सोमवार, 25 जुलाई 2016

ओस्लो में मनाया जायेगा भारतीय स्वाधीनता दिवस १५ अगस्त - सुरेशचन्द्र शुक्ल Suresh Chandra Shukla

ओस्लो में मनाया जायेगा भारतीय स्वाधीनता दिवस १५ अगस्त - सुरेशचन्द्र शुक्ल Suresh Chandra Shukla
भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम दो सांस्कृतिक कार्यक्रम कर रही है:
पहला कार्यक्रम: ३० जुलाई को शाम पांच बजे, वाइतवेत सेन्टर, ओस्लो में प्रेमचंद जयन्ती में प्रोफ. आशुतोष तिवारी और प्रोफ. रिपु सूदन सिंह सम्मानित होंगे।
प्रोफ आशुतोष तिवारी 
प्रोफ रिपु सूदन सिंह 
दूसरा कार्यक्रम: १५ अगस्त (15.08.16) को शाम 18:00 बजे, वाइतवेत सेन्टर, ओस्लो में 
भारत का स्वतंत्रता दिवस धूमधाम  जाएगा।  सभी सादर आमंत्रित हैं. 

चित्र विकीपीडिया से साभार 
कार्यक्रम के लिए संपर्क करें: सुरेशचंद्र शुक्ल Suresh Chandra Shukla से ईमेल भेजिए:
speil.nett@gmail.com

शुक्रवार, 22 जुलाई 2016

फेसबुक पर खुले आम हो रही कवितायें चोरी -सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' -Suresh Chandra Shukla

 वाह धन्यवाद  संजना तिवारी जी. आपकी कविता आपके नाम से ही मशहूर रहेगी। संजना तिवारी ने अपने फेसबुक में लिखा है. "पवन भाई साहब , अरविन्द भाई साहब मेरा लिखा चुराने के लिये शुक्रिया". पवन कुमार पाण्डेय और अरविन्द शर्मा के अपने फेसबुक पर कविता चुराने के लिए धन्यवाद दिया है.

संजना तिवारी की कविता की पंक्तियाँ जो बिना उनके नाम के अपने फेसबुक और ब्लॉग पर लोग लिख रहे हैं:  जो गलत है उसकी हम निंदा करते हैं. 'शरद आलोक'

सुबह तो रोज जवां होती है
फिर शाम तक बुढ़ा  जाती है.
एक तेरी याद है कमबख्त 
जो आकर ठहर जाती है. 
        - संजना तिवारी

फेसबुक पर खुले आम हो रही कवितायें चोरी -सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

मंगलवार, 19 जुलाई 2016

विश्व साइकिल यात्री अभिषेक कुमार शर्मा ओस्लो में लेखक सुरेशचन्द्र शुक्ल से मिले। -Sureshn Chandra Shukla

विश्व साइकिल यात्री अभिषेक कुमार शर्मा ओस्लो में लेखक सुरेशचन्द्र शुक्ल से मिले।
आप वेब दुनिया में उनकी साइकिल यात्रा पर पढ़ सकते हैं.:
http://hindi.webdunia.com/nri-news/abhishek-kumar-sharma-116071900035_1.html




शुक्रवार, 15 जुलाई 2016

सायकिल विश्व यात्री अभिषेक कुमार शर्मा आज नार्वे पहुंचे - सुरेशचन्द्र शुक्ल Suresh Chandra Shukla


सायकिल विश्व यात्री  अभिषेक कुमार शर्मा  आज नार्वे पहुंचे 
- सुरेशचन्द्र शुक्ल Suresh Chandra Shukla


सायकिल विश्व यात्री  अभिषेक कुमार शर्मा  आज नार्वे पहुंचे.
आज साढ़े ग्यारह बजे दूतावास ओस्लो  स्वागत भारतीय राजदूत महामहिम एन ए के ब्राउने (HE N A K Browne) ने सायकिल विश्व यात्री अभिषेक कुमार शर्मा का  स्वागत किया और शुभकामनायें दीं. सायकिल विश्व यात्री अभिषेक कुमार शर्मा जी ने विश्व शान्ति, मेक इन इण्डिया और पर्यावरण की बेहतरी के लिए अपनी यात्रा कर रहे हैं. 
आज भारतीय दूतावास ओस्लो में बहुत से  भारतीयों और दूतावास में कार्यरत लोगों ने लोगों ने शुभकामनायें दीं. 
Verdens tur på sykkel: Abhishek Kumar Sharma fra UP i India er på Norges besøk. Han ble veldig godt mottatt av Den indiske ambassaden i Oslo

आप इस  ब्लॉग में  सायकिल विश्व यात्री  अभिषेक कुमार शर्मा   उनका 

साक्षात्कार पढ़ेंगे. धन्यवाद। 

मंगलवार, 12 जुलाई 2016

सोलह वर्ष की आयु - समय ने दीवाना बन दिया - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' Suresh Chandra Shukla


सोलह वर्ष की आयु में जब समय ने दीवाना बना दिया
(बचपन के संस्मरण आज लिख रहा हूँ क्योकि मुझे मालुम है की भविष्य में इन्हें लिखने का कभी समय नहीं मिलेगा क्योंकि साहित्यिक लेखन का दबाव होगा।)



