शनिवार, 9 जुलाई 2016

बचपन के दिन भूल न पाऊँ --सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

बचपन के दिन मैं भूल न पाऊँ।

कुछ यादें रस्तोगी विद्यालय की 
जब मैं गोपीनाथ लक्ष्मण दास रस्तोगी इंटर कालेज ऐशबाग, लखनऊ में पढ़ता था तब के कुछ संस्मरण सुना रहा हूँ. सन् १९६५ में नगरपालिका स्कूल में पांचवी कक्षा पास करने के बाद मेरी रस्तोगी इंटर कालेज ऐशबाग में प्रवेश परीक्षा हुई जिसमें गणित, इमला (हिन्दी), के ज्ञान की परीक्षा हुई.
मैं इस विद्यालय में सन् १९६५ से लेकर १९७३ तक पढ़ा हूँ.
विद्यालय में कक्षा छः से लेकर कक्षा आठ तक की कक्षा दिन में बारह बजे और कक्षा नौ से कक्षा बारह तक की पढ़ाई  सुबह की शिफ्ट/पारी में होती थी.
विद्यालय में कक्षा छः से लेकर कक्षा आठ तक की कक्षायें  दिन में बारह बजे और कक्षा नौ से कक्षा बारह तक की पढ़ाई  सुबह की शिफ्ट/पारी में होती थी.
टूटी चप्पल पहनकर स्कूल जाता था. 
प्रार्थना कराने के लिए चप्पल बदल लेता था. मंच/स्टेज पर घिस्लाते हुए चप्पल ले जाना बहुत अजीब लगता था. विद्यालय शुरू  होने के पहले प्रार्थना होती थी जिसमें राष्ट्र गान और प्रतिज्ञा कराई जाती थी. अक्सर मैं स्टेज पर जाकर प्रतिज्ञा कराता था. अतः अपनी टूटी हुई चप्पल को किसी सहपाठी से बदलकर स्टेज पर जाता था.
रबर की बनी हवाई चप्पल जिन्होंने इस्तेमाल की होगी तो उन्हें पता होगा कि वह वाई आकर की होती है और उसके तीन सिरों पर शोल में फंसने के लिए बटननुमा बनावट होती है जब आगे का बतननुमा हिस्सा अधिक चलने से घिस जाता था तो वह टूट जाता था. जब उसकी मरम्मत कराते थे तो उसे कारीगर चमड़े या रेक्सीन के टाँके लगा देता था, जो फिर टूट जाती थी.
नंगे पाँव रहने की आदत 
उस समय वहां लगे पांव रहने की आदत हो गयी थी. इसी कारण अक्सर दाहिने पैर के अंगूठे के बगल वाली अंगुली में ठोकर लगती थी और अक्सर घायल हो जाया करती थी उसकी खाल चील जाते थी उससे तीस उठती थी कभी उसे पत्ते से दबाकर रखता तो कभी बीड़ी का कागज़ लगा लेता था ताकि थोड़ा आराम मिले और खाल दुबारा उसी में चिपक जाये।
पेड़ पर चढ़कर दातून तोड़ना 
जब खाली समय होता तो नीम के पेड़ पर चढ़कर उसकी कोमल टहनियाँ तोड़ता जिसे हम दातून बनाकर ब्रश की तरह स्तेमाल करते थे. नीम की कड़वाहट और उसे चबाकर ब्रशनुमा बनाने से पूरे मुख्य में लसलसा मंजन जैसा हो जाता और उसका कड़वापन मुख्य में ताजगी का अहसास देता था.
पढ़ाई को गम्भीरता से नहीं लिया
कक्षा सात और आठ में अंग्रेजी के अध्यापक पी के शुक्ल थे जो बहुत लम्बे थे. जिन्हें पीठ पीछे विद्यार्थीगण उन्हें शुतुरमुर्ग कहते थे.  उनकी कक्षा को कट करने का खामियाजा हमको नौवीं और दसवीं कक्षा में उठाना पड़ा.
कक्षा नौ को मैंने गम्भीरता से नहीं लिया था. नौवीं कक्षा में मेरे कक्षा अध्यापक राघव जी थे. जो अंगरेजी पढ़ाते थे. उनकी कक्षा में जाना अच्छा लगता था क्योंकि प्रश्नों के जवाब नहीं मालुम होने पर भी वह केवल व्यंग्य करते थे पर अनुशासन में वह बहुत सख्त थे. परीक्षा में अंग्रेजी में अनुत्रीण होने के बावजूद मुझे कॉम्प्लीमेंट्री पास कर दिया गया. मेरा एक मित्र जिसका नाम सुरेन्द्र था पर घर का नाम कोडू था जो सरल सहृदय था और पुरानी  श्रमिक बस्ती में रहता था.

