मंगलवार, 27 नवंबर 2012

वाइतवेत सेंटर, ओस्लो में 6 दिसंबर शाम छः बजे (18:00)नोबेल पुरस्कार पर लेखक गोष्ठी में आपका हार्दिक स्वागत है।

लेखक गोष्ठी  में आपका हार्दिक स्वागत है।
 बृहस्पतिवार 6 दिसंबर शाम छः बजे (18:00)
चिली कुल्तूरहूस, वाइतवेत सेंटर  में
थूर्स्तैन विन्गेर नोबेल शांति पुरस्कार पर अपना वक्तव्य देंगे।
विल्सन गौरी और जे भट्टी हिन्दी सिनेमा के गीत प्रस्तुत करेंगे।
अनेक कवि  अपनी कविता प्रस्तुत करेंगे।
कार्यक्रम का सञ्चालन सुरेशचन्द्र शुक्ल  करेंगे।
speil.nett@gmail.com
आयोजक: Arrangør: Indisk-Norsk Informasjons -og Kulturforum
Postbox 31, Veitvet
0595 Oslo

Velkommen til forfatterkafe
torsdag den 6. desember kl. 18:00
på Chilensk kulturhus, Veitvetsenter (Oslo)
Vi markerer Nobels fredpris utdeling.
Foredrag: Torstein Winger
Musikk og sang: Javed Bhatti  og  Wilsan Ghauri fra Spania.
Flere vil lese dikt
Enkel servering.
Gratis inngang.
Arrangør: Indisk-Norsk Informasjons -og Kulturforum
Postbox 31, Veitvet
0595 Oslo
For mer informasjon ta kontakt med Suresh Chandra Shukla på tlf. 90 07 03 18
eller på e-post: speil.nett@gmail.com

बुधवार, 14 नवंबर 2012

Nehrus bursdag ble feiret på Forfatterkafe på Veitvet, Oslo


Nehrus bursdag ble feiret på Forfatterkafe på Veitvet, Oslo
Oslo, 14 november 2012.
Nehrus bursdag ble feiret på Forfatterkafe på Veitvet, Oslo. Leder av Indisk-Norsk Informasjons og Kulturforum ønsket velkommen og kastet lys over Jawahar Lal Nehru.
I denne anledningen fikk vi artister fra en musikkgruppe fra Spania og spilte klasisk musikk og sang fra Hindi/Bollywood Cinema. Jawed Bhatti og Wilson Ghouri har ledet musikk gruppe.
Inderjit Pal, Raj Kumar Bhatti og Suresh Chandra Shukla har lest sine dikt.       

ओस्लो में नेहरु जी का जन्म दिन मनाया गया।

ओस्लो में नेहरु जी का जन्म दिन मनाया गया। 

 14 नवम्बर 2012 को शाम पांच बजे स्तिक  इन्नोम, वाइतवेत, ओस्लो में भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु के जन्मदिन पर लेखक गोष्ठी संपन्न हुई।  भारतीय नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम के अध्यक्ष सुरेशचंद्र शुक्ल ने नेहरु जी के जीवन पर प्रकाश डाला। और सभी का स्वागत किया।  
मिलाप संगीत ग्रुप, बारसलोना, स्पेन के विल्सन गौरी, जावेद भट्टी और राज कुमार भट्टी ने इस अवसर पर मधुर गीत सुनाये जिसे दर्शकों ने बहुत पसंद किया।  
अंत में इन्दरजीत पाल और सुरेशचन्द्र  शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया।
आगामी लेखक गोष्ठी 10 दिसंबर को आयोजित हो रही है जिसमें नार्वे में नोबेल शांति पुरस्कार पर उत्सव मनाया जाएगा और जिसमें नोबेल पुरस्कार पर वक्तव्य, गीत संगीत का कार्यक्रम प्रस्तुत किया जायेगा।

रविवार, 4 नवंबर 2012

Photo of Diwali celebration on 3rd november at Høyenskole, Norway organized by Sports Cultural Federation of Norway

स्पोर्ट्स कल्चरल फेडरेशन ऑफ़ नॉर्वे द्वारा आयोजित दीवाली कार्यक्रम के चित्र :

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पंक्तियों के मध्य - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

पंक्तियों के मध्य
सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

यह दर्द भरा रिश्ता,
जिसको निभाना है,
यह मुझको मिला, यह तुमको मिला
कैसी उलाहना है।

कुछ तो है इसमें,
आकर्षित होते हैं,
कुछ खिंचे  चले आते,
कुछ अभी प्रतीक्षित हैं!


यह प्रेम नगर ऐसा
कण-कण में छिपा हुआ,
प्रिय जहाँ देखना चाहो,
दर्पण में दिख जाता।

यह प्रतिबिम्ब नहीं तो क्या,
पीछा छाया करती,
कुछ दुःख एकांतवासी,
सबसे बाँट रहे आंसू।।

जब तक आदर मन है,
तब तक ही प्रेम मधुर।
गुलाब सा रहना हो,
कांटे -पांखुरी सहचर।।

शरद में बरफ-पहाड़ बने,
गर्मी में बह झरना।।
मौसम ने सिखलाया
सीमा से परे रहना।।

खाख दरिया दिल हैं?
वादा न निभाना आया?
जीवन-नौका को संग,
न पार लगाना आया।।

कितने भवनों के मालिक!
क्यों मेहमानों से खाली।।
धन धान्य एकत्र किये हो,
मन-मिट्ठू बने सवाली।।
 

बुधवार, 31 अक्तूबर 2012

पाकर पत्र तुम्हारा मित्र! वापसी में भेजा सन्देश। .- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

 आज कई पत्रों के जवाब दिए और कुछ जवाब जो नहीं प्राप्त कर पाए हों तो वह यहाँ से प्राप्त कर लें।
 पहले जैसा तो समय रहा नहीं कि  कागज और कलम लेकर रोज पत्र लिखा जाए, खासकर उनको जिनके पास नेट और कंप्यूटर की सुविधा है। हालाँकि अभी भी डाक से पत्र भेजना नहीं भुला हूँ। - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

पाकर पत्र  तुम्हारा मित्र!
वापसी में भेजे (दो)चित्र/ सन्देश।
इसी के अन्दर छिपकर आज
उमड़ बरसूँ  तुम पर शेष।।

पाती पाकर तेरी आज
सुहाये  यह बर्फीला प्रभात
पिघल जाए बनकर  मोम
उसे  कहते हैं प्रेम बयार।

कहें परी या राजकुमारी आज,
बिन छुएँ, नयन बिन देख,
समय को खो देने के बाद
नहीं पढ़ पाए प्रिय सन्देश।
उलझ कर फिर कोई न फंसे
मकड़  जाले से डोरे डाल। 
खोलकर मन के सभी रहस्य
मचा जाते मन में भूचाल।। 

कहीं शाश्वत है न यह छल
नयन से बह जाते पल-पल।
यही है महलों का संसार,
हवा में बनाते रहते महल।।

नहीं आते हैं दुश्मन याद,
जब धोखा देते अपने लोग।
कौन है सच्चा-झूठा आज,
छिपे परदे में पाँव पसार।।

जहाँ मिले थे पहली बार,
बनाकर सपनों के वे महल।
बालू से घर, मुट्ठी में आस,
ऊँचाई से गिरने की पहल।।

गणित के पाठ रटे थे साथ,
बन्द कोष्ठकों में धन ऋण।
डूबने को चुल्लू भर व्याप्त,
बचा लेता चींटी को तृण।।

प्रेम के महल मरीचकी  प्यास,
दोनों ही एक नाव सवार।
नहीं दे सकते हैं तृप्ति,
जहाँ पड़ा है अनत आकाश।

बांटने से बढ़ता है प्रेम,
और बंधन से घुटता आज।
करो न मनु का तिरस्कार,
उसी से  बनता आज समाज।।

समझ बैठे थे प्रेमी को धन,
सबसे बड़ी वही थी भूल।
चूमने चले थे समझ गुलाब,
चुभ थे नस्तर बनकर  शूल।।
 
 सभी धर्मों का जहाँ सम्मान,
वही है मेरा  भारत देश।
जहाँ है दर्शन का विस्तार,
सत्य अहिंसा का सन्देश।।
 

शुक्रवार, 12 अक्तूबर 2012

नोबेल शांति पुरस्कार यूरोपीय यूनियन को

 नोबेल शांति पुरस्कार यूरोपीय यूनियन को

ओस्लो, 12 अक्टूबर 2012. नोबेल शांति पुरस्कार यूरोपीय संघ को दिया जाएगा। यह घोषणा आज नोबेल समिति के अध्यक्ष थूरब्योर्न यागलांद ने की। उन्होंने कहा की यूरोपीय संघ युद्ध देश के महाद्वीप से बदलकर शांति और प्रगति का महाद्वीप  
बन गया है।
सपाइल के सम्पादक ने कहा की युर्पीय यूनियन को  रोमा जनता के लिए भी बहुत कुछ करना चाहिए जो यूरोप में एक देश से दुसरे देश के बीच गेंद की तरह फेके जा रहे हैं कोई देश उन्हें सहयोग देने के लिए नहीं तैयार है।
नोबेल साहित्य पुरस्कार चीनी  मू यान को

स्टाकहोम, 11 अक्टूबर 2012.   नोबेल साहित्य पुरस्कार चीन के मू यान को दिया जाएगा। यह घोषणा स्वीडेन की स्वेन्स्का अकादेमियान (स्वीदीय अकादमी) ने की। मू यान पैना, मूल और मनोरंजक लिखते हैं। यह एक  और दिलचस्प विजेता हैं जिनका सम्बन्ध महाशक्ति के साहित्य से है। पुरस्कार के पहले मू को विदेशों में कोई नहीं जनता था अब पुरस्कार मिलने के बाद उनके साहित्य का अनुवाद और प्रकाशन बढ़ जाएगा। स्वीडेन के जाने माने पत्रकार और  प्रकाशक गाबी गलाइकमान ने कहा है कि यह पुरस्कार गलत दिया गया है। - स्वेन्स्का अकादेमियान ने बारह वर्षों में दो बार चीनी लेखकों को पुरस्कार दिया है। उन्होंने आगे कहा  पहले वाले लेखक बहुत ख़राब लिखते थे। इस बार भी पुरस्कार समिति का आकलन गलत रहा है। पुरस्कार विजेता का कमुनिस्ट पार्टी से नजदीकियां हैं जो समस्यात्मक है।

सोमवार, 1 अक्तूबर 2012

 चित्र में बाएं से सम्पादक सुरेशचंद्र शुक्ल, सांसद  सत्यव्रत चतुर्वेदी, विदेश राज्य मंत्री प्रेनीत कौर, दिल्ली प्रदेश की स्वस्थ मंत्री वालिया जी, मारीशस के संस्कृति मंत्री मुकेश्वर चुन्नी स्पाइल-दर्पण के लोकार्पण के अवसर पर। 
9वां विश्व हिंदी सम्मलेन युहानेस्बर्ग दक्षिण अफ्रीका में संपन्न  
22 से  24 सितम्बर को युहान्नेसबर्ग, दक्षिण अफ्रीका में विश्व हिन्दी सम्मलेन धूम-धाम से संपन्न हुआ।  
यह सम्मलेन महात्मा गांधी और नेल्सन मंडेला को समर्पित था।  प्रवासी साहित्य पर एक अच्छी बहस हुई। 
हर देश में रचा जा रहा हिन्दी साहित्य उस देश का हिन्दी साहित्य है।  इस सम्मलेन में पूरे विश्व से 700 हिन्दी प्रेमियों ने हिस्सा लिया।  देश विदेश के कुछ विद्वानों को पुरस्कृत किया गया।  अनेक सत्रों में विभिन्न विषयों पर विचार विमर्श किया गया। नार्वे से सुरेशचंद्र शुक्ल ने बताया कि दिल्ली के विद्वान और अध्यापकों ने बिना पढ़े ही या कम पढ़कर अधिक लिखने और बोलने की अपनी परंपरा चला रहे हैं जिसे न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। उन्होंने यह भी बताया प्रवासी साहित्य पर किसी भी विद्वान् की पकड़ नहीं है क्योंकि वे पत्रिकाएं और समाचार पत्र   नहीं पढ़ते  और सूचना एकत्र नहीं करते।  अपनी सूचना के श्रोत न देने से उनके संकलन और पुस्तकें  विश्वसनीय नहीं बन पायीं हैं जिसमें प्रकाशकों का और सरकार  का बहुत  धन भी खर्च होता है।
लोकार्पण समारोह में के अलावा  भी समापन समारोह में भी लोकार्पण हुआ। 
स्पाइल-दर्पण  पत्रिका का समापन समारोह में लोकार्पण हिन्दी पत्रिका 

नार्वे से गत 7 वर्षों से एकमात्र हिंदी पत्रिका और जो गत 24 वर्षों से नियमित प्रकाशित हो रही है, का और लोकार्पण मारीशस के संस्कृति मंत्री मुकेश्वर चुन्नी, सांसद सत्यव्रत चतुर्वेदी और भारत की विदेश राज्य मंत्री माननीय प्रनीत  कौर ने संयुक्त रूप से किया। संपादक सुरेशचंद्र शुक्ल ने हिन्दी सम्मलेन को एक संगम की संज्ञा दी।  कार्यक्रम की विस्तृत रिपोर्ट पत्रिका में प्रकाशित के जायेगी। कुछ चित्र संलग्न हैं।





गुरुवार, 6 सितंबर 2012

Invitasjon til forfatterseminar

INVITASJON आमंत्रण
Forfatterseminar भारत-नार्वे लेखक सेमिनार 
साहित्य समाज का दर्पण होता है।
Søndag den 16. september 2012 kl. 14:00-16:20
Sted: på Litteraturhuset, Wergelandsveien, Wergelandsveien 29, 0167 Oslo
विषय  :भारत-नार्वे साहित्यिक सम्बन्ध 
Tema: Indisk-norsk litteræt samarbeid
इस कार्यक्रम में भारतीय, नार्वेजीय और प्रवासी लेखक भाग लेंगे। 
कार्सतेन अल्नेस   और ब्रिजेन्द्र कुमार त्रिपाठी जी को स्पाइल -संस्कृति पुरस्कार दिया जाएगा।
Foredrag
Torstein Winger
Suresh Chandra Shukla
Sigmund Løvåsen
Frøydis Alvær
Kulturpris deles til:
 Karsten Alnæs og Brajendra Kumar Tripathi
Poesi
Gratis inngang!
प्रवेश निशुल्क!


