गुरुवार, 22 जनवरी 2009

लखनऊ की चाशनी कहाँ गयी? - शरद आलोक

लखनऊ की चाशनी कहाँ गयी? - शरद आलोक
लखनऊ का पान,
वह सुहूर, प्रेम पकवान
जहाँ बेला, चमेली, सितारा और चाँदनी
बन जाती हैं जान।
पुरानी बस्तियों की हवा सुहानी है,
नई बस्तियों में हवा बहानी है
जीवन में प्रेम न किया
यह कैसी नादानी है?
प्रेम स्पर्श ही नही,
प्रेम पीर ही सही,
प्रेम मरकर लोग करते हैं
वही प्रेम के पुजारी हैं
जो जीकर भी प्रेम करते हैं,
प्रेम देना है, लेना है ही नहीं,
यही तो लखनऊ की कहानी है।

कितने साल है पुराना है यह आकर्षण
हर कोई खिंचा चला आता है।

समय मिले पूछना स्वयं से
ह्रदय में कौन छिपा चाँद सा नगीना,
छुपाते क्यों हो मुझसे सावन का महीना
दोनों भीगे थे, बरसे थे बादल
चुरा लिया होगा नयनों से सुरमा
यह हीरा है मोती सा नग
लखनऊ तुम धरती का ध्रुवतारा हो
नमस्ते लखनऊ तुम्हें,
नमन करता हूँ, शीश झुकाता हूँ
विश्वास नहीं होगा तुमको
देश - विदेश कहीं भी रहूँ
खून से गहरा नाता तुमसे।
तेरे प्रेम में की चर्चा करूं तो कैसे
हर रोज तेरी गलियों में लौट आता हूँ।
मैंने शिक्षा दी है यहाँ अमीरन और तुलसी को
पाँव धोये हैं सड़क पर घूमते बच्चों के
कायल हूँ उन लाखों सुंदर अँगुलियों का
टांकें हैं सितारे चुनरियों पर
चिकन के सितारें हैं, कला के गौरव
संवारे हैं अनगिनत जोड़े जिसने
कौडियों के भावः किया काम हमनें
व्यापारियों का दिल कभी पसीजेगा
लखनऊ की कला का कोई वारिस होगा।
इस बार बारिश में नहीं भीगे हम
अपनों ने न जाने क्या जादू किया
दूसरों ने भी बाहों में नहीं भरा मुझको?

वह प्रीत की परी, वह सोंन मछली
गले में अटका है न जाने वह क्या है?
जिन्दगी दो कदम आगे ही सही
नई परियों से महके आँगन तेरे
लखनऊ की चाशनी कहाँ गयी?

ओस्लो, २२.०१.०९





kitne साल पुराना, फ़िर भी तरोताजा
हर गली में एक कविता और कवि
भोर होते ही गोमती सरिता में मुख धोता है रवि

बुधवार, 21 जनवरी 2009

अमृतसर से वापसी-शरद आलोक

अमृतसर से वापसी-शरद आलोक
४५ वर्षों बाद अमृतसर नगर की यात्रा ने मेरे मन में अनेक प्रश्नों ने जन्म लिया। अमृतसर
को किस नाम से पुकारूँ ? इसमें भी अनेकों दृष्टिकोण उभर के सामने आए। आइये अपनी आपबीती आपतक पहुंचाने का प्रयास करता हूँ।
अमृतसर का स्मरण करते ही सभी के मन में एक बात पहले सामने आएगी वह है ऐतिहासिक परिपेक्ष। दूसरा धार्मिक महत्व। दोनो ही इस स्नेहनगरी को विशेष बना दोते हैं। वैसे तो आपकी दृष्टि भी बहुत है इसको दोखने की, इसमें अपने रंग भरने की या इसके रंग में डूब जाने की। जैसी दृष्टि वैसी सोंच।
दिवाकर जी के साथ रेल में यात्रा का अपना अनुभव रहा। हम दोनों दो विचारधाराओं के दो व्यक्तित्व थे जो अपनी दृष्टि से सब कुछ देख रहे थे। सबका अपना सच है। सबके अपने-अपने आईने हैं। कोई परम्परा के चश्मे देखते हैं? सभी ठीक है अपनी-अपनी परिधि में।
व्यास नगर और नदी गुजर चुकी थी। व्यास नदी ने न जाने कितनी तलवारें धोई होंगी। कितनी ही चुनरिया यहाँ लहराई होंगी। कितनों ने साथ-साथ रहने कि क़समें खाई होंगी।
रेल में एक व्यक्ति मिले। उन्होंने बताया कि बहुत से प्रवासी युवकों ने यहाँ पंजाब में युवतियों से ब्याह रचाया पर अपनी ब्याहता को लेने नहीं आए। रेल में तरह- तरह कि बातों में यात्रा का पता नहीं चला।
रात ग्यारह बजे रेल अमृतसर के रेलवे स्टेशन पर रुकी।
-लो हर महेंद्र का अमृतसर आ गया।
-हाँ, देखिये जरूर वेदी जी आए होंगे। मैं कुछ ही पलों में मानो तीन-चार दशक पीछे लौट गया।
बहुतों ने यहाँ बहुत से लोगों को विदा किया होगा। क्या सभी लौट कर आए। कुछ को बहुत देर हो गयी।
मुझे भी तो चार दशक लग गए। सम्भव है कि कुछ लोग अभी भी प्रतीक्षा कर रहे हों।
अमृतसर के आते ही पता नहीं क्यों अमृता प्रीतम क्यों याद आ गयीं जिनके साथ मैंने ओस्लो नार्वे में तीन दिन बिताये थे एक अन्तराष्ट्रीय कविता महोत्सव में। अमृता प्रीतम के साथ तीन दिनों तक साथ-साथ कविता पढ़ी थी एक ही मंच पर। अहमद फराज भी उस कार्यक्रम में भाग लेने आए थे जो धुम्रपान निषेध होने पर भी स्वरस्वती वंदना के समय सिगरेट पर सिगरेट पिए जा रहे थे जिनका व्यक्तित्व मुझे अजीब और बोकस सा लगा था।
उनकी बातचीत में पंजाब और अमृतसर का वर्णन आया था। मैंने उनसे कुछ सवाल पूछे। कुछ के जवाब मिले और कुछ बिना जवाब ही रह गए। वह गुमसुम सी थी। मानो कह रहीं थी कि अमृतसर को जानना है तो वहा जाओ। पंजाब के नगर और गावं से तुम भी पूछो। पंजाब बताने कि नहीं महसूस करने की जगह है। अमृतसर हो या जालंधर या फ़िर वह भूला -बिसरा व्यास।
मेरे मन से कुछ पंक्तियाँ निकली और कविता का रूप ले बैठीं
" अमृतसर की भोर शेफाली,
उत्सव से उल्लास नगर में
मधुर हवा संगीत सुनाये
कोयल डाली-डाली।
हर गली यहाँ कथा कहती है
होली और दीवाली,
युवा यहाँ खुशी मनाते
राजा बने सवाली।
लोरी और वैसाखी धरती
खेत बने दुल्हन से
मक्के और साग सरसों का
मौसम के रंग बरसें.
ऊँचे मार्ग सेतु नीचे
रातोरात बन रही मस्जिद
शासन आंकें मूंदे।
ये कैसी उन्नति है बाबू !
अमृतसर है, इसे बचाओ
बहुत हो चुके दंगे
जात-पात का भेद भुलाओ
इस धरती को गले लगाओ,
बहुत हो चुके नंगे।