मैं  मित्रों के साथ बहुत घूमा।  फिल्म देखने का शौक उस समय एक नशे की तरह था. उस समय पार्कों में भी निशुल्क फ़िल्में दिखाई जाती थीं जिसकी सूचना समाचार पत्र में 'लखनऊ में आज' और 'नगर में आज' नामक शीर्षक के अंतर्गत छपती थी.  सिनेमा का टिकट भी सस्ता था.
पुरानी श्रमिक बस्ती में श्रम हितकारी केंद्र था. वहां खेल (फ़ुटबाल, बालीवाल और शतरंज खेलने के लिए मिलता था. समचरपत्रक का भी एक कमरा था और लाइब्रेरी भी थी. यहाँ से हमको भारत स्काउट और गाइड की ट्रेनिंग भी दी जाती थी जिसके अध्यापक पुरानी लेबर कालोनी में ही रहने वाले श्री खरे जी और दिनेश श्रीवास्तव जी थे.
स्काउट के कैडेट बनकर हम दो बार लखनऊ के स्टेडियम में गए जहाँ बाल युवा समारोह था जिसके आयोजक भारती और जगदीश गांधी जी थे जो लखनऊ में मशहूर सिटी मोंटेसरी स्कूल के संस्थापकद्वय हैं.
हाईस्कूल में फेल हो गया
मेरी  गोदावरी बुआ हमको बहुत प्रेम करते थीं. उन्हीं दिनों वह बहुत गम्भीर रूप से बीमार हुईं और मेडिकल कालेज में भरती हो गयीं उन्हें खाना  देने अस्पताल जाया करता था. श्री नंदकिशोर बाजपेयी फूफा जी भी अक्सर हमारे घर आया करते थे. हम भी कभी-कभी उनके पास गर्मी की छुट्टियों में लालगंज रायबरेली जाया करते थे.
उधर सन् १९७० में हाईस्कूल में फेल हो गया  और उसके बाद विद्यालय में  साहित्य परिषद, विज्ञान परिषद  और सांस्कृतिक परिषद के चुनाव जीत गया. इन परिषदों में अध्यक्ष का चुनाव नहीं होता था. इनमें अध्यापक ही अध्यक्ष होते थे अतः साहित्य परिषद के अध्यक्ष श्री गंगाराम त्रिपाठी और सांस्कृतिक परिषद के अध्यक्ष लेखक श्री सुदर्शन सिंह जी थे. विज्ञान परिषद में लाइब्रेरियन, साहित्य परिषद में उपाध्यक्ष और सांस्कृतिक परिषद में मंत्री चुना गया था. विज्ञान परिषद में लाइब्रेरियन होने से जो विद्यार्थी पुस्तक देर से जमा करते थे उन्हें जुर्माना देना पड़ता था जिसका कुछ हिस्सा विज्ञानअध्यापक-कोष में बाकी स्वयं खर्च करने की इजाजत थी क्योंकि यह काम  खाली और अवकाश के समय मुझे करना होता था.
विद्यालय के कार्यक्रमों ने मेरी साहित्य की तरफ रूचि बढ़ायी।
रेलवे में नौकरी 
मेरे बाबा, पिताजी, बड़े फूफा जी सभी आलमबाग लखनऊ स्थित सवारी और मालडिब्बा कारखाना में काम करते थे. मेरे फेल होने पर मेरी रेलवे में श्रमिक की नौकरी की तैयारी शुरू हो गयी. मेरा साक्षात्कार लिया गया साक्षात्कार में खेल सम्बन्धी प्रश्न पूछे गए और एक बड़ा पत्थर का टुकड़ा और एक भरी बोरी को कंधे में रखकर दिखाना था.
सन् १९७२ में मैंने हाईस्कूल पास/ उत्रीण कर लिया था.  और मेरी नौकरी रेलवे में श्रमिक के तौर पर लग चुकी थी.  रेगुलर स्कूल में पढ़ना मुश्किल हो रहा था.
जब कारखाने में दिन की शिफ्ट में काम करता था तब प्रातः सुबह सात बजे से चार बजे तक काम करना होता था और विद्यालय भी प्रातः साढ़े सात बजे से शुरू होकर बारह -साढ़े बारह बजे समाप्त होता था.  शाम और रात की शिफ्ट में ही काम करके ही विद्यालय में जाना संभव हो पाता था.
खाली समय में कविता से प्रेम 
काम-करते-करते खाली समय में कविता की कुछ पंक्तियाँ जो भी कागज़ का टुकड़ा मिलता उसपर लिख लिया करता था. एक नोटबुक भी बनायी थी उसपर भी कवितायें लिखता रहता था. कभी-कभी एक घंटे के लन्च के अवकाश में और कभी काम समाप्त होने पर शाम छुट्टी के बाद विधानसभा  मार्ग पर दैनिक समाचारपत्र स्वतन्त्र भारत में प्रकाशन के लिए देने जाया करता था.  पास में ही आकाशवाणी  (रेडियोस्टेशन) था.
मेरे पिता जी भी कभी-कभी एक दो कवितायें गुनगुनाया करते थे जब मैं ४१/३ पुरानी लेबर कालोनी में रहता था.
उनके कोई भी बोल मुझे याद नहीं हैं.

बचपन के कुछ मित्र -सहपाठियों के नाम 

कक्षा एक से तीन तक के मित्रों में अमर प्रकाश गुप्ता, अमिता, झमन, अमोद वासदेव, इन्द्रा, मंजू और अन्य।
शम्भू पांजा, विनोद भल्ला, अशोक शर्मा(मुन्ना), सिराज अहमद ये पड़ोस में रहते थे और कक्षा चार-पांच के समय के सहपाठी  थे.
कंचन चटर्जी पड़ोस में रहता था अतः उसके साथ विजय सिंह के द्वार पर क्रिकेट खेलते थे.
कक्षा छः से कक्षा आठ तक के समय में अमर, रमन श्रीवास्तव, सुरेन्द्र (कोडू), कुंडू, महेन्द्र तिवारी, नरेश धमीजा, सूर्य प्रकाश, एक मित्र मास्टर कन्हैया लाल रोड  पर रहते थे  नाम याद नहीं आ रहा है.





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