सोमवार, 2 अप्रैल 2018

A poem about old people in India by Suresh Chandra Shukla वृद्धों की व्यथा और पुत्रों का रोना -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', Oslo, Norway

वृद्धों की व्यथा और पुत्रों का रोना  
-सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

बिलखती मिली थी एक माँ खाइयों में,
गायिका जो कभी थी रेडियो महफ़िलों में।
जिसने भी उस माँ को खायी में फेंका,
संवेदनायें क्यों बच्चों के मन में मरी हैं?

पिता एक बूढ़ा बिलखता रहा था,
अंतिम समय प्रतीक्षा कर रहा था
माता-पिता ने विदेश भेजा कमाने,
अंतिम समय भी न आया सिरहाने।

बहुत गर्व करते हैं पुत्रों पर हम,
बेटियों को कमतर समझते रहे है।
गुनाह करके देवता हैं बन बैठे,
दिखावे-पाखण्डों में लिपटे हुए हैं।

सर तो बेटे का उस दिन मुड़ा था,
बेटे का कद जब पिता से बड़ा था.
अन्तिम संस्कार में पहुँचना जिसे था,
वह जश्नों में अपने खोया पड़ा था।

अंतिम समय भी मुख बेटे ने मोड़ा।
सारे रिश्ते-नातों ने भी नाता तोड़ा।
चन्दे से पिता की अर्थी उठी थी,
संस्कृति में पुत्र की कैसी बेबसी थी?

जीते जी दौलत नाम बेटे के न करना।
अगर तुमको जीते जी नहीं है मरना।।
कर्ज लेकर मरोगे याद बेटे करेंगे।
अर्थी को कर्जदारों के कंधे भी मिलेंगे।।

बेटियों और बेटों में अंतर करो न,
खोखले रिश्तों के  पाखंडी बनो न.
भारत की संस्कृति लाज निभाओ,
घर माता-पिता से स्वर्ग बनाओ।।

मुख फेरता रहा, माँ मरी न सर मुड़ाया,
अपने से अपनों को लड़ा और लड़ाया।
बेटा दौलत का नशा पाकर लड़खड़ाया,
खुद मरा जब, बेटे ने जश्न मनाया।।
          02.04.18, Oslo, Norway
          speil.nett@gmail.com

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