शनिवार, 28 मार्च 2020

मेरे मित्र शायर मजरूह सुल्तानपुरी - (जन्मशती वर्ष पर) सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' Suresh Chandra Shukla

  मेरे मित्र शायर मजरूह सुल्तानपुरी 
            - शरद आलोक, Oslo, 28.03.2020
 लन्दन में पहली मुलाक़ात। हमारी आयु में बड़ा अन्तर पर दोस्ती में नहीं 
मेरी और मजरूह सुल्तानपुरी की आयु में बहुत अन्तर था.  मजरूह साहेब की जन्मतिथि  1 अक्टूबर 1919 और 
मेरे जन्मतिथि 10  फरवरी 1954.  हमारी आयु में 35 साल का अन्तर था. उन्होंने कभी महसूस नहीं होने दिया कि मैं उनसे छोटा हूँ या युवा लेखक हूँ. 
मेरी पहली मुलाक़ात लन्दन में हुई थी. 
लन्दन में कविसम्मेलन और मुशायरे का कार्यक्रम था. लन्दन में भारत के हाईकमिश्नर डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी जी ने मुझे आमंत्रण भिजवाया था. मैं नार्वे से प्रकाशित होने वाली पत्रिका स्पाइल-दर्पण का सम्पादक था. 
पहले भी लन्दन में साहित्यिक कार्यक्रम में भाग लेने जा चुका था.  

कविसम्मेलन और मुशायरे के मंच पर बायें से हजरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी, स्वयं मैं (सुरेशचंद्र शुक्ल) गोपालदास नीरज, सुरेन्द्र अरोड़ा, श्रीमती कमला सिंघवी, डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी जी, पद्मा सचदेव और कुछ कविगण थे.  मेरा परिचय मजरूह सुल्तानपुरी से परिचय आदरणीय लक्ष्मीमल सिंघवी जी ने कराया था. हजरत जयपुरी जी के साथ एक युवक आया था वह शायद उनका पौत्र था.
मैंने मजरूह सुल्तानपुरी जी से पहली ही बार में  उनसे हस्ताक्षर लिए उन्होंने उर्दू में हस्ताक्षर किये थे. और अपना विजिटिंग कार्ड दिया।   
दोस्ती फिल्म का वह गीत
मैंने बचपन में खुद 'दोस्ती' फिल्म श्रमहितकारी केंद्र (सेंटर वाली पार्क) पुरानी लेबर कालोनी में देखी। उस फिल्म में मजरूह सुल्तानपुरी जी ने क्या गीत गीत लिखे थी. मुझे दोस्ती फिल्म का वह गीत मुझे बहुत पसंद था जब देखो रेडियो में बजता रहता था, आपको जरूर याद आ जायेगा।
"चाहूँगा मैं तुझे सांझ सबेरे, फिर भी कभी अब नाम को तेरे, 
आवाज मैं न दूँगा, । 
देख मुझे सब है पता, सुनता है तू मन की सदा  
मितवा .. .. मेरे यार तुझको बार -बार आवाज मैं न दूँगा।
दर्द भी तू, चैन भी तू ,  दर्श भी तू,  नैन भी तू 
मितवा .. . . मेरे यार तुझको बार -बार आवाज मैं न दूँगा। "
क्या पता था कि जिनकी फिल्म मैंने बचपन में देखी थी उनसे कभी मुलाक़ात भी होगी।  पर ईश्वर की कृपा देखिये कि लन्दन में मुलाक़ात हुई, मंच पर एक साथ कविता पढ़ी और बाद में मित्र बन गये. 
लन्दन के बाद मैनचेस्टर में कवी सम्मेलन में और नजदीकियां बढ़ीं और घंटों बातचीत हुई. इसका श्रेय जाता है डॉ. लता पाठक और डॉ. सतीश पाठक को. मुझे  पाठक जी के घर में मजरूह सुल्तानपुरी, गोपालदास नीरज और हजरत जयपुरी जी के साथ ठहराया गया था. 
बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि जब वह एक बार एक मुशायरे में पाकिस्तान गए थे तो उनकी कविता बैनर पर दूसरे के नाम से लिखी हुई लगी थी. जब आयोजकों को पता चला टन उन्होंने क्षमा माँगी।
उनकी उर्दू बहुत अच्छी थी.  बहुत से शब्द मुझे समझ में नहीं आते तो वह हिन्दी में समझा देते थे.
मैनचेस्टर, ब्रिटेन में डॉ. सतीश पाठक जी के घर शाम को पार्टी चल रही थी मैं, हजरत जयपुरी और मजरूह सुल्तानपुरी साथ साथ बैठे थे. मजरूह जी ने मुझे मुंबई आने की दावत दी.  तभी हजरत जयपुरी ने कहा कि मेरे पास आना मैं पीटा नहीं हूँ. उनका इशारा  मजरूह जी की तरफ था.  हजरत जयपुरी  ज्यादा बूढ़े लगते थे जबकि मजरूह से तीन साल छोटे थे. हजरत जयपुरी का जन्म 15 अप्रैल 1922 को हुआ था जबकि मजरूह जी का जन्म 1 अक्टूबर 1919 में हुआ था जैसा कि ऊपर लिख चुका हूँ.
फिल्म बनाने का सपना
मेरे मन में फिल्म बनाने का ख्याल आया. मेरे पास कोई ख़ास अनुभव नहीं था. केवल दिल्ली के प्रो. शिवशंकर अवस्थी (राजेन्द्र अवस्थी जी के पुत्र)  द्वारा निर्देशित दूरदर्शन के लिए एक टेलीफिल्म में मैंने एक दुकानदार का अभिनय किया था. और ब्रिटेन से एक सोनी का प्रोफेशनल डिजिटल कैमरा खरीदा था.

मेरे फूफा जी श्री रमेश मिश्र जी दादर मुंबई में रहते थे. सोचा कि फिल्म निर्माण के बारे में जा-जाकर सूचनायें प्राप्त करूँ  और  अपने स्वयं अनुभव करूँ।
जब मैंने स्वयं प्रयास किया भारतीय फिल्म डिवीजन में तो वहां कहासुनी हो गयी तब मेरे मित्र नवनीत के सम्पादक गिरिजाशंकर त्रिवेदी अपने मित्र के साथ बीचबचाव कराने आये थे.  
राजकमल स्टूडियो गया जो दादर में ही स्थित था जो मेरी बुआ जी के दादर स्थित घर से पैदल जाया जा सकता था अतः अपनी बुआ जी को भी ले गया और व्ही शांताराम के पुत्र किरण जी से मिला और उन्होंने चाय पिलायी। और उनके एक व्यक्ति ने मुझे पूरा स्टूडियो घुमाया।
जब मैंने मजरूह सुल्तानपुरी जी को फोन किया तो उन्होंने मुझे अपने पास बुला लिया वह एक बिल्डिंग में रहते थे. उन्होंने चाय पिलाई और बताया की उनके बेटे का निधन हो गया है और उनका पौत्र फ़िल्मी कैरियर शुरू करने वाला है. 
मजरूह सुल्तानपुरी जी ने मुझे सलाह दी कि मैं किसी से भी फ़िल्मी दुनिया में बहस और कहासुनी न करूँ और कहीं किसी कागज़ पर हस्ताक्षर नहीं करूँ।  उन्होंने अपने कुछ विजिटिंग कार्ड दिए थे कि जरूरत पड़ने पर उसे दे देना और बाद में बात करने के  लिए कहना।  उनकी सलाह काम आ गयी.  जब मैं  फिल्मसिटी गया तो वहां के सचिव ने न की मुझे नाश्ता पानी कराया बल्कि एक व्यक्ति को भेज करके फिल्म सिटी में घुमवा दिया और चल रही सूटिंग देखा।  कार्यालय में वहां के स्टूडियो का किराया आदि पूछा और खुश होकर आ गया.

मजरूह सुल्तानपुरी का जीवन परिचय 
मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म 1 अक्टूबर 1919 को उत्तरप्रदेश में स्थित जिला सुल्तानपुर में हुआ था. इनका असली नाम था "असरार उल हसन खान" मगर दुनिया इन्हें मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से जानती हैं. 

मजरूह साहब के पिता एक पुलिस उप-निरीक्षक थे. और उनकी इच्छा थी की अपने बेटे मजरूह सुल्तानपुरी  को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाये और वे बहुत आगे बढे. 

मजरूह सुल्तानपुरी ने अपनी शिक्षा तकमील उल तीब कॉलेज से ली और यूनानी पद्धति की मेडिकल की परीक्षा उर्तीण की. और इस परीक्षा के बाद एक हकीम के रूप में काम करने लगे..

लेकिन उनका मन तो बचपन से ही कही और लगा था. मजरूह सुल्तानपुरी को शेरो-शायरी से काफी लगाव था. और अक्सर वो मुशायरों  में जाया करते थे. और उसका हिस्सा बनते थे. और इसी कारण उन्हें काफी नाम और शोहरत मिलने लगी.  और वे अपना सारा ध्यान शेरो-शायरी और मुशायरों में लगाने लगे और इसी कारण उन्होंने  मेडिकल की प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी. बताते चले की इसी दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से होती हैं..  और उसके बाद लगातार मजरूह साहब शायरी की दुनिया में आगे बढ़ते रहे. उन्हें लोगो का काफी प्यार मिलाता रहा. उनके द्वारा लिखी शेरो शायरी लोगो के दिलो को छू जाती थी. और वो मुशायरो की शान बन गए..

