कहानी रेडियो के लिए देने के लिए एक निदेशक साहित्यकार ने कहा और कार्य कुछ आगे बढ़ता पर पर मेरी ढील के कारण कार्य आगे नहीं बढ़ सका. इन सब कार्यों में अक्सर हरी सिंह पाल जी और उनके सहयोगियों से मिलकर हौंसला बढ़ता था.
दूरदर्शन में अहमद साहेब, विलायत जाफरी, बी एम शाह की तरह ही अनेक निदेशकों और अधिकारियों स्नेहभाजन बना रहा जिसमें आर बी विश्वकर्मा जी, डॉ. रेखा व्यास, गीतकार लक्ष्मीशंकर बाजपेयी, डॉ. कृष्ण नारायण पाण्डेय, सरिता भाटिया आदि का नाम अभी स्मरण में आ रहा है. वैसे बहुत से नाम हैं जिन्हें याद किया जा सकता है.
ऐसे कई नाम हैं जिन्हें याद किया जा सकता है. ऐसी कई घटनाएं और मुलाकातें हैं जो भुलाई नहीं जा सकतीं. उनमें उच्च अधिकारी से लेकर संपादक, इंजीनियर, कारीगर, मेकअप कलाकार भी सम्मिलित हैं. साक्षात्कार के समय यदि बातचीत साक्षात्कार लेने वाले से होती थे तब मुझे ध्यान है के मेकअप कलाकार और कैमरामैन और रिकार्डिंग करने वाले इंजीनियर और कारीगर से भी मौन ही बातचीत हो जाती थी, जिसे हम कह सकते हैं पंक्तियों के मध्य भी बहुत कुछ होता है जिसका वर्णन नहीं होता पर उनकी भूमिका अहम् होती है.
मीडिया से जुड़े हम दोनों के मित्र और रोमाओं, सामजिक विज्ञान और अंबेडकर पर महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन करने वाले और भारत सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्रालय में पूर्व महानिदेशक श्याम सिंह शशि जी भी श्री हरी सिंह पाल जी के प्रशंशक हैं. हरी सिंह पाल में एक ख़ास बात है कि वह दकियानूसी ख्यालों से दूर रहते हैं और बहुत प्रायोगिक हैं, साथ ही मिलनसार हैं, उनसे मिलकर आप कभी यह महसूस नहीं करेंगे की आप अपना समय गवां रहे हैं.
नार्वे से प्रकाशित होने वाली पत्रिका स्पाइल-दर्पण के जब पंद्रह और बीस बरस पूरे हुए तब आप और विश्वकर्मा जी ने हमारी दिल्ली में हुई गोष्ठी को रिकार्ड कराकर प्रसारित किया था.
एक गोष्ठी के मुख्य अतिथि थे श्याम सिंह शशि जी और दूसरा कार्यक्रम डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी जी के घर पर हुआ था. भारतीय प्रवासीयों को दोहरी नागरिकता दिलाने में, ओवरसीज भारतीय नागरिक कार्ड दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ब्रिटेन में भारतीय राजदूत रहते हुए यूरोप में ९ वर्षों तक सांस्कृतिक और साहित्यिक सेतु बनाने वाले कभी न भुलाए जाने वाले स्वर्गीय डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी और कमला सिंघवी जी का भी मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला और दिल्ली में भी उन्होंने याद रखा और मेरी पत्रिका के पंद्रह बरस पोर होने पर अपने घर जो पार्टी और साक्षात्कार दिया वह यादगार समय था. उस समय डॉ. सत्येन्द्र कुमार सेठी, विक्रम सिंह और सुनील जोगी मेरे साथ थे.
हरी सिंह पाल यदि आकाशवाणी में न होते तो वह अपने निजी साहित्य सृजन में बहुत अधिक योगदान दे सकते थे पर उन्हें आकाशवाणी में योगदान के लिए भी हमेशा याद किया जायेगा हालाँकि वह प्रचार से थोड़ा-थोड़ा दूर ही रहते है.
