दाऊ जी गुप्त के चाहने वाले हैं
हर देश में हिंदी सेवी और लखनऊ के मोहल्ले में लोग
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
आज तीन मई को शाम पौने चार बजे मैंने लखनऊ में फोन पर डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित जी से बातचीत करके पुराने दिन याद किये। उन्होंने बताया कि अब वह स्वस्थ हैं, कोरोना शरीर को तोड़ देता है।
आदरणीय दीक्षित जी ने बताया कि दाऊजी गुप्त जी अक्सर लखनऊ विश्वविद्यालय आया करते थे।
लखनऊ के
हर
मोहल्ले में
चाहने वाले हैं
अभी जब मुझे कल साहित्यकार, समाजसेवी और राजनीतिज्ञ डॉ. दाऊ जी गुप्त के निधन का समाचार मिला तो विश्वास नहीं हुआ, पर विश्वास करना पड़ा. हम अपनी स्मृतियों से उन्हें आजीवन नहीं भुला सकते। श्रद्धेय डॉ. दाऊ जी गुप्त को स्मरण करते ही उनका हँसता चेहरा सामने आ जाता।
मेरे मन मस्तिष्क में अनेक मधुर स्मृतियाँ आत्मीय दाऊ जी गुप्त से जुड़ी हैं।
यह भी बताता चलूँ कि लखनऊ में कोई ऐसी नहीं गुजरती जहाँ लोग उन्हें नहीं जानते थे। वे ऐसे कम लोगों में थे जिन्हें लखनऊ वासी चाहे वह उर्दू वाला है, अवधी भाषी है या हिन्दी सभी से उसकी जबान में बात करते। आप अनेक भाषाओं के जानकार थे।
लखनऊ में जहाँ मैं उनके निवास पर अनेक बार मिला वह नाका हिंडोला लखनऊ इसके पास ही थोड़ी दूर पर मेरे अध्यापक/ प्रधानाचार्य डॉ. दुर्गाशंकर मिश्र बिरहाना में रहते थे। मेरा घर 8 -मोतीझील ऐशबाग रोड, लखनऊ से मोटरगाड़ी से मुश्किल से पांच-सात मिनट की दूरी पर है। वह अपने निवास पर चेतना साहित्य परिषद् की तरफ से साहित्यिक गोष्ठी कराते थे जो दशकों आयोजित होती रहीं।
आज तीन मई को शाम पौने चार बजे मैंने लखनऊ में फोन पर डॉ सूर्य प्रसाद दीक्षित जी से बातचीत करके पुराने दिन याद किये। उन्होंने बताया कि अब वह स्वस्थ हैं, कोरोना शरीर को तोड़ देता है।
आदरणीय दीक्षित जी ने बताया कि दाऊजी गुप्त जी अक्सर लखनऊ विश्वविद्यालय आया करते थे।
'दीप जो बुझते नहीं'
का
विमोचन
लखनऊ विश्वविद्यालय में
सन 1988 की बात है, मेरे चौथे काव्य संग्रह 'दीप जो बुझते नहीं' का हिन्दी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय में विमोचन था। श्रद्धेय डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित जी विभागाध्यक्ष थे जिनके शिष्य भारत में अनेक संस्थानों में प्रतिष्ठित पदों को गौर्वान्वित कर रहे हैं. तब डॉ. दाऊ जी गुप्त जी को भी आमंत्रित किया था। उन्हें पुस्तक की एक प्रति एक दिन पहले भिजवा दी थी।
'संभावनाओं की तलाश'
का
विमोचन
लखनऊ विश्वविद्यालय में
उसके बाद सं 1994 को मेरे पांचवे काव्यसंग्रह 'संभावनाओं की तलाश' का विमोचन हिंदी विभाग, लखनऊ विश्वविद्यालय में किया गया था। यह कार्यक्रम बहुत महत्वपूर्ण था. इसमें मेरे गोपीनाथ लक्ष्मण दास रस्तोगी इंटर कालेज में प्रधानाचार्य (हाईस्कूल के गुरु) डॉ दुर्गाशंकर मिश्र, डी ए वी कालेज में मेरे गुरु श्री उमादत्त त्रिवेदी जी (ससुराल पक्ष से रिश्ते में
त्रिवेदी जी का मौसा हूँ। श्री उमादत्त त्रिवेदी जी जो यहियागंज में रहते थे।
उनकी पत्नी श्रीमती प्रियंवदा त्रिवेदी हनुमान प्रसाद रस्तोगी इंटर कालेज की प्रधानाचार्य रही हैं