सब्बो सिद्धकी इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित एक संस्था ने 1945 में एक मुशायरा का कार्यक्रम  मुम्बई में रक्खा और इस कार्यक्रम का हिस्सा मजरूह सुल्तान पुरी भी बने. जब उन्होंने अपने शेर मुशायरे में पढ़े तब वही कार्यक्रम में बैठे मशहूर निर्माता ए.आर.कारदार उनकी शायरी सुनकर काफी प्रभावित हुए. और मजरूह साहब से मिले और एक प्रस्ताव रक्खा की आप हमारी फिल्मो के लिए गीत लिखे. मगर  मजरूह सुल्तानपुरी से साफ़ मना कर दिया फिल्मों  में गीत लिखने से क्युकी वो फिल्मो में गीत लिखना अच्छी बात नहीं मानते थे. इसी कारण ये प्रस्ताव ठुकरा दिया..

पर जिगर मुरादाबादी ने समझाया उन्हें और अपनी सलाह दी की फिल्मो में गीत लिखना कोई बुरी बात नहीं हैं. इससे मिलने वाली धनराशी को  अपने परिवार को भेज सकते हैं खर्च के लिए. फिल्मे बुरी नहीं होती इसमे गीत लिखना कोई गलत बात नहीं हैं.  जिगर मुरादाबादी की बात को मान कर वो फिल्मो में गीत लिखने के लिए तैयार हो गए. 
  
और उनकी मुलाकात जानेमाने संगीतकार नौशाद से हुयी और नौशाद जी ने उन्हें एक धुन सुनाई और उस धुन पर गीत  लिखने को कहा..  

तब मजरूह सुल्तानपुरी ने अपना पहला फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत की नौशाद की सुनाई हुयी एक धुन से. और लिखा एक गाना जिसके बोल थे कुछ इस तरह "गेसू बिखराए, बादल आए झूम के" इस गीत के बोल सुनकर नौशाद काफी प्रभावित हुए उनसे, और अपनी आने वाली नयी फिल्म  "शाहजहां" के लिए गीत लिखने प्रस्ताव रखा. 
और यही से शुरू हुआ उनका फ़िल्मी सफ़र का दौर और बन गयी एक मशहूर जोड़ी मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार नौशाद की. और लगातार एक के बाद एक फिल्मो में गीत लिखते रहे. और सफलता की चोटी पर चढते रहे.

न भूलने वाले गीतकार
अक्टूबर 2019 से  अक्टूबर 2020 तक उनका शताब्दी वर्ष है. उनके गीतों के माध्यम से जहाँ जहाँ भी हिन्दी और उर्दू की दुनिया है वहां-वहां उन्हें याद किया जायेगा।  ईश्वर की बहुत कृपा है कि उन्होंने मुझे मजरूह जी और अनेकों गीतकारों / लेखकों से मिलाया और सानिधि का अवसर दिया।  

 













चित्र में बायें से मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर और मजरूह सुल्तानपुरी।


 

