मंगलवार, 21 फ़रवरी 2017

विदेशों में हिन्दी का विस्तार - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' Hindi - Suresh Chandra Shukla


विदेशों में हिन्दी का विस्तार 
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' 


नये आयामों से हिन्दी का संवाद बढ़ा 
हिन्दी विश्व की तीसरी सबसे बड़ी भाषा है.  कुछ वर्षों से विदेशों में और भारत में कंप्यूटर, इंटरनेट-पत्र, फेसबुक, ट्वीटर, ब्लॉग और यूट्यूब, मोबाइल फोन आदि पर लिपि के रूप में भी संवाद की भाषा तेजी से बनती जा रही है. 
इसमें विदेश में रहने वाले हिन्दी विद्वानों, हिन्दी सेवियों और हिन्दी प्रेमियों का बहुत बड़ा योगदान है जिन्होंने हिन्दी को विस्तार देने में अपने निजी समय का बहुत बड़ा हिस्सा दिया है.
मैंने नार्वे में नौवें दशक के पहले देखा कि विदेश में रहने वाले भारतीयों और  भारतीय मूल के लोगों ने अपने बच्चों को हिन्दी घर में और सामान रूचि वालों के साथ मिलकर पार्ट टाइम तथा साप्ताहिक स्कूल खोलकर पढ़ना शुरू किया  जिससे विदेशों में अधिक संख्या में हिन्दी पढ़ने और लिखने वाले युवाओं की संख्या बड़ी है. 

हिन्दी की पुस्तकों की बिक्री बढ़ी  
विदेशों में हिन्दी की पुस्तकों का प्रकाशन बढ़ा है और प्रकाशक को भी लाभ होता है क्योंकि विदेशों में प्रकाशक लेखक को भी लाभ का हिस्सा देते हैं. इन प्रकाशकों में शिक्षा संस्थानों और निजी प्रकाशकों का बोलबाला है. 
हिन्दी की नौकरियाँ बढ़ने की सम्भावना 
मैंने दो यूरोपीय सम्मेलनों और यूरोपीय विष्वविद्यालयों द्वारा आयोजित हिन्दी सेमिनारों में भाग लिया और देखा और सुना है जैसे यू के में माता -पिता का अपने बच्चों को हिन्दी सिखाना और उन्हें हिन्दी की परीक्षा न दिलाने से वहां स्कूलों और कालेजों में हिन्दी में परीक्षा देने वाले परीक्षार्थियों की संख्या तेजी से घटी थी और अनेक शिक्षा संस्थानों में अध्यापकों की नौकरियाँ जाती रही थीं. 
यदि यू के और अन्य यूरोपीय देशों में माता-पिता, अविभावक और हिन्दी प्रेमी और सेवी चाहें तो दोबारा अपने बच्चों और बच्चों के बच्चों को घर पर हिन्दी पढ़ायें या कुछ माता-पिता मिलकर हिन्दी की कक्षायें लगायें और स्कूल चलायें और सार्वजनिक स्थानों पर हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओँ को पढ़ना शुरू करें और आप देखेंगे कि हमारे बच्चे अपनी भाषा हिन्दी में दोबारा परीक्षा देना  पसंद करेंगे।  हालांकि हिन्दी की शिक्षा देने का कार्य निजी तौर पर और भारतीय संस्थाओं और धार्मिक स्थलों द्वारा भी समय-समय पर किया जाता है पर यह पर्याप्त नहीं है.
इसके बारे में  निर्देशन करने वाले विद्वानों की संख्या की कमी नहीं है. यदि ऐसा हुआ तो यू के विश्व विद्यालयों में भी हिन्दी और भारतीय भाषाओं को पढ़ने वालों की संख्या बढ़ेगी और अध्यापकों को नौकरियां भी मिलेंगी।
नागरी लिपि का विस्तार 
विदेशों में नागरी लिपि का प्रसार और प्रचार ही नहीं बढ़ा बल्कि पिछले दो देशों में नागरी का प्रयोग हर स्टार पर बढ़ा है. बच्चों में रूचि भी बड़ी है पर माता-पिता का सहयोग उन्हें उचित मात्रा में नहीं मिल रहा है.
आचार्य विनोबा भावे ने कहा था, 
"भारत की एकता के लिए आवश्यक है कि देश की सभी भाषायें नागरी लिपि अपनायें।"  मेरा कहना है,
"विदेशों में हम संवाद के लिए जहाँ तक संभव हो हम अधिक से अधिक नागरी लिपि अपनायें। इससे हमारा नयी पीढ़ी और पुरानी  पीढ़ी के साथ सेतु का कार्य होगा और छूटा और टूटा हुआ संवाद फिर से जुड़ेगा।" 
विदेशों में बच्चों के बड़े होने पर माता - पिता को अक्सर शिकायत रहती है कि बच्चे उनके साथसंवाद काम रखते हैं और यहाँ की मूल भाषा जैसे  अंगरेजी, नार्वे में नार्वेजीय स्पेन और लेतीं अमरीकी देशों में स्पेनीय भाषा बोलते हैं और वैसी ही संस्कृति सा व्यवहार करते हैं. 
भारत के प्रति सम्मान  का पाठ जरूरी 
माता-पिता और बच्चों के मध्य संवाद की कमी को पूरा करने के लिए अपने बच्चों को भारत के प्रति प्रेम सिखाएं यह कहकर यह भारत तुम्हारे पूर्वजों का देश है. बच्चों को बतायें कि भारत तुम्हारा तीर्थस्थल है. हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषायें  हमारी संस्कृति की अनबोल कड़ी है. 
कुछ भी हो उन्हें भारत के विरोधी प्रचार को हवा न लगने दें. कई धर्म प्रचारक धार्मिक स्थलों पर अल्प राजनैतिक ज्ञान रखने  बावजूद राजनीति के अनाब-सनाब भाषण देकर पैसे बटोरते हैं और भड़काते हैं. जब हमारे बच्चे देखते हैं कि मेरे माता -पिता कभी कोई कुछ कहते  कुछ और उन्हें जिस भी देश में रहते हैं उनके मीडिया से समाज की सूचनाओं से माता -पिता और धार्मिक नेताओं को अल्पज्ञान वाले राजनैतिक अतार्किक भाषण  को सुनकर वह प्रायः माता -पिता से बहस नहीं करते पर जब बड़े होते हैं तो अपने धार्मिक स्थलों पर  कम जाते हैं और यदि जाते भी हैं तो माता -पिता और अविभावकों  से व्यस्त होने का बहाना कर संवाद कम कर देते हैं. मैं नार्वे में मंदिर-गुरुद्वारों, मस्जिदों  और चर्चों में बहुत गया हूँ और जाया करता हूँ, जहाँ हमारी भाषा में पूजा अर्चना होती है. और स्वयं अनुभव करता रहता हूँ. 
भारतीयों को सभी प्रदेशों के लोगों की और उनकी भाषा की  इज्जत करना चाहिये और यह बहुत जरूरी है.
हम जब दूसरों की इज्जत करेंगे तो हमको भी इज्जत मिलेगी और हम लोगों में एकता रहेगी।