Kan du bidra med ta kontakt:
Indisk-Norsk Informasjons –og Kulturforum, Pb 31, Veitvet 0518-Oslo
speil.nett@gmail.com telefon: 22 25 51 57, Mobil: 90 07 03 18 

शनिवार, 25 अगस्त 2012

नार्वे में सांस्कृतिक महोत्सव में भारतीय स्वाधीनता दिवस धूमधाम से संपन्न

नार्वे में सांस्कृतिक महोत्सव में भारतीय स्वाधीनता दिवस धूमधाम से संपन्न
15 अगस्त को वाइतवेत सेंटर में भारतीय नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम की ओर से आयोजित सांस्कृतिक महोत्सव में भारतीय स्वतंत्रता दिवस धूमधाम से मनाया गया।  कविता, गीत, संगीत और नृत्य के इस मिले-जुले रंगारंग कार्यक्रम में मुख्य अतिथि थूर्स्ताइन विन्गेर ने भारतीय स्वाधीनता में महात्मा गांधी के योगदान की सराहना करते हुए भारतीय प्रगति के उदाहरण देते हुए भारत की प्रशंसा की और सभी को इस दिन पर बधाई     दी। भारतीय दूतावास की तरफ से सीलेश कुमार ने बढ़ायी दी। संस्था के उपाध्यक्ष हराल्ड बूरवाल्द  ने  सभी का स्वागत करते हुए संस्था की स्थापना के बारे में विस्तार से बताया। अध्यक्ष सुरेशचंद्र शुक्ल ने बताया की हमारा उद्देश्य भारत और नार्वे के मध्य सांस्कृतिक संबंधों को मजबूत बनाना तो है ही साथ ही नार्वे में अन्य  संस्कृतियों के मध्य  भी सेतु का कार्य करना है। 
कार्यक्रम में कवता, संगीत और नृत्य प्रस्तुत किये गए। कार्यक्रम के अंत में सामूहिक नृत्य हुआ और भारतीय भोजन की सेवा दी गयी। इस कार्यक्रम में युवाओं और बच्चों का उत्साह देखते नहीं बनता था। 

शनिवार, 11 अगस्त 2012

नार्वे में 15 अगस्त

 ओस्लो में 15 अगस्त  2012 को कार्यक्रम 
 ध्वजारोहण कार्यक्रम 
 प्रातः काल 08:30 बजे भारतीय राजदूत के  निवास, ओस्लो  पर  ध्वजारोहण कार्यक्रम 
 
15 अगस्त को शाम 6 बजे (18:00) के लिए  Invitasjon आमंत्रण
सभी आमंत्रित है
15 अगस्त भारतीय स्वाधीनता दिवस के पावन पर्व पर 
24.वाँ  सांस्कृतिक महोत्सव,  कविता, संगीत और नृत्य के साथ
स्थान: Chilensk Kulturhus, Veitvet Senter, Oslo
बुधवार 15  अगस्त को  शाम छ: बजे (Kl. 18:00)
आप सादर आमंत्रित हैं. आप अपने परिवार और मित्रों को साथ ला सकते हैं.
अधिक जानकारी के लिए संपर्क कीजिये: टेलीफोन: 22 25 51 57
निवेदक:
भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम
Indisk-Norsk Informasjons -og Kulturforum
   
Hei,
Indisk-Norsk Informasjons -og Kulturforum
inviterer til
den 24. Internasjonale kulturfesten
med dikt, musikk og dans

Sted: Chilensk Kulturhus, Veitvet Senter, Oslo
Onsdag den 15. August 2012 kl. 18:00.
Det er årlig arrangement og vi skal feire den indiske nasjonaldagen samtidig.
Fri inngang.
Lett servering.
Vi sees!
Suresh Chandra Shukla
Mobil: 90 07 0318

गुरुवार, 2 अगस्त 2012

आज रक्षाबंधन का दिन है।

रक्षाबंधन में पूर्णिमा चाँद बहुत भला लगता है पर जब दिखाई दे तब  
ओस्लो में कल मैंने माया को पूरा चाँद दिखाया था, जिसे आज बदली और बरसात होने के कारण आसमान में चाँद देखना असंभव है।  आज रक्षाबंधन का दिन है। उत्तर भारत में ही नहीं वरन पूरे विश्व में जहां-जहां भी भारतीय बसे हैं वे रक्षाबंधन पर्व मनाते हैं। ईमेल से कई पत्रों में रक्षाबंधन की शुभकामनाएं प्राप्त हुई तो भारत की यादें ताजी हो गयीं। अपनी बड़ी बहन श्रीमती आशा तिवारी जी से रक्षाबंधन के अवसर पर आशीर्वाद प्राप्त किया किया।
पिछले वर्ष रक्षाबंधन के दिन यहाँ ओस्लो में मेरे घर पर डॉ. विद्याविन्दु सिंह और लखनऊ विश्विद्यालय में हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्ष और कवियित्री कैलाश देवी सिंह जी ने राखी बांधी थी।  माया ने शान्तिनिकेतन में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष रामेश्वर मिश्र को राखी बांधी थी।  राखी के धागे कितना पवित्र रिश्ता जोड़ देते हैं। आज ईमेल के माध्यम से रक्षाबंधन पर्व पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ।
पहले रक्षाबंधन सुरक्षा, त्याग, औ र  बलिदान की प्रतिमूर्ति हुआ करता था, आज भाई-बहन का रिश्ता निभाने की मर्यादा  मानने वालों पर निर्भर होती है। कोई गैर होकर भी भाई-बहन का फर्ज निभाकर रक्षाबंधन की लाज रखते हैं, कोई केवल धन को महत्त्व देता है जो बहन के लिए त्याग और बलिदान नहीं कर पाता ।  सभी की अपनी अपनी मान्यताएं और सीमायें हैं जिनमें वे सभी बंधे हैं।
'भाई-बहन का रूठना
प्यार से उन्हें मनाना
एक कोख में पले और बड़े हुए भी भुला देते हैं फर्ज
दूर के सुहावने बोल से खींचे चले जाते हैं।
अहसासों के रिश्ते जब मिश्री घोलने लगते हैं तो
वह अपने, सिर्फ अपने हो जाते हैं।'
ये पंक्तियाँ मुझे स्वर्गीय रामश्रय त्रिवेदी की पुत्री यानि हमारी जननो जिज्जी तथा  पिताजी के गाँव की बिटानिया  बुआ  जो दोनों ही अपने सगों से पहले हमारे घर रक्षा बंधन और भैयादूज के दिन आती थीं। जन्नो   जिज्जी (जान्हवी)  हमको तथा बिटानिया बुआ पिताजी को तिलक लगाकर धागे बांधती थी।  मिठाई लाती थीं.

 स्वतन्त्र विचारों में परिवर्तन 
जीवन के अर्थ  समय के साथ बदलने लगा है।  जहाँ पश्चिम में स्वतन्त्र सोच का विशेष महत्त्व है वहीं अभी भी बहुत से लोग यहाँ रहकर भी दूसरों की सोच के पराधीन हैं. अपने परिवार पर तो सभी लोग खर्च कर सकते होंगे। पर वह व्यक्ति कंजूस नहीं है जो दूसरों पर दिल खोलकर खर्च करता है।

मैंने अपने नार्वेजीय भाषा में छपे कवितासंग्रह 'फ्रेम्मदे फ्युग्लेर' (अनजान पंछी) में एक बुजुर्गों पर लिखी एक कविता में लिखा था-
'बुजुर्गों आप अपना धन अपने लिए
अपने इलाज के लिए
अपनी बैसाखियों के लिए प्रयोग करें,
अपनी संतान के लिए 'ज्याजाद एकत्र न करें।'
यह एक लम्बी कविता है। जब इसे पढता हूँ बुजुर्गों की आँखें नम हो जाती हैं. इस कविता में उनका एकाकीपन, उनकी असमर्थता और आदर्श उन्हें कचोटता  है। पर कुछ कर नहीं सकते।
एक कहावत है-
'पूत सपूत तो क्यों धन संचै
पूत कुपूत तो क्यों धन संचै।'
साहित्य समाज का दर्पण होता है और कविता उसकी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है।
नार्वे में घोंगा के कीमत 
इस बार नार्वे में गर्मी का मौसम बरसात में बदल गया है।  लोग धूप  को तरस गए हैं।  बरसात के कारण घोंगाओं की भरमार हो गयी है. कुछ स्थानों पर इनसे बहुत नुकसान  पहुँच रहा है।  एक नगर में तो नगरपालिका ने एक किलो घोंगा एकत्र करने की कीमत दो सौ नार्वेजीय क्रोनर रखे हैं।  लोगों से इसमें सहयोग देने की अपील की है।
(ओस्लो, 02-08-12) 

बुधवार, 1 अगस्त 2012

आज संगीता की शादी की वर्षगाँठ।

आज 1 अगस्त है। आज संगीता की शादी की वर्षगाँठ। बहुत-बहुत बधायी।   हम लोगों ने इस अवसर पर केक काटकर इसकी शुरुआत की, जो यहाँ पश्चिम की रीति है. संगीता और दामाद रोई थेरये  को संयुक्त रूप से फूलों के गुलदस्ते  भेंट किये गए गये।
14 वर्षों पूर्व ओस्लो, नार्वे में 1 अगस्त 1998 को मेरी बेटी संगीता का विवाह हुआ था। मेरी माताजी भारत से शादी में सम्मिलित होने  आयीं थी।  वह बहुत खुश थीं। मेरे बड़े भतीजे जय प्रकाश को भी आना था उसके टिकट और वीजा के लिए अग्रिम कार्यवाही भी हो गयी थी पर वह पता नहीं क्यों नहीं आया। मेरे मित्र डॉ सत्येन्द्र सेठी कहते हैं कि जय प्रकाश ने
एक बहुत बड़ा अवसर खोया।   विदेशों में रहने वाले लोग अपने सबसे चहेते व्यक्ति को अपनी शादी-जन्मदिन आदि में भारत से बुलाते हैं।   कई बार ऐसा होता है कि व्यक्ति स्वयं सही निर्णय ले नहीं पाता .  जय प्रकाश क्यों नहीं राजी हुआ आज तक उस बात का मुझे पता नहीं चल पाया।   खैर शादी से परिवार के सभी लोग प्रसन्न थे। मुझे स्मरण है की मेरे पिताजी लखनऊ में जब संगीता बहुत छोटी थी उसे बहुत चाहते थे। वैसे   कहा भी गया है कि मूल से अधिक ब्याज प्यारा होता है।
जब संगीता की शादी हुई थे तब  भारत में भी परिवार में इस अवसर पर केक काटकर और लड्डू बाँटकर ख़ुशी मनाई गयी थी।
आजकल ओस्लो में फ़ुटबाल का अंतर्राष्ट्रीय कप 'नार्वे कप'  की चहल -पहल है. वैसे तो लन्दन में ग्रीष्मकालीन ओलम्पिक खेल हो रहे हैं।  आज छोटे  बेटे अर्जुन का फ़ुटबाल मैच था. सभी उसका मैच देखने गए थे एकेबर्ग, ओस्लो में।
समय कितनी तेजी से बीत रहा है।जब हम पुरानी घटनाओं को याद करते हैं तब बीते हुए समय का अहसास अधिक
होता है।
समय पंख लगाकर संग उड़ा रहा है. हम उड़े चले जा रहे हैं, किसी को साथ लेकर और किसी को छोड़ते हुये. मुझे स्मरण है मेरे एक मित्र कृष्ण कुमार अवस्थी जी, जो तेलीबाग लखनऊ में रहते हैं, वह कुछ वर्ष पहले अपनी धर्म पत्नी और अपने कुछ डेनमार्क के मित्रों के साथ मेरे ओस्लो निवास पर आये थे। तब उन्होंने  शंख बजाया था उसकी गूँज आज भी मुझे याद है।  जिस तरह शंख की गूँज कुछ समय तक अपना अस्तित्व का बोध कराती है ठीक उसी तरह  हमारा जीवन इस संसार में रहकर लुप्त हो जाता है।
आज एक घटना ने मेरा मन कुछ दुखी किया जब टीवी पर देखा सूना कि पूना में चार जगह बम विस्फोट हुआ है। अभी दो तीन दिन के बिजली संकट  (ब्लैक आउट) से  उबरे ही थे कि  दूसरे संकट दस्तक देते हैं। चलो जान-माल का नुकसान नहीं हुआ।  