क्रिकेट मैच - प्रेमचंद

कहानी
क्रिकेट मैच 
 प्रेमचंद
१ जनवरी, १९३५

आज क्रिकेट मैच में मुझे जितनी निराशा हुई मैं उसे व्यक्त नहीं कर हार सकता। हमारी टीम दुश्मनों से कहीं ज्यादा मजबूत था मगर हमें हार हुई और वे लोग जीत का डंका बजाते हुए ट्राफी उड़ा ले गये। क्यों? सिर्फ इसलिए कि हमारे यहां नेतृत्व के लिए योग्यता शर्त नही। हम नेतृत्व के लिए धन-दौलत जरुरी समझते हैं। हिज हाइनेस कप्तान चुने गये, क्रिकेट बोर्ड का फैसला सबको मानना पड़ा। मगर कितने दिलों में आग लगी, कितने लोगों ने हुक्मे हाकिम समझकर इस फैसले को मंजूर किया, जोश कहां, संकल्प कहां, खून की आखिरी बूंद गिरा देने काउत्साह कहां। हम खेले और जाहिरा दिल लगाकर खेले। मगर यह सच्चाई के लिए जान देनेवालों की फौज न थी। खेल में किसी का दिल न था। मैं स्टेशन पर खड़ा अपना तीसरे दर्जे का टिकट लेने की फिक्र में था कि एक युवती ने जो अभी कार से उतरी थी आगे बढ़कर मुझसे हाथ मिलाया और बोली-आप भी तो इसी गाड़ी से चल रहे हैं मिस्टर जफर? मुझे हैरत हुई कि यह कौन लड़की है और इसे मेरा नाम क्योंकर मालूम हो गया? मुझे एक पल के लिए सकता-सा हो गया कि जैसे शिष्टाचार और अच्छे आचरण की सब बातें दिमाग से गायब हो गई हों। सौन्दर्य मेंएक ऐसी शान होती है जो बड़ों-बड़ों का सिर झुका देती है। मुझे अपनी तुच्छता की ऐसी अनुभूति कभी न हुई थी। मैंने निजाम हैदराबाद से, हिज एक्सेलेन्सी वायसराय से, महाराज मैसूर से हाथ मिलाया, उनके साथ बैठकर खाना खाया मगर यह कमजोरी मुझ पर कभी न छाई थी। बस, यहां जी चाहता था कि अपनी पलकों से उसके पांव चूम लूं। यह वह सलोनापन ना था जिस पर हम जान देते हैं, न वह नजाकत जिसकी कवि लोग कसमें खाते हैं। उस जगह बुद्धि की कांति थी, गंभीरता थी, गरिमा थी, उमंग थी और थी आत्म-अभिव्यक्ति की निस्संकोच लालसा। मैंने सवाल-भरे अंदाज से कहा-जी हां। यह कैसे पूछूं कि मेरी आपसे भेंट कब हुई। उसकी बेतकल्लुफी कह रही थी वह मुझसे परिचित है। मैं बेगाना कैसे बनूं। इसी सिलसिले में मैंने अपने मर्द होने क फर्ज अदा कर दिया-मेरे लिए कोई खिदमत? उसने मुस्कराकर कहा-जी हां, आपसे बहुत-से काम लूंगी। चलिए, अंदर वेटिंग रुम में बैठें। लखनऊ जा रहे होंगे?मै। भी वहीं चल रही हूं। वेटिंग रुम आकर उसने मुझे आराम कुर्सी पर बिठाया और खुद एक मामूली कुर्सी पर बैठकर सिगरेट केस मेरी तरफ बढ़ाती हुई बोली-आज तो आपकी बौलिंग बड़ी भयानक थी, वर्ना हम लोग पूरी इनिंग से हारते। मेरा ताज्जुब और बढ़ा। इस सुन्दरी को क्या क्रिकेट से भी शौक है! मुझे उसके सामने आरामकुर्सी पर बैठते झिझक होरही थी। ऐसी बदतमीजी मैंने कभी न की थी। ध्यान उसी तरफ लगा था, तबियत में कुछ घुटन-सी हो रही थी। रगों में वह तेजी और तबियत में वह गुलाबी नशा न था जो ऐसे मौके पर स्वभावत: मुझ पर छा जाना चाहिए था। मैंने पूछा-क्या आप वहीं तशरीफ रखती थीं। उसने अपना सिगरेट जलाते हुए कहा-जी हां, शुरु से आखिर तक। मुझे तो सिर्फ आपका खेल जंचा। और लोग तो कुछ बेदिल-से हो रहे थे और मैं उसके राज समझ रही हूं। हमारे यहां लोगों में सही आदमियों को सही जगह पर रखने का माद्दा ही नहीं है। जैसे इस राजनीतिक पस्ती ने हमारे सभी गुणों को कुचल डाला हो। जिसके पास धन है उसे हर चीज का अधिकार है। वह किसी ज्ञान, विज्ञान के, साहित्यिक-सामाजिक जलसे का सभापति हो सकता है, इसकी योग्यता उसमें हो या न हो। नई इमारतों का उद्घाटन उसके हाथों कराया जाता है, बुनियादें उसके हाथ रखवाई जाती हैं, सांस्कृतिक आंदोलनों का नेतृत्व उसे दिया जाता है, वह कान्वोकेशन के भाषण पढ़ेगा, लड़कों को इनाम बांटेगा, यह सब हमारी दास-मनोवृत्ति का प्रसाद है। कोई ताज्जुब नहीं कि हम इतने नीच और गिरे हुए हैं। जहां हुक्म और अख्तियार का मामला है वहां तो खैर मजबूरी है, हमें लोगों के पैर चूमने ही पड़ते हैं मगर जहां हम अपने स्वतंत्र विचार और स्वतंन्त्र आचरण से काम लें सकते हैं वहां भी हमारी जी हुजूरी की आदत हमारा गला नहीं छोड़ती। इस टीम का कप्तान आपको होना चाहिए था, तब देखती दुश्मन क्यों बाजी ले जाता। महाराजा साहब में इस टीम का कप्तान बनने की इतनी ही योग्यता है जितनी आप में असेम्बली का सभापति बनने की या मुझमें सिनेमा ऐक्टिंग की। बिल्कुल वही भाव जो मेरे दिल में थे मगर उसकी जबान से निकलर कितने असरदार और कितने आंख खोलनेवाले हो गए। मैंने कहा-आप ठीक कहती हैं। सचमुच यह हमारी कमजोरी है। -आपको इस टीम में शरीक न होना चाहिए था। -मैं मजबूर था। इस सुन्दरी का नाम मिस हेलेन मुकर्जी है। अभी इंगलैण्ड से आ रही है। यही क्रिकेट मैच देखने के लिए बम्बई उतर गई थी। इंगलैंड में उसने डाक्टरी की शिक्षा प्राप्त की है और जनता की सेवा उसके जीवन का लक्ष्य हैं। वहां उसने एक अखबार में मेरी तस्वीर देखी थी और मेरा जिक्र भी पढ़ा था तब से वह मेरे लिए अच्छा ख्याल रखती है। यहां मुझे खेलते देखकर वह और भी प्रभावित हुई। उसका इरादा हैकि हिन्दुस्तान की एक नई टीम तैयार की जाए और उसमें वही लोग लिए जाएं जो राष्ट्र का प्रतिनिधत्व करने के अधिकारी हैं। उसका प्रस्ताव है कि मैं इस टीम का कप्तान बनाया जाऊं। इसी इरादे से वह सारे हिन्दुस्तान का दौरा करना चाहती है। उसके स्वर्गीय पिता डा. एन. मुकर्जी ने बहुत काफी सम्पत्ति छोड़ी है और वह उसकी सम्पूर्ण उत्तराधिकारिणी है। उसके प्रस्ताव सुनकर मेरा सर आसमान में उड़ने लगा। मेरी जिन्दगी का सुनहरा सपनाइतने अप्रत्याशित ढंग से वास्तविकता का रुप ले सकेगा, यह कौन सोच सकता था। अलौकिक शक्ति में मेरा विश्वास नहीं मगर आज मेरे शरीर का रोआ-रोआ कृतज्ञता और भक्ति भावना से भरा हुआ था। मैंने उचित और विन्रम शब्दों में मिस हेलेन को धन्यवाद दिया। गाड़ी की घण्टी हुई। मिस मुकर्जी ने फर्स्ट क्लास के दो टिकट मंगवाए। मैं विरोध न कर सका। उसने मेरा लगेज उठवाया, मेराहैट खुद उठा लिया और बेधड़क एक कमरे में जा बैठी और मुझे भी अंदर बुला लिया। उसका खानसामा तीसरे दर्जे में बैठा। मेरी क्रिया-शक्ति जैसे खो गई थी। मैं भगवान् जाने क्यों इन सब मामलों में उसे अगुवाई करने देता था जो पुरुष होने के नाते मेरे अधिकार की चीज थी। शायद उसके रुप, उसक बौद्धिक गरिमा, उसकी उदारता ने मुझ पर रोब डाल दिया था कि जैसे उसने कामरुप की जादूगरनियों की तरह मुझे भेड़ बना लिया हो और मेरी अपनी इच्छा शक्ति लुप्त हो गई हो। इतनी ही देर में मेरा अस्तित्व उसकी इच्छा में खो गया था। मेरे स्वाभिमान की यह मांग थी कि मैं उसे अपने लिए फर्स्ट क्लास का टिकट न मंगवाने देता और तीसरे ही दर्जे में आराम से बैठता और अगर पहले दर्जे में बैठना था तो इतनी ही उदारता से दोनों के लिए खुद पहले दर्जे का टिकट लाता, लेकिन अभी तो मेरी क्रियाशक्ति लुप्त हो गई थी। २ जनवरी-मैं हैरान हूं हेलेन को मुझसे इतनी हमदर्दी क्यों है और यह सिर्फ दोस्तना हमदर्दी नहीं है। इसमें मुहब्बत की सच्चाई है। दया में तो इतना आतिथ्य-सत्कार नहीं हुआ करता, और रही मेरे गुणो की स्वीकृति तो मैं अक्ल से इतना खाली नहीं हूं कि इस धोखे में पडूं। गुणों की स्वीकृति ज्यादा से ज्यादा एक सिगरेट और एक प्याली चाय पा सकती है। यह सेवा-सत्कार तो मैं वहीं पाता हूं जहां किसी मैच में खेलने के लिए मुझे बुलाया जाता है। तो भी वहां भी इतने हार्दिक ढंग से मेरा सत्कार नहीं होा, सिर्फ रस्मी खातिरदारी बरती जाती है। उसने जैसे मेरी सुविधा और मेरे आराम के लिए अपने को समर्पित कर दिया हो। मैं तो शायद अपनी प्रेमिका के सिवा और किसी के साथ इस हार्दिकता का बर्ताव न कर सकता। याद रहे, मैने प्रेमिका कहा है पत्नी नहीं कहा। पत्नी की हम खातिरदारी नहीं करते, उससे तो खातिरदारी करवाना ही हमारा स्वभाव हो गया है और शायद सच्चाई भी यही है। मगर फिलहाल तो मैं इन दोनों नेमतों में से एक का भी हाल नहीं जानता। उसके नाश्ते, डिनर, लंच में तो मैं श्रीक था ही, हर स्टेशन पर (वह डाक थी था और खास-खास स्टेशनों पर ही रुकती थीं) मेवे और फल मंगवाती और मुझे आग्रहपूर्वक खिलाती। कहां की क्या चीज मशहूर है, इसका उसे खूब पता है। मेरे दोस्तों और घरवालों के लिए तरह-तरह के तोहफे खरीदे मगर हैरत यह है कि मैंने एक बार भी उसे मना न किया। मना क्योंकर करता, मुझसे पूछकर तो लाती नहीं। जब वह एक चीज लाकर मुहब्बत के साथ मुझे भेंट करती है तो मैं कैसे इन्कार करुं! खुदा जाने क्यों मैं मर्द होकर भी उसके सामने औरत की तरह शर्मीला, कम बोलनेवाला हो जाता हूं कि जैसे मेरे मुंह में जबान ही नहीं। दिन की थकान की वजह से रात-भर मुझे बेचैनी रही सर में हल्का-सा दर्द था मगर मैंने