उत्सवो की अर्चना
सुरेशचन्द्र शुक्ल, 'शरद आलोक'
क्यों न दूँ दुआयें मैं, द्वीप का धुंआँ सही.
दूज के तिलक का मैं, स्नेह का कुआँ सही.
महल -झोपड़ी से उठा हुआ धुंवाँ सही.
विधि लिखा मिट गया, जब भाग्य लिखा आपने
जब नेतृत्व ढोलपोल है, तब बदलता भूगोल है.
आँख जब न मिला सके, तो बात गोलमोल है.
शेर की खाल में, जब दहाड़ता प्रधान है.
जन के मुख कौर छीन, तीसमारखाँ महान है?
डरूं नहीं कहूँगा सच, तुम सागर या पहाड़ हो.
गिर पड़े हैं राज-काज, जनता की दहाड़ से.
इसीलिये कोई राह में, कभी दिखा मशाल में.
प्रात हो या साँझ हो, जीवन में उबाल हो.
बदलना नियति को है, ये हौंसला चुके नहीं।
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