शनिवार, 24 दिसंबर 2016

पांचवा खंभा अच्छा और आकर्षक शीर्षक लगता है-सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

 साहित्य का पांचवां खम्भा न्यायालय और संसदों के बाहर संघर्ष रत लोग हैं


सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' 

दलित साहित्य को लेकर हमारे डॉ काली चरण स्नेही जी अपने प्रायास को अपने छात्रों पर रौब से प्रजातंत्र का पांचवा खंभा कह रहे हैं. 
असल में जो रक्षा करता है, संघर्ष करता है न्याय दिलाने के लिए वह प्रजातंत्र का खम्भा कहलायेगा। पीड़ित व्यक्ति और सताये हुए व्यक्ति से पूछकर देखिये उसे किसका साथ चाहिए उसे न्याय चाहिए कविता या कहानी नहीं चाहिए।  ये बाद की चीजें हैं.
प्रजातंत्र में किसी कभी साथ आप भेदभाव करके गालियां देकर कार्य नहीं कर सकते। 
अधिकतर भारतीय राजनैतिक पार्टियां अपने सिद्धांतों पर नहीं चलतीं क्योकि कार्यकर्ताओं को आदरणीय स्नेही जी की तरह नहीं मालुम कि राजनीति समस्या को सुलझाने का तरीका है उसमें भी बहुमत और जो संसद में नहीं है उसके  संवाद के जरिये समन्वय की जरूरत होती है तभी कानून बनते हैं.
लिंकन, गांधी जी, मार्टिन लूथर किंग को देखिये। तमाम उदाहरण हैं.

कई साहित्यकारों ने अनेक बार ध्यानाकर्षण के लिए अनेक विधाएं चलायीं। जैसे लखनऊ में ही अकविता, अगेय, अकहानी आदि उसी तरह आपका पाँचवाँ खंभा। पांचवा खंभा अच्छा और आकर्षक शीर्षक लगता है.

लोकतंत्र का पांचवां खम्भा नहीं लाखवां खंभा कहा जा सकता है बहुत से लोगों अनेक बार अपनी विधा को पांचवा खम्भा कहा है. आपको इस तरह के पत्रिकाओं के शीर्षक मिलेंगे जो इस तरफ इशारा करते हैं.

लोकतंत्र की रक्षा के लिए मानवाधिकार के  लिए लगे लोगों में बहुत से सामाजिक कार्यकर्ता, न्याय दिलाने के लिए दिन रात- सर्वस्व निछावर करके देश में अन्याय और जुल्म के खिलाफ लड़ते हुए न्याय दिला रहे हैं. सड़कों, न्यायालयों, खेत खलियानों में लगे हैं. वे असली खम्भे हैं समाज के. हम आप कूलर में बैठकर छाया में जिंदगी बिता रहे हैं. 

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