इस दर्द को बढ़ाकर कहा। अकेला होता तो शायद इस दर्द की जरा भी पर वाह न करता मगर आज उसकी मौजूदगी में मुझे उस दर्द को जाहिर करने में मजा आ रहा था। वह मेरे सर में तेल की मालिश करने लगी और मैं खामखाह निढाल हुआ जाता था। मेरी बेचैनी के साथ उसकी परेशानी बढ़ती जाती थी। मुझसे बार-बार पूछती, अब दर्द कैसा है और मैं अनमने ढंग से कहता-अच्छा हूं। उसकी नाजुक हथेलियों के स्पर्श से मेरे प्राणों में गुदगुदी होती थी। उसका वह आकर्षक चेहरा मेरे सर पर झुका है, उसकी गर्म सांसे मेरे माथे को चूम रही है और मैं गोया जन्नत के मजे ले रहा हूं। मेरे दिल में अब उस पर फतेह पाने की ख्वाहिश झकोले ले रही है। मैं चाहता हूं वह मेरे नाज उठाये। मेरी तरफ से कोई ऐसी पहलन न होनी चाहिए जिससे वह समझ जाये कि मैं उस पर लट्टू हो गया हूं। चौबीस घंटे के अन्दर मेरी मन:स्थिति में कैसे यह क्रांति हो जाती है, मैं क्योंकर प्रेम के प्रार्थी से प्रेम का पात्र बन जाता हूं। वह बदस्तूर उसी तल्लीनता से मेरे सिर पर हाथ रक्खे बैठी हुई है। तब मुझे उस पर रहम आ जाता है और मैं भी उस एहसास से बरी नहीं हूं मगर इसमाशूकी में आज जो लुत्फ आया उस पर आशिकी निछावर है। मुहब्बत करना गुलामी है, मुहब्बत किया जाना बादशाहत। मैंने दया दिखलाते हुए कहा-आपको मेरी वजह से बड़ी तकलीफ हुई। उसने उमगकर कहा-मुझे क्या तकलीफ हुई। आप दर्द से बेचैन थे और मैं बैठी थी। काश, यह दर्द मुझे हो जाता! मैं सातवें आसमान पर उड़ जा रहा था। ५ जनवरी-कल शाम को हम लखनऊ पहुंच गये। रास्ते में हेलेन से सांस्कृतिक, राजनीतिक और साहित्यिक प्रश्नों पर खूब बातें हुईं। ग्रेजुएट तो भगवान की दया से मैं भी हूं और तब से फुर्सत् के वक्त किताबें भी देखता ही रहा हूं, विद्वानों की संगत में भी बैठा हूं लेकन उसके ज्ञान के विस्तार के आगे कदम-कदम पर मुझे अपनी हीनता का बोध होता है। हर एक प्रश्न पर उसकी अपनी राय है और मालूम होता है कि उसने छानबीन के बाद वह राय कामय की है। उसके विपरीत मैं उन लोगों मैं हूं जो हवा के साथ उड़ते हैं, जिनके क्षणिक प्रेरणाएं उलट-पुलटकर रख देती हैं। मैं कोशिश करता था कि किसी तरह उस पर अपनी अक्ल का सिक्का जमा दूं मगर उसके दृष्टिकोण मुझे बेजबान कर देते थे। जब मैंने देखा कि ज्ञान-विज्ञान की बातों में मैं उससे न जीत सकूंगा तो मैंने एबीसीनिया और इटली की लड़ाई काजिक्र छेड़ दिया जिस पर मैंने अपनीसमझ में बहुत कुछ पढ़ा था और इंगलैण्ड और फ्रांस ने इटली पर दबाव डाला है उसकी तारीफ में मैंने अपनी वाक्-शक्ति खर्च कर दी। उसने एक मुस्कराहट के साथ कहा-आपका यह ख्याल है कि इंगलैण्ड और फ्रांस सिर्फ इंसानियत और कमजोर की मदद करने की भावना से प्रभावित हो रहे हैं तो आपकी गलती है। उनकी साम्राज्य-लिप्सा यह नहीं बर्दाश्त कर सकती कि दुनिया की कोई दूसरी ताकत फले-फूले। मुसोलिनी वही कर रहा है जो इंगलैण्ड ने कितनी ही बार किया है आज भी कर रहा है। यह सारा बहुरुपियापन सिर्फ एबीसीनिया में व्यावसायिक सुविधाएं प्राप्त करने के लिए है। इंगलैण्ड को अपने व्यापार के लिए बाजारों की जरुरत है, अपनी बढ़ी हुई आबादी के लिए जमीन के टुकड़ों की जरुरत है, अपने शिक्षितों के लिए ऊंचे पदों की जरुरत है तो इटली को क्यों न हो। इटली जो कुछ कर रहा है ईमानदारी के साथ एलानिया कर रहा है। उसने कभी दुनिया के सब लोगों के साथ भाईचारे का डंका नहीं पीटा, कभी शान्ति का राग नहीं अलापा। वह तो साफ कहता है कि संघर्ष ही जीवन का लक्षण है। मनुष्य की उन्नति लड़ाई ही के जरिये होती है। आदमी के अच्छे गुण लड़ाई के मैदान में ही खुलते हैं। सबकी बराबरी के दृष्टिकोण को वह पागलपन रहता है। वह अपना शुमार भी उन्हें बड़ी कौमों में करता है जिन्हें रंगीन आबादियां पर हुकूमत करने का हक है। इसलिए हम उसकी कार्य-प्रणाली को समझ सकते हैं। इंगलैण्ड ने हमेशा धोखेबाजी से काम लिया है। हमेशा एक राष्ट्र के विभिन्न तत्वों में भेद डालकर या उनके आपसी विरोधों को राजनीति के आधार बनाकर उन्हें अपना पिछलग्गू बनाया है। मैं तो चाहती हूं कि दुनिया में इटली, जापान और जर्मनी खूब तरक्की करें और इंगलैण्ड को आधिपत्य टूटे। तभी दुनिया में असली जनतंत्र और शांति पैदा होगी। वर्तमान सभ्यता जब तक मिट न जायेगी, दुनिया में शांति का राज्य न होगा। कमजोर कौमों को जिन्दा रहने का कोई हक नहीं, उसी तरह जिस तरह कमजोर पौधों को। सिर्फ इसलिए नहीं कि उनका अस्तित्व स्वयं उनके लिएकष्ट का कारण है बल्कि इसलिए कि वही दुनिया के इस झगड़े और रक्तपात के लिए जिम्मेदार हैं। मैं भला क्यों इस बात से सहमत होने लगा। मैंने जवाब तो दिया और इन विचारों को इतने ही जोरदार शब्दों में खंडन भी किया। मगर मैंने देखा कि इस मामले में वह संतुलित बुद्धि से काम नहीं लेना चाहती या नहीं ले सकती। स्टेशन पर उतरते ही मुझे यह फिक्र सवार हुई कि हेलेन का अपना मेहमान कैसे बनाऊं। अगर होटल में ठहराऊं तो भगवान् जाने अपने दिल में क्या कहे। अगर अपने घर ले जाऊं तो शर्म मालूम होती हैं। वहां ऐसी रुचि-सम्पन्न और अमीरों जैसे स्वभाव वाली युवती के लिए सुविधा की क्या सामग्रिया हैं। यह संयोग की बात है कि मैं क्रिकेट अच्छा खेलने लगा और पढ़ना-लिखना, छोड़-छोड़कर उसी का हो रहा और एक स्कूल का मास्टर हूं मगर घर की हालत बदस्तूर है। वही पुरा, अंधेरा, टूटा-फूटा मकान, तंग गली में, वही पुराने रग-ढंग, वही पुरा ढच्चर। अम्मा तो शायद हेलेन को घर में कदम ही न रखने दें। और यहां तक नौबत ही क्यों आने लगी, हेलेन खुद दरवाजे ही से भागेगी। काश, आज अपना मकान होता, सजा-संवरा, मैं इस काबिल होता कि हेलेन की मेहमानदारी कर सकता, इससे ज्यादा खुशनसीबी और क्या हो सकती थी लेकिन बेसरोसामनी का बुरा हो! मैं यही सोच रहा था कि हेलेन ने कुली से असबाब उठावाया और बाहर आकर एक टैक्सी बुला ली। मेरे लिए इस टैक्सी में बैठ जाने के सिवा दूसरा चारा क्या बाकी रह गया थ। मुझे यकीन है, अगर मै। उसे अपने घर ले जाता तो उस बेसरोसामनी के बावजूद वह खुश होती। हेलेन रुचि-सम्पन्न है मगर नखरेबाज नहीं है। वह हर तरह की आजमाइश और तजुर्बे के लिएतैयार रहती है। हेलेन शायद आजमाइशों को और नागवार तजुर्बों को बुलाती है। मगर मुझ में न यह कल्पना है न वह साहस। उसने जरा गौर से मेरा चेहरा देखा होता तो उसे मालूम हो जाता कि उस पर कितनी शार्मिन्दगी और कितनी बेचारगी झलक रही थी। मगर शिष्टाचार का निबाह तो जरुरी था, मैंने आपत्ति की, मैं तो आपको अपना मेहमान बनाना चाहता थ मगरआप उल्टा मुझे होटल लिए जा रही हैं। उसने शरारत से कहा-इसीलिए कि आप मेरे काबू से बाहर न हो जाएं। मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की बात क्या होती कि आपके आतिथ्य सत्कार का आनन्द उठाऊं लेकिन प्रेम ईर्ष्यालु होता है, यह आपको मालूम है। वहां आपके इष्ट मित्र आपके वक्त का बड़ा हिस्सा लेंगे,आपको मुझसे बात करने का वक्त ही न मिलेगा और मर्द आम तौर पर कितने बेमुरब्बत ओर जल्द भूल जाने वाले होते हैं इसका मुझे अनुभव हो चुका है। मैं तुम्हें एक क्षण के लिए भी अलग नहीं छोड़ सकती। मुझे अपने सामने देखकर तुम मुझे भूलना भी चाहो तो नहीं भूल सकते। मुझे अपनी इस खुशनसीबी पर हैरत ही नहीं, बल्कि ऐसा लगने लगा कि जैसे सपना देख रहा हूं। जिस सुन्दरी की एक नजर पर मैं अपने को कुर्बान कर देता वह इस तरह मुझसे मुहब्बत काइजहार करे। मेरा तो जी चाहता था कि इसी बात पर उनके कदमों को पकड़ कर सीने से लगा लूं और आसुंओं से तर कर दूं। होटल में पहुंचे। मेरा कमरा अलग था। खाना हमने साथ खाया और थोड़ी देर तक वहीं हरी-हरी घास पर टहलते रहे। खिलाड़ियों को कैसे चुना जाय, यही सवाल था। मेरा जी तो यही चाहता था कि सारी रात उसके साथ टहलता रहूं लेकिन उसने कहा-आप अब आराम करें, सुबह बहुत काम है। मैं अपने कमरे में जाकर लेट रहा मगर सारी रात नींद नहीं आई। हेलेन का मन अभी तक मेरी आंखों से छिपा हुआ था, हर क्षण वह मेरे लिए पहेली होती जा रही है। १२ जनवरी-आज दिन-भर लखनऊ के क्रिकेटरों का जमाव रहा। हेलेन दीपक थी और पतिंगे उसके गिर्द मंडरा रहे थे। यहां से मेरे अलावा दो लोगों का खेल हेलेन को बहुत पसन्द आया-बृजेन्द्र और सादिक। हेलेन उन्हें आल इंडिया टीम में रखना चाहती थी। इसमें कोई शक नहीं कि दोनों इस फन के उस्ताद हैं लेकिन उन्होंने जिस तरह शुरुआत की है उससे तो यही मालूम होता है कि वह क्रिकेट खेलने नहीं अपनी किस्मत की बाजी खेलने आये हैं। हेलने किस मिजाज की औरत है, यह समझना मुश्किल है। बृजेन्द्र मुझसे ज्यादा सुन्दर है, यह मैं भी स्वीकार करता हूं, रहन-सहन