संस्मरण
चाहते कुछ हैं और चुनते कुछ और हैं -सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक
मेरे लखनऊ निवास 8 -मोतीझील ऐशबाग रोड लखनऊ पर केशरी नाथ त्रिपाठी मेहमान बने थे
दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो बनना कुछ चाहते हैं और बन कुछ और जाते हैं. ऐसे उदाहरणों के किस्से कहानियां भरी पड़ी हैं.
जो आदमीं अपनी मर्जी के अनुसार अपने कार्य को नहीं चुन पाता अनेक बार वह चुनाव करने में सक्षम नहीं होता। जब मैं छोटा बालक था तब मैं कलाकार बनना चाहता था. कई बार परिस्थितियों के कारण आदमी अपने अनचाहे प्रोफेशन और नौकरी को स्वीकार करता है.
प्रायः व्यक्ति नौकरी में ऐसा कई बार करता है. मेरी एक कविता की पंक्तियाँ हैं,
"चुनते समय हम चुनते हैं नापसंद चीजें।'
जब चाहा तब दुत्कार दिया।
बस ठुकराया या प्यार किया।
कहाँ खो गयी संस्कृति मेरी
जब चाहा अंगीकार किया।
,
राहों में कितने हों काँटे,
पांवों में पथ के छाले हैं.
सबकी अपनी सुख-पीड़ा है,
पर राही हम मतवाले हैं.
हम सरल शांत मन भावन हैं,
हम सबके अपने पाले हैं
मग कटु-कठोर झंझावात है.
अपने सांचे में ढाले हैं..
बचपन में सामजिक शिक्षा की नींव पड़ी
जैसा कि मैंने पहले कहा है कि जब मैं छोटा बालक था तब मैं कलाकार बनना चाहता था. एक दूसरे की नक़ल कर लेता था उसी को मैं कला समझने लगा था. किसी प्रकार का प्रोत्साहन और नेतृत्व तो मिला नहीं। बस जहाँ अवसर मिलता उस गतिविधि में सम्मिलित होता रहता। मेरे मोहल्ले में श्रमिक हितकारी केंद्र था जो सांस्कृतिक और सामजिक गतिविधियों का केंद्र था जिससे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
यहाँ समय-समय पर समाज शास्त्र के उच्च शिक्षा के विद्यार्थी आते और अवकाश के समय हम लोगों को घरों से बुलाकर एकत्र करते।
वे लोग हमसे कभी कविता -कहानी सुनते तो कभी वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन होता। यहाँ से थोड़ा सामूहिक मिलना -जुलना शुरू हुआ. संगठित तरीके से समूह में रहकर तौर-तरीके सीखे। जैसे वाद विवाद में कौन सा अनुशासन या इसकी क्या संस्कृति है. स्काउट और गाइड के बनने के लिया हम एकत्र होते। श्रमिक केंद्र से हमको कमीज और हाफ पेंट मिलती। हम पी टी, व्यायाम करते। मार्चपास्ट करते। टीम बनाकर खेलते। यह कोई तब का समय है जब मेरी आयु नौ दस बरस की होगी।
हमलोग उस समय लखनऊ के स्टेडियम में बाल-युवा समारोह में ले जाए जाते, कभी फिल्म देखने मोती नगर ले जाए जाते तो कभी चिड़ियाघर। इसी आयु में बहुत से झूले साथ झूलने वाले मित्र, गेंद खेलने वाले मित्र थे.
नौकरी और पढ़ाई साथ-साथ
सन १९७० की बात है मेरे बड़े भाई घर छोड़कर दुनिया की यात्रा पर निकल पड़े. मेरे बीच वाले भाई
पी ए सी (पुलिस) में भर्ती हो गये और प्रशिक्षण के लिए घर से चले गये. मैं घर में अकेले हो गया. मेरे माता-पिता मेरे साथ रहते थे. इससे मेरी पढ़ाई पर असर पड़ा. जो सबकुछ संयमित चल रहा था अब उसमें बदलाव आ गया. घूमने में अधिक मन लगने लगा. अतः पढ़ाई पर ध्यान न दे सका और हाई स्कूल में फेल हो गया और पिताजी ने रेलवे में नौकरी लगवा दी. पिताजी भी आलमबाग लखनऊ में स्थित सवारी और मालडिब्बा कारखाना में कार्यरत थे. मेरे बाबा भी इस कारखाने में काम करके सन १९६३ में अवकाश प्राप्त कर चुके थे और सुल्तानपुर जाकर बस गये थे.