उन्होंने फोन पर बताया कि वह शिमला से अब दिल्ली आ गये हैं आशा है कि वह हमेशा की तरह पुनः साहित्य सृजन में मीडिया द्वारा अपने और दूसरे साहित्यकारों के साहित्य को उजागर करते रहेंगे.
ज्ञात हुआ कि कल्पांत पत्रिका उनपर विशेषांक निकल रही है. यह हरी सिंह पाल के जीवन के अनेक पहलुओं और उनके मीडिया और साहित्यिक योगदान और उनके निजी व्यक्तित्व को जानने में सफल होगी यही कामना करता हूँ.
स्वयं हम विदेश में बसे संपादकों ने अपनी पत्रिकाओं में भारत के अनेक रचनाकारों और कलाकारों पर विषद सामग्री प्रकाशित की है और इससे एक साहित्यकार पर विषद जानकारी मिलती है और पाठकों के मन में उस लेखक के अनेक पहलुओं का पता चलता है. आशा है हरी सिंह पाल जी को जो जानते हैं वे भी और जो नहीं जानते हैं वे भी उन्हें ’कल्पांत’ के इस अंक को पढ़कर जान जायेंगे. कल्पांत परिवार को इसके लिए हमारी शुभकामनायें.
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
संपादक, स्पाइल-दर्पण, ओस्लो, नार्वे
संस्थापक, वैश्विका-साप्ताहिक, भारत
अध्यक्ष, इंडो-नार्विजन इन्फार्मेशन एण्ड कल्चरल फोरम, नार्वे
अध्यक्ष, हिन्दी लेखन मंच, नार्वे
सदस्य, इंटर नेशनल फेडरेशन आफ जर्नलिस्ट
ई-पता: suresh@shukla.no और speil.nett@gmail.com
http://sureshshukla.blogspot.com/
पता Address: Suresh Chandra Shukla
Post Box 31, Veitvet
0518 – Oslo, Norway
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
मेरी पहली मुलाकात हरी सिंह पाल जी से दूरदर्शन और आकाशवाणी, दिल्ली में हुई थी. आकाशवाणी दिल्ली से मेरा ढाई दशकों से अधिक का नाता रहा है वह भी वहाँ कवितायें पढ़ने और साक्षात्कार देने के कारण. दिल्ली आकाशवाणी और दूरदर्शन में साहित्यकारों की ऐसी बिरादरी मौजूद है जो अपने आप में विशिष्ट ही नहीं वरन अपने क्षेत्रों में माहिर भी है. यदि मैं दिल्ली दूरदर्शन में जाता तो आकाशवाणी में भी जाता था. एक समय ऐसा था कि जब दूरदर्शन से अधिक आकाशवाणी में प्रोत्साहन मिलता था इसी कारण मेरे पाँव वहीं रुक जाते थे.
कुछ लोगों से मिलकर आपको एक सुखद अनुभूति होती है और आपके इरादे और बुलंद होते हैं इस पर आपके साथ अपनी स्वरचित एक कविता साझा करता हूँ.
यदि आपने कभी अपना साक्षात्कार कभी रेडियो, टी वी अथवा मंच पर दिया हो या आपने अपनी रचनाएं वहां पढ़ी हों तो आपका केवल मंच पर साक्षात्कार लेने वाले से ही संवाद नहीं होता वरन आपका संवाद अन्य लोगों से भी होता है और यह मौन संवाद आपसे कुछ-न कुछ कह जाता है. इस पर मैंने एक कविता लिखी है वह प्रिय मित्र हरी सिंह पाल को समर्पित कर रहा हूँ जिन्होंने सैकड़ों कलाकारों और लेखकों का साक्षात्कार कराते हुए स्वयं भी अनुभव किया होगा और उनके सहकर्मियों ने भी.
’’पंक्तियों के मध्य भी पढ़ते हैं हम!
मूक इरादों ने मुझे भाप लिया मेरा इरादा
टटोल लिया मेरा मन
चाहकर भी नहीं लिया उनका नाम.
