शनिवार, 3 दिसंबर 2016

प्रेम पथिक हूँ, दीपक रोज जलाता हूँ। -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' Suresh Chandra Shukla

प्रेम पथिक हूँ, दीपक रोज जलाता हूँ। 
-सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' 

आज तुम्हारे आगे शीश नवाता हूँ,
संस्कार से शील विनय दोहराता हूँ।
जब तक मिलता है  सादर प्रेम तुम्हारा,
प्रेम पथिक हूँ, दीपक रोज जलाता हूँ।

ऐशबाग की गलिया मुझे याद करेंगी,
रामलीला ईदगाह के मध्य न दूरी। ।
दोनो द्वारों पर मेले आ सजते हैं,
हूँ प्रेम  पुजारी पूजा है  मजबूरी। ।

श्रमिक बस्ती की माधुरी और सुंदरता,
राजेंद्र- राम नगर, मवैया आँगन है।
ये प्रेम मिलन हो या सामाजिक सेवा,
ये चारबाग नाका  मेरा प्रांगण है। ।

कितनी  दुलार भरा  लखनऊ नगर है,
दुर्गा भाभी-प्रकाशवती ने अपनाया।
जिसको  भी हवा यहाँ लग जाती,
उसने दूर बैठ भी उसके गुण गाया॥

जीर्ण शीर्ण से कभी न मैंने भेद किया,
जो प्रेम  भिखारी  उसको  गले लगाया।
भूख प्यास से बढ़कर  प्रेम हमारा,
क्या वही अतिथि है जो गाड़ी से आया?





कोई टिप्पणी नहीं: