सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'
जो छूटा दर था मेरा
फिर उसने नहीं बुलाया।
छू छू कर उस माटी को,
मस्तक में उसे लगाया।।
जो समय सदा मेरा था,
इतिहास बना जाता है ।
आशा के घन केशों सा,
बिन बरसे ही जाता है।।
जो छिपी हुई गाथायें,
मन के अंतस्थल में।
प्रमाण कहाँ दूँ उनको,
जो है कोरे कागज़ में..
पथ में,विश्राम गृहों में
कुछ राही मिल जाते हैं.
वे बिछड़ भले जाते हों,
यादों में रह जाते हैं.
तुमको आमंत्रण मेरा,
कुछ पल साथ बिताना।।
तुम मेरे मन आँगन में,
कुछ बीज नये बो जाना।।
सुई-धागे में पिरोया
मैं ऐसा हार नहीं हूँ.
जो बीच राह में छोड़े
मैं ऐसा साथ नहीं हूँ. .
जो कहकर नहीं निभाते
तुम उनका साथ न करना।
जिनको मिथ्या में जीना,
उनको धोखे में रहना।
जो बार-बार घीसू से,
आंसू हैं सदा बहाते।
तब भाग्य रूठती उनसे,
मिल जाते भीख माँगते।।
जिनका घरबार नहीं है,
उनके दिल में कोठी है.
सोने वाले भूखे हैं।
मेरे घर में रोटी है।।
जो स्वांग सदा रचते हैं,
तुम उनपर न खो जाना।
हरसिंगार के फूलों सा
महकना और महकाना।।
सन्दर्भ नये गढ़ने को
हम साथ छोड़ जाते हैं,
पानी सा लिखा मिटाकर।
रेत अंजुरी में लाते हैं ।।
हिम गल-गलकर बन जाती,
अनगिनत प्रेम लघु नदियाँ।
जो बीज दबे धरती में
अंकुर सी निकली कलियाँ।
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