धूप बन कब वह आयी!
छाया बन कौन आया?
स्टूडियो में साक्षात्कार देते - रिकार्डिंग कराते
भूले-बिसरे क्षणों में जब स्मरण करता,
स्टूडियो की दीवार के पार और कैमरे के पीछे वे
कितनी बार चाहकर क्यों नहीं नजदीक आये
पर जो हमको, सबके सामने लाये
यही है व्यावसायिक धरती और उससे जुड़ा रिश्ता!
एक ही मुलाकात में टूटता है..!
जो दूसरे साक्षात्कार में
पुनः जुड़ जाता है,
अपने पुराने सम्बन्धों को खोजता हुआ.
सृजन में जुट जाता है रचनाकार-कलाकार.
कभी सोचा है?
वह सम्प्रेषण सा दिखने वाला मौन चितेरा
जो बोल नहीं पाता,
सुन्दर गूंगे-बधिर के ह्रदय में बसे अमर प्रेम
दृष्टिहीन के अंतर में महसूस करने वाली अंतरिम गहराई,
मुझे समझ आयी, बहुत देर हो गयी थी,
जैसे रेल के एक स्टेशन पर लगी हो प्यास,
प्रतीक्षा करते - करते कब मिली
प्यास बुझाने वाली पनिहारिन,
कितने स्टेशनों बाद मिला पानी!
जिन्हें तुम देख रहे हो,
वह तुम्हें देख नहीं पाते,
जो तुम्हारी प्यास बुझाते हैं,
वह अपनी प्यास नहीं बुझा पाते,
जो तुम्हें चाय पिलाते हैं चाय की दुकानों में लाचार!
कितनी बार पिलाई है तुमने उन्हें चाय,
कभी पूछा है उनसे कि उन्होंने कब पी थी आख़िरी चाय?
अभिव्यक्ति के तरीके है अपने
पृकृति ने दिए हैं सबको सपने
कोई सपनों को देखता है तो कोई महसूस करता है.’’
एक बार ऐसा भी हुआ कि मुझसे अपनी कहानी रेडियो के लिए देने के लिए एक निदेशक साहित्यकार ने कहा और कार्य कुछ आगे बढ़ता पर पर मेरी ढील के कारण कार्य आगे नहीं बढ़ सका. इन सब कार्यों में अक्सर हरी सिंह पाल जी और उनके सहयोगियों से मिलकर हौंसला बढ़ता था.
दूरदर्शन में अहमद साहेब, विलायत जाफरी, बी एम शाह की तरह ही अनेक निदेशकों और अधिकारियों स्नेहभाजन बना रहा जिसमें आर बी विश्वकर्मा जी, डॉ. रेखा व्यास, गीतकार लक्ष्मीशंकर बाजपेयी, डॉ. कृष्ण नारायण पाण्डेय, सरिता भाटिया आदि का नाम अभी स्मरण में आ रहा है. वैसे बहुत से नाम हैं जिन्हें याद किया जा सकता है.
ऐसे कई नाम हैं जिन्हें याद किया जा सकता है. ऐसी कई घटनाएं और मुलाकातें हैं जो भुलाई नहीं जा सकतीं. उनमें उच्च अधिकारी से लेकर संपादक, इंजीनियर, कारीगर, मेकअप कलाकार भी सम्मिलित हैं. साक्षात्कार के समय यदि बातचीत साक्षात्कार लेने वाले से होती थे तब मुझे ध्यान है के मेकअप कलाकार और कैमरामैन और रिकार्डिंग करने वाले इंजीनियर और कारीगर से भी मौन ही बातचीत हो जाती थी, जिसे हम कह सकते हैं पंक्तियों के मध्य भी बहुत कुछ होता है जिसका वर्णन नहीं होता पर उनकी भूमिका अहम् होती है.
