फेसबुक में लालित्य ललित ने आज लिखा:
"कुछ लोग विदेशों में हिंदी की सेवा के लिए बने हैं। अपने देश में उनका हाथ जरा तंग है। लेकिन पइसे वाले ही हिंदी सेवा की सेवा में तल्लीन दिख रहे, बेचारा समर्पित हिंदी सेवी का पासपोर्ट भी नहीं बना।दइया रे दइया।"
हमको देश -विदेश में सभी हिन्दी सेवियों की जरूरत है और उनका आभार कि वह हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ की सेवा कर रहे हैं.
१-मेरे विचार में हिंदी सेवा घर से शुरू होती है. कितने लोग अपने बच्चों को हिंदी माध्यम से पढ़ाते हैं.
२-भारत में बहुत से छात्र और छात्रायें अनुवाद और तुलनात्मक अध्ययन में देश-विदेश के विश्वविद्यालयों में शोध कर रहे हैं उन्हें प्रधानमंत्री कोष और अन्य कोशों से बाहर पढ़ने जाने के लिए स्टीपेन्ड (छात्रवृत्ति भी मिलती है).
३-भारतीय सांस्कृतिक विभाग भी अनेक विद्वानों को हिंदी, भारतीय भाषाएँ और द्विभाषायी सहयोग के लिए भेजता है (जैसे आई टी विभाग, भारत सरकार।).
लालित्य ललित जी शायद सही कह रहे हैं. मैं जिक्र कर रहा हूँ एक समाचार का शायद वेब दुनिया में छपा था कि ३१ मार्च को हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप को 10 हजार करोड़ में एक बड़े पूंजीपति ने खरीदा है जिन्हें पत्रकारिता की न समझ है न आदर्श पत्रकारिता स्थापित करने की हिम्मत है. जैसी कि बिरला ग्रुप को थी. मैंने देखा कि हिन्दुस्तान हिंदी अखबार ३१ मार्च के बाद अब समाचार से ज्यादा नेट पर पोस्टर नजर आता है.
आदर्श अखबार में पहले पेज पर विज्ञापन नहीं होते हैं.
काश अखबार में काम करने वाले मालिक होते
काश सहकारिता भाव से यदि वहां काम करने वाले लोग (कर्मचारी-पत्रकार और मैनेजमेंट) सहकारिता भाव से ख़रीदते तो संभव था. क्योकि इस असंस्थान से हजारों लोग जुड़े थे और विज्ञापन से आमदनी भी कई हजार करोड़ है. पर..? पैसे वाले।।।? एक अखबार के अनुसार
तो वे हजारों करोड़ उधर गारंटी लेकर खरीद सकते थे. पर ऐसा नहीं होता। पत्रकारों, लेखकों में सहकारिता का अभाव है.
"कुछ लोग विदेशों में हिंदी की सेवा के लिए बने हैं। अपने देश में उनका हाथ जरा तंग है। लेकिन पइसे वाले ही हिंदी सेवा की सेवा में तल्लीन दिख रहे, बेचारा समर्पित हिंदी सेवी का पासपोर्ट भी नहीं बना।दइया रे दइया।"
हमको देश -विदेश में सभी हिन्दी सेवियों की जरूरत है और उनका आभार कि वह हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओँ की सेवा कर रहे हैं.
१-मेरे विचार में हिंदी सेवा घर से शुरू होती है. कितने लोग अपने बच्चों को हिंदी माध्यम से पढ़ाते हैं.
२-भारत में बहुत से छात्र और छात्रायें अनुवाद और तुलनात्मक अध्ययन में देश-विदेश के विश्वविद्यालयों में शोध कर रहे हैं उन्हें प्रधानमंत्री कोष और अन्य कोशों से बाहर पढ़ने जाने के लिए स्टीपेन्ड (छात्रवृत्ति भी मिलती है).
३-भारतीय सांस्कृतिक विभाग भी अनेक विद्वानों को हिंदी, भारतीय भाषाएँ और द्विभाषायी सहयोग के लिए भेजता है (जैसे आई टी विभाग, भारत सरकार।).
लालित्य ललित जी शायद सही कह रहे हैं. मैं जिक्र कर रहा हूँ एक समाचार का शायद वेब दुनिया में छपा था कि ३१ मार्च को हिन्दुस्तान टाइम्स ग्रुप को 10 हजार करोड़ में एक बड़े पूंजीपति ने खरीदा है जिन्हें पत्रकारिता की न समझ है न आदर्श पत्रकारिता स्थापित करने की हिम्मत है. जैसी कि बिरला ग्रुप को थी. मैंने देखा कि हिन्दुस्तान हिंदी अखबार ३१ मार्च के बाद अब समाचार से ज्यादा नेट पर पोस्टर नजर आता है.
आदर्श अखबार में पहले पेज पर विज्ञापन नहीं होते हैं.
काश अखबार में काम करने वाले मालिक होते
काश सहकारिता भाव से यदि वहां काम करने वाले लोग (कर्मचारी-पत्रकार और मैनेजमेंट) सहकारिता भाव से ख़रीदते तो संभव था. क्योकि इस असंस्थान से हजारों लोग जुड़े थे और विज्ञापन से आमदनी भी कई हजार करोड़ है. पर..? पैसे वाले।।।? एक अखबार के अनुसार
तो वे हजारों करोड़ उधर गारंटी लेकर खरीद सकते थे. पर ऐसा नहीं होता। पत्रकारों, लेखकों में सहकारिता का अभाव है.
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