शनिवार, 21 जुलाई 2012

जनता की बैचेनी ही लोकतंत्र का विकल्प बनेगी. - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

 जनता की बैचेनी ही लोकतंत्र  का विकल्प बनेगी.  -
सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'
जनता की बैचेनी ही लोकतंत्र  का विकल्प बनेगी. 
जनता का निर्णय सत्य हुआ तो कायाकल्प करेगी।
महंगाई से रोई जनता कब तक अब सोयेगी
दूजों का बोझ बहुत उठाया, अब अपना बोझ उठाएगी।

अपना नेता चुना जिन्हें था, कुछ  तो मद में खोये हैं.
जनता का पैसा लुटा रहे हैं कुछ,  खुद भी लूट रहे हैं?
सहकारिता से एकजुट होकर  अपना संसार रचेंगे।
देश की खाने, बीमार मिलों को फिर से वापस लायेंगे।

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई  का  भारत देश महान है
गांधी सुभाष आजाद भगत  के सपनों की खान है
जब तक अपना सम्मान है तब तक अपना अभिमान है
 दुनिया में सदा महान रहा है भारत और  सदा महान है. 

हम कर भी देंगे, श्रमदान करेंगे, देश को खुशहाल करेंगे।
बेईमानों को  इमान सिखाकर  मिलकर नेतृत्व  करेंगे ।
पहले तो बहुत टूटे हैं भैया, अब हम गरीब नहीं टूटेंगे।
गरीब -अमीर दोनों के  खातिर सामान द्वार खोलेंगे।

नार्वे में लेखक गोष्ठी में लेखक सम्मानित - माया भारती

नार्वे में लेखक गोष्ठी में लेखक सम्मानित - माया भारती
भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम के तत्वावधान में आयोजित लेखक गोष्ठी में लेखकों को सम्मानित किया गया।  लेखकों को सम्मानित करते हुए नार्वे में हिंदी के साहित्यकार  और गत 24 वर्षों से नार्वे से प्रकाशित एकमात्र द्वैमासिक, सांस्कृतिक-साहित्यिक पत्रिका  स्पाइल-दर्पण के सम्पादक  सुरेशचंद्र शुक्ल ने नार्वे में एक वर्ष पहले आतंकी हमले में मारे जानेवाले बेक़सूर लोगों को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि आज हिंसा और शक्ति के  दुरूपयोग से बदलाव नहीं आएगा वरन प्रजातंत्र और मानवाधिकारों की बहाली से ही बदलाव आएगा। उन्होंने नार्वे के प्रधानमत्री के उस बयान को दोहराते हुए कहा ' रोमा लोगों को एक समूह के रूप में किसी भी तरह विरोध और घृणा नहीं की जानी चाहिए।   एक वर्ष पूर्व आतंकी हमले के बाद हमने प्रेम और सहयोग से एक दूसरे  के साथ  सम्मान पूर्वक रहने की बात दोहराई थी. तब ओस्लो में दो लाख लोगों ने घृणा के खिलाफ प्रेम को प्रमुखता देते हुए गुलाब मार्च किया था। अभी हाल में नार्वे में  में रोमानिया से लगभग दो हजार रोमा लोग आर्थिक तंगी से ऊब कर नार्वे  हुए हैं, इनमें से सैकड़ों लोगों भीख मांगकर  अपना गुजर-बसर कर रहे हैं। रोमा लोगों ने अनेक जगह अपने शिविर-तम्बू तान रखे हैं जहाँ उनके पीने के पानी और शौचालय की समस्या आती है।  पास - पड़ोस के नार्वेजीय लोग इससे परेशान हैं. 6000 लोगों के ओस्लो में एक सर्वेक्षण के अनुसार 74 प्रतिशत लोग भीक मांगने के खिलाफ प्रतिबन्ध के पक्ष में हैं।  स्थानीय लोगों के खिलाफत के बाद नार्वे के प्रधानमंत्री ने रोमा लोगों का बचाव करते हुए उनसे सम्मान पूर्वक व्यवहार करने और विरोध और घृणा को समाप्त करने की बात कही। क्योंकि नार्वे (यहाँ) के मीडिया के अनुसार  सोशल मीडिया में बहुत से लोगों ने नार्वे में हाल ही आये रोमा लोगों के खिलाफ अपने सख्त विचार व्यक्त किये थे।
 ओस्लो की स्थानीय सरकार ने प्रतिबन्ध का प्रस्ताव भी पास किया है पर राष्ट्रीय पार्लियामेंट ने कोई प्रतिबन्ध का क़ानून नहें बनाया है न ही प्रतिबन्ध लगाने को जरूरी समझा है।  ओस्लो के स्थानीय पार्लियेमेंट के पूर्व सदस्य और बिएरके बीदेल में लेबर पार्टी के चुनाव समिति के सदस्य सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'  ने आगे कहा कि भीख मांगने पर प्रतिबन्ध लगाना  समस्या का समाधान नहीं है। हर एक को अपनेलिए सहायता मांगने का अधिकार होना चाहिए। उन्होंने कहा महात्मा गांधी ने हमेशा प्रेम, शांति और अहिंसा को सर्वोपरि रख कर विश्व में शांति स्थापना का कार्य किया जिसका नेल्सन मंडेला, मार्टिन लूथर किंग,  दलाई लामा आदि ने अनुसरण किया।
सम्मानित होने वाले लेखकों और सांस्कृतिक कर्मियों जिनको पदक देकर सम्मानित किया गया उनके नाम हैं राजकुमार, राय  भट्टी,  इन्दर खोसला,  सुरागुल घैयरात, सिग्रीद मारिये रेफ्सुम, इंगेर मारिये लिल्लेएंगेन और  चरण सिंह सांगा थे। कार्यक्रम के अंत में कविगोष्टी  संपन हुई. 

सोमवार, 16 जुलाई 2012

नार्वे में लेखक गोष्ठी Velokommen til Forfatterkafe

Velokommen til स्वागतम 
Forfatterkafe  नार्वे में  लेखक गोष्ठी 

Vi markerer 22. juli, ved å lese dikt
og minne de som har mistet liv. 
Suresh Chandra Shukla holder foredrag og
og dikt på hindi, urdu, punjabi og tamil blir lest.
 
torsdag den 19. juli kl. 18:00
på Chilensk kulturhus,  Veitvet senter 
Veitvetveien 8, Oslo

Alle er velkomne.
Arrangør: Indisk-Norsk Informasjons -og Kulturforum
Postboks 31, Veitvet
0595 Oslo 

नार्वे में  लेखक गोष्ठी
लेखक गोष्ठी  में आपका स्वागत है
बृहस्पतिवार  19 जुलाई   को 18:00 बजे 
लेखक गोष्ठी  में आपका स्वागत है 
चिली कल्चर हाउस, वाइतवेत  सेंटर, ओस्लो में 
शोक सभा और कविता पाठ 
भारतीय-नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम 
ओस्लो, नार्वे    
अधिक सूचना एवं संपर्क के लिए : फोन: 22 25 51 57  

शनिवार, 14 जुलाई 2012

कवितायेँ - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'


1
जो दहेज़ देते हैं
जो दहेज़ लेते हैं
जब दोनों ही कायरता
फिर कायर क्यों कहलाना.

जब तक हम आश्रित हैं
आर्थिक स्वतन्त्र नहीं हैं,
पिजड़े के पक्षी सा
परतंत्र सदा रह जाना.

2
वे बुझे हुए दीपक हैं
उनसे क्या आशा रखना
जितना भी उन्हें जलाओ
उनको आता बस बुझना.

गिरकर उठती हैं लहरें
उठकर ही उन्हें संभालना.
जो सदा हवा में उड़ते
क्या जाने भू पर चलना..

ठोकर लगकर ही आया
जीवन में आगे बढ़ना
जिस पथ पर चल कर आये
उसका हिसाब भी रखना..



दारा सिंह खेल की दुनिया में आदर्श पहलवान और हिंदी फिल्मों के पहले सफल बलशाली अभिनेता थे - सुरेशचंद्र शुक्ल

दारा  सिंह खेल की दुनिया में आदर्श पहलवान और हिंदी फिल्मों के  पहले  सफल  बलशाली  अभिनेता थे - सुरेशचंद्र शुक्ल

दारा सिंह अपने समय के सफल पहलवान थे उनकी अंतर्राष्ट्रीय कुश्ती देखने के लिए स्टेडियम तक दर्शकों से भर जाते थे।  फिल्मों में   इतने आकर्षक  थे मुमताज ने उनके साथ 16 फिल्मो में अभिनय तो किया ही  साथ ही  दारा सिंह से शादी का प्रस्ताव भी रखा.  आम लोगों से लेकर खास लोग भी उनके प्रशंसक  थे। फिल्म अभिनेता मनोज कुमार ने उन्हें एक फ़रिश्ता कहा।  आइये पढ़िए दारा सिंह के बारे में एक लेख - सुरेशचंद्र शुक्ल
दारा सिंह ने खेल और मनोरंजन की दुनिया में समान रुप से नाम कमाया
दारा सिंह ने खेल और मनोरंजन की दुनिया में समान रुप से नाम कमाया और अपने काम का लोहा मनवाया। यही वजह है कि उन्हें अभिनेता और पहलवान दोनों तौर पर जानते हैं। अखाड़े से फिल्मी दुनिया तक का सफर दारा सिंह के लिए काफी चुनौती भरा रहा। बचपन से ही पहलवानी के दीवाने रहे दारा सिंह का पूरा नाम दारा सिंह रंधावा है। हालांकि चाहनेवालों के बीच वे दारा सिंह के नाम से ही जाने गए। सूरत सिंह रंधावा और बलवंत कौर के बेटे दारा सिंह का जन्म ( 19 नवंबर 1928 -12 जुलाई 2012) को पंजाब के अमृतसर के धरमूचक (धर्मूचक्क/धर्मूचाक/धर्मचुक) गांव के जाट-सिख परिवार में हुआ था। उस समय देश में अंग्रेजों का शासन था। दारा सिंह के पिताजी बाहर रहते थे। दादाजी चाहते कि बडा होने के कारण दारा स्कूल न जाकर खेतों में काम करे और छोटा भाई पढाई करे। इसी बात को लेकर लंबे समय तक झगडा चलता रहा। वह हंसते हुए बताते हैं, मां मेरे उठने से पहले मेरा बस्ता छुपा देतीं ताकि मैं दादाजी का कहना मान खेतों पर चला जाऊं।




दारा सिंह ने अपनी जीवन के शुरूआती दौर में ही काफी मुश्किलें देखी हैं। अपनी किशोर अवस्था में दारा सिंह दूध व मक्खन के साथ 100 बादाम रोज खाकर कई घंटे कसरत व व्यायाम में गुजारा करते थे। कम उम्र में ही दारा सिंह के घरवालों ने उनकी शादी कर दी। नतीजतन महज 17 साल की नाबालिग उम्र में ही एक बच्चे के पिता बन गए लेकिन जब उन्होंने कुश्ती की दुनिया में नाम कमाया तो उन्होंने अपनी पसन्द से दूसरी शादी सुरजीत कौर से की।



आज दारा सिंह के भरे-पूरे परिवार में तीन बेटियां और तीन बेटे हैं। उन्हें टीवी धारावाहिक रामायण में हनुमानजी के अभिनय से अपार लोकप्रियता मिली जिसके परिणाम स्वरूप 2003 में भाजपा ने उन्हें राज्यसभा की सदस्यता भी प्रदान की। दारा सिंह 2003 से 2009 तक राज्यसभा के सासद रह चुके हैं। 1978 में दारा सिंह को रुस्तम-ए-हिंद के खिताब से नवाजा गया।