मीडिया से जुड़े हम दोनों के मित्र और रोमाओं, सामजिक विज्ञान और अंबेडकर पर महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन करने वाले और भारत सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्रालय में पूर्व महानिदेशक श्याम सिंह शशि जी भी श्री हरी सिंह पाल जी के प्रशंशक हैं. हरी सिंह पाल में एक ख़ास बात है कि वह दकियानूसी ख्यालों से दूर रहते हैं और बहुत प्रायोगिक हैं, साथ ही मिलनसार हैं, उनसे मिलकर आप कभी यह महसूस नहीं करेंगे की आप अपना समय गवां रहे हैं.
नार्वे से प्रकाशित होने वाली पत्रिका स्पाइल-दर्पण के जब पंद्रह और बीस बरस पूरे हुए तब आप और विश्वकर्मा जी ने हमारी दिल्ली में हुई गोष्ठी को रिकार्ड कराकर प्रसारित किया था.
एक गोष्ठी के मुख्य अतिथि थे श्याम सिंह शशि जी और दूसरा कार्यक्रम डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी जी के घर पर हुआ था. भारतीय प्रवासीयों को दोहरी नागरिकता दिलाने में, ओवरसीज भारतीय नागरिक कार्ड दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ब्रिटेन में भारतीय राजदूत रहते हुए यूरोप में ९ वर्षों तक सांस्कृतिक और साहित्यिक सेतु बनाने वाले कभी न भुलाए जाने वाले स्वर्गीय डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी और कमला सिंघवी जी का भी मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला और दिल्ली में भी उन्होंने याद रखा और मेरी पत्रिका के पंद्रह बरस पोर होने पर अपने घर जो पार्टी और साक्षात्कार दिया वह यादगार समय था. उस समय डॉ. सत्येन्द्र कुमार सेठी, विक्रम सिंह और सुनील जोगी मेरे साथ थे.
हरी सिंह पाल यदि आकाशवाणी में न होते तो वह अपने निजी साहित्य सृजन में बहुत अधिक योगदान दे सकते थे पर उन्हें आकाशवाणी में योगदान के लिए भी हमेशा याद किया जायेगा हालाँकि वह प्रचार से थोड़ा-थोड़ा दूर ही रहते है.
उन्होंने फोन पर बताया कि वह शिमला से अब दिल्ली आ गये हैं आशा है कि वह हमेशा की तरह पुनः साहित्य सृजन में मीडिया द्वारा अपने और दूसरे साहित्यकारों के साहित्य को उजागर करते रहेंगे.
ज्ञात हुआ कि कल्पांत पत्रिका उनपर विशेषांक निकल रही है. यह हरी सिंह पाल के जीवन के अनेक पहलुओं और उनके मीडिया और साहित्यिक योगदान और उनके निजी व्यक्तित्व को जानने में सफल होगी यही कामना करता हूँ.
स्वयं हम विदेश में बसे संपादकों ने अपनी पत्रिकाओं में भारत के अनेक रचनाकारों और कलाकारों पर विषद सामग्री प्रकाशित की है और इससे एक साहित्यकार पर विषद जानकारी मिलती है और पाठकों के मन में उस लेखक के अनेक पहलुओं का पता चलता है. आशा है हरी सिंह पाल जी को जो जानते हैं वे भी और जो नहीं जानते हैं वे भी उन्हें ’कल्पांत’ के इस अंक को पढ़कर जान जायेंगे. कल्पांत परिवार को इसके लिए हमारी शुभकामनायें.
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
संपादक, स्पाइल-दर्पण, ओस्लो, नार्वे
संस्थापक, वैश्विका-साप्ताहिक, भारत
अध्यक्ष, इंडो-नार्विजन इन्फार्मेशन एण्ड कल्चरल फोरम, नार्वे
अध्यक्ष, हिन्दी लेखन मंच, नार्वे
सदस्य, इंटर नेशनल फेडरेशन आफ जर्नलिस्ट
ई-पता: suresh@shukla.no और speil.nett@gmail.com
http://sureshshukla.blogspot.com/
पता Address: Suresh Chandra Shukla
Post Box 31, Veitvet
0518 – Oslo, Norway
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