अब क्या था नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई जारी रखी. रस्तोगी कालेज ऐशबाग से सन 1972 में हाईस्कूल, 1975 में डी ए वी कालेज लखनऊ से इंटरमीडिएट पास किया।
फीस न होने के कारण फिल्म इंस्टीट्यूट में प्रवेश न हो सका
तभी अखबार में सूचना आयी कि लखनऊ में फिल्म और टेलीविजन इंस्ट्टीट्यूट बन रहा है जिसमें कोई भी ऐक्टिंग, फोटोग्राफी, गायन आदि सीख सकता है. मैंने फ़ार्म भरा. ग्लैमर स्टूडियो से पोस्टकार्ड आकार के चित्र खिंचाये और वहां कार्यालय गया. वहां पता चला इसके लिए दो हजार रूपये फीस देनी पड़ेगी और नौकरी छोड़नी पड़ेगी। मेरे पास फिल्म इंस्ट्टयूट में फीस में देने के लिए दो हजार रूपये नहीं थे. अतः चाहकर भी प्रवेश न ले सका था.
फिल्म में कार्य करने का आंशिक सपना 1985 में पूरा हुआ
पर मेरा फिल्म में कार्य करने का आंशिक सपना 1985 में पूरा हुआ जब मैं ओस्लो नार्वे में पत्रकारिता की शिक्षा प्राप्त कर रहा था और गर्मी की छुट्टियों में दिल्ली में हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं साप्ताहिक हिंदुस्तान और कादम्बिनी में तीन महीने पत्रकारिता का कार्य किया। उस समय संपादक राजेंद्र अवस्थी जी की कथा पर दिल्ली दूरदर्शन एक फिल्म बना रही थी जिसका नाम था 'आठवाँ चाचा'. इस फिल्म में मुझे एक खलनायक का अभिनय करने का मौका मिला। बहुत अच्छा अनुभव रहा.
बी एस एन वी डिग्री कालेज लखनऊ से बी ए किया।
26 जनवरी 1980 को ओस्लो नार्वे पहुंचा
गवर्नर से बचपन में न मिल सके वह मेरे घर ओस्लो मिलने आये
सत्य नारायण रेड्डी जी एक बार एक कार्यक्रम में मेरे मोहल्ले पुरानी श्रमिक बस्ती में आये थे तब वह उत्तर प्रदेश के गवर्नर थे. उस समय उनसे मिलने की ईच्छा थी पर नहीं मिल सके थे. मेरा उनसे कभी पूर्व परिचय नहीं था. पर पूर्व केंद्रीय मंत्री भीष्म नारायण सिंह और दूसरे दिल्ली में रह रहे लेखक मित्रों से सुनकर मेरे पास ओस्लो में मेरे निवास पर आये. तब मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह मुझे लेकर १५ अगस्त को भारतीय दूतावास गये उस समय हमारे राजदूत निरुपम सेन जी थे. वह मेरे साथ दूकान इन सामन खरीदवाने गए और उन्होंने खुद पैसे दिए उस सामान के जो मैंने अपने घर के लिए खरीदा था.
बाद में दिल्ली में वह दो-तीन बार मिले थे. है न बड़ी खुसी और आश्चर्य की बात कि जिनसे बचपन में मिलना छह उनसे नहीं मिल सका और वह मुझसे मिलने मेरे घर आये. क्या यह ईश्वर की कृपा थी.
