क्या भूलें क्या याद करें प्रिय
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , ओस्लो
(अब विस्तार से लिखी कविता पढ़ें, )
मिलते थे जब बाहें भरकर,
वह कितना प्यारा बचपन था।
तब मित्रों के घर आँगन में ,
जहाँ प्रेम पानी-चन्दन था।।
क्या कैसा अहसास करें प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
घर से जब पढ़ने जाते थे,
मग में खेल रचाते जाते।
तब कितने भोले-भोले से,
गेंद खेलते वापस आते।।
नया रोज उत्साह रहा प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
कागज़ के फूल बनाते थे तब,तकली से सूट कातते थे तब।
गौ का चारा पानी करने,
चार बजे उठ जाते थे तब।।
तब बस्ते का भार न था प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
इन्टरवल में बेर शरीफा,
बगिया में शहतूत शहद से।
तिगड़ी टांग खेलते थे जब,
एक दूजे को छूते थे तब।।
सब रंग प्यारे लगते प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
पथ में गाना गाते जाते,
तब दौड़ कूद धमाल मचाते।
मिसरी कपास सा तन-मन था.
माँ के तुलसी दीप जलाते।
ऊँच नीच का भाव नही प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
गलियों में अमरुद तोड़ते,
बिछड़ों को हम पुनः जोड़ते।
मैदानों से कंकड़ चुनते,
जो पावों में कभी चुभे थे।।
पर्यावरण ध्यान बहुत प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
कच्ची माटी के कुल्लड़ थे,
सीधे सादे हम अल्लड़ थे।
दीपक-ओम अमर अन्जू थे,
कंचे सम्भू संग खेले थे।।
चलते नंगे पाँव बहुत प्रिय,
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
लट् टू तब हम रोज नचाते,
पतंगबाजी की डोर लूटते
अम्मा रोज पीटती मुझको,
देर रात को जब घर आते।।
इन्तजार अम्मा करती प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
दूर वहाँ तक पैदल जाते,
जहाँ कहीं भी फिल्म दिखाते।
हरफन मौला कब पढ़ते हैं?
अपन फ़िल्मी हीरो समझें थे ।।
कभी फेल व पास हुए प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
किराये की साइकिल ले जाते,
उसमें तीन बैठ कर जाते।
बारी-बारी उसे चलाते,
खूब किये थे सैर सपाटे।।
बचपन में आजाद बहुत प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
पेड़ पर चढ़ इमली तोड़ते,
टहनी को दातून बनाते।।
भोर भई तब साथी सारे,
लखनऊ की गलियां छाने थे..
होली सब घुल मिल खेले प्रिय
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
बिजली जब घर से जाती थी,
बाहर शोर मचाकर निकले।
बिजली जब वापस आती थी
घर में शोर मचाकर घुसते।।
लालटेन में कभी पढ़े प्रिय,
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
पानी बरसे बाहर आते,
भीग-भीगकर मौज मनाते।
गलियों सड़कों पर घूमे हम
हो-हो करके शोर मचाते।।
कागज़ के थे नाव बहुत प्रिय।
डूबने का था भाव बहुत प्रिय।।
मन जहाँ बरसात का पानी,
भेदभाव दुनिया ना जानी।
किसके घर में बनी सेवइयां
किसके घर की गुझिया रानी।।
आता था तब स्वाद बहुत प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
कहाँ-कहाँ दुनिया में खेला,
यह दुनिया रंगबिरंगा मेला।
प्रेम के धागे जोड़ सके न
साथ प्रभू तू चले अकेला।।
भारत सा न ठौर कहीं प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
जल्दी ही भारत आऊँगा,
मतभेद मिटे - लग जाऊंगा।
दलित-सवर्ण यह भेदभाव जो
हमें बाँटने की साजिस कोई?
षड्यंत्रों की बू आती है प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
पैंग मारकर संग झूले थे,
तितली सा अकुलाता मन था।।
बाल सखा का हाथ पकड़कर,अनुशासन का तब डर ना था।
कब आएंगे वैसे दिन प्रिय?