कुश्ती में
दारा सिंह अपने जमाने के विश्व प्रसिद्ध फ्रीस्टाइल पहलवान हैं। साठ के दशक में पूरे भारत में उनकी फ्री स्टाइल कुश्तियों का बोलबाला रहा। दारा सिंह को पहलवानी का शौक बचपन से ही था। बचपन अपने फार्म पर काम करते-करते गुजर गया, जिसके बाद ऊंचे कद मजबूत काठी को देखते हुए उन्हें कुश्ती लड़ने की प्रेरणा मिलती रही। दारा सिंह ने अपने घर से ही कुश्ती की शुरूआत की। दारा सिंह और उनके छोटे भाई सरदारा सिंह ने मिलकर पहलवानी शुरू कर दी और धीरे-धीरे गांव के दंगलों से लेकर शहरों में कुश्तियां जीतकर अपने गांव का नाम रोशन करना शुरू कर दिया और भारत में अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश में जुट गए।
दारा सिंह ने अखाड़े में पहलवानी सीखी। उस दौर में दारा सिंह को राजा महाराजाओं की ओर कुश्ती लड़ने का न्यौता मिला करता था। हाटों और मेलों में भी कुश्ती की और कई पहलवानों को पटखनी दी।
आजादी के दौरान 1947 में दारा सिंह सिंगापुर पहुंचे। वहां रहते हुए उन्होंने भारतीय स्टाइल की कुश्ती में मलेशियाई चैंपियन त्रिलोक सिंह को पराजित कर कुआलालंपुर में मलेशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप जीती। उसके बाद उनका विजयी रथ अन्य देशों की ओर चल पड़ा और एक पेशेवर पहलवान के रूप में सभी देशों में अपनी कामयाबी का झंडा गाड़कर वे 1952 में भारत लौट आए। करीब पांच साल तक फ्री स्टाइल रेसलिंग में दुनियाभर (पूर्वी एशियाई देशों) के पहलवानों को चित्त करने के बाद दारा सिंह भारत आकर सन 1954 में भारतीय कुश्ती चैंपियन (राष्ट्रीय चैंपियन) बने। दारा सिंह ने उन सभी देशों का एक-एक करके दौरा किया जहां फ्रीस्टाइल कुश्तियां लड़ी जाती थीं।
इसके बाद उन्होंने कॉमनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैंपियन किंग कॉन्ग को भी धूल चटा दी। दारा सिंह की लोकप्रियता से भन्नाए कनाडा के विश्व चैंपियन जार्ज गार्डीयांका और न्यूजीलैंड के जॉन डिसिल्वा ने 1959 में कोलकाता में कॉमनवेल्थ कुश्ती चैंपियनशिप में उन्हें खुली चुनौती दे डाली। नतीजा वही रहा। यहां भी दारा सिंह ने दोनों पहलवानों को हराकर विश्व चैंपियनशिप का खिताब हासिल किया।
कॉमनवेल्थ चैपियनशिप के बाद दारा सिंह का मिशन था पूरी दुनिया को अपना दम-खम दिखाना। भारत के इस पहलवान ने दुनिया के लगभग हर देश के पहलवान को चित किया। आखिरकार अमेरिका के विश्व चैंपियन लाऊ थेज को 29 मई 1968 को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैंपियन बन गए। कुश्ती का शहंशाह बनने के इस सफर में दारा सिंह ने पाकिस्तान के माज़िद अकरा, शाने अली और तारिक अली, जापान के रिकोडोजैन, यूरोपियन चैंपियन बिल रॉबिनसन, इंग्लैंड के चैपियन पैट्रॉक समेत कई पहलवानों का गुरूर मिट्टी में मिला दिया।
1983 में कुश्ती से रिटायरमेंट लेने वाले दारा सिंह ने 500 से ज्यादा पहलवानों को हराया और खास बात ये कि ज्यादातर पहलवानों को दारा सिंह ने उन्हीं के घर में जाकर चित किया। उनकी कुश्ती कला को सलाम करने के लिए 1966 में दारा सिंह को रुस्तम-ए-पंजाब और 1978 में रुस्तम-ए-हिंद के खिताब से नवाज़ा गया।
दारा सिंह ने करीब 36 साल तक अखाड़े में पसीना बहाया और अब तक लड़ी कुल 500 कुश्तियों में से दारा सिंह एक भी नहीं हारे, जिसकी बदौलत उनका नाम ऑब्जरवर न्यूजलेटर हॉल ऑफ फेम में दर्ज है। दारा सिंह की कुश्ती के दीवानों में भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू समेत कई दूसरे प्रधानमंत्री भी शामिल थे। सही मायने में दारा सिंह कुश्ती के दंगल के वो शेर थे, जिनकी दहाड़ सुनकर बड़े-बड़े पहलवानों ने दुम दबाकर अखाड़ा छोड़ दिया।



कुश्ती के करियर को खत्म करने से पहले दारा सिंह ने सोच लिया था कि अब उन्हें क्या करना है। सामने कामयाबी का एक और रास्ता दिखाई दे रहा था। चुनौतियां तो थीं लेकिन दारा सिंह को तो मुश्किलों से जूझने में मानो मजा आने लगा था लिहाजा वो निकल पड़े बॉलीवुड के सफर पर।

फिल्मी पिछले 60 साल में दारा सिंह ने हिंदुस्तान के दिल पर राज किया है। आज की पीढ़ी को शायद अंदाज़ा भी ना हो कि अखाड़े से अदाकारी के मैदान में उतरे दारा सिंह बॉलीवुड के पहले हीमैन माने जाते हैं। वो टारजन सीरीज़ की फिल्मों के हीरो रहे हैं। फिल्म अभिनेत्री मुमताज का करियर संवारने में भी सबसे बड़ा सहारा दारा सिंह का साथ ही साबित हुआ।
बॉलीवुड में बॉडी दिखाकर स्टारडम पाने का रास्ता ना खुलता, अगर दारा सिंह ना होते। जी हां, बॉलीवुड में आज हर सुपरस्टार पर शर्ट खोलकर मसल्स दिखाने की जो धुन सवार है, वो चलन शुरू हुआ था दारा सिंह के जरिए। जिस वक्त पूरी दुनिया में दारा सिंह की पहलवानी का सिक्का चल रहा था, तब 6 फीट 2 इंच लंबे इस गबरू जट्ट पर बॉलीवुड इस कदर फिदा हुआ कि पहलवान दारा सिंह बन गए एक्टर दारा सिंह।
आज भी बॉलीवुड दारा सिंह को उस सितारे के तौर पर जानता है, जिसकी शोहबत में आने के बाद ही मुमताज जैसी अदाकारा शोहरत की बुलंदियों तक पहुंचीं। दारा सिंह अपनी मजबूत कद काठी की वजह से फिल्मों में आए। दारा सिंह ने अपने समय की मशहूर अदाकारा मुमताज के साथ हिंदी की स्टंट फिल्मों में प्रवेश किया और कई फिल्मों में अभिनेता बने। यही नहीं कई फिल्मों में वह निर्देशक व निर्माता भी बने। दारा सिंह ने कई हिंदी फिल्मों का निर्माण किया और उसमें खुद हीरो रहे। दारा सिंह ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में कई फिल्मों में नायक के तौर पर नज़र आ चुके हैं।
दारा सिंह की पहली फिल्म ‘संगदिल’ 1952 में रिलीज़ हुई, जिसमें दिलीप कुमार और मधुबाला लीड रोल में थे। 1955 में वो फिल्म ‘पहली झलक’ में पहलवान बनकर आए, जिसमें मुख्य किरदार किशोर कुमार और वैजयंती माला ने निभाया था। कुश्ती और फिल्मों में एक साथ मौजूदगी दर्ज़ कराते रहे दारा सिंह की बतौर हीरो पहली फिल्म थी ‘जग्गा डाकू.’ जिसके बाद वो बॉलीवुड के पहले एक्शन हीरो के तौर पर छा गए।
उनकी असल पहचान बनी 1962 में आई फिल्म ‘किंग कॉन्ग’ से। इस फिल्म ने उन्हें शोहरत के आसमान पर पहुंचा दिया। ये फिल्म कुश्ती पर ही आधारित थी। किंग कांग के बाद रुस्तम-ए-रोम, रुस्तम-ए-बगदाद, रुस्तम-ए-हिंद आदि फिल्में कीं। सभी फिल्में सफल रहीं। मशहूर फिल्म आनंद में भी उनकी छोटी-सी किंतु यादगार भूमिका थी। उन्होंने कई फिल्मों में अलग-अलग किरदार निभाए हैं। साल 1966 में दारा की पहली फिल्म नौजवान आई।
वर्ष 2002 में शरारत, 2001 में फर्ज, 2000 में दुल्हन हम ले जाएंगे, कल हो ना हो, 1999 में ज़ुल्मी, 1999 में दिल्लगी और इस तरह से अन्य कई फिल्में। अपने 60 साल लंबे फिल्मी करियर में दारा सिंह ने 100 से ज्यादा फिल्मों में काम किया जिनमें सबसे ज्यादा 16 फिल्में अभिनेत्री मुमताज के साथ की।
मुमताज के साथ दारा सिंह की जोड़ी बनी 1963 में फिल्म ‘फौलाद’ से। शोख-चुलबुली मुमताज और हीमैन दारा सिंह की जोड़ी का जादू करीब पांच साल तक सिल्वर स्क्रीन पर छाया रहा। दारा सिंह और मुमताज ने ‘वीर भीमसेन’, ‘हरक्यूलिस’, ‘आंधी और तूफान’, ‘राका’, ‘रुस्तम-ए-हिंद’, ‘सैमसन’, ‘सिकंदर-ए-आज़म’, ‘टारज़न कम्स टु डेल्ही’, ‘टारज़न एंड किंगकांग’, ‘बॉक्सर’, ‘जवां मर्द’ और ‘डाकू मंगल सिंह’ समेत करीब डेढ़ दर्ज़न फिल्मों में साथ काम किया।
उम्र जब तक ढली नहीं, तब तक दारा सिंह बॉलीवुड में एक्शन और धार्मिक फिल्में बनाने वाले फिल्मकारों के सबसे पसंदीदा कलाकार बने रहे और उम्र ढ़लने के बाद वो बन गए सुपरस्टार के बाप। कुश्ती के बाद दारा सिंह को सबसे ज़्यादा प्यार फिल्मों से ही रहा। उन्होंने मोहाली के पास दारा स्टूडियो बनाया और ढे़र सारी फिल्में भी।
उन्होंने पहली फिल्म बनाई अपनी मातृभाषा पंजाबी में नानक दुखिया सब संसार। भक्ति भावना वाली यह फिल्म जबर्दस्त हिट रही। इसके बाद ध्यानी भगत, सवा लाख से एक लडाऊं व भगत धन्ना जट्ट आदि फिल्मों का निर्माण भी उन्होंने किया। अब तक करीब सवा सौ फिल्मों में काम कर चुके हैं वह, धारावाहिकों में अभी भी लगातार काम कर रहे हैं।
दारा सिंह ने हिंदी और पंजाबी में 8 फिल्में प्रोड्यूस कीं, 8 फिल्मों का निर्देशन किया और 7 फिल्मों की कहानी भी खुद ही लिखी। सौ से ज़्यादा फिल्मों में अदाकारी कर चुके दारा सिंह की आखिरी यादगार फिल्म थी 2007 में इम्तियाज अली की फिल्म ‘जब वी मेट’, जिसमें उन्होंने करीना कपूर के दादाजी का किरदार निभाया। वो आखिरी दम तक फिल्मों में जुड़ा रहना चाहते थे, लेकिन बढ़ती उम्र और बिगड़ती सेहत साथ नहीं दे रही थी, लिहाज़ा दारा सिंह ने 2011 में लाइट-कैमरा और एक्शन को अलविदा कह दिया।
कोई एक किरदार कैसे किसी की मुकम्मल पहचान बदल देता है, इसकी मिसाल हैं दारा सिंह। सीरियल रामायण में हनुमान के किरदार ने उन्हें घर-घर में ऐसी पहचान दी कि अब किसी को याद भी नहीं कि दारा सिंह अपने ज़माने के वर्ल्ड चैंपियन पहलवान थे।
ये वो किरदार है, जिसने पहलवान से अभिनेता बने दारा सिंह की पूरी पहचान बदल दी। 1986 में रामानंद सागर के सीरियल रामायण में दारा सिंह हनुमान के रोल में ऐसे रच-बस गए कि इसके बाद कभी किसी ने किसी दूसरे कलाकार को हनुमान बनाने के बारे में सोचा ही नहीं।
रामायण सीरियल के बाद आए दूसरे पौराणिक धारावाहिक महाभारत में भी हनुमान के रूप में दारा सिंह ही नज़र आए। 1989 में जब ‘लव कुश’ की पौराणिक कथा छोटे परदे पर उतारी गई, तो उसमें भी हनुमान का रोल दारा सिंह ने ही किया। 1997 में आई फिल्म ‘लव कुश’ में भी हनुमान बने दारा सिंह।