शेष पढिये दूसरे दिन इसी पेज पर. धन्यवाद।
चाहते कुछ हैं और चुनते कुछ और हैं -सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक
मेरे लखनऊ निवास 8 -मोतीझील ऐशबाग रोड लखनऊ पर केशरी नाथ त्रिपाठी मेहमान बने थे
दुनिया में बहुत से लोग ऐसे हैं जो बनना कुछ चाहते हैं और बन कुछ और जाते हैं. ऐसे उदाहरणों के किस्से कहानियां भरी पड़ी हैं.
जो आदमीं अपनी मर्जी के अनुसार अपने कार्य को नहीं चुन पाता अनेक बार वह चुनाव करने में सक्षम नहीं होता। जब मैं छोटा बालक था तब मैं कलाकार बनना चाहता था. कई बार परिस्थितियों के कारण आदमी अपने अनचाहे प्रोफेशन और नौकरी को स्वीकार करता है.
प्रायः व्यक्ति नौकरी में ऐसा कई बार करता है. मेरी एक कविता की पंक्तियाँ हैं,
"चुनते समय हम चुनते हैं नापसंद चीजें।'
जब चाहा तब दुत्कार दिया।
बस ठुकराया या प्यार किया।
कहाँ खो गयी संस्कृति मेरी
जब चाहा अंगीकार किया।
,
राहों में कितने हों काँटे,
पांवों में पथ के छाले हैं.
सबकी अपनी सुख-पीड़ा है,
पर राही हम मतवाले हैं.
हम सरल शांत मन भावन हैं,
हम सबके अपने पाले हैं
मग कटु-कठोर झंझावात है.
अपने सांचे में ढाले हैं..
बचपन में सामजिक शिक्षा की नींव पड़ी
जैसा कि मैंने पहले कहा है कि जब मैं छोटा बालक था तब मैं कलाकार बनना चाहता था. एक दूसरे की नक़ल कर लेता था उसी को मैं कला समझने लगा था. किसी प्रकार का प्रोत्साहन और नेतृत्व तो मिला नहीं। बस जहाँ अवसर मिलता उस गतिविधि में सम्मिलित होता रहता। मेरे मोहल्ले में श्रमिक हितकारी केंद्र था जो सांस्कृतिक और सामजिक गतिविधियों का केंद्र था जिससे मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला।
यहाँ समय-समय पर समाज शास्त्र के उच्च शिक्षा के विद्यार्थी आते और अवकाश के समय हम लोगों को घरों से बुलाकर एकत्र करते।
वे लोग हमसे कभी कविता -कहानी सुनते तो कभी वाद-विवाद प्रतियोगिता का आयोजन होता। यहाँ से थोड़ा सामूहिक मिलना -जुलना शुरू हुआ. संगठित तरीके से समूह में रहकर तौर-तरीके सीखे। जैसे वाद विवाद में कौन सा अनुशासन या इसकी क्या संस्कृति है. स्काउट और गाइड के बनने के लिया हम एकत्र होते। श्रमिक केंद्र से हमको कमीज और हाफ पेंट मिलती। हम पी टी, व्यायाम करते। मार्चपास्ट करते। टीम बनाकर खेलते। यह कोई तब का समय है जब मेरी आयु नौ दस बरस की होगी।
हमलोग उस समय लखनऊ के स्टेडियम में बाल-युवा समारोह में ले जाए जाते, कभी फिल्म देखने मोती नगर ले जाए जाते तो कभी चिड़ियाघर। इसी आयु में बहुत से झूले साथ झूलने वाले मित्र, गेंद खेलने वाले मित्र थे.
नौकरी और पढ़ाई साथ-साथ
सन १९७० की बात है मेरे बड़े भाई घर छोड़कर दुनिया की यात्रा पर निकल पड़े. मेरे बीच वाले भाई
पी ए सी (पुलिस) में भर्ती हो गये और प्रशिक्षण के लिए घर से चले गये. मैं घर में अकेले हो गया. मेरे माता-पिता मेरे साथ रहते थे. इससे मेरी पढ़ाई पर असर पड़ा. जो सबकुछ संयमित चल रहा था अब उसमें बदलाव आ गया. घूमने में अधिक मन लगने लगा. अतः पढ़ाई पर ध्यान न दे सका और हाई स्कूल में फेल हो गया और पिताजी ने रेलवे में नौकरी लगवा दी. पिताजी भी आलमबाग लखनऊ में स्थित सवारी और मालडिब्बा कारखाना में कार्यरत थे. मेरे बाबा भी इस कारखाने में काम करके सन १९६३ में अवकाश प्राप्त कर चुके थे और सुल्तानपुर जाकर बस गये थे.