त्रिवेदी जी
के पुत्र सुधांशु त्रिवेदी जी भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता हैं.) बी एस एन वी डिग्री कालेज में बी ए में मेरे हिन्दी के प्राध्यापक डॉ. ओमप्रकाश त्रिवेदी जी, हिंदी के मूर्धन्य विद्वान डॉ. कुँवर चंद्रप्रकाश सिंह, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के अध्यक्ष प्रसिद्ध कवि लक्ष्मीकांत वर्मा, डॉ. आभा अवस्थी और अन्य थे।
आपको पता है कि यदि आपको पुस्तक का विमोचन करना है तो इंतजाम खुद ही करना पड़ता है। मेरे पास इस कार्यक्रम में श्री लक्ष्मीकान्त वर्मा जी और डॉ. कुँवर चन्द्रप्रकाश सिंह को लाने के लिए कोई यातायात की व्यवस्था नहीं थी। उस समय बड़े टेम्पो चलते थे अतः अलग-अलग दो टेम्पो खाली कराकर उन्हें लाया था। एक अलग तरह का अनुभव था।
इस कार्यक्रम के कुछ दिन पहले लखनऊ में मेरे पहले कहानी संग्रह 'तारुफी ख़त' जो उर्दू में था का विमोचन चोर वाली गली, लालबाग में एक शायरा के घर पर हुआ था जिसमें विलायत जाफरी जी भी उपस्थित थे।
दाऊ जी गुप्त को मेरी पुस्तकों के शीर्षक और दो तीन कवितायें याद थीं। वह जब कार्यक्रम में आते थे तो तैयारी करके आते थे। जो यादों की डोर पकड़ में आयेगी यानि स्मृतियों में आयेगी उसे उलझे ऊन के गोले सा खोलता चला जाऊँगा और आपके सामने रखूँगा।
1993 में चौथा विश्व हिन्दी सम्मेलन
सबसे पहले आपको 1993 में मारीशस ले चलूँगा जब विश्व हिन्दी सम्मेलन में दाऊ जी गुप्त जी भी आये थे। मेरे परिचित सांसद शंकर दयाल सिंह, विजयेन्द्र स्नातक जी और दाऊ जी गुप्त एक प्रदर्शनी में गये जहाँ हिंदी के लेखकों में कुछ सोर्स लगाकर अपना चित्र लगवाने में सफल हो गए थे वहां प्रेमचंद को कौन पूछता है। जब विजयेंद्र जी से बात की उन्होंने देखा और कहाँ यह व्यवस्था का काम है फिर उनसे परिचय हुआ. मारीशस में जब मैं कई बार अनेक बिखरे हुए लेखकों के झुण्ड में जाता तो दाऊ जी गुप्त जी भी कभी लखनऊ से आये लगभग 35 लोगों के बीच तो कभी जागरण के नरेंद्र मोहन और अन्य के साथ तो कभी यूरोपीय हिन्दी के विद्वानों के साथ बातचीत करते मिल जाते थे।
मैं ओस्लो नार्वे से मारीशस इस सम्मेलन में भाग लेने
एक सप्ताह पहले
आ गया था।
एक यादगार यात्रा में हम और दाउ जी गुप्त साथ थे यह अवसर था 1993 में चौथा विश्व हिन्दी सम्मेलन जो मारीशस में सम्पन्न हुआ था वह यादगार सम्मेलन था। वहाँ लखनऊ से डॉ. सूर्यप्रसाद दीक्षित, दाऊ जी गुप्त, डॉ. रमा सिंह, डॉ. सरोजिनी अग्रवाल, डॉ. शीला मिश्र, डॉ. विद्याविन्दु सिंह सहित लगभग पैंतीस से अधिक लेखक थे। डॉ. विद्या निवास मिश्र, डॉ. कामता कमलेश, डॉ. भक्तराम शर्मा, प्रकाशक विजय बेरी जी, धनञ्जय सिंह जी, मेरी फिल्म में काम करने वाली कवियित्री अनीता अनिलाभ और न जाने कितने देश विदेश के लेखकों से मिला जुड़ा आज भी अनेकों से जुड़ा हूँ। ओस्लो नार्वे से मैं मारीशस एक सप्ताह पहले आ गया था।
सम्मेलन में दो कवि सम्मेलन हुए थे एक कवि सम्मेलन विश्व हिन्दी सम्मेलन की पूर्व संध्या पर हुआ था जिसकी शुरुआत में मेरी कविताओं से हुई थी और जिसका सञ्चालन डॉ. एम के वर्मा कर रहे थे।