दिलचस्प बात ये है कि बॉलीवुड को अपने हनुमान उन दारा सिंह में दिखे, जिनकी फिल्मी पारी पहलवान और डाकू जैसी भूमिकाओं से शुरू हुई थी। बाद में वो राजा और रोमांस के राजकुमार भी बने। और जब 1960 और 70 के दशक में पौराणिक फिल्मों का दौर लौटा, तो दारा सिंह की कदकाठी देखते हुए उन्हें कभी भीम बनाया गया, कभी बलराम तो कभी महादेव शिव।
1964 में फिल्म ‘वीर भीमसेन’ में दारा सिंह ने भीम का रोल निभाया। अगले साल आई फिल्म ‘महाभारत’ में भी दारा सिंह ही भीम बने। 1968 में फिल्म ‘बलराम श्रीकृष्ण’ में दारा सिंह कृष्ण के बड़े भाई बलराम की भूमिका में नज़र आए। 1971 में फिल्म ‘तुलसी विवाह’ में दारा सिंह पहली बार भगवान शिव के रोल में सामने आए। भगवान शिव की भूमिका उन्होंने ‘हरि दर्शन’ और ‘हर-हर महादेव’ में भी निभाई।
दारा सिंह को पहली बार हनुमान बनाया निर्माता-निर्देशक चंद्रकांत ने। 1976 में रिलीज़ हुई फिल्म ‘बजरंग बली’ में दारा सिंह हनुमान की भूमिका में थे। इस फिल्म में तब तक चॉकलेटी हीरो विश्वजीत राम के रोल में थे, जबकि लक्ष्मण की भूमिका शशि कपूर ने निभाई और रावण बने थे प्रेमनाथ।
‘बजरंग बली’ रिलीज़ होने के बारह साल साल बाद जब रामायण सीरियल शुरू हुआ, तो रामानंद सागर के जेहन में हनुमान के रोल को लेकर कोई दुविधा नहीं थी। वो पूरी तरह इस बात से सहमत थे कि हनुमान की भूमिका के लिए दारा सिंह से बेहतर कोई हो ही नहीं सकता।
एक सफल पहलवान, एक सफल अभिनेता, निर्देशक और निर्माता के तौर पर दारा सिंह ने अपने जीवन में बहुत कुछ पाया और साथ ही देश का गौरव बढ़ाया
1947 में दारा सिंह सिंगापुर आ गये। वहाँ रहते हुए उन्होंने भारतीय स्टाइल की कुश्ती में मलेशियाई चैम्पियन तरलोक सिंह को पराजित कर कुआला लंपुर में मलेशियाई कुश्ती चैम्पियनशिप जीती। उसके बाद उनका विजय रथ अन्य देशों की चल पड़ा और एक पेशेवर पहलवान के रूप में सभी देशों में अपनी धाक जमाकर वे 1952 में भारत लौट आये। भारत आकर सन 1954 में वे भारतीय कुश्ती चैम्पियन बने।
उसके बाद उन्होंने कामनवेल्थ देशों का दौरा किया और विश्व चैम्पियन किंगकांग को परास्त कर दिया। बाद में उन्हें कनाडा और न्यूजीलैण्ड के पहलवानों से खुली चुनौती मिली। अन्ततः उन्होंने.कलकत्ता में हुई कामनवेल्थ कुश्ती चैम्पियनशिप में कनाडा के चैम्पियन जार्ज गार्डियान्को एवं न्यूजीलैण्ड के जान डिसिल्वा को धूल चटाकर यह चैम्पियनशिप भी अपने नाम कर ली। यह 1959.की घटना है।
दारा सिंह ने उन सभी देशों का एक-एक करके दौरा किया जहाँ फ्रीस्टाइल कुश्तियाँ लड़ी जाती थीं। आखिरकार अमरीका के विश्व चैम्पियन लाऊ थेज को 29 मई 1968 को पराजित कर फ्रीस्टाइल कुश्ती के विश्व चैम्पियन बन गये। 1983 में उन्होंने अपराजेय पहलवान के रूप में कुश्ती से सन्यास ले लिया।
जिन दिनों दारा सिंह पहलवानी के क्षेत्र में अपार लोकप्रियता प्राप्त कर चुके थे उन्हीं दिनों उन्होंने अपनी पसन्द से दूसरा और असली विवाह सुरजीत कौर नाम की एक एम०ए० पास लड़की से किया। आज दारा सिंह के भरे-पूरे परिवार में तीन बेटियाँ और दो बेटे हैं।
12 जुलाई 2012 को कोकिलाबेन धीरूभाई अम्बानी अस्पताल मुम्बई में उनका निधन हो गया।

मंगलवार, 3 जुलाई 2012

नार्वे में हिंदी स्कूल का वार्षिक कार्यक्रम


नार्वे में हिंदी स्कूल का वार्षिक कार्यक्रम 'मधुरम'  धूमधाम से  संपन्न
  
चित्र में हिन्दी के लेखक  सुरेशचन्द्र शुक्ल हिन्दी स्कूल के अध्यापिकाओं को उनके योगदान के लिए प्रतीक चिन्ह देते हुए। 




ओस्लो,, नार्वे में हिंदी स्कूल के शिक्षार्थी 'हमको ऐसी शक्ति देना' प्रार्थना प्रस्तुत करते हुए.  कविता, नित्य के अतिरिक्त कार्यक्रम में तीन एकांकी प्रस्तुत किये गए. कार्यक्रम के अंत में सभी ने मिलकर  भारत का राष्ट्रीयगान प्रस्तुत किया। भारतीय संस्कृति को अपने बच्चों को सिखाने के लिए हिन्दी स्कूल हर संभव प्रयास कर रहा है। हिन्दी स्कूल नार्वे पर सभी को गर्व होना चाहिए।

रविवार, 1 जुलाई 2012

बुधवार, 20 जून 2012

राजेश खन्ना के बहाने हिन्दी सिनेमा की लोकप्रियता। - सुरेशचंद्र शुक्ल

राजेश खन्ना बीमार हैं उन्हें दुआ चाहिए 



राजेश खन्ना बीमार हैं। उनकी देखरेख उनकी पत्नी डिम्पल मुंबई में उनके निवास 'आशीर्वाद' में कर रही है। हिन्दी फिल्म  के  प्रथम महानायक के स्वस्थ होने की हम दुआ करते हैं।  राजेश खन्ना जी से एक बार हाथ मिलाकर अभिवादन करने का मौका मिला था दिल्ली में जब वह चुनाव लड़ रहे थे और वह अपनी पत्नी कलाकार डिम्पल के साथ चुनाव प्रचार लाजपत नगर, दिल्ली में कर रहे थे। उन्हें देखने के लिए भीड़   लग जाती थी।  राजेश खन्ना के बहाने मैं  अपनी फिल्मों के प्रति रुझान पर भी प्रकाश डाल रहा हूँ।
मेरी एनी फिल्मों में महानायक अमिताभ बच्चन से दिली में हुई थी उस समय उनके साथ थे प्रधानमंत्री राजीव गांधी।  कांग्रेस नेता और तत्कालीन कांग्रेस महामंत्री भगवत झा आजाद के पुत्र की शादी थी।  उसी में पहली बार हाथ मिलकर अभिवादन किया था।  जोरदार रक्षा कवच के बावजूद दोनों महानुभावों से हाथ मिलाने में सफल रहा था ऐसा राजेंद्र अवस्थी जी का कहना था जिनके साथ मैं गया था।  बाद में अमिताभ जी से मुलाकात लन्दन में हुई थी जब महाकवि  हरिवंश राय बच्चन को समर्पित एक कविसम्मलेन डॉ लक्ष्मीमल सिंघवी जी ने करवाया था वहां वह मंच पर वह लगभग दो घंटे बैठे थे।  उसक कवि  सम्मलेन में कवितापाठ करने वाला मैं भी एक कवि  था जिसका प्रसारण टीवी पर भी हुआ था।  दिलीप कुमार को लखनऊ में एक क्रिकेट टूर्नामेंट में देखा था और पास से मिलने का अवसर मिला मैनचेस्टर, यू.के. में एक कविसम्मेलन में उस समय मेरे साथ डॉ गंगा प्रसाद विमल जी भी थे।  बाद में तो अनेक कलाकारों, गीतकारों और फिल्मकारों से मिला और स्वयं भी पांच टेली लघुफिल्मों का लेखक और फिल्मकार हूँ।
 जीवन का हिस्सा हिन्दी सिनेमा 
भारतीयों के जीवन का हिस्सा है सिनेमा। वृत, त्यौहार से लेकर चाहे जन्मदिन हो, कोई उत्सव हो या शादी सभी अवसरों पर फिल्मों ने प्रभाव और उपस्थिति दर्ज करा रखी थी।  बिना फिल्म के हमारा मनोरंजन पूरा नहीं होता। वह भी हिंदी सिनेमा/बालीवुड  के बिना।  रेडियो में विभिन्न कार्यक्रम हिन्दी सिनेमा के गीतों पर आधारित होते थे।  राजेश खन्ना को रेडियो पर गीतमाला कार्यक्रम में सुना था जहाँ तक मुझे स्मरण है वह वह होली का अवसर था।
बचपन में ही मेरी चलचित्र देखने की शुरुआत हो गयी.
मैंने जब फिल्म देखना आरम्भ किया मैं कक्षा तीन में पढ़ता था।  आरंभिक फिल्मे मोहल्ले के पार्क में देखीं। परिवार नियोजन और देशभक्ति पर आधारित फ़िल्में सार्वजनिक स्थलों पर दिखाई जाती थीं इनमें:  एक के बाद एक, आशीर्वाद, ऊंचे लोग, नास्तिक, परिवार और प्रथम फिल्म सिनेमाहाल में सपरिवार देखी थी, 'बेटी बेटे' और  बाद में  माता-पिता और भाई बहन के साथ 'गंगा जमुना, आदमी, और संघर्ष।
पुरानी श्रमिक बस्ती में ब्लाक नंबर चार में  6 नंबर माकन में रहते थे एक सक्सेना जी.   सक्सेना जी  सेना में कार्य करते थे वह सेना से फ़िल्में ले आते थे और अपनी छत पर  उसे हम सभी को दिखाते थे। 
अपने मित्र मनोज के साथ फिल्म देखी 'एन इवनिंग इन पेरिस', दुनिया की सैर' और 'जीवन-मृत्यु'. मदर इण्डिया और 'आराधना' अकेली देखी।  आराधना फिल्म देखने के बाद मेरे पैर सिनेमाहाल की तरफ आसानी से मुड़ जाते थे. राजेश खन्ना ने उस समय मेरे मित्रों पर बहुत प्रभाव डाला था।  मेरा एक सहपाठी तो राजेश खन्ना की तरह बाल काढ़ता. उस समय राजेश खन्ना का प्रभाव्  बहुतों पर पड़ा था। डागकट कालर वाली कमीज, जीन की जैकेट, बेलबाटम आदि का बहुत चलन था और दर्जियों की बन आयी थी क्योंकि वह फैशन के हिसाब से पैसे लेते थे। जितने का कपड़ा होता उसी के आस-पास ही सिलाई होती थी।
लखनऊ के जिन सिनेमाहाल में फिल्म अक्सर देखने जाता था वह मुनासिब दाम पर टिकट बेचते थे, ये सिनेमाहाल थे नाज, मेहरा, ओडियन और अशोक।  आगे चलकर लिबर्टी और नाज में पास मिलने शुरू हो गए थे। जिससे कभी टिकट निशुल्क मिलता तो कभी कम दामों पर. यह सुविधा  छात्र नेता होने के कारण थी।
आगामी पचास वर्ष तक छाया रहेगा हिंदी सिनेमा।
आने वाले पचास वर्षों में हिंदी फिल्मों की लोकप्रियता नहीं घटेगी।  वर्तमान समय में जब सामजिक मीडिया जैसे फसबुक, ब्लॉग, ट्विटर आदि बेशक अपना अस्तित्व बढ़ा  रहे हैं परन्तु अभी भी भारतीय लोगों और अविकसित देशों सहित विकाशशील देशों में भी हिन्दी सिनेमा का वर्चस्व बरकरार है। अब आवश्यक है कि हिन्दी सिनेमा कुछ सामजिक विषयों पर शोधपरक, यात्रा संबंधी और ज्ञान संबंधी फ़िल्में भी बनायी जाएँ और  उनका प्रदर्शन भी आम आदमी के लिए आसानी से सुलभ हो।
लखनऊ में  फिल्म और टेलीविजन संस्थान की स्थापना हुई थी शिवाजी गणेशन के नेतृत्व में मुझे दाखिले की पूरी उम्मीद भी थी पर मेरे पास फीस में देने के लिए पैसे नहीं थे।  टेलीफिल्म में अभिनय का अवसर सन 1985 में  शिवशंकर अवस्थी जी की फिल्म जो राजेंद्र अवस्थी जी की कहानी पर आधारित थी में मिला जो दिल्ली दूरदर्शन की भेंट थी ।  टेली  फिल्म निर्देशन और निर्माण का अवसर मिला सन 1994 में  जिसमें मेरा भरपूर सहयोग दिया डॉ रेखा व्यास ने जो स्वयं मेरी फिल्म तलाश में नायिका थीं तथा उनहोंने  मानद निर्देशन भी किया था.  फिल्माचारी आनंद शर्मा जी के सहयोग से  यूट्यूब के लिए कुछ लघु फ़िल्में बनाईं।
 