अब क्या था नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई जारी रखी. रस्तोगी कालेज ऐशबाग से सन 1972 में हाईस्कूल, 1975 में डी ए वी कालेज लखनऊ से इंटरमीडिएट पास किया।
फीस न होने के कारण फिल्म इंस्टीट्यूट में प्रवेश न हो सका
तभी अखबार में सूचना आयी कि लखनऊ में फिल्म और टेलीविजन इंस्ट्टीट्यूट बन रहा है जिसमें कोई भी ऐक्टिंग, फोटोग्राफी, गायन आदि सीख सकता है. मैंने फ़ार्म भरा. ग्लैमर स्टूडियो से पोस्टकार्ड आकार के चित्र खिंचाये और वहां कार्यालय गया. वहां पता चला इसके लिए दो हजार रूपये फीस देनी पड़ेगी और नौकरी छोड़नी पड़ेगी। मेरे पास फिल्म इंस्ट्टयूट में फीस में देने के लिए दो हजार रूपये नहीं थे. अतः चाहकर भी प्रवेश न ले सका था.
फिल्म में कार्य करने का आंशिक सपना 1985 में पूरा हुआ
पर मेरा फिल्म में कार्य करने का आंशिक सपना 1985 में पूरा हुआ जब मैं ओस्लो नार्वे में पत्रकारिता की शिक्षा प्राप्त कर रहा था और गर्मी की छुट्टियों में दिल्ली में हिंदी की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं साप्ताहिक हिंदुस्तान और कादम्बिनी में तीन महीने पत्रकारिता का कार्य किया। उस समय संपादक राजेंद्र अवस्थी जी की कथा पर दिल्ली दूरदर्शन एक फिल्म बना रही थी जिसका नाम था 'आठवाँ चाचा'. इस फिल्म में मुझे एक खलनायक का अभिनय करने का मौका मिला। बहुत अच्छा अनुभव रहा.
बी एस एन वी डिग्री कालेज लखनऊ से बी ए किया।
26 जनवरी 1980 को ओस्लो नार्वे पहुंचा
गवर्नर से बचपन में न मिल सके वह मेरे घर ओस्लो मिलने आये
सत्य नारायण रेड्डी जी एक बार एक कार्यक्रम में मेरे मोहल्ले पुरानी श्रमिक बस्ती में आये थे तब वह उत्तर प्रदेश के गवर्नर थे. उस समय उनसे मिलने की ईच्छा थी पर नहीं मिल सके थे. मेरा उनसे कभी पूर्व परिचय नहीं था. पर पूर्व केंद्रीय मंत्री भीष्म नारायण सिंह और दूसरे दिल्ली में रह रहे लेखक मित्रों से सुनकर मेरे पास ओस्लो में मेरे निवास पर आये. तब मेरी खुशी का ठिकाना नहीं रहा. वह मुझे लेकर १५ अगस्त को भारतीय दूतावास गये उस समय हमारे राजदूत निरुपम सेन जी थे. वह मेरे साथ दूकान इन सामन खरीदवाने गए और उन्होंने खुद पैसे दिए उस सामान के जो मैंने अपने घर के लिए खरीदा था.
बाद में दिल्ली में वह दो-तीन बार मिले थे. है न बड़ी खुसी और आश्चर्य की बात कि जिनसे बचपन में मिलना छह उनसे नहीं मिल सका और वह मुझसे मिलने मेरे घर आये. क्या यह ईश्वर की कृपा थी.
शेष पढिये दूसरे दिन इसी पेज पर. धन्यवाद।
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