अर्थशास्त्र  में  नोबेल  पुरस्कार विजेता और भारत रत्न पुरस्कार  विजेता अमर्त्य सेन के साथ 

हम इस आयु में राजकुमार और राजकुमारी से कम नहीं होते
यह आयु बहुत संयत होती है. मन से  अंकुर फूटने लगते हैं. हवा के झोंके किसी भी नरम टहनी को लचका देते हैं. समय के रथ पर सवार हम सभी इस आयु में राजकुमार और राजकुमारी से कम नहीं होते हैं. आकर्षण और नयनप्रियता एक बार में जो मन में समां गयी वह बहुत समय तक रहती है. 
उत्साह और उमंग की होती है यह आयु. जैसे छोटा शिशु हाथ से छूकर और मुख  में हर वस्तु  डालकर स्वयं  उसे पहचानना चाहता है ठीक उसी तरह मन स्वतन्त्र -स्वच्छन्द अपनी कल्पनाओं के वशीभूत होकर आनन्दित होता है और अपने मित्रों को अपने व्यवहार से संतुष्ट करता है और साथ.साथ सैर करना दूर-दूर तक घूमना फिरना। हंसना और हंसाना।  इस आयु में समय ने मुझे दीवाना बना दिया था. सीमाओं ने आभास कराया, उत्सुकता ने उसे जगाया, फिर ऐसा भी हुआ जब मैं  सारी -सारी रात सो नहीं पाया।
विचारों से विचार उपजते उससे नयी कविता और गीत लिखकर गीत भेंट कर दिया करता था।  मुझे नहीं मालुम कि वे गीत कितने अच्छे थे या नहीं थे पर उस समय मनभावन लगते थे. आप किसी से खुश होते हो, किसी को उपहार देना चाहते हो. या तो भौतिक  उपहार और दूसरा अहसासों का उपहार। मेरे पास देने के नाम पर केवल कविता और अहसास होता। जिसपर कविता लिखता उसे भेंट कर देता।  मेरे पास वे कवितायें नहीं हैं पर भविष्य में यदि लोगों ने बचा रखी होंगी तो शायद प्रगट हो जायें।  मेरे मित्र अक्सर कहते कि मैं अनेकों पर कविता क्यों लिखता हूँ. मुझे एक विषय एक व्यक्ति पर ही कविता लिखनी चाहिए यह बात तब की है जब मैं अनाड़ी था आयु सम्भवता पंद्रह-सोलह वर्ष की रही होगी।  मेरा उस समय कहना था. मैं सभी को अपना मन खोल कर नहीं दिखा सकता था  मेरे पास मेरी कवितायें -भावनायें थीं. कवितायें और मेरी स्नेहिल भावनायें उसकी छाया/ कॉपी  भर है.  
माँ ने परिश्रम करना और सादगी से रहना सिखाया 
चूँकि मेरी माँ (श्रीमती किशोरी देवी) ने गाय पाली थी उसका नाम श्यामा था. मेरी माँ अक्सर मुझे सुबह चार-पांच बजे उठा देती और  गाय के चारा-पानी और सफाई आदि में मदद लेतीं थीं. मैं घर में छोटा था. बड़े भाई की पढ़ाई पर ध्यान दिया जाता था. हमेशा बड़ी संतान की तरक्की पर माता-पिता की ज्यादा नजर होती है. छोटे को दुलार तो मिलता है पर कार्य सभी के करने पड़ते हैं. मेरे जीवन के लिए यह बहुत अच्छा रहा. परिश्रमी होना, जो साधारण कहना मिले उसे प्रेम से खा लेना और जमीन तथा तखत पर भी खुशी-खुशी सो जाना ये सब मेरी माँ की सिखाई हुई बातें हैं जो मुझे आज भी सम्बल देती हैं.
मेरा अनुभव है आप जिससे बहुत प्रेम करते हैं यदि वह आपसे बहुत प्रेम करता है तो ऐसा भी होता है कि वह प्रेम में आपके खिलाफ बहुत बड़ा निर्णय भावना में बहकर ले लेता है.  उसे मालुम होता है कि आप उससे  हर हाल में प्रेम करते रहेंगे।  यह बात प्रेमी की हो या रिश्तेदारों की या सगे सम्बन्धी की.  मेरे मामले में यह सोलह आने सच साबित हुई है. इससे एक बात तो होती है  कि आपके विरोध में कार्य करने और निर्णय लेने वाले पर आप जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हो या इसका एक पक्ष और है. 
मैं आपसे प्रेम करता हूँ , और आप मुझसे सभी कुछ छीन लेते हो । तो आप मांगने के हकदार नहीं होते भले मैं देने को तैयार रहूं।  सबका अपना सच होता है. सबकी अपनी-अपनी करनी और अपने-अपने अनुभव होते हैं.
सभी धर्मों के मित्र  अपने मित्रों के साथ अवकाश के समय घर के बाहर पार्क में बैठे रातभर गप्पे मारना अभी भी याद है. लखनऊ नगर में आयोजित कुछ बड़े कविसम्मेलनों, फिल्म प्रदर्शनों, नौटंकियों को अपने साथियों के साथ देखने जाता था और वहां  आयोजक सदस्य से अपने वयवहार से घनिष्टता बनाने की कोशिश करता था. इससे नए-नए परिचित मिले कुछ जुड़े, कुछ छूटे। 
तब मेरे मित्र हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई सभी थे और जन्माष्टमी और रामलीला देखने सभी साथ-साथ जाते थे. यहाँ तक कि मोहल्ले में चन्दा मांगने के लिए जब जाता तो वे सभी साथ देते थे. 
बहुत से विद्वानों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से मिला 
यहाँ मैं  साहित्यकारों से जिनसे उस आयु में मिला जिन मशहूर स्वत्रता सेनानी और नेताओं, शिक्षाविदों और समाज सेवियों से मिला उनका जिक्र नहीं कर रहा हूँ. उसके लिए अलग से लेख लिखूंगा।  उस समय के बहुत से लोग हैं जैसे स्वतंत्रता सेनानियों में शचींद्र नाथ बक्शी, रामकृष्ण खत्री, दुर्गा भाभी, गंगाधर गुप्ता जी शिक्षाविदों में सत्य नारायण त्रिपाठी, डा दुर्गाशंकर मिश्र, भारती गांधी और जगदीश गांधी, समाजसेवियों में  पुरानी  लेबर कालोनी ऐशबाग के भगत जी जिन्हें हम पापाजी कहते थे, सम्पादकों में  शिव सिंह सरोज, अशोक जी वीरेंद्र सिंह जी और वचनेश त्रिपाठी जी आदि-आदि.  
आईये मेरी पुरानी स्वरचित कविता  का कुछ आनंद लीजिये।
पास रहना, अजनबी कहना, रोज की बात थी.
साथ चलना, फिर खिलखिलाना, रोज की बात थी
पहेलियां बुझा न सके, बस यही चर्चा में रहा,
चित  में बसा था जिन्हे, रोज उनकी बात थी