रविवार, 17 जून 2012

Oslo, Norway नोबेल जनसभा में महात्मा गाँधी जी को याद किया गया

ओस्लो में विशाल नोबेल जनसभा में विश्व शांतिदूत अहिंसा महात्मा गाँधी जी को याद किया गया - सुरेशचंद्र शुक्ल 

मीयान्मार (बर्मा ) में 21 वर्षों तक नजरबन्द रहने के कारण प्रजातंत्र के लिए लड़ रही नेता आउन  सन सू ची 1991 में नोबेल शांति पुरस्कार लेने नहीं आ सकी थीं. न ही आउन  सन सू ची अपना नोबेल व्याख्यान दे सकीं थीं। उन्होंने ओस्लो के सिटीहाल (रोदहूस) में अपरान्ह (दोपहर) अपना नोबेल व्याख्यान दिया।  और शाम को नोबेल शांति केंद्र के बाहर साढ़े चार बजे होने वाली विशाल जनसभा में  अपना धन्यवाद भाषण दिया।  
नोबेल शांति समिति के अध्यक्ष और यूरोपीय परिषद् के महामंत्री और पूर्व प्रधानमंत्री थूरब्योर्न जागलांद ने कहा कि महात्मा गांधी के अहिंसा  के सिद्धांतों पर चलते हुए आउन  सन सू ची  ने बर्मा में प्रजातन्त्र के लिए संघर्ष किया और कर रही हैं जिसके कारन उन्हें नोबेल पुरस्कार 1991 में दिया गया। जागलांद  ने आगे कहा कि महात्मा गांधी, मार्टिन लूथर किंग और नेलसन  मंडेला की तरह सू ची भी अपने देश में बर्मा में जनता में सेतु बनाने और प्रजातंत्र लाने के लिए कार्य कर रही हैं।  प्रजातंत्र द्वारा ही मानवाधिकारों की रक्षा की जा सकती है जो जनता की सुरक्षा के लिए सबसे जरूरी है।

मुझे (लेखक को) भली भांति स्मरण है 10 दिसंबर 1991 को बर्मा में अपने घर पर नजरबन्द आउन  सन सू ची नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित की गयी थीं तब नहीं आ सकी थीं तब उनके इंग्लैण्ड में रह रहे बेटे अलेक्जेंडर ने पुरस्कार लिया था।  उस समय मैं एक नार्वेजीय पत्र 'Oslo-øst' (ओस्लो ओयस्त) में कालम लिखता था और उसमें मेरी कविता छपी थी।  हाल के अन्दर मैं आउन  सन सू ची के प्रति सभी उपस्थित जनों का जो समर्थन था वह कई मिनटों तक बजी ताली की  गड़ गड़गड़ाहट के स्वर व्यक्त कर रहे थे। और सिटी हाल में दोबारा जब वह आउन  सन सू ची स्वयं उपस्थित थीं तो पुनः वही ध्वनि  दोबारा गूंजी और  इस बार उनका  छोटे पुत्र किम ओस्लो सिटी हाल में उपस्थित था।
दुबली पतली किन्तु इरादों की पक्की आउन  सन सू ची  ने बताया कि बौद्ध धर्म ने उन्हें पीड़ा सहना सिखाया जिससे मेरे इरादे पक्के हुए और अपने और दूसरों के प्रति प्रेम और विनम्रता बड़ी।  वह सैनिक शासन से भी घृणा नहीं करतीं पर सभी को नया मिले और प्रजातंत्र बहाल हो या वह चाहती हैं। 

वह आता है हम रोक नहीं पाते -- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद अलोक'


कभी-कभी व्यक्ति अपनी बातें, अपने विचार जैसे -तैसे व्यक्त नहीं कर पाता। आज अनेक घटनाएं मेरे सामने घूम रही हैं उन्हीं को लेकर एक वैचारिक चित्र घटनाओं के माध्यम से व्यक्त करने की कोशिश की है। आप भी इसका आनंद लीजिये- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद अलोक'
वह आता है हम रोक नहीं पाते
वह आपको सताता है, जलाता है, पथ पर कांटे बिखराता है,
हर रोज कोई सपने में भी आता है, जैसे उसे नहीं रोक पाते हैं 
वह कभी चालक (ड्राइवर) /चतुर समझ
आपकी कार से पेट्रोल चुराकर भी वह आपका मीत कहलाता है,
वह आपका पहरेदार नहीं, वह आपका भाई-बन्धु  भले होगा
जो आपके सामान को अनुपस्थित में खिसकाता है.

जब वह बूढा होगा, उसका बेटा/बेटी भी वही करेंगे
जो वह आपके साथ कर रहा है,
वह धन नहीं, ज्ञान भी  नहीं,
जो कट्टरता की तरह बेमानी नसों में
अपना दर्शन जी रहा है,
जबकि उसका भविष्य पत्थर के विशाल मकान से
प्रेम मांग रहा है जब वह बीमार है,
वह साथ मांग रहा है,
उसे मलहम नहीं हाँ तिकड़मी पैसा मिल रहा है.

अब बुढ़ापे में कैसे अपने को माफ़ करे
और अपने गुजरे जमाने को याद करे,
जब उसने  पैसों के लिए अपने ईमान को गिरवी रख दिया था:
पैसे के लिए अपने ग्राहकों के लिए कभी अपने बच्चों  धोखे में रखता,  
और दुनिया में  भी हैं पैसे के खातिर
अपनों को कभी रेप के झूठे केस में फँसाएगा  ,
कभी जिन्दा रहते हुए जीवन बीमा (लाइफ इंसोरेंस) से
पैसे के लिए अपना श्राद्ध तक कर देता है!

वह क्या है, वह कौन है जो अपने रूप बदलता है?
अन्याय पर पर्दा मत डालो!
साथ मिलकर समाज से भेदभाव, ऊंचनीच का विष दूर करो.
अपने घर से श्रीगणेश करो!

आज तुम शक्तिमान हो, पर क्या विचारों के भिखारी तो नहीं?
अभी भी उस ज्योतिषी की तरह तो नहीं,
जो आपका भविष्य बताता है,
पर मंदिर-मस्जिद की चौखट पर
अपने अनिश्चित दिन में दो रोटी के लिए
आपकी बाट (राह) जोहता है?

तुम्हें जरूर याद आयेगी उस चाय बनाने वाले  (बालक/बालिका) की,
जब तुम मधुमेह (डायबटीज) के बीमार होगे  
तुम शकर की चाय नहीं पी पाओगे!
कभी सोचा है,
कितनी बार तुमने उसे (चाय बनाने वाले ) साथ बैठाकर चाय पिलाई है?

तुम्हें तब हमारी बहुत याद आयेगी
जब गर्मी की तपन में पंखे काम नहीं करेंगे.
सर्दी में गरम कोट तुम्हारी सर्दी नहीं मिटा पाएंगे.
क्योंकि पंखे के लिए बिजली और बटन दबाने वाला चाहिए
और कपडे पहनाने वाला चाहिए.

वृद्धाग्रह में तब तुम्हें भूख बिना खाना होगा,
भूख लगने पर खाना नहीं मिलेगा,
यह प्रकृति का नियम नहीं,
फिर तुम हमसे ऐसा क्यों कह रहे हो?
जवाब तो नहीं मिला,
क्या तुमने अपना मुंह शीशे में देखा है?

संतोष करोगे, कर्मों को दोष दोगे या शीशा ही तोड़ दोगे?
इसका उत्तर भविष्य में खोजोगे? भाग्य को कोसोगे, जो आज में छिपा है.

रविवार, 10 जून 2012

लेखक गोष्ठी में मार्टिन लूथर किंग को याद किया गया

8 जून को वाइतवेत सेंटर में लेखक गोष्ठी संपन्न हुई. इसमें नार्वे और स्वीडेन के संगठन टूटने पर Unionoppløsningen (7. जून)  पर चर्चा की गयी  तथा गोष्ठी में मार्टिन लूथर किंग को याद किया गया.  अंत में कवि गोष्ठी संपन्न हुई जिसमें राज कुमार भट्टी, चरण सिंह सांगा, इंदरजीत पाल, जान दित्ता 'दीवाना',  मलेशिया के कवी दित्ता तथा नार्वेजीय मूल की इंगेर मारिये लिल्लेएंगेन, दित्ता सिआउ, मरते बर्ग एरिक्सन और सुरेशचन्द्र  शुक्ल ने अपनी रचनाएं पढ़ीं.
भारतीय-नार्वेजीय  सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम के तत्वावधान में आयोजित इस गोष्ठी में नार्वे में हिंदी कविता और मार्टिन लूथर किंग के विचारों पर परिचर्चा संपन्न हुई।
सुरेशचन्द्र  शुक्ल ने अपनी नयी ताजी कविता सुनायी:
'हम वाइतवेत पर
शांति पर चर्चा करते हैं
जबकि थोइएन, ओस्लो में
पुलिस गोली चलने की पहेली की
खोजखबर ले रही है। '
उन्होंने आगे नार्वेजीय अखबारों पर अपने विचार प्रगट करते हुए कहा:
'नार्वेजीय अखबार 22 जुलाई के आतंकवादी पर
बेसुमार लिख रहे हैं
जबकि वे ग्रुरुददालेन (ओस्लो) में
बहुमुखी गतिविधियों
सांस्कृतिक पुरुषों के योगदान से बने इन्द्रधनुष
के बहुरंगों और खिलाये हुए
अनगिनत गुलदस्तों को भूल गयी हैं।'
सुरेशचन्द्र शुक्ल  ने अपनी लघु और प्रभावी कविताओं के लिए नार्वे में जाने जाते हैं। इनकी कवितायें ओस्लो के वाइतवेत  और लिंदेरूद क्षेत्रों में सड़क के किनारे लगी लों की  लटकती फुलवारियों
में लगी हुई  हैं। चरण सिंह सांगा  ने अपनी कवितायें सुनाईं और मार्टिन लूथर किंग के विचार पढ़े। कार्यक्रम के अंत में परिचर्चा हुई जिसमें जीत सिंह, प्रगट सिंह और यादविंदर सिंह ने भी हिस्सा लिया। माया भर्ती ने सभी का आभार व्यक्त किया और गोष्ठी का समापन जलपान से हुआ।

गुरुवार, 7 जून 2012

आज 8 जून को लेखक गोष्ठी संपन्न हुई इसकी रिपोर्ट शीघ्र ही इसी ब्लॉग पर पढ़िए। 
आमंत्रण Invitasjon 
ओस्लो नार्वे में लेखक गोष्ठी
शुक्रवार 8 जून 2012  को शाम छ: बजे (18:00)
 कविता, व्याख्यान और परिचर्चा 
स्थान : Stikk innom, Veitvetsenter i Oslo
आयोजक: भारतीय- नार्वेजीय सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम 


Velkommen til forfatterkafe på Veitvet
fredag den 8. junikl. 18:00
 Sted : Stikk innom, Veitvetsenter i Oslo
Arrangør: Indisk-Norsk Informasjons -og kulturforum

सोमवार, 28 मई 2012


 चित्र में बाएं से रामगोपाल शुक्ल, रीता बहुगुणा जोशी और नार्वे से प्रकाशित हिन्दी पत्रिका स्पाइल-दर्पण 
के संपादक  सुरेशचंद्र शुक्ल 

कुछ महीने पहले की बात है जब मेरे छोटे चाचा श्री राम गोपाल और उत्तर प्रदेश की कांग्रेस अध्यक्ष 
रीता बहुगुणा जोशी लखनऊ में स्वर्गीय जयप्रकाश मिश्र के निवास पर मिले थे।  उनसे परिचय हुआ तथा अपनी नार्वे से प्रकाशित हिन्दी पत्रिका स्पाइल-दर्पण  भेंट की।    