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , ओस्लो
(अब विस्तार से लिखी कविता पढ़ें, )
मिलते थे जब बाहें भरकर,
वह कितना प्यारा बचपन था।
तब मित्रों के घर आँगन में ,
जहाँ प्रेम पानी-चन्दन था।।
क्या कैसा अहसास करें प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
घर से जब पढ़ने जाते थे,
मग में खेल रचाते जाते।
तब कितने भोले-भोले से,
गेंद खेलते वापस आते।।
नया रोज उत्साह रहा प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
कागज़ के फूल बनाते थे तब,तकली से सूट कातते थे तब।
गौ का चारा पानी करने,
चार बजे उठ जाते थे तब।।
तब बस्ते का भार न था प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
इन्टरवल में बेर शरीफा,
बगिया में शहतूत शहद से।
तिगड़ी टांग खेलते थे जब,
एक दूजे को छूते थे तब।।
सब रंग प्यारे लगते प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
पथ में गाना गाते जाते,
तब दौड़ कूद धमाल मचाते।
मिसरी कपास सा तन-मन था.
माँ के तुलसी दीप जलाते।
ऊँच नीच का भाव नही प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
गलियों में अमरुद तोड़ते,
बिछड़ों को हम पुनः जोड़ते।
मैदानों से कंकड़ चुनते,
जो पावों में कभी चुभे थे।।
पर्यावरण ध्यान बहुत प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
कच्ची माटी के कुल्लड़ थे,
सीधे सादे हम अल्लड़ थे।
दीपक-ओम अमर अन्जू थे,
कंचे सम्भू संग खेले थे।।
चलते नंगे पाँव बहुत प्रिय,
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
लट् टू तब हम रोज नचाते,
पतंगबाजी की डोर लूटते
अम्मा रोज पीटती मुझको,
देर रात को जब घर आते।।
इन्तजार अम्मा करती प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
दूर वहाँ तक पैदल जाते,
जहाँ कहीं भी फिल्म दिखाते।
हरफन मौला कब पढ़ते हैं?
अपन फ़िल्मी हीरो समझें थे ।।
कभी फेल व पास हुए प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
किराये की साइकिल ले जाते,
उसमें तीन बैठ कर जाते।
बारी-बारी उसे चलाते,
खूब किये थे सैर सपाटे।।
बचपन में आजाद बहुत प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
पेड़ पर चढ़ इमली तोड़ते,
टहनी को दातून बनाते।।
भोर भई तब साथी सारे,
लखनऊ की गलियां छाने थे..
होली सब घुल मिल खेले प्रिय
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
बिजली जब घर से जाती थी,
बाहर शोर मचाकर निकले।
बिजली जब वापस आती थी
घर में शोर मचाकर घुसते।।
लालटेन में कभी पढ़े प्रिय,
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
पानी बरसे बाहर आते,
भीग-भीगकर मौज मनाते।
गलियों सड़कों पर घूमे हम
हो-हो करके शोर मचाते।।
कागज़ के थे नाव बहुत प्रिय।
डूबने का था भाव बहुत प्रिय।।
मन जहाँ बरसात का पानी,
भेदभाव दुनिया ना जानी।
किसके घर में बनी सेवइयां
किसके घर की गुझिया रानी।।
आता था तब स्वाद बहुत प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
कहाँ-कहाँ दुनिया में खेला,
यह दुनिया रंगबिरंगा मेला।
प्रेम के धागे जोड़ सके न
साथ प्रभू तू चले अकेला।।
भारत सा न ठौर कहीं प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
जल्दी ही भारत आऊँगा,
मतभेद मिटे - लग जाऊंगा।
दलित-सवर्ण यह भेदभाव जो
हमें बाँटने की साजिस कोई?
षड्यंत्रों की बू आती है प्रिय।
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।
पैंग मारकर संग झूले थे,
तितली सा अकुलाता मन था।।
बाल सखा का हाथ पकड़कर,अनुशासन का तब डर ना था।
कब आएंगे वैसे दिन प्रिय?
क्या भूलें क्या याद करें प्रिय।।
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