बस मन में  जो पर्दा रहा, उसी का अफसोस है,
लखनऊ से अमरीका तक, रोज उसकी बात की. 
हाँ और ना में कभी फर्क, समझा नहीं मदहोश था.
प्रेम में झांकना, दीप में तापना,  रोज की बात थी.

गीतों में मेरे नाचना, नयनों से छिप-छिप देखना।
मंच पर घुंघरू की तरह, बेबाक होकर थिरकना।
आज सब कुछ याद है, पर कुछ नहीं मैं कर सका.
वह उसके मन के पृष्ठ थे, ये मेरे मन का फलसफा।
हाई स्कूल के मित्रगण 
कक्षा नौ से दस तक मेरी कक्षा में अनेक मित्र आये और गये. सोलह वर्ष की आयु थी, तब तक कुछ कवितायेँ लिखी थीं. स्कूल में खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कुछ इनाम चटकाये थे. हिन्दी और साहित्य में रूचि के बाद भी सभी विषयों की तरफ ध्यान नहीं गया बस इसके अलावा किसी बात का अफ़सोस नहीं रहा क्योंकि परीक्षा में पास होने के लिए सभी विषयों में पास होना जरूरी होता है.
इस अवस्था में मन में स्वप्नों की हिलोरें, अल्हड़ता का रंग, मित्रों के साथ समय बिताने की मस्ती हर कोई स्मरण जरूर करेगा। अनेक जीती जागती कहानियां कभी स्पर्श करके निकल जातीं या कभी दर्शन देकर कुछ समय के लिए लुप्त हो जातीं। कक्षा नौ से दस तक मेरी कक्षा में अनेक मित्र आये और गये. अवस्था में कुछ मेच्योरिटी /परिपकवता आने लगी थी.  तब समय ने मुझे दीवाना बना दिया था.
हाई स्कूल के मित्रगणों में बहुत से मित्र रहे पर कुछ का ही जिक्र यहाँ करूँगा अनेक मित्रों से मित्रता के अलग-अलग केंद्र बिंदु थे.
जिनके साथ पार्कों या स्नस्थानों में फ़िल्में देखने जाता उसमें अहमद अली, विजय सिंह दिनेश जायसवाल, ओम प्रकाश, आत्मा राम मुख्य थे.
सिनेमाहाल में जिनके साथ जाता था उनमें मनोज सिंह, आनंद प्रकाश गुप्त, विजय सिंह आदि मुख्य थे.


सोमवार, 11 जुलाई 2016

शिशुकाल से बालकाल तक -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' Suresh Chandra Shukla

शिशुकाल से बालकाल तक 



अपने बचपन को  स्मरण करते हुए  आपको अपनी एक पुरानी  कविता से  सराबोर करने का प्रयास कर रहा हूँ।  आशा है  कि  आपको भी अपना बचपन याद हो आयेगा।  स्मृति के फूल झड़ेंगे  और आप शायद  आनन्दित हों पढ़कर।  
ओ मेरे बचपन फिर आना 
मधुर-मधुर बचपन फिर आये,
फिर से मुझको गीत  सुना ये   ।
जिसमें खोकर भूलूँ दुखड़े,
बचपन - मित्रों से पुनः मिलाये।  

झूलों में वह पैंग मारना ,
पैंग  मार कर नभ को छूना। 
कभी अकेले कभी  साथ में ,
घूम-घूमकर चक्कर  खाना। . 