रविवार, 20 मई 2012

स्लेम्मेस्ताद सनातन मंदिर में सोने की चूड़ी - सुरेशचन्द्र शुक्ल

स्लेम्मेस्ताद सनातन मंदिर में सोने की चूड़ी - सुरेशचन्द्र शुक्ल

19 मई, स्लेम्मेस्ताद पंडित जी ने  माइक पर सूचना दी कि एक सोने की चूड़ी जिसमें हीरे के नग  जड़े प्रतीत 
होते हैं वह मुझे मिली है जिस किसी की हो  उसे मुझसे प्राप्त करने की कृपा करें।  'खोयी सोने की चूड़ी  सोना पहन कर कौन आता है वर्ना कोई ऐसे कोई कैसे भूलता।'  टिप्पणी करना अपना हक़ समझने वाले एक दूसरे  व्यक्ति ने अपने दोनों हाथ मलते हुए कहा कि, पीतल -शीतल की चूड़ी रही होगी।  लंगर में खाने के लिए कतार   में बैठे लोगों का ध्यान इस चर्चा पर गया जो  रह-रहकर मुस्करा देते थे।  बिना देखे ही सोने की चूड़ी 
और जड़े हीरे पर टिप्पणी हो रही थी।  चर्चा में कोई विषय तो होना चाहिए।  पंडित जी ने एक अलग संस्मरण एक सोने के कुंडल का सुनाया. यह संस्मरण स्वीडेन का था जब वह वहां  पुजारी थे। उनको एक खोया कुंडल मिला जिसके बारे में उन्होंने सभी मंदिर के पदाधिकारियों और 
जो आता उसे पूछते की किसी का कुंडल/बाला तो नहीं खोया है?  एक सप्ताह बीतने के बाद उसे किसी ने नकली करार दे दिया। तो किसी ने कोई  अंदाजा लगाया तो किसीने कोई अंदाजा। ।  वह सोने का कुंडल  पंडित जी के कमरे में   एक गैर जरूरी  आम चीज की तरह 
कभी मेज पर तो कभी जमीन के कोने में और कभी खिड़की पर। इसी तरह तीन सप्ताह बीत गए तब एक महिला ने बताया की तीन सप्ताह पहले उसका एक कुंडल (बाला) खो गया था, जब पंडित जी ने उन्हें दिया 
तो वह बहुत प्रसन्न हुईं और बहुत सी दुआएं देकर चली गयीं।

कृष्णा का अठारहवां जन्मदिन 
नार्वे में अब अक्सर जन्मदिन मनाने के लिए लोगों ने मंदिर को चुनना शुरू किया है।  एक भारतीय युवती कृष्णा  कौशिक के जन्मदिन में हम भी अपने परिवार के साथ कुछ देर से पहुंचे।  यहाँ बहुत पहले अपने आराम्भिक वर्षों में हिन्दी के अध्यापक रहे अशोक शर्मा, मंदिर में सक्रिय रहे मंगत राय शर्मा,  और   वी एच पी में  सक्रिय रहे राज नरूला से मुलाकात हुई. श्री कौशिक 
परिवार को शुभकामनाएं दीं. मायाजी मेरे साथ आयी थीं। तथा   मेरी बेटी संगीता अपने परिवार के 
साथ आयी थी।  यहाँ मंदिर, हिन्दी लेखन और नार्वे से एकमात्र पत्रिका स्पाइल-दर्पण आदि कविता- 
कहानी पर चर्चा हुई।

गुरुवार, 17 मई 2012

नार्वे का राष्ट्रीय दिवस 17 May पर बधाई

नार्वे का राष्ट्रीय दिवस,  बधाई 




















आज प्रातः काल सात बजे सोकर उठा। आज नार्वे का राष्ट्रीय दिवस 17 मई है। अतःस्नानादि से निवृत्त होकर
वाइतवेत स्कूल गया और ध्वजारोरोहण कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ।  पहले भारत में भी भारत का स्वाधीनता दिवस 15 अगस्त बहुत धूमधाम से मनाता था।  नार्वे में भी पंदह पंद्रह 
अगस्त धूम धाम से मनाता हूँ। जिसमें अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक समारोह और भारतीय नार्वेजीय लेखक 
सेमिनार प्रमुख है।

सत्रह मई
आइद्स्वोल यह नगर ऐतिहासिक  है। १७ मई १८१४ को इसी नगर आइद्स्वोल में नार्वे का संविधान बना था। इस संविधान के तहत यह घोषणा की गयी थी कि भविष्य में नार्वे एक अलग स्वतन्त्र राष्ट्र का अस्तित्व रखेगा।
आज अपने घर के पास वाइतवेत स्कूल जहाँ मेरी निकीता और अलक्सन्देर अरुण भी जाते हैं। कुछ चित्र प्रस्तुत है उनके स्कूल के जहाँ प्रातः राष्ट्रीय दिवस पर धवाजरोहन हुआ मार्चपास्ट निकाला और वाइतवेत मैट्रो स्टेशन पर से मैट्रो लेकर बीच नगर में राजा के प्रसाद के सामने मार्चपास्ट करने गया। जहाँ बच्चों, बैंड बाजों और ध्वजों को लेकर राज परिवार को सलामी देते हुए हुर्रा, हुर्रा शब्द का उच्चारण करते हुए राजमहल के सामने से निकालते हैं और बाद में आइसक्रीम और चाकलेट आदि खाते हैं मौज मनाते हैं बच्चे और बड़े।
मैंने परसों १७ मई पर एक कविता लिखी जिसे आज एक कार्यक्रम में पढ़ना है जो नार्वेजीय भाषा में लिखी है।

Flagheising på Veitvet skole i Oslo 
वाइतवेत,  ओस्लो में सत्रह मई पर धवजारोहण    
पड़ोस में वाइतवेत स्कूल में गया जहाँ मैं एक दशक से अधिक समय से लगातार जाता रहा हूँ।
वाईतवेत स्कूल, ओस्लो में मेरी बेटी बेटी संगीता की बेटी निकीता पढती है।
स्कूल से सम्बद्ध 
इसी स्कूल में मैं अविभावकों का अध्यक्ष/प्रतिनिधि  रहा हूँ और लगभग सात वर्षों तक स्कूल की
प्रबंध समिति में अर्बाइदर पार्टी (लेबर पार्टी) सोशलिस्ट पार्टी की और से  सदस्य रहा हूँ।
मैंने एक कविता नार्वेजीय भाषा में लिखी है उसे आप के साथ आगे चलकर साझा करूंगा।  आपने मेरे ब्लॉग में  इस स्कूल के चित्र देखे होंगे।
सत्रह मई की विशेषता और हमारी प्रतिबद्धता 
यह सत्रह मई बहुत ही विशेष है क्योकि अभी 22 जुलाई 2011 को नार्वे में एक क्रूर  नार्वेजीय आतंकवादी ने   प्रजातंत्र और  नार्वे के  राजनैतिक नेतृत्व पर हमला किया था।  उसके बाद यह पहली सत्रह मई है। बहुसांस्कृतिक समाज वाले नार्वे में मिलजुलकर रहने और साथ मिलकर हर समस्या का मुकाबला करने से हर समस्या का समाधान हो सकता है। हमको अपने हक़ अपने आप नहीं मिलते।  उसके लिए हमको कार्य भी करना होता है।
श्रमदान 
उसके लिए हम सभी को जागरूक होकर समाज और राष्ट्र के सभी कार्यों: आसपास,स्कूल और पार्कों की सफाई 
श्रमदान द्वारा.  पूरे परिवार के साथ सफाई में सहयोग. नार्वेवासियों से हमको बेहिचक श्रमदान करना
और समानता और सहयोग भावना सीखनी चाहिए।  चाहे पार्क और मार्ग निर्माण हो अथवा पास
पड़ोस की सफाई श्रमदान द्वारा मिलजुलकर किया जाता है।

समाज के विकास के लिए समानता और ईमानदारी जरूरी
समाज के लिए ईमानदारी से कार्य करना तथा सबसे जरूरी है कि अपने परिवार में स्वतंत्रता, समानता के
अधिकार को कायम करना वर्ना हम दूसरों के सामने भी असमानता को सहन करेंगे तथा बच्चों को भी वही दब्बू और दोहरे आचरण की शिक्षा देंगे। जैसे घर में घर के क़ानून यानी बड़ों
की तानाशाही और बहार समानता का व्यवहार । जीतो, यानी सभी को प्रजातान्त्रिक तरीके से जीतो.  मेरे दादा श्री मन्नालाल जी कहते थे की यदि आपको बाहर समाज में  नेता बनना है तो पहले घर में  नेता बनो और प्रजातान्त्रिक तरीके से सभी का दिल जीतो और बहुमत प्राप्त करो।
वह कहते थे कि सुधार  और भ्रष्टाचार घर से आरम्भ होता है यह विचार सभी पश्चिमी देशों के लोग का एक मत से मानते  ही नहीं उसका पालन भी करना है।
कुछ दिनों पहले भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ अबुल कलाम  ने भी कहा था कि घर से ही भ्रष्टाचार के  निवारण की प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए। 

नार्वे का राष्ट्रीय दिवस सत्रह मई राष्ट्रीय दिवस
नार्वे का राष्ट्रीय दिवस सत्रह मई राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाया जाता है।  विशेषकर यहाँ बच्चों के लिए विशेष महत्त्व होता है। कोई सैनिक परेड नहीं। न  ही  रह सैनिक शस्त्रों का प्रदर्शन। बस स्कूल अपने बच्चों के साथ चुने हुए स्कूल बैंड बाजे के साथ हिस्सा लेते हैं। इन बैंड बाजों में आम तौर पर स्थानीय बैंड या किसी संगठन का बैंड इनका साथ दे रहा होता है। एक दिन पहले 16 मई को यहाँ बच्चों की परेड निकलती है जिस मोहल्ले में स्कूल अथवा बालवाड़ी  (किंडर गार्डेन)  होता है  उसके बच्चे आसपास के संस्थानों और मोहल्ले  में फेरी लगते हैं।
17 मई के दिन प्रातःकाल 8:00 बजे स्कूल में ध्वजारोहण, राष्ट्रीय संगीत, बच्चों की अपील/सन्देश। कभी-कभी प्रधानाचार्य या आमंत्रित व्यक्ति का संछिप्त  भाषण या सन्देश कार्यक्रम का हिस्सा होता है।
नार्वे का राष्ट्रीय झंडा  भी तिरंगा होता है
 नार्वे का राष्ट्रीय झंडा  भी तिरंगा होता है।  बस नार्वे के तिरंगे   झंडे में लाल, सफ़ेद और नीला रंग होता है  जबकि भारतीय तिरंगे ध्वज का रंग केसरिया,  सफ़ेद और हरा होता है।
ओस्लो में साढ़े दस बजे से सेन्ट्रल रेलवे स्टेशन और अन्य पास की जगहों से बच्चों की टोली अपने स्कूल के
बैनर,झंडे और बैंड के साथ परेड शुरू करती हैं या यूं कहें बिना अनुशासन की परेड शुरू होती है और वह कार्ल
युहान सड़क पर पार्लियामेंट और नेशनल थिएटर होते हुए  राजा के प्रसाद में होती हुई राजमहल
के सामने से गुजरती हुए होती है और राजपरिवार को सलामी देती है। राजमहल के सामने बहुत बड़ा हुजूम लगा होता है। लाखों लोग सड़क के किनारे जहाँ -जहाँ से बच्चे परेड करते गुजरते हैं वहां खड़े होकर हाथ में पकडे झंडे हिला-हिलाकर और हुर्रा, हुर्रा, हुर्रा शब्द का उच्चारण करते हैं।

 17 मई को नार्वे के हरेकृष्णा समुदाय पार्लियामेंट मेट्रो स्टेशन के बाहर कीर्तन करते हुए 