से पूरा साहब है। लेकिन पक्का शोहदा, लोफर। मैं नहीं चाहता कि हेलेन उससे किसी तरह का सम्बन्ध रक्खे। अदब तो उसे छू नहीं गया। बदजबान परले सिरे का, बेहूदा गन्दे मजाक, बातचीत का ढंग नहीं और मौके-महल की समझ नहीं। कभी-कभी हेलेन से ऐसे मतलब-भरे इशारे करजाता है कि मैं शर्म से सिर झुका लेता हूं लेकिन हेलेन को शायद उसका बाजारुपन, उसका छिछोरापन महसूस नहीं होता। नहीं, वह शायद उसके गन्दे इशारों कामजा लेती है। मैंने कभी उसके माथे पर शिकन नहीं देखी। यह मैं नहीं कहता कि वह हंसमुखपन कोइर् बुरी चीज है, न जिन्दादिली का मैं दुश्मन हूं लेकिन एक लेडी के साथ तो अदब और कायदे का लिहाज रखना ही चाहिए। सादिक एक प्रतिष्ठित कुल का दीपक है, बहुत ही शुद्ध आचरण, यहां तक कि उसे ठण्डे स्वभाव का भी कह सकते हैं, बहुत घमंडी, देखने में चिड़चिड़ा लेकिन अब वह भी शहीदों में दाखिल हो गया है। कल आप हेलेन को अपने शेर सुनाते रहे और वह खुश होती रही। मुझे तो उन शेरों में कुछ मजा न आया। इससे पहले मैंने इन हजरत को कभी शायरी करते नहीं देखा, यह मस्ती कहां से फट पड़ी है? रुप में जादू की ताकत है औश्र क्या कहूं। इतना भी न सूझा कि उसे शेर ही सुनाना है तो हसरत या जिगर या जोश के कलाम से दो-चार शेर याद कर लेता। हेलेन सका कलाम पढ़ थोड़े ही बैठी है। आपको शेर कने की क्या जरुरत मगर यही बात उनसे कह दूं तो बिगड़ जाएंगे, समझेंगे मुझे जलन हो रही है। मुझे क्यों जलन होने लगी। हेलेन की पूजा करनेवालों में एक मैं ही हूं? हां, इतना जरुर चाहता है कि वह अच्छे-बुरे की पहचान कर सके, हर आदमी के बेतकल्लुफी मुझे पसन्द नहीं, मगर हेलेन की नजरों में सब बराबर हैं। वह बारी-बारी से सबसे अलग हो जाती है और सबसे प्रेम करती है। किसकी ओर ज्यादा झुकी है, यह फैसला करना मुश्किल है। सादिक की धन-सम्पत्ति से वह जरा भी प्रभावित नहीं जान पड़ती। कल शाम को हम लोग सिनेमा देखने गये थे। सादिक ने आज असाधारण उदारता दिखाई। जेब से वह रुपया निकाल कर सबके लिए टिकट लेने चले। मियां सादिक जो इस अमीरी के बावजूद तंगदिल आदमी हैं, मैं तो कंजूर कहूंगा, हेलेन ने उनकी उदारता को जगा दिया है। मगर हेलेन ने उन्हें रोक लिया और खुद अंदर जाकर सबके लिए टिकट लाई। और यों भी वह इतनी बेदर्दी से रुपया खर्च करती है कि मियां सादिक के छक्के छूट जाते हैं। जब उनका हाथ जेब में जाता है, हेलेन के रुपये काउन्टर पर जा पहुंचते हैं। कुछ भी हो, मैं तो हेलेन के स्वभाव-ज्ञान पर जान देता हूं। ऐसा मालूम होता है वह हमारी फर्माइशों काइन्तजार करती रहती है और उनको पूरा करने में उसे खास मजा आता है। सादिक साहब को उसने अलब भेंट कर दिया जो योरोप के दुर्लभ चित्रों की अनुकृतियों का संग्रह है और जो उसने योरोप की तमाम चित्रशालाओं में जाकर खुद इकट्ठा किया है। उसकी आंखें कितनी सौंदय्र-प्रेमी है। बृजेनद्र जब शाम को अपना नया सूट पहन कर आया, जो उसने अभी सिलाया है, तो हेलेन ने मुस्करा कर कहा-देखों कहीं नजर न लग जाय तुम्हें! आज तो तुम दूसरे युसूफ बने हुए हो। बृजेन्द्र बाग-बाग हो गया। मैंने जब लय के साथ अपनी ताजा गजल सुनाई तो वह एक-एक शेर पर उछल-उछल पड़ी। अदभुत काव्यर्मज्ञ है। मुझे अपनी कविता-रचना पर इतनी खुशी कभी न हुई थी मगर तारीफ जब सबका बुलौवा हो जाये तो उसकी क्या कीमत। मियां सादिक को कभी अपनी सुन्दरता का दावा नहीं हुआ। भीतरी सौंदर्य से आप जितने मालामाल हैं बाहरी सौंदर्य में उतने ही कंगाल। मगर आज शराब के दौर में ज्यों ही उनकी आंखों में सुर्खी आई हेलेन ने प्रेम से पगे हुए स्वर में कहा-भई, तुम्ळारी ये आंखें तो जिगर के पार हुई जाती हैं। और सादिक साहब उस वक्त उसके पैरों पर गिरते-गिरते रुक गये। लज्जा बाधक हुई। उनकी आंखों की ऐसी तारीफ शायद ही किसी ने की हो। मुझे कभी अपने रुप-रंग, चाल-ढाल की तारीफ सुनने नहीं हो सका कि मैं खूबसूरत हूं। यह भ्ज्ञभ् जनता कि हेलेन का यह सब सत्कार कोई मतलब नहीं रखता। लेकिन अब मुझे भी यह बेचैनी होने लगी कि देखो मुझ पर क्या इनायत होती है। कोई बात न थी, मगर मैं बेचैन रहा। जब मैं शाम को यूनिवर्सिटी ग्राउण्ड से खेल की प्रैक्टिस करके आ रहा था तो मेरे ये बिखरे हुए बाल कुछ और ज्यादा बिखरे गये थे। उसने आसक्त नेत्रों से देखकर फौरन कहा-तुम्हारी इन बिखरी हुई जुल्फों पर निसार होने की जी चाहता है! मैं निहाल हो गया, दिल में क्या-क्या तूफान उठे कह नहीं सकता। मगर खुदा जाने क्यों हम तीनों में से एक भी उसकी किसी अंदाज या रुप की प्रशंसा शब्दों में नहीं कर पाता। हमें लगता है कि हमें ठीक शब्द नहीं मिलते। जो कुछ हम कह सकते हैं उससे कहीं ज्यादा प्रभावित हैं। कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं होती। १ फरवरी-हम दिल्ली आ गये। इसी बीच में मुरादाबाद, नैनीताल, देहरादून वगैरह जगहों के दौरे किये मगर कहीं कोई खिलाड़ी न मिला। अलीगढ़ और दिल्ली से कई अच्छे खिलाड़ियों के मिलने की उम्मीद है इसलिए हम लोग वहां कई दिन रहेंगे। एलेविन पूरी होते ही हम लोग बम्बई आ जाएंगे और वहां एक महीने प्रैक्टिस करेंगे। मार्च में आस्ट्रेलियन टीम यहां से रवाना होगी। तब तक वह हिन्दुसतान में सारे पहले से निश्चित मैच खेल चुकी होगी। हम उससे आखिरी मैच खेलेंगे और खुदा ने चाहा तो हिन्दुस्तान की सारी शिकस्तों का बदला चुका देंगे। सादिक और बृजेन्द्र भी हमारे साथ घूमते रहे। मैं तो न चाहता था कि ये लोग आएं मगर हेलेन को शायद प्रेमियों के जमघट में मजा आता हैंहम सबके सब एक ही होटल में हैं और सब हेलेन के मेहमान हैं। स्टेशन पर पहुंचे तो सैकड़ों आदमी हमारा स्वागत करने के लिए मौजूद थे। कई औरतें भी थीं, लेकिन हेलेन को न मालूम क्यों औरतों से आपत्ति है। उनकी संगत से भागती है, खासकर सुन्दर औरतों की छाया से भी दूर रहती है हालांकि उसे किसी सुन्दरी से जलने काकोई कारण नहीं है। यह मानते हुए भी कि हुस्न उस पर खत्म नहीं हो गया है, उसमें आकषर्ण के ऐसे तत्व मौजूद हैं कि कोई परी भी उसके मुकाबे में नहीं खड़ी हो सकती। नख-शिख ही तो सब कुछ नहीं है, रुचि का सौंदर्य, बातचीत का सौंदर्य, अदाओं का सौंदर्य भी तो कोई चीज है। प्रेम उसके दिल में है या नहीं खुदा जाने लेकिन प्रेम के प्रदर्शन में वह बेजोड़ है। दिलजोई और नाजबरदारी के फन में हम जैसे दिलदारों को भी उससे शर्मिन्दा होना पड़ता है। शाम को हम लोग नई दिल्ली की सैर को गए। दिलकश जगह है, खुली हुई सड़कें, जमीन के खूबसूरत टुकड़े, सुहानी रबिशे। उसको बनाने में सरकार ने बेदरेग रुपया खर्च किया है और बेजरुरत। यह रकम रिआया की भलाई पर खर्च की जा सकती थी मगर इसको क्या कीजिए कि जनसाधारण इसके निर्माण से जितने प्रभावित हैं, उतने अपनी भलाई की किसी योजना से न होते। आप दस-पांच मदरसे ज्यादा खोल देते या सड़कों की मरम्मत में या, खेती की जांच-पड़ताल में इस रुपये को खर्च कर देते मगर जनता को शान-शौकत, धन-वैभव से आज भी जितना प्रेम है उतना आपके रचनात्मक कामों से नहीं है। बादशाह की जो कल्पना उसके रोम-रोम में घुल गई है वह अभी सदियों तक न मिटेगी। बादशाह के लिए शान-शौकत जरूरी है। पानी की तरह रुपया बहाना जरूरी है। किफायतशार या कंजूस बादशाह चाहे वह एक-एक पैसा प्रजा की भलाई के लिए खर्च करे, इतना लोकप्रिय नहीं हो सकता। अंग्रेज मनोविज्ञान के पंडित हैं। अंग्रेज ही क्यों हर एक बादशाह जिसने अपने बाहुबल और अपनी बुद्धि से यह स्थान प्राप्त किया है स्वभात: मनोविज्ञान का पण्डित होता है। इसके बगैर जनता पर उसे अधिकार क्यों कर प्राप्त होता। खैर, यह तो मैंने यूंही कहा। मुझे ऐसा अन्देशा हो रहा है शायद हमारी टीम सपना ही रह जाए। अभी से हम लोगों में अनबन रहने लगी है। बृजेन्द्र कदम-कदम पर मेरा विरोध करता है। मैं आम कहूं तो वह अदबदाकर इमली कहेगा और हेलेन को उससे प्रेम है। जिन्दगी के कैसे-कैसे मीठे सपने देखने लगा था मगर बृजेन्द्र, कृतघ्न-स्वार्थी बृजेन्द्र मेरी जिन्दगी तबाह किए डालता है। हम दोनों हेलेन के प्रिय पात्र नहीं रह सकते, यह तय बात है; एक को मैदान से हटाना पड़ेगा। ७ फरवरी-शुक्र है दिल्ली में हमारा प्रयत्न सफल हुआ। हमारी टीम में तीन नये खिलाड़ी जुड़े-जाफर, मेहरा और अर्जुन सिंह। आज उनके कमाल देखकर आस्ट्रेलियन क्रिकेटरों की धाक मेरे दिल से जाती रही। तीनों गेंद फेंकते हैं। जाफर अचूक गेंद फेंकता है, मेहरा सब्र की आजमाइश करता है और अर्जुन बहुत चालाक है। तीनों दृढ़ स्वभव के लोग हैं, निगाह के सच्चे अकथ। अगर कोई इन्साफ से पूछे तो मैं कहूंगा कि अर्जुन मुझसे बेहतर खेलता है। वहदो बार इंगलैण्ड हो आया है। अंग्रेजी