लुका  छिपी का खेल सुहाना ,
कभी रुलाना कभी हँसाना ,
रूठे हुये  को पुनः  मनाना ,
चूम-चूमकर  गले लगाना।  

स्वाधीनता दिवस  जब आये   ,
प्रभात फेरी , ध्वज लहराना। 
गली -गली  में द्वार-द्वार तक,
देशभक्ति के नारे  गाना। 

ओ मेरे बचपन फिर आना 
नये  पुराने राग  सुनाना। 
बिछड़े मीतों को  मिलवाना,
यादों  की  बांसुरी बजाना। 

दौड़-दौड़  तितली के पीछे ,
उसे पकड़ना , उसका मरना। 
फिर  पुस्तक में  उसे संजोना ,
सुख-दुःख साँझा रिश्ता रखना। 

झूठ -मूठ  थी लगी  भली  थीं,  
माँ -दादी  की  कही कहानी। 
सुनकर  रोमांचित हो जाते ,
सुधियों  की बस रही  निशानी।।  


संस्मरण 
(मेरे पास बचपन की कोई तस्वीर नहीं है. स्कूल में एक सामूहिक चित्र खींचा गया था पर मेरे पास नहीं है यदि किसी के पास मेरी बचपन की तस्वीर हो तो कृपया उसे ई-मेल से भेंट की कृपा करें या इसमें किसी प्रकार का सहयोग भी सराहनीय होगा। कभी -कभी  विचार करता हूँ कि यदि चित्रकार होता तो स्कैच/रेखाओं से चित्र बनाकर लोगों को अपने बचपन के बारे में बताता।
बचपन की दो बातें याद हैं. एक चीन ने जब १९६२ में  भारत पर आक्रमण किया था तब हमने अपनी बस्ती में बड़ों के साथ भारत की एकता और चीन के खिलाफ फेरी में सम्मिलित हुये थे. दूसरी बात याद है कि विवेकानंद जी की जन्मशती पर हमने सहयोग के लिए कार्ड खरीदे थे उनकी कन्याकुमारी उनकी याद में स्मारक बन्ने में सहयोग के लिए.
बचपन में हम मस्त रहते हैं. कोई चिंता नहीं। कोई परवाह नहीं। नये-नये  सपने बनते और मिटते। आपस में प्रेम से खेलते-लड़ते और फिर एक हो जाते जैसे कुछ हुआ ही नहीं। इसी लिए कहा गया है बचपन सबसे अच्छा होता है।  स्कूल में छुट्टी होने के बाद हम तरह-तरह से चलते, मटकते हुए, कूदते फांदते हुए.  बचपन में कितना आनन्द मिलता था यह विचार कर मन पुलकित हो जाता है.  
पूनम शिक्षा निकेतन में 
नर्सरी से कक्षा तीन तक 
पूनम शिक्षा निकेतन बड़ी कालोनी ऐशबाग में स्थित है. इसे इप्रूवमेंट ट्रस्ट कालोनी भी कहते हैं. यह पुरानी  श्रमिक बस्ती ऐशबाग और स्वरूप कोल्ड स्टोरेज-राष्ट्रीय स्वरूप समाचार-पत्र प्रेस  के मध्य में स्थित है.

विद्यालय की मालकिन और बड़ी आंटी के नाम से ख्याति प्राप्त कौशल्या जी इस स्कूल की प्रधानाचार्य हैं.
अभी भी वह रोज रिक्शे से प्रातः स्कूल आती हैं, यह मुझे उनके  निजी रिक्शाचालक से बातचीत से मालुम हुआ जब मार्च २०१६ को एक दिन सुबह लखनऊ प्रवास में स्कूल के सामने टहलते हुए जा रहा था.
उनके पति जिन्हें हम अंकल जी कहते थे वह रेलवे में कार्यरत थे जिनकी बहुत पहले मृत्यु हो चुकी है.