भाषा और संस्कृति हेतु मानवतावादी दृष्टिकोण
हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति और मूल्यों की शिक्षा मानवतावादी दृष्टिकोण से दें और माता-पिता भी वैसा ही आचरण करें जैसा कि उन्हें सिखाना चाहते हैं और उनसे आशा करते हैं. 
पूजा पाठ के लिए यदि बच्चों को अपने मन्त्र, प्रार्थनायें संस्कृत, देवनागरी, गुरुमुखी में सीखें और करें पर कट्टरता नहीं सिखायें। भारत और उसकी मान्याताओं को  मानवतावादी दृष्टिकोण से सिखायें। भारत के बारे में उन्हें इससे प्यार करना सिखायें और भारत को तीर्थस्थालों वाला देश कहकर सिखायें तो बच्चे उस पर विश्वास  करेंगे और सीखेंगे भी उसका प्रयोग भी करेंगे। 

हिन्दी सीखे बिना भारतीयों तक नहीं पहुंचा जा सकता 
हिन्दी के जर्मन विद्वान लोठार लुत्से ने कहा था, " हिन्दी सीखे बिना भारतीयों के दिलों तक नहीं पहुंचा जा सकता।"
हिन्दी भारत में अधिकाँश लोगों द्वारा सर्वमान्य भाषा है. हिन्दी फिल्मों ने भी हिन्दी क ओ लोकप्रिय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. विश्व में आप कहन भी जायें चाहे मध्य एशिया हो, अफ्रीका महाद्वीप का कोई देश ओ आपको हिन्दी फिल्मों के गीत गुनगुनाने वाले लोग मिल जायेंगे।

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