रविवार, 4 नवंबर 2012

पंक्तियों के मध्य - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

पंक्तियों के मध्य
सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक'

यह दर्द भरा रिश्ता,
जिसको निभाना है,
यह मुझको मिला, यह तुमको मिला
कैसी उलाहना है।

कुछ तो है इसमें,
आकर्षित होते हैं,
कुछ खिंचे  चले आते,
कुछ अभी प्रतीक्षित हैं!


यह प्रेम नगर ऐसा
कण-कण में छिपा हुआ,
प्रिय जहाँ देखना चाहो,
दर्पण में दिख जाता।

यह प्रतिबिम्ब नहीं तो क्या,
पीछा छाया करती,
कुछ दुःख एकांतवासी,
सबसे बाँट रहे आंसू।।

जब तक आदर मन है,
तब तक ही प्रेम मधुर।
गुलाब सा रहना हो,
कांटे -पांखुरी सहचर।।

शरद में बरफ-पहाड़ बने,
गर्मी में बह झरना।।
मौसम ने सिखलाया
सीमा से परे रहना।।

खाख दरिया दिल हैं?
वादा न निभाना आया?
जीवन-नौका को संग,
न पार लगाना आया।।

कितने भवनों के मालिक!
क्यों मेहमानों से खाली।।
धन धान्य एकत्र किये हो,
मन-मिट्ठू बने सवाली।।
 

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