पूनम शिक्षा निकेतन स्कूल में मैंने नर्सरी से लेकर कक्षा तीन तक शिक्षा प्राप्त की है.
स्कूल के आँगन में हमारी पंक्ति बनाकर प्रार्थना होती थी.
उस समय मेरी एक अध्यापिका थीं वह पुरानी श्रमिक बस्ती में १९ /७ में रहती थीं. एक शुक्ला आंटी के नाम से मशहूर थीं जो इसी कालोनी में १३/४ में रहती थीं. इसी में सं १९८६-१९८७ में नीरू पढ़ाती थी.
कागज की नाव बरसात का पानी 
बरसात में यहाँ आँगन में पानी भर जाता था हम लोग कागज़ की नाव बनाकर तैराते थे. कागज को मोम से रगड़ते थे ताकि कागज़ की नाव पानी को सहन कर सके. दो तरह की नाव बनाना ( एक सादी नाव और दूसरी जिसमें ऊपर आधी में ऊपर से ढकी हो ताकि नाव में सवार पानी बरसने पर न भीगें।) . कागज के जहाज  बनाकर अध्यापिका के न होने पर उसे कक्षा में ऊपर उड़ाना बहुत अच्छा लगता था. हम एक दूसरे के ऊपर भी उड़ाते थे बड़ा अच्छा लगता था.
जब कक्षा तीन में था तब बरसात में कभी-कभी कक्षा की छत से पानी टपकता था.
कागज के फूल 
इसी विद्यालय में हमने कागज़ के फूल, हार बनाना सीखा था. पलास्टिक के  तार जिससे कुर्सी आदि बुनते हैं उसी तार से हमको बेल्ट बनाना सिखाया गया. कागज के फूल बनाते और घर में माँ और पिताजी को भेंट करते थे.
तार से  बनी बेल्ट/पेटी हम अपनी पैन्ट में बांधते थे.
मीठे -मीठे शहतूत 
स्कूल एक पीछे गली और उसके बाद एक बगिया थी जहाँ शहतूत के अनेक पेड़ थे. हम शहतूत तोड़ने अवकाश के समय जाया करते थे. अपने बाल मित्रों के साथ वहां जाना बहुत अच्छा लगता था. स्कूल एक पीछे गली ऐशबाग ईदगाह के पीछे की दीवारों को आगे जाकर मिलती थी और यह गली पुरानी श्रमिक बस्ती के ब्लाक नम्बर ६० के सामने समाप्त होती थे जहाँ एक और स्कूल है.
लंगड़ी-टांग का खेल 
हम जब स्कूल में पहले आ जाते तो हम एक खेल प्रायः खेलते थे जिसे हम लंगड़ी-टांग  कहते थे. इस खेल में एक व्यक्ति एक टांग से दौड़-दौड़कर दूसरों को छूने की कोशिश करता था. हम उसकी पीठ  को बार-बार छूकर उसे छेड़ते थे. जिसे वह छू लेता था तब उसकी बारी आती थी. फिर वह सहपाठी एक टांग से फुदकता हुआ दूसरों को छूने का प्रयास करता।
हाई स्कूल के मित्रगण 
कक्षा नौ से दस तक मेरी कक्षा में अनेक मित्र आये और गये. सोलह वर्ष की आयु थी, तब तक कुछ कवितायेँ लिखी थीं. स्कूल में खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कुछ इनाम चटकाये थे. हिन्दी और साहित्य में रूचि के बाद भी सभी विषयों की तरफ ध्यान नहीं गया बस इसके अलावा किसी बात का अफ़सोस नहीं रहा क्योंकि परीक्षा में पास होने के लिए सभी विषयों में पास होना जरूरी होता है.
इस अवस्था में मन में स्वप्नों की हिलोरें, अल्हड़ता का रंग, मित्रों के साथ समय बिताने की मस्ती हर कोई स्मरण जरूर करेगा। अनेक जीती जागती कहानियां कभी स्पर्श करके निकल जातीं या कभी दर्शन देकर कुछ समय के लिए लुप्त हो जातीं। कक्षा नौ से दस तक मेरी कक्षा में अनेक मित्र आये और गये. अवस्था में कुछ मेच्योरिटी /परिपकवता आने लगी थी.

