मंगलवार, 23 मई 2017

लघु कथा: "बेघर" - कथाकार: सुरेशचन्द्र शुक्ल, 'शरद आलोक' Mini novelle 'hjemløs' av Suresh Chandra Shukla, Oslo


लघु कथा: "बेघर" - कथाकार: सुरेशचन्द्र शुक्ल, 'शरद आलोक'
कथाकार: सुरेशचन्द्र शुक्ल, 'शरद आलोक'
 जब भी द्वार पर झाड़ू लगाने की आवाज आती तो मैं घर से बाहर निकल आता. हाथ में झाड़ू लिए भैरवी को एक टक देखने लगता।  जैसे-जैसे मैं पास आने की कोशिश करता वह मुझे देखकर और तेजी से झाड़ू लगाने लगती और धूल भी तेजी से चारो तरफ  फैलने लगती।  और मैं रुक जाता। भैरवी कहती बाबूजी मेरे पास नहीं आना. वह शायद मेरे बढ़ते आकर्षण को जान गयी थी. वह नहीं चाहती थी  कि कोई बवाल खड़ा हो. 
दादी को पड़ोसियों से भनक लग गयी कि मैं झाड़ू लगाने वाली भैरवी से बाते करता हूँ.
एक दिन दादी खुले आम सभी को सुनाते हुए मुझे सम्बोधित करते हुए कहा अगर तुम इस भैरवी को छुओगे भी तो मैं तुम्हे घर से निकाल दूंगी।
जब दादी मंदिर गयी थी तो मैंने भैरवी को अपनी चाय पीने को कहा. बहुत कहने पर बहुत मुश्किल से भैरवी  घर के बाहर खड़े रहकर चाय पीने के लिए तैयार  हो गयी. 
जब वह चाय पीकर मुझे प्याली वापस दे रही थी कि दादी वापस आ धमकी और उसने देख लिया।
फिर क्या कहना था  दादी आग बबूला हो गयी. 
दादी ने घर जाकर मेरा गुस्से से बैग फेककर कहा कि जाओ अब इसे जिंदगी भर छुओ पर इस घर में तुम्हारा गुजारा नहीं।"
बैग लेकर मैं भैरवी के पास आ गया.
भैरवी हंसी और कहा कि मैं भी तुम्हें घर में नहीं रख सकती।
मैंने प्यार से कहा मैं बेघर ही सही पर मैं तुम्हें अब छू तो सकता हूँ. साथ-साथ बैठकर चाय तो पी सकता हूँ. 

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