एक दिन पूर्व इस कवि सम्मेलन में ब्रिटेन के डॉ. एम के वर्मा जी, दक्षिण अफ्रीका से हरभजन सीताराम और रामनिवास जी और बहुत से लोग थे जिसमें कुछ दिल्ली और मारीशस के लोगों से परिचित हुआ था।
अखबार के प्रथम पृष्ठ पर साक्षात्कार
जिस दिन चौथा विश्व हिन्दी का उद्घाटन दिन था मेरा साक्षात्कार 'दि सन' नामक फ्रेंच भाषा के अखबार में पहले और अंतिम पृष्ठ में विस्तार से छपा था और एक साक्षात्कार रेडियो में प्रसारित हुआ था. सम्मेलन के विशेषांक में मेरा एक लेख और एक कविता प्रकाशित हुई थी।
यह अखबार प्रधानमंत्री के पक्ष का अखबार था अतः मझे लखनऊ के साहित्यकारों के साथ प्रधानमंत्री जी ने निजी चाय पर बुलाया था जिसका जिक्र डॉ. शीला मिश्रा जी ने भी अपने लेखों में किया है।
मैं 1990 में एक अन्य सम्मेलन में मारीशस आ चुका था अतः जगदीश गोबर्धन जी से मित्रता हो गयी थी जो तब स्वास्थ मंत्री थे पर 1993 में जगदीश गोबर्धन जी कृषि मंत्री थे पर इंतजाम में बढ़चढ़ कर हिस्सा ले रहे थे।
जब मारीशस में दाउ जी गुप्त जी मिले मुझसे मिलते ही पूछा कि नार्वे का क्या हाल है. और बातों का सिलसिला शुरू होता तो तो साहित्य और हिन्दी से जुड़े हुए एक-एक क्रम जुड़ने लगते। धीरे-धीरे हम लोगों की बाते सूत/डोरी की तरह बुनते-बुनते एक यादों की चादर तैयार हो जाती। दाउ जी गुप्त नार्वे आ चुके थे तब मैं उनसे परिचित नहीं था.
वह नव वर्ष में सुन्दर छापे हुए कार्ड और टाइप राइटर से लिखे पत्र भेजते थे।
यह भी बताता चलूँ कि लखनऊ में कोई ऐसी नहीं गुजरती जहाँ लोग उन्हें नहीं जानते थे. वे ऐसे कम लोगों में थे जिन्हें लखनऊ वासी चाहे वह उर्दू वाला है, अवधी भाषी है या हिन्दी सभी से उसकी जबान में बात करते। आप अनेक भाषाओं के जानकार थे।
ब्रिटेन में साथ
पद्मभूषण डॉ. लक्ष्मी मल सिंघवी जी सन 1991 से 1997 तक ब्रिटेन में भारत के है कमिश्नर थे. वह अपने कार्यकाल में कवि सम्मेलन, हिन्दी सम्मेलन और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रम कराते थे. चूँकि मैं नार्वे से हिन्दी की पत्रिका प्रकाशित करता था अतः नर्वे में भारतीय दूतावास के जरिये मेरे पास आमंत्रण आया था.
तीन बार दाऊ जी गुप्त के साथ ब्रिटेन में अनेक कार्यक्रमों में साथ-साथ भाग लेने का अवसर मिला।
विभिन्न नगरों में यात्रायें साथ-साथ कीं. उनके पास संस्मरणों का खजाना था. वह बहुत बड़े विद्वान थे.
अमेरिका में साथ
मैं विश्व हिन्दी समिति और अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सिटी के आमंत्रण पर यू एस ए गया था. न्यूयार्क में प्रतिष्ठित भारतीय चिकित्सक और कवि डॉ. विजय कुमार मेहता जी के घर पर मैं और डॉ. श्याम सिंह शशि जी रह रहे थे. एक शाम को डॉ. दाउ जी गुप्त जी आये हम सभी एक कमरे में रहे. वह सभी को आदर देते थे वही आदर हम सभी उन्हें देते हैं. सौरभ पत्रिका के प्रकाशन और सम्पादन में भी डॉ. दाऊ जी गुप्त सहयोग देते थे. अनेक कार्यक्रमों में हम लोगों ने साथ भाग लिया।
दिल्ली और लखनऊ के तो अनगिनत प्रसंग हैं.
उन्हें भुलाना आसान नहीं है.
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