रहन-सहन से परिचित है और मिजाज पहचाननेवाला भी अव्वल दर्जे का है, सभ्यता और आचार का पुतला। बृजेन्द्र का रंग फीका पड़ गया। अब अर्जुन पर खास कृपा दृष्टि है और अर्जुन पर फतह पाना मेरे लिए आसान नहीं है, मुझे तो डर है वह कहीं मेरी राह का रोड़ा न बन जाए। २५ फरवरी-हमारी टीम पूरी हो गई। दो प्लेयर हमें अलीगढ़ से मिले, तीन लाहौर से और एक अजमेर से और कल हम बम्बई आ गए। हमने अजमेर, लाहौर और दिल्ली में वहां की टीमों से मैच खेले और उन पर बड़ी शानदार फतह पाई। आज बम्बई की हिन्दू टीम से हमारा मुकाबला है और मुझे यकीन है कि मैदान हमारे हाथ रहेगा। अर्जुन हमारी टीम का सबसे अच्छा खिलाड़ी है और हेलेन उसकी इतनी खातिदारी करती है लेकिन मुझे जलन नहीं होती, इतनी खातिरदारी तो मेहमान की ही की जा सकती है। मेहमान से क्या डर। मजे की बात यह है कि हर व्यक्ति अपने को हेलेन को कृपा-पात्र समझता है और उससे अपने नाज उठवाता है। अगर किसी के सिर में दर्द है तो हेलेन का फर्ज है कि उसकी मिजाजपुर्सी करे, उसके सर में चन्दन तक घिसकर लगा दे। मगर उसके साथ ही उसका रोब हर एक के दिल पर इतना छाया हुआ है कि उसके किसी काम की कोई आलोचना करने का साहस नहीं कर सकता। सब के सब उसकी मर्जी के गुलाम हैं। वह अगर सबके नाज उठाती है तो हुकूमत भी हर एक पर करती है। शामियाने में एक से एक सुन्दर औरतों का जमघट है मगर हेलेन के कैदियों की मजाल नहीं कि किसी की तरफ देखकर मुस्करा भी सकें। हर एक के दिल पर ऐसा डर छाया रहता है कि जैसे वह हर जगह पर मौजूद है। अर्जुन ने एक मिस परयूं ही कुछ नजर डाली थी, हेलेन ने ऐसी प्रलय की आंख से उसे देखा कि सरदार साहब का रंग उड़ गया। हर एक समझता है कि वह उसकी तकदीर की मालिक है और उसे अपनी तरफ से नाराज करके वह शायद जिन्दा न रह सकेगा। औरों की तो मैं क्या कहूं, मैंने ही गोया अपने को उसके हाथों बेच दिया हैं। मुझे तो अब ऐसा लग रहा है कि मुझमें कोई ऐसी चीज खत्म हो गई है जो पहले मेरे दिल में डाह की आग-सी जला दिया करती थी। हेलेन अब किसी से बोले, किसी से प्रेम की बातें करे, मुझे गुस्सा नहीं आता। दिल पर चोट लगती जरूर है मगर इसका इजहार अकेले में आंसू बहाकर करने को जी चाहता है, वह स्वाभिमान कहां गायब हो गया नहीं कह सकता। अभी उसकी नाराजगी से दिल के टुकड़े हो गए थे कि एकाएक उसकी एक उचटती हुई-सी निगाह ने या एक मुस्कराहट ने गुदगुदी पैदा कर दी। मालूम नहीं उसमें वह कौन-सी ताकत है जो इतने हौसलामंद नौजवान दिलों पर हुकूमत कररही है। उसे बहादुरी कहूं। चालाकी और फुर्ती कहूं, हम सब जैसे उसके हाथों की कठपुतलियां हैं। हममें अपनी कोई शाख्सियत, कोई हस्ती नहीं है। उसने अपने सौन्दर्य से, अपनी बुद्धि से, अपने धन से और सबसे ज्यादा सबको समेट सकने की अपनी ताकत से हमारे दिलों पर अपना आधिपत्य जमा लिया है। १ मार्च-कल आस्ट्रेलियन टीम से हमारा मैच खत्म हो गया। पचास हजार से कम तमाशाइयों की भीड़ न थी। हमने पूरी इनिंग्स से उनको हराया और देवताओं की तरह पुजे। हममें से हर एक ने दिलोजन से काम किया और सभी यकसां तौर पर फूल हुए थे। मैच खत्म होते ही शहरवालों की तरफ से हमें एक शानदार पार्टी दी गई। ऐसी पार्टी तो शायद वाइसराय के सम्मान में भी न दी जाती होगी। मैं तो तारीफों और बधाइयों के बोझ से दब गया, मैंने ४४ रनों में पांच खिलाड़ियों का सफाया कर दिया था। मुझे खुद अपने भयानक गेंद फेंकने पर अचरज हो रहा था। जरूर कोई अलौकिक शक्ति हमारा साथ दे रही थी। इस भीड़ में बम्बई का सौंदर्य अपनी पूरी शान और रंगीनी के साथ चमक रहा था और मुझे दावा है कि सुन्दरता की दृष्टि से यह शहर जितना भाग्यशाली है, दुनिया का कोई दूसरा शहर शायद ही हो। मगर हेलेन इस भीड़ में भी सबकी दृष्टियों का केन्द्र बनी हुई थी। यह जलिम महज हसीन नहीं है, मीठी बोलती भी है और उसकी अदाएं भी मीठी हैं। सारे नौजवान परवानों की तरह उस पर मंडलारहे थे, एक से एक खूबसूरत, मनचले, और हेलेन उनकी भावनाओं से खेल रही थी, उसी तरह जैसे वह हम लोगों की भावनाओं से खेल करती थी। महाराजकुमार जैसा सुन्दर जवान मैंने आज तक नहीं देखा। सूरत से रोब टपकता है। उनके प्रेम ने कितनी सुन्दरियों का दुख दिया है कौन जाने। मर्दाना दिलकशी का जादू-सा बिखेरता चलता है। हेलेन उनसे भी वैसी ही आजाद बेतकल्लुफी से मिली जैसे दूसरे हजारों नौजवानों से। उनके सौन्दर्य का, उनकी दौलत का उस पर जरा भी असर न था। न जाने इतना गर्व, इतना स्वाभिमान उसमें कहां से आ गया। कभी नहीं डगमगाती, कहीं रोब में नहीं आती, कभी किसी की तरफ नहीं झुकती। वही हंसी-मजाक है, वही प्रेम का प्रदर्शन, किसी के साथ कोई विशेषता नहीं, दिलजोई सब की मगर उसी बेपरवाही की शान के साथ। हम लोग सैर करके कोई दस बजे रात को होटल पहुंचे तो सभी जिन्दगी के नए सपने देख रहे थे। सभी के दिलों में एक धुकधुकी-सी हो रही थी कि देखें जब क्या होता है। आशा और भय ने सभी के दिलों में एक तूफान-सा उठा रक्खा था गोया आज हर एक के जीवन की एक स्मरणीय घटना होनेवाली है। जब क्या प्रोग्राम है, इसकी किसी को खबर न थी। सभी जिन्दगी के सपने देख रहे थे। हर एक के दिल पर एक पागलपन सवार था, हर एक को यकीन था कि हेलेन की दृष्टि उस पर है मगर यह अंदेशा भी हर एक के दिल में था कि खुदा न खास्ता कहीं हेलेन ने बेवफाई की तो यह जान उसके कदमों पर रख देगा, यहां से जिन्दा घर जाना कयामत था। उसी वक्त हेलेन ने मुझे अपने कमरे में बुला भेजा। जाकर देखता हूं तो सभी खिलाड़ी जमा हैं। हेलेन उस वक्त अपनी शर्बती बेलदार साड़ी में आंखों में चकाचौंध पैदा कर रही थी। मुझे उस पर झुंझलाहट हुई, इस आम मजमे में मुझे बुलाकर कवायद कराने की क्या जरूरत थी। मैं तो खास बर्ताव का अधिकारी था। मैं भूल रहा था कि शायद इसी तरह उनमें से हर एक अपने को खास बर्ताव का अधिकारी समझता हो। हेलेन ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा-दोस्तों, मैं कह नहीं सकती कि आप लोगों की कितनी कृतज्ञ हूं और आपने मेरी जिंदगी की कितनी बड़ी आरजू पूरी कर दी। आपमें से किसी को मिस्टर रतन लाल की याद आती है? रतन लाल! उसे भी कोई भूल सकता है! वह जिसने पहली बार हिन्दुस्तान की क्रिकेट टीम को इंगलैण्ड की धरती पर अपने जौहर दिखाने का मौका दिया, जिसने अपने लाखों रुपयों इस चीज की नजर किए और आखिर बार-बार की पराजयों से निराश होकर वहीं इंगलैण्ड में आत्महत्या कर ली। उसकी वह सूरत अब भी हमारी आंखों के सामने फिर रही है। सब ने कहा-खूब अच्दी तरह, अभी बात ही कै दिन की हैं आज इस शानदार कामयाबी पर मैं आपको बधाई देती हूं। भगवान ने चाहा तो अगले साल हम इंगलैण्ड का दौरा करेंगे। आप अभी से इस मोर्चे के लिए तैयारियां कीजिए। लुत्फ जो जब है कि हम वहां एक मैच भी न हारें, मैदान बराबर हमारे हाथ रहे। दोसतों, यही मेरे जीवन का लक्ष्य है। किसी लक्ष्य का पूरा करने के लिए जो काम किया जाता है उसी का नाम जिन्दगी है। हमें कामयाबी वहीं होती हैं जहां हम अपनेपूरे हौसते से काम में लगे हों, वही लक्ष्य हमारा स्वप्न हो, हमारा प्रेम हो, हमारे जीवन का केन्द्र हो। हममें और इस लक्ष्य के बीच में और कोई इच्छा, कोई आरजू दीवार की तरह न खड़ी हो। माफ कीजिएगा, आपने अपने लक्ष्य के लिए जीना नहीं सीखा। आपके लिए क्रिकेट सिर्फ एक मनोरंजन है। आपको उससे प्रेम नहीं। इसी तरह हमारे सैकड़ों दोस्त हैं जिनका दिल कहीं और होता है, दिमाग कहीं और, और वह सारी जिन्दगी का नाकाम रहते हैं। आपके लिए मै। ज्यादा दिलचस्पी की चीज थी, क्रिकेट तो सिर्फ मुझे खुश करने का जरिया था। फिर भी आप कामयाब हुए। मुल्क में आप जैसे हजारों नौजवान हैं जो अगर किसी लक्ष्य की पूर्ति के लिए जीना और मरना सीख जाए तो चमत्कार कर दिखाइए। जाइए और वह कमाल हासिल कीजिए। मेरा रूप और मेरी रातें वासना का खिलौना बनने के लिए नहीं हैं। नौजवानों की आंखों को खुश करने और उनके दिलों में मस्ती पैदा करने के लिए जीना मैं शर्मनाक समझती हूं। जीवन का लक्ष्य इससे कहीं ऊंचा है। सच्ची जिन्दगी वही है जहां हम अपने लिए नहीं सबके लिए जीते हैं। हम सब सिर झुकाये सुनते रहे और झल्लाते रहे। हेलेन कमरे से निकलर कार पर जा बैठी। उसने अपनी रवानगी का इन्तजाम पहले ही कर लिया था। इसके पहले कि हमारे होश-हवास सही हों और हम परिस्थिति समझें, वह जा चुकी थी। हम सब हफ्ते-भर तक बम्बई की गलियों, होटलों, बंगलों की खाक छानते रहे, हेलेन कहीं न थी और ज्यादा अफसोस यह है कि उसने हमारी जिंदगी का जो आइडियल रखा वह हमारी पहुंच से ऊंचा है। हेलेन के साथ हमारी जिन्दगी का सारा जोश और उमंग खत्म हो गई।

बुधवार, 25 मार्च 2020

'महामारी के चलते': सुरेशचन्द्र शुक्ल

 महामारी के चलते
  सड़कों पर राही चलते हैं,
उनके संग बच्चे नारी हैं।
इक्कीसवीं सदी का भारत,
जनता विपदा से हारी है।


तीन सप्ताह में महामारी,
कैसे नेता ख़तम करेंगे।
जहाँ घास खा रहे बच्चे,
दवा-इलाज कहाँ से देंगे ? 

    - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', ओस्लो



शनिवार, 21 मार्च 2020

डॉ.सुषम बेदी नहीं रहीं। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि।

डॉ.सुषम बेदी :1946 - 2020. हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी क्षति 
 अमेरिका में हिन्दी की बड़ी कथाकार मित्र सुषम बेदी नहीं रहीं। उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। यह प्रवासी हिंदी साहित्य की बहुत बड़ी क्षति है। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति दे।
मेरी अच्छी साहित्यिक मित्र और अमेरिका में रहकर साहित्यसृजन करने वाली श्रेष्ठ रचनाकार सुषम जी से मई 2019 में जब मैं अमेरिका गया था तब दो बार बातचीत हुई थी। बड़ी क्षति हुई सुषम बेदी के जाने से। उनके घर पर दो बार और कोलंबिया विश्व विद्यालय में अनेकों बार मिले। कार्यक्रम में सम्मिलित हुए।
उन्हें उनकी कथाओं को भुला पाना आसान नहीं है।
स्पाइल- दर्पण में उनकी अनेक कहानियों को प्रकाशित किया है।

मुझे सुषम वेदी जी के साथ मिलकर सन 2003 में पहली कथा गोष्ठी का शुभारम्भ करने का सौभाग्य मिला था, जिसमें उनके मिलनसार पति, सीमा खुराना, किरण नन्दा, ललित अहलूवालिया और अनेक लोग सम्मिलित हुए थे.
पहली कथा गोष्ठी की रिपोर्ट और साक्षात्कार अमेरिका के पत्रों: इंडिया न्यूज, इण्डिया पोस्ट, इन्डिया वेस्ट, इण्डिया अब्रॉड और शेरे पंजाब, नार्वे की पत्रिका स्पाइल-दर्पण, पूर्णिमा वर्मन द्वारा सम्पादित नेट पत्रिका अभिव्यक्ति, नवनीत, वेब दुनिया आदि में छपी थी.









कोलंबिया विश्वविद्यालय में बाएं से सुषम बेदी जी अपनी पुस्तकें दिखाती हुई. बीच में लखनऊ की उनकी सहयोगी शिक्षिका और मैं (सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक').
आज हमारे बीच प्रवासी भारतीय की सुप्रसिद्ध लेखिका नहीं रही । मैं विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूं । सुषम बेदी समकालीन प्रवासी कहानी साहित्य लेखन में जाना माना नाम हैं । सुषमबेदी का जन्म सन 1946 में पंजाब के फिरोजपुर नामक शहर में हुआ । अपने एम.ए.पी.एच.डी. तक की शिक्षा प्राप्त की हैं । आपने पंजाब विश्वविद्यालय से पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त की हैं । और वही आपने एक प्राध्यापिका के रूप में कुछ वर्षो तक अध्यापन कार्य भी किया हैं । आज संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में रहनेवाली डॉ. सुषम बेदी कोलंबिया विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष पद पर कार्यरत हैं । सुषम बेदी हिंदी की प्रख्यात प्रवासी हिंदी महिला रचनाकारों में से एक हैं, जिन्हों ने प्रवासी हिंदी कथा साहित्य के मुख्यधारा के कहानी लेखकों में अपनी एक अहम जगह बना ली हैं । सुषम बेदी प्रवासी हिंदी की एक यशस्वी कहानी लेखिका हैं । प्रवासी हिंदी के समकालीन कहानी साहित्य में सुषम बेदी का उल्लेखनीय स्थान हैं । उनकी पहली कहानी 1978 में प्रसिद्ध साहित्यिक पत्रिका ‘कहानी’ में प्रकाशित हुई । उनकी रचनाओं में भारतीय और पश्चिमी संस्कृति के बीच झुलते प्रवासी भारतीयों की मानसिक आंदोलन का सुन्दर चित्रण हुआ हैं ।
आपका पहला कहानी-संग्रह ‘चिड़िया और चील’ हैं । इसका प्रकाशन सन 1995 में हुआ । इसके बाद आपका ‘सड़क की लय’ शीर्षक नामक दूसरा कहानी संग्रह सन 2007 में प्रकाशित हुआ हैं । ‘अवसान’, ‘मिसेज सक्सेना’, ‘विभक्त’, जमी बर्फ ‘अजेलिया के रंगीन फूल’, ‘काला लिबास’,’गुनहगार’, ‘गुरु भाई’ , ‘चेरी फूलों वाले दिन’, ‘पार्क में’, ‘संगीत पार्टी’, ‘गुनहगार’, ‘तलाश’ आदि आपकी प्रसिद्ध कहानियाँ हैं । आपकी बहु चर्चित कहानी ‘चिड़िया और चील’ हैं । इस कहानी में माता-पिता अपनी बेटी को प्यार से चिड़िया कहकर पुकारते हैं । देखते देखते चिड़िया बड़ी हो गयी हैं । और मुक्त जीवन जीने की आकांक्षा करने लगी एक तरफ मूल्यों को लेकर परेशान माता-पिता, दूसरी तरफ स्वतंत्र विचारों और आधुनिक वातावरण में पली उनकी बेटी दो पीढ़ियों की टकराहट को लेखिका ने बखूबी प्रस्तुत किया हैं । एक तरफ माँ-बाप अपनी बेटी को डॉक्टर बनाना चाहते हैं, दूसरी तरफ उनकी बेटी अपने अनुसार जीवन जीना चाहती हैं । कभी कभी माँ-बाप अपने सपने बच्चों पर थोप देते हैं, यहाँ भी कुछ ऐसा ही था । मुक्त वातावरण में पली चिड़िया अब घोसलें से आजाद हो उड़ना चाहती हैं । उसे यह विश्वास हो गया था कि ‘ज्यादातर माँ-बाप बातें प्रजातंत्र की करते हैं, पर होते तानाशाह हैं । (चिड़िया और चील- सुषम बेदी- पृ.42) एक दिन चिड़िया ने बोर्डिग की माँग की । उसका मानना था कि माँ-बाप के साथ रहकर बच्चे कभी स्वतंत्र विकास नहीं हो पाता । वह माँ-बाप के साथ एडजस्ट नहीं कर पा रही, कुछ दिन अपने सहपाठी के साथ रहने के बाद अब उससे नोंक-झोंक होने लगी । आर्थिक अभाव ग्रसित जीवन से चिड़िया तंग आ गयी । और एक दिन अपना सामान लेकर पुन: माता-पिता के पास गयी वह सुविधाओं को भोगने के लिए माँ-बाप के पास आयी थी । वरन उसके जीवन में माँ-बाप का कोई स्थान नहीं था । एक दिन चिड़िया ने अपनी मम्मी से कहा कि वह एक फिल्म बनाना चाहती हैं । ... पैसा लगाओगी मम्मी उसे आत्मनिर्भर बनाना चाहती थी । और उन्हें अपने ही पालन-पोषण में कुछ कमी नजर आ रही थी, चिड़िया की बात सुनकर वह बोली । – ‘तेरे डेडी नाराज नहीं होंगे । ..कहते हैं उसे मन माँगा देकर बिगाड़ रही हो ।’ यह सुनते ही चिड़िया कड़की, ‘ठीक हैं रख लो संभालकर । ....चिता पर धरकर साथ ले जाना । ... जीते जी मुझे डिपराईव करके सुख मिलता हैं, तो लो । ... मैं भी तुम दोनों के मरने का इंतजार कर लूंगी । ...माँ-बाप भी पता नहीं किस बात का बदला लेते रहते हैं । .... ट्रस्ट को पैसा दे देंगे, अपनी औलाद को नहीं । ...पैदा करने का यह मतलब तो नहीं कि सारी उम्र उन्हें दबोचकर कोख में ही रख लिया जाए । ....(चिडिया और चील –सुषम बेदी पृ.47) माता-पिता अपने बच्चों की ख़ुशी के लिए अपना पूरा जीवन ही क्यों न समर्पित कर दे, फिर भी आधुनिक वातावरण में पले बच्चें कभी उन्हें समझ नहीं पाते । चिड़िया उड़ गयी थी और मम्मी अभी भी उसके लौटने का इंतजार कर रही थी ।”
प्रवासी हिंदी कहानी लेखिकाओं में “सुषम बेदी सबसे अधिक चर्चित लेखिका रूप में प्रसिद्ध हैं । उनकी अनेक कहानियों में नारीवाद को चित्रित किया गया हैं । अमेरिका में प्रवासी बनी हिंदी लेखिका सुषमा बेदी ने अपनी ‘गुनहगार’ शीर्षक कहानी में प्रवासी बुजुर्ग नारी के ऐसे ही संकट को स्वर दिया हैं ।

गुरुवार, 12 मार्च 2020

आओ मिलकर काम करें, अब नहीं और आराम करें।। - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', Oslo

आओ मिलकर काम करें, अब नहीं और आराम करें।।  

पढ़ लिखकर सब साक्षर होंगे,
न कोई दलित न सवर्ण बनेगा।
देश विकास में बाल युवा सब,
अपनी आहुति, बढ़ कर देगा।।

गरीब-अमीर ही दो धारायें है,
इनके मध्य दूरियाँ कम हों।
कभी धाराओं में कभी बंटें ना,
सर्व प्रथम देश की जय-जय हो।।

अपने अन्दर और घरों में,
जब कम से कम कचरा होगा।
गाँधी जी का मानवता का,
सबका सपना पूरा होगा।।

भूखे स्कूल ना बच्चें जायें,
जहाँ सब समान शिक्षा पायें।
आरक्षण को तुरंत हटायें,
निशुल्क स्वास्थ-शिक्षा सब पायें।।


अवकाश बाद श्रमदान करें
आओ  मिलकर मार्ग बनायें ।
गाँव-गाँव में, राह बनायें,
सबको पानी साफ़ पिलायें।।

ऐसा देश बनायें भारत को,
पानी मिट्टी नहीं बिकेगी।
घर-घर कर्मों के देवालय,
कामगरों का देश बनायें।।

आओ जिनके पास हाथ हैं,
आओ मिलकर काम करें,
हमें चाहिये प्रायोगिक शिक्षा,
अब नहीं और आराम करें।।

आये दिन हो रहा तमाशा,
लोकतंत्र को लूट रहे हैं?
वोट मांगकर गद्दी पाकर,
कर्तव्यों  को भूल गए हैं।।

नहीं चाहिए  मोटर गाड़ी,
बहुत लोग भूखे सोते हैं।
साइकिल और ई रिक्शे से,
अपनी यात्रा पूर्ण करेंगे।।

तेल का कम आयात करेंगे,
बैंकों का राष्ट्रीयकरण करेंगे।
जितने भी उद्द्योग देश में,
उनका राष्ट्रीयकरण करेंगे।।

अमीर भी अब काम करेंगे,
नहीं बैठ आराम करेंगे।।
निजी बैंक अब नहीं रहेंगे।
देश को मालामाल करेंगे।। 
   - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', Oslo, 12.03.2020







गुरुवार, 5 मार्च 2020

सभी नेता (सत्ता और विपक्ष दोनों के ) के बिकेंगे मकान।। - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