शनिवार, 9 जुलाई 2016

बचपन के दिन भूल न पाऊँ --सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

बचपन के दिन मैं भूल न पाऊँ।

कुछ यादें रस्तोगी विद्यालय की 
जब मैं गोपीनाथ लक्ष्मण दास रस्तोगी इंटर कालेज ऐशबाग, लखनऊ में पढ़ता था तब के कुछ संस्मरण सुना रहा हूँ. सन् १९६५ में नगरपालिका स्कूल में पांचवी कक्षा पास करने के बाद मेरी रस्तोगी इंटर कालेज ऐशबाग में प्रवेश परीक्षा हुई जिसमें गणित, इमला (हिन्दी), के ज्ञान की परीक्षा हुई.
मैं इस विद्यालय में सन् १९६५ से लेकर १९७३ तक पढ़ा हूँ.
विद्यालय में कक्षा छः से लेकर कक्षा आठ तक की कक्षा दिन में बारह बजे और कक्षा नौ से कक्षा बारह तक की पढ़ाई  सुबह की शिफ्ट/पारी में होती थी.
विद्यालय में कक्षा छः से लेकर कक्षा आठ तक की कक्षायें  दिन में बारह बजे और कक्षा नौ से कक्षा बारह तक की पढ़ाई  सुबह की शिफ्ट/पारी में होती थी.
टूटी चप्पल पहनकर स्कूल जाता था. 
प्रार्थना कराने के लिए चप्पल बदल लेता था. मंच/स्टेज पर घिस्लाते हुए चप्पल ले जाना बहुत अजीब लगता था. विद्यालय शुरू  होने के पहले प्रार्थना होती थी जिसमें राष्ट्र गान और प्रतिज्ञा कराई जाती थी. अक्सर मैं स्टेज पर जाकर प्रतिज्ञा कराता था. अतः अपनी टूटी हुई चप्पल को किसी सहपाठी से बदलकर स्टेज पर जाता था.
रबर की बनी हवाई चप्पल जिन्होंने इस्तेमाल की होगी तो उन्हें पता होगा कि वह वाई आकर की होती है और उसके तीन सिरों पर शोल में फंसने के लिए बटननुमा बनावट होती है जब आगे का बतननुमा हिस्सा अधिक चलने से घिस जाता था तो वह टूट जाता था. जब उसकी मरम्मत कराते थे तो उसे कारीगर चमड़े या रेक्सीन के टाँके लगा देता था, जो फिर टूट जाती थी.
नंगे पाँव रहने की आदत 
उस समय वहां लगे पांव रहने की आदत हो गयी थी. इसी कारण अक्सर दाहिने पैर के अंगूठे के बगल वाली अंगुली में ठोकर लगती थी और अक्सर घायल हो जाया करती थी उसकी खाल चील जाते थी उससे तीस उठती थी कभी उसे पत्ते से दबाकर रखता तो कभी बीड़ी का कागज़ लगा लेता था ताकि थोड़ा आराम मिले और खाल दुबारा उसी में चिपक जाये।
पेड़ पर चढ़कर दातून तोड़ना 
जब खाली समय होता तो नीम के पेड़ पर चढ़कर उसकी कोमल टहनियाँ तोड़ता जिसे हम दातून बनाकर ब्रश की तरह स्तेमाल करते थे. नीम की कड़वाहट और उसे चबाकर ब्रशनुमा बनाने से पूरे मुख्य में लसलसा मंजन जैसा हो जाता और उसका कड़वापन मुख्य में ताजगी का अहसास देता था.
पढ़ाई को गम्भीरता से नहीं लिया
कक्षा सात और आठ में अंग्रेजी के अध्यापक पी के शुक्ल थे जो बहुत लम्बे थे. जिन्हें पीठ पीछे विद्यार्थीगण उन्हें शुतुरमुर्ग कहते थे.  उनकी कक्षा को कट करने का खामियाजा हमको नौवीं और दसवीं कक्षा में उठाना पड़ा.
कक्षा नौ को मैंने गम्भीरता से नहीं लिया था. नौवीं कक्षा में मेरे कक्षा अध्यापक राघव जी थे. जो अंगरेजी पढ़ाते थे. उनकी कक्षा में जाना अच्छा लगता था क्योंकि प्रश्नों के जवाब नहीं मालुम होने पर भी वह केवल व्यंग्य करते थे पर अनुशासन में वह बहुत सख्त थे. परीक्षा में अंग्रेजी में अनुत्रीण होने के बावजूद मुझे कॉम्प्लीमेंट्री पास कर दिया गया. मेरा एक मित्र जिसका नाम सुरेन्द्र था पर घर का नाम कोडू था जो सरल सहृदय था और पुरानी  श्रमिक बस्ती में रहता था.

मैं  मित्रों के साथ बहुत घूमा।  फिल्म देखने का शौक उस समय एक नशे की तरह था. उस समय पार्कों में भी निशुल्क फ़िल्में दिखाई जाती थीं जिसकी सूचना समाचार पत्र में 'लखनऊ में आज' और 'नगर में आज' नामक शीर्षक के अंतर्गत छपती थी.  सिनेमा का टिकट भी सस्ता था.
पुरानी श्रमिक बस्ती में श्रम हितकारी केंद्र था. वहां खेल (फ़ुटबाल, बालीवाल और शतरंज खेलने के लिए मिलता था. समचरपत्रक का भी एक कमरा था और लाइब्रेरी भी थी. यहाँ से हमको भारत स्काउट और गाइड की ट्रेनिंग भी दी जाती थी जिसके अध्यापक पुरानी लेबर कालोनी में ही रहने वाले श्री खरे जी और दिनेश श्रीवास्तव जी थे.
स्काउट के कैडेट बनकर हम दो बार लखनऊ के स्टेडियम में गए जहाँ बाल युवा समारोह था जिसके आयोजक भारती और जगदीश गांधी जी थे जो लखनऊ में मशहूर सिटी मोंटेसरी स्कूल के संस्थापकद्वय हैं.
हाईस्कूल में फेल हो गया
मेरी  गोदावरी बुआ हमको बहुत प्रेम करते थीं. उन्हीं दिनों वह बहुत गम्भीर रूप से बीमार हुईं और मेडिकल कालेज में भरती हो गयीं उन्हें खाना  देने अस्पताल जाया करता था. श्री नंदकिशोर बाजपेयी फूफा जी भी अक्सर हमारे घर आया करते थे. हम भी कभी-कभी उनके पास गर्मी की छुट्टियों में लालगंज रायबरेली जाया करते थे.
उधर सन् १९७० में हाईस्कूल में फेल हो गया  और उसके बाद विद्यालय में  साहित्य परिषद, विज्ञान परिषद  और सांस्कृतिक परिषद के चुनाव जीत गया. इन परिषदों में अध्यक्ष का चुनाव नहीं होता था. इनमें अध्यापक ही अध्यक्ष होते थे अतः साहित्य परिषद के अध्यक्ष श्री गंगाराम त्रिपाठी और सांस्कृतिक परिषद के अध्यक्ष लेखक श्री सुदर्शन सिंह जी थे. विज्ञान परिषद में लाइब्रेरियन, साहित्य परिषद में उपाध्यक्ष और सांस्कृतिक परिषद में मंत्री चुना गया था. विज्ञान परिषद में लाइब्रेरियन होने से जो विद्यार्थी पुस्तक देर से जमा करते थे उन्हें जुर्माना देना पड़ता था जिसका कुछ हिस्सा विज्ञानअध्यापक-कोष में बाकी स्वयं खर्च करने की इजाजत थी क्योंकि यह काम  खाली और अवकाश के समय मुझे करना होता था.
विद्यालय के कार्यक्रमों ने मेरी साहित्य की तरफ रूचि बढ़ायी।
रेलवे में नौकरी 
मेरे बाबा, पिताजी, बड़े फूफा जी सभी आलमबाग लखनऊ स्थित सवारी और मालडिब्बा कारखाना में काम करते थे. मेरे फेल होने पर मेरी रेलवे में श्रमिक की नौकरी की तैयारी शुरू हो गयी. मेरा साक्षात्कार लिया गया साक्षात्कार में खेल सम्बन्धी प्रश्न पूछे गए और एक बड़ा पत्थर का टुकड़ा और एक भरी बोरी को कंधे में रखकर दिखाना था.
सन् १९७२ में मैंने हाईस्कूल पास/ उत्रीण कर लिया था.  और मेरी नौकरी रेलवे में श्रमिक के तौर पर लग चुकी थी.  रेगुलर स्कूल में पढ़ना मुश्किल हो रहा था.
जब कारखाने में दिन की शिफ्ट में काम करता था तब प्रातः सुबह सात बजे से चार बजे तक काम करना होता था और विद्यालय भी प्रातः साढ़े सात बजे से शुरू होकर बारह -साढ़े बारह बजे समाप्त होता था.  शाम और रात की शिफ्ट में ही काम करके ही विद्यालय में जाना संभव हो पाता था.
खाली समय में कविता से प्रेम 
काम-करते-करते खाली समय में कविता की कुछ पंक्तियाँ जो भी कागज़ का टुकड़ा मिलता उसपर लिख लिया करता था. एक नोटबुक भी बनायी थी उसपर भी कवितायें लिखता रहता था. कभी-कभी एक घंटे के लन्च के अवकाश में और कभी काम समाप्त होने पर शाम छुट्टी के बाद विधानसभा  मार्ग पर दैनिक समाचारपत्र स्वतन्त्र भारत में प्रकाशन के लिए देने जाया करता था.  पास में ही आकाशवाणी  (रेडियोस्टेशन) था.
मेरे पिता जी भी कभी-कभी एक दो कवितायें गुनगुनाया करते थे जब मैं ४१/३ पुरानी लेबर कालोनी में रहता था.
उनके कोई भी बोल मुझे याद नहीं हैं.