Conratulation-Gratulerer National day of Norway-17th may)


satrah mai

रविवार, 13 मई 2012

प्रदीप जी के साथ कुछ क्षण -

 चित्र में बांयें से श्रीमती शविंदर कौर और प्रदीप राय 

प्रदीप जी के साथ कुछ क्षण - सुरेशचंद्र शुक्ल 
प्रदीप राय जी ओस्लो में 12 दिसंबर 1982 को ओस्लो आये थे आज वह अपनी पत्नी शविन्दर कौर और पुत्र शिवजीत  (18 वर्ष) के साथ  वेस्टली मोहल्ले, ओस्लो में रह रहे हैं। आज जब इनके घर आ रहा था अपनी पत्नी माया भारती जी के साथ तो रास्ते  में मेरी मुलाकात पुराने परिचित और मौस  नगर में उर्दू की पत्रिका निकलने वाले मंसूर अहमद से हुई जिनका बेटा भी प्रदीप जी के मोहल्ले में रहता है. 
मंसूर अहमद ने उन दिनों, बहुत वर्ष पहले, उनहोंने  मशहूर शायर मोहम्मद इकबाल  के पोते से मुलाकात कराई थी । मैंने भी उन्हें करीब से देखा और सुना। हाँ जी आपका अंदाजा सही है मैं 'सारे जहाँ से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा' के गीतकार मोहम्मद इकबाल के पोते की बात कर रहा हूँ जो जज थे। मजे की बात है कि  इकबाल जी के पोते और  यहाँ एक मौलवी साहब से  बहस हो गयी थी।   इकबाल जी के जज पोते का कहना था कि सभी नौजवानों को शिक्षा हर तरह की लेनी चाहिए  जिससे ज्ञान मिलता हो।  जबकि मौलवी साहेब केवल इस्लाम धर्म की  शिक्षा लेने को ही बात कर रहे थे. ज्ञान की शिक्षा आदमी को उदार बनता है जबकि मौलवी साहब केवल अपने धर्म की शिक्षा को सर्वश्रेष्ठ बताने में जुटे हुए थे। खैर यह बात पुराणी हो गयी और आयी गयी हो गयी है, बात प्रदीप जी और श्रीमती शविंदर  जी की बात  कर रहा था।

प्रदीप जी और उनका परिवार उदार है इन्होने बहुत से भारतीयों की सहायता की है।  इनकी बेटी उपमा जिन्होने  भारतीय - नार्वेजीय  सूचना एवं सांस्कृतिक फोरम के सांस्कृतिक कार्यक्रम का सञ्चालन भी किया था जिन्होंने  विवाह के बाद अपना नाम बदल लिया है और उपमा जी अब  रिया राय शाह से जानी जाती हैं। इनकी शादी  गुजरात प्रान्त के प्रतिष्ठित परिवार के युवक मितुल शाह से हुई है जो आजकल लिएर, द्रामिन, नार्वे में रहते हैं. 
आज जब शिवजीत ने अपना वीडियो दिखाया जिसमें उन्होंने एक छोटे हवाई जहाज से अपने इंस्ट्रक्टर के साथ  चेकोस्लोवाकिया में पैराशूट (हवाई छतरी ) के संग  कूदे  थे। देखकर बहुत रोमांचक लगा। कितना रोमांचक और
खतरे से खाली नहींरही होगी उनकी यह कूद जब दो सौ किलोमीटर की रफ़्तार से गिरते थे जब तक हवाई छतरी नहीं खुलती थी।
 यह अब नए ज़माने का खेल है जिसे करने का मेरा भी मन करता है ताकि मैं भी जवानों में अपनी गिनती करा सकूँ। कहा जाता है जवानी सोंच से होती है। आप कैसा मसूस करते हैं उसपर निर्भर करता है।

मीडिया के महत्वपूर्ण रचनाकार हरी सिंह पाल (कल्पांत के लिए)

मीडिया के महत्वपूर्ण रचनाकार हरी सिंह पाल


सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'



मेरी पहली मुलाकात हरी सिंह पाल जी से दूरदर्शन और आकाशवाणी, दिल्ली में हुई थी. आकाशवाणी दिल्ली से मेरा ढाई दशकों से अधिक का नाता रहा है वह भी वहाँ कवितायें पढ़ने और साक्षात्कार देने के कारण. दिल्ली आकाशवाणी और दूरदर्शन में साहित्यकारों की ऐसी बिरादरी मौजूद है जो अपने आप में विशिष्ट ही नहीं वरन अपने क्षेत्रों में माहिर भी है. यदि मैं दिल्ली दूरदर्शन में जाता तो आकाशवाणी में भी जाता था. एक समय ऐसा था कि जब दूरदर्शन से अधिक आकाशवाणी में प्रोत्साहन मिलता था इसी कारण मेरे पाँव वहीं रुक जाते थे.

कुछ लोगों से मिलकर आपको एक सुखद अनुभूति होती है और आपके इरादे और बुलंद होते हैं इस पर आपके साथ अपनी स्वरचित एक कविता साझा करता हूँ.

यदि आपने कभी अपना साक्षात्कार कभी रेडियो, टी वी अथवा मंच पर दिया हो या आपने अपनी रचनाएं वहां पढ़ी हों तो आपका केवल मंच पर साक्षात्कार लेने वाले से ही संवाद नहीं होता वरन आपका संवाद अन्य लोगों से भी होता है और यह मौन संवाद आपसे कुछ-न कुछ कह जाता है. इस पर मैंने एक कविता लिखी है वह प्रिय मित्र हरी सिंह पाल को समर्पित कर रहा हूँ जिन्होंने सैकड़ों कलाकारों और लेखकों का साक्षात्कार कराते हुए स्वयं भी अनुभव किया होगा और उनके सहकर्मियों ने भी.



’’पंक्तियों के मध्य भी पढ़ते हैं हम!



मूक इरादों ने मुझे भाप लिया मेरा इरादा

टटोल लिया मेरा मन

चाहकर भी नहीं लिया उनका नाम.

धूप बन कब वह आयी!

छाया बन कौन आया?

स्टूडियो में साक्षात्कार देते - रिकार्डिंग कराते

भूले-बिसरे क्षणों में जब स्मरण करता,

स्टूडियो की दीवार के पार और कैमरे के पीछे वे

कितनी बार चाहकर क्यों नहीं नजदीक आये

पर जो हमको, सबके सामने लाये

यही है व्यावसायिक धरती और उससे जुड़ा रिश्ता!

एक ही मुलाकात में टूटता है..!

जो दूसरे साक्षात्कार में

पुनः जुड़ जाता है,

अपने पुराने सम्बन्धों को खोजता हुआ.

सृजन में जुट जाता है रचनाकार-कलाकार.

कभी सोचा है?

वह सम्प्रेषण सा दिखने वाला मौन चितेरा

जो बोल नहीं पाता,

सुन्दर गूंगे-बधिर के ह्रदय में बसे अमर प्रेम

दृष्टिहीन के अंतर में महसूस करने वाली अंतरिम गहराई,

मुझे समझ आयी, बहुत देर हो गयी थी,

जैसे रेल के एक स्टेशन पर लगी हो प्यास,

प्रतीक्षा करते - करते कब मिली

प्यास बुझाने वाली पनिहारिन,

कितने स्टेशनों बाद मिला पानी!



जिन्हें तुम देख रहे हो,

वह तुम्हें देख नहीं पाते,

जो तुम्हारी प्यास बुझाते हैं,

वह अपनी प्यास नहीं बुझा पाते,

जो तुम्हें चाय पिलाते हैं चाय की दुकानों में लाचार!

कितनी बार पिलाई है तुमने उन्हें चाय,

कभी पूछा है उनसे कि उन्होंने कब पी थी आख़िरी चाय?



अभिव्यक्ति के तरीके है अपने

पृकृति ने दिए हैं सबको सपने

कोई सपनों को देखता है तो कोई महसूस करता है.’’

एक बार ऐसा भी हुआ कि मुझसे अपनी कहानी रेडियो के लिए देने के लिए एक निदेशक साहित्यकार ने कहा और कार्य कुछ आगे बढ़ता पर पर मेरी ढील के कारण कार्य आगे नहीं बढ़ सका. इन सब कार्यों में अक्सर हरी सिंह पाल जी और उनके सहयोगियों से मिलकर हौंसला बढ़ता था.

दूरदर्शन में अहमद साहेब, विलायत जाफरी, बी एम शाह की तरह ही अनेक निदेशकों और अधिकारियों स्नेहभाजन बना रहा जिसमें आर बी विश्वकर्मा जी, डॉ. रेखा व्यास, गीतकार लक्ष्मीशंकर बाजपेयी, डॉ. कृष्ण नारायण पाण्डेय, सरिता भाटिया आदि का नाम अभी स्मरण में आ रहा है. वैसे बहुत से नाम हैं जिन्हें याद किया जा सकता है.

ऐसे कई नाम हैं जिन्हें याद किया जा सकता है. ऐसी कई घटनाएं और मुलाकातें हैं जो भुलाई नहीं जा सकतीं. उनमें उच्च अधिकारी से लेकर संपादक, इंजीनियर, कारीगर, मेकअप कलाकार भी सम्मिलित हैं. साक्षात्कार के समय यदि बातचीत साक्षात्कार लेने वाले से होती थे तब मुझे ध्यान है के मेकअप कलाकार और कैमरामैन और रिकार्डिंग करने वाले इंजीनियर और कारीगर से भी मौन ही बातचीत हो जाती थी, जिसे हम कह सकते हैं पंक्तियों के मध्य भी बहुत कुछ होता है जिसका वर्णन नहीं होता पर उनकी भूमिका अहम् होती है.

मीडिया से जुड़े हम दोनों के मित्र और रोमाओं, सामजिक विज्ञान और अंबेडकर पर महत्वपूर्ण ग्रंथों का संपादन करने वाले और भारत सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्रालय में पूर्व महानिदेशक श्याम सिंह शशि जी भी श्री हरी सिंह पाल जी के प्रशंशक हैं. हरी सिंह पाल में एक ख़ास बात है कि वह दकियानूसी ख्यालों से दूर रहते हैं और बहुत प्रायोगिक हैं, साथ ही मिलनसार हैं, उनसे मिलकर आप कभी यह महसूस नहीं करेंगे की आप अपना समय गवां रहे हैं.

नार्वे से प्रकाशित होने वाली पत्रिका स्पाइल-दर्पण के जब पंद्रह और बीस बरस पूरे हुए तब आप और विश्वकर्मा जी ने हमारी दिल्ली में हुई गोष्ठी को रिकार्ड कराकर प्रसारित किया था.



एक गोष्ठी के मुख्य अतिथि थे श्याम सिंह शशि जी और दूसरा कार्यक्रम डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी जी के घर पर हुआ था. भारतीय प्रवासीयों को दोहरी नागरिकता दिलाने में, ओवरसीज भारतीय नागरिक कार्ड दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले ब्रिटेन में भारतीय राजदूत रहते हुए यूरोप में ९ वर्षों तक सांस्कृतिक और साहित्यिक सेतु बनाने वाले कभी न भुलाए जाने वाले स्वर्गीय डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी और कमला सिंघवी जी का भी मुझे बहुत प्रोत्साहन मिला और दिल्ली में भी उन्होंने याद रखा और मेरी पत्रिका के पंद्रह बरस पोर होने पर अपने घर जो पार्टी और साक्षात्कार दिया वह यादगार समय था. उस समय डॉ. सत्येन्द्र कुमार सेठी, विक्रम सिंह और सुनील जोगी मेरे साथ थे.



हरी सिंह पाल यदि आकाशवाणी में न होते तो वह अपने निजी साहित्य सृजन में बहुत अधिक योगदान दे सकते थे पर उन्हें आकाशवाणी में योगदान के लिए भी हमेशा याद किया जायेगा हालाँकि वह प्रचार से थोड़ा-थोड़ा दूर ही रहते है.

उन्होंने फोन पर बताया कि वह शिमला से अब दिल्ली आ गये हैं आशा है कि वह हमेशा की तरह पुनः साहित्य सृजन में मीडिया द्वारा अपने और दूसरे साहित्यकारों के साहित्य को उजागर करते रहेंगे.

ज्ञात हुआ कि कल्पांत पत्रिका उनपर विशेषांक निकल रही है. यह हरी सिंह पाल के जीवन के अनेक पहलुओं और उनके मीडिया और साहित्यिक योगदान और उनके निजी व्यक्तित्व को जानने में सफल होगी यही कामना करता हूँ.

स्वयं हम विदेश में बसे संपादकों ने अपनी पत्रिकाओं में भारत के अनेक रचनाकारों और कलाकारों पर विषद सामग्री प्रकाशित की है और इससे एक साहित्यकार पर विषद जानकारी मिलती है और पाठकों के मन में उस लेखक के अनेक पहलुओं का पता चलता है. आशा है हरी सिंह पाल जी को जो जानते हैं वे भी और जो नहीं जानते हैं वे भी उन्हें ’कल्पांत’ के इस अंक को पढ़कर जान जायेंगे. कल्पांत परिवार को इसके लिए हमारी शुभकामनायें.

सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

संपादक, स्पाइल-दर्पण, ओस्लो, नार्वे

संस्थापक, वैश्विका-साप्ताहिक, भारत

अध्यक्ष, इंडो-नार्विजन इन्फार्मेशन एण्ड कल्चरल फोरम, नार्वे

अध्यक्ष, हिन्दी लेखन मंच, नार्वे

सदस्य, इंटर नेशनल फेडरेशन आफ जर्नलिस्ट

ई-पता: suresh@shukla.no और speil.nett@gmail.com

http://sureshshukla.blogspot.com/

पता Address: Suresh Chandra Shukla

Post Box 31, Veitvet

0518 – Oslo, Norway