सोमवार, 14 नवंबर 2016

प्रतिष्ठा/ रौब  (लघु कथा) - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'  14.11.16 Oslo, Norway



गुड्डी ने कहा, " मम्मी! पापा आ गये ." 
क्या बात है. दाल में कुछ काला लग रहा है. मैं सोचने लगी आखिर वह शर्मा जी के घर पार्टी में गए थे . और ये पार्टी से देर रात तक आते हैं. आज इतनी जल्दी। खैर मैंने पूछा ,
"मैंने कहा क्या बात हो गयी, आज आप पार्टी से जल्दी क्यों आ गये . उलटे पैर क्यों लौट आये हो."
"अरे कुछ नहीं बेगम, शराब की दूकान ने ५०० के और हजार के नोट लेने जो बंद कर दिये।"  
"अरे तुम्हें कौन पैसे देने थे वह तो शर्मा जी के यहाँ पार्टी है उन्होंने कोई इंतजाम नहीं किया।"  मैंने पूछा।
"हाँ-हाँ, मैं शर्मा जी की पार्टी की ही बात कर रहा हूँ. भला हो शर्मा जी की बीवी का जो उन्होंने शर्मा जी की आँख से बचाकर पांच सौ-और हजार के इतने नोट जमा किये कि लखपति हो गयीं। पर भगवान् को और ही मंजूर था. जब से पता चला कि पुराने नोट बंद हो गये हैं, शर्मा जी की बीवी बीमार हो गयीं। उन्हें सदमा लग गया. पोल खुलने से उनकी ईमानदारी पर शर्मा जी शक करने लगे हैं." 

"बैंक वाले ढाई लाख रूपये तक पुराने नोट जमा कर रहे हैं." मैंने अपने पतिदेव से कहा.
"अरे भाई, दहेज़ का सारा रुपया भी तो उनके घर में रखा है. शर्मा जी कहते थे बेटे मनीष की शादी में लिया दहेज़  बेटी पिंकी की शादी जब होगी तब दे देंगे।"
"हाँ बात तो गंभीर है. पर अपनी माँ और पिता के नाम भी ढाई-ढाई लाख जमा कर सकते हैं."

"बहुत खूब कहती हो भाग्यवान! मिसेज शर्मा तो अपनी सास को देखे मुंह तो सुहाती नहीं हैं और अब उनके नाम से लाखों रुपया जमा करना पड़ेगा। यही तो बीमारी की जड़ है." मेरे पति ने मेरी ओर देखकर आगे पूछा, "अरे भाग्यवान तुमने कितने पाँच  सौ और हजार के नोट बचा रखे हैं?"
"क्या बात कर रहे हो? तुम मुझे देते ही कितने थे?" मैंने सच्चाई बताते हुए अपने को ठगा हुआ महसूस कर रही थी। 
"अरे भाग्यवान, कुछ तो बताओ? 
"कसम से मेरे पास केवल तीन हजार बचाये थे सो बैंक से बदलकर ले आयी हूँ. घर में कितना खर्च होता है. जानते हो  मैंने बैंक के एकाउंटेंट से कहा बेटा! तुम तो ऐसे काम कर रहे हो जैसे सीमा पर सैनिक कर रहे हैं। " मैंने सफाई दी और मैं सोचती रही. जब लोंगो को पता चलेगा मैंने तीन हजार ही बचाये तो मोहल्ले में नाक कट जायेगी।
"सुनो जी, पड़ोस के सभी लोग सुना रहे हैं कि किसी ने चार लाख बचाये किसी ने दस लाख एकत्र किये। और मैंने केवल तीन हजार।" मैंने रद्दी के नोटनुमा गड्डियों की तरफ इशारा करते हुए कहा, इस बोरे (थैले) को आग लगाकर गली के बाहर छोड़ना है." मैंने कहा. 
"इसमें क्या  है? " उन्होंने पूछा।
" इस थैले में  रद्दी की नोटनुमा गड्डियां है. अरे भाई हमारी नाक कट जायेगी जब लोगों को पता चलेगा कि हमारे पास नोट नहीं हैं. इसी लिए मैंने रद्दी काटकर पूरे दिन भर की मेहनत के बाद नोटनुमा गड्डियाँ बनायी हैं. ताकि इज्जत रह जाये। ताकि लोग समझें कि हमारे पास इतने नोट थे कि आग लगाने की नौबत आ गयी."

उन्होंने बोरी देखी और फिर मेरी ओर आश्चर्य से देखा। कुछ ठहर कर बोले,
"तुम हो तो बुद्धिमान। चलो इसे लाग लगाकर आता हूँ." वह कहकर घर से बोरी लेकर गली से निकले। सभी की नजर मेरे पति के हाथ में पकडे हुए बोरे पर लगी थी. एक कह रहा था,
" सर्दी आ गयी है ये नोट अब आग तापने के काम आयेंगे।"  लोग  इधर -उधर  देखते रहे पर कोई पास नहीं आया.  बुरे वक्त के लिए लोगों ने नोट छिपा कर रखे थे अब पुराने नोटों का ही बुरा समय आ गया।

जैसे ही मेरे पति बोरी को जलाकर आये हैं. लोग कहने लगे, मुरारी बाबू और मेरा नाम लेकर उनकी पत्नी (विमला)  ने गृहस्ती अच्छी संभाली थी. कितने संपन्न हैं ये लोग.
मुझे लगा कि समाज में रौब बढ़ गया है। इतने नोट थे कि इन्हें जलाने पड़े।
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Grevlingveien 2 G
0595  Oslo
Norway

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