हरमंदिर की शान यहाँ
जीवन में है शान्ति यहाँ,
गुरुओं का आशीष मिलेगा
सेवा व बलिदान जहाँ ।
सीमाओं का अंत नहीं
जलियावाला बाग़ यहाँ
नहीं व्यर्थ जाने देंगे
अपने पूर्वजों का ज्ञान यहाँ।
स्वर्ण मन्दिर में अनेकों जगह यह विचार कर माथा टेक रहा था क्या पता उस जगह महात्माओं के चरण पड़े हों।
जब हर मन्दिर साहेब के दरबार यानि स्वर्ण मन्दिर में मुझे सरोपा भेट में मिला तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा।
ओस्लो में स्थित अपना गुरुद्वारा स्मरण हो आया जहाँ अक्सर जाता रहता हूँ जो मेरा केन्द्र है। वेदी जी और गुरु महाराज को धन्यवाद दिया।

ओबामा एक आन्दोलन का नाम है
आज सभी ओबामा की बात करते हैं परन्तु उनकी तरह अपनी सोच को संवर्द्धित नहीं करते। अपना मन खुला और विचारों में व्यापकता और खुलापन rअखन जरूरी है। ओबामा किसी धर्म और रंग का नाम नहीं है। यह बदलाव और नयी सोच का नाम है।
तरक्की करना है तो प्रयास करना होगा। भगवान् का नाम लेकर नासमझी करते रहने से कभी भी तरक्की नहीं कर सकते। यूरोपीय देशों में लोगों ने अपनी आबादी उतनी ही बड़ाई जितनी माता -पिता आसानी से पालन-पोषण कर सकें। इमानदारी, स्वतंत्रता, मानवता आदि से तरक्की की और औरों को करने दे रहे हैं। और हम कितने हैं बुद्धिमान हथियारों से करते हैं शान्ति की कामना। भारत में मैंने देखा की कुछ लोग mehnat से jyada अपने भाई-bahno और sambandhiyon की jaayjaad harapne में jyada समय kharch करते है। कुछ प्रेम में धोखा दे रहे हैं तो बहुत से लोग dahej में अपने को खरीद और बेच रहे है।
aaiye हम अपना इतिहास ख़ुद बनायें ।
हाथ में हाथ रखकर अभी कुछ होना नहीं
katna क्यों chahte हो nai फसल जब तुम्हें bonaनहीं।
ओस्लो, २१.०१.०९




? लिए बहुत सी

रविवार, 4 जनवरी 2009

नव वर्ष का स्वागत कैसे?

नव वर्ष का स्वागत कैसे? -शरद आलोक
नव वर्ष का स्वागत कैसे करें? ओस्लो में मैं अपने परिवार के साथ था। पहली बार ऐसा हुआ जब मैं अकेले अपने कमरे में विचार करता रहा परन्तु नए वर्ष के स्वागत में और पुराने वर्ष की विदाई देने में असमर्थ रहा।
मैं अकेले नहीं हूँ। देश, समाज और विश्व की समस्याएं अभी भी मुहं बाए खरी हैं। हम कितना सफल हुए हैं?
हमने क्या योगदान दिया है इसके लिए।
एक पाठक ने लिखा कहा की केवल पुस्तकों में हल मिलते हैं? यह कितना सच है इसे तलाशना है और समस्याओं में अपने अंश भर हल करने में योगदान भी देना है।
औपचारिकतावश ही सही पर ह्रदय से आप सभी को नव वर्ष पर हार्दिक शुभकामनाएं।
आप सामूहिक और वैश्विक समस्याओं के हल में प्रयासरत रहें और अपना धर्म निभाएं खुशी से, दबाव से या भावना में बहकर नहीं।