बचपन के कुछ मित्र -सहपाठियों के नाम 

कक्षा एक से तीन तक के मित्रों में अमर प्रकाश गुप्ता, अमिता, झमन, अमोद वासदेव, इन्द्रा, मंजू और अन्य।
शम्भू पांजा, विनोद भल्ला, अशोक शर्मा(मुन्ना), सिराज अहमद ये पड़ोस में रहते थे और कक्षा चार-पांच के समय के सहपाठी  थे.
कंचन चटर्जी पड़ोस में रहता था अतः उसके साथ विजय सिंह के द्वार पर क्रिकेट खेलते थे.
कक्षा छः से कक्षा आठ तक के समय में अमर, रमन श्रीवास्तव, सुरेन्द्र (कोडू), कुंडू, महेन्द्र तिवारी, नरेश धमीजा, सूर्य प्रकाश, एक मित्र मास्टर कन्हैया लाल रोड  पर रहते थे  नाम याद नहीं आ रहा है.





बुधवार, 6 जुलाई 2016


Nobel Fredsprisvinner Kailash Satyarthi deltok i en konferanse om baranas utdaaning i Oslo. På bilde fra venstre er meg selv, Kailash Satyarthi og Ola Anupam på Holmenkollen i Oslo. बच्चों पर जुल्म के खिलाफ और उनकी अाजादी के लिए कार्यरत, भारत के नोबेल शान्ति पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी जी बीच मेंं खड़े हैंं, दायें अनुपम शुक्ल और बायें स्वयं मैं होलमेनकोलन ओस्लो मेंं। चित्र ४ जुलाई २०१६ को लिया गया है.

Alaksander overrakk blomster til Nobel Fredsprisvinner Kailsh Satyarthi foran Veitvetskole i Oslo
अलेक्सान्देर अरुन ने नोबेल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी जी को अपने वाइतवेत स्कूल ओस्लो के सामने फूलों का गुलदस्ता ४ जुलाई देते हुए.  स्कूलों में ग्रीष्मकालीन अवकाश चल रहा है. 

Kailash Satyarthi, Sangita og Suresh Chandra Shukla besøkte Veitvet Ungdomssenter og snaket med ungdommer. वाइतवेत यूथ सेंटर में कैलास सत्यार्थी, संगीता और सुरेशचंद्र शुक्ल गए और बच्चों से मिले। 


फुर्सत के क्षण सुरेशचन्द्र शुक्ल के निवास ओस्लो में. Hjemme hos Suresh Chandra Shuklas i Oslo


शनिवार, 2 जुलाई 2016

विश्व हिंदी सम्मेलन भोपाल, भारत। -Suresh Chandra Shukla


विश्व हिंदी सम्मेलन का एक चित्र, भोपाल, भारत। चित्र मेंं सभी नार्वे से प्रकाशित पत्रिका स्पाइल-दर्पण का विश्व हिंदी सम्मेलन अंक दर्शाते हुए.
चित्र मेंं प्रेमचंद साहित्य के शीर्षस्थ अालोचक-विद्वान कमल किशोर गोयनका जी को विश्व हिंदी सम्मेलन अंक भेंट करते हुए. 


चित्र में बायें से दाऊजी गुप्ता, प्रोफ. योगेन्द्र प्रताप सिंह, सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', गवर्नर श्री केशरी नाथ त्रिपाठी जी, एक महिला हिन्दी विद्वान नाम मालुम नहीं, प्रोफ राम प्रसाद भट्ट और डॉ शोभा बाजपेयी।  पीछे खड़े हैं बाबासाहेब भीमराव  अम्बेडकर विश्व विद्यालय के शिक्षकगण और शोधार्थी।

विश्व हिन्दी सम्मलेन भोपाल एक यादगार सम्मलेन रहा क्योंकि इसमें देश विदेश के हिन्दी प्रेमियों के अलावा भोपाल के हजारों युवाओं ने भी भाग लिया था. 

शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

ओस्लो, ०१.०७. १६ डायरी कलाकार फारुख शेख एक बहुत अच्छे इंसान थे - सुरेशचन्द्र शुक्ल Suresh Chandra Shukla

ओस्लो, ०१.०७. १६ डायरी 
कलाकार फारुख शेख एक बहुत अच्छे इंसान थे - सुरेशचन्द्र शुक्ल 
Suresh Chandra Shukla
क्लब ६० फिल्म फारुख शेख और सारिका की फिल्म है जिसमें रघुबीर यादव का अभिनव जानदार है.


यह एक अच्छी फिल्म है जो फिल्म में कुछ बुजुर्ग परिवारों के हालत का अच्छा वर्णन करती है.
यह फिल्म ६ दिसंबर २०१३ को परदे पर आयी -रिलीज हुई. फिल्म रिलीज होने के २१ दिन बाद २७ दिसंबर को  फारुख शेख जी का निधन सऊदी अरब में हो गया था. मुझे फारुख शेख के निधन से बहुत दुःख हुआ.
वह एक अच्छे इंसान थे. मेरी उनसे दो मुलाकातें  हुई थीं. जिन्हें मैं नहीं भूल सकता हूँ.
फारुख शेख स्वयं तो एक बहुत अच्छे कलाकार थे.   वह जानी-मानी अभिनेत्री शबाना आजमी के साथ ओस्लो आये थे. तब उन्होंने ओस्लो में अमृता प्रीतम द्वारा रचित  'मेरी अमृता' पर शबाना आजमी जी के साथ मोनो प्ले किया था. दोनों ने अपने अभिनय का लोहा मनवाया था और शबाना जी ने सभी को अपने अभिनय से रुला दिया था.
मेरी  फारुख शेख जी से ३५ मिनट की मुलाक़ात हुई थी.
उसके बाद मेरी मुलाक़ात लखनऊ के ताज होटल में हुई थी तब वह होटल में प्रवेश कर रहे थे और मैं होटल से बाहर निकल रहा था . फिर मैंने आवेदन किया कुछ बातचीत करने के लिए और  वह राजी हो गए थे. विचार-विमर्श किया था. उन्होंने आवश्यकता पड़ने पर सहयोग का आश्वासन भी दिया था. असल में फिल्म के सम्बन्ध में कुछ जानना और सहयोग चाहता था इस पर कभी और चर्चा करेंगे।
जावेद अख्तर और शबाना आजमी के दुनिया में बहुत प्रशंसक हैं. मैं तो उनके परिवार में सभी संस्कृतिकर्मियों का प्रशंसक हूँ.
सबसे पहले कैफी आज़मी जी का जिनसे मेरी मुलाक़ात डायकमामान्सके पुस्तकालय के बाहर हुई थी. वह यहाँ एक मुशायरा में भाग लेने आये थे.
इसके बहुत पहले जब मैं लखनऊ में पढता था. उनके दर्शन २ अक्टूबर १९७२ में को लखनऊ में यूनियन कार्बाइड के तालकटोरा स्थित बड़े मैदान में मंच पर हुये थे जहाँ मैंने भी अपनी कविता महात्मा गांधी जी पर पढ़ी थी 'हे बापू तुम धन्य हो'. कैफी आजमी जी उसमें ख़ास मेहमान थे.
मुंबई में श्रीमती पुष्पा भारती जी द्वारा आयोजित धर्मवीर भारती जी पर केंद्रित  कार्यक्रम में जावेद अख्तर और बॉलीवुड के मशहूर खलनायक अमरीश प्यूरी से बात हुई थी जिन्होंने मंच पर धर्मवीर भारती जी की पुस्तक का पाठ करते हुए अभिनय किया था और मुझे डा गिरिजाशंकर त्रिवेदी जी की कृपा से साथ-साथ पुस्तक का विमोचन करने का अवसर मिला था. तब शबाना जी राजयसभा सदस्य थीं पर फिर भी जमीन में बैठी थीं.
यह परिवार संस्कृति और साहित्य में एक बहुत बड़ा स्थान रखता है जो सभी के लिए एक उदाहरण है.
जावेद अख्तर दोनों ही एक मिलनसार व्यक्ति हैं और फारुख शेख कभी न भूलने वाले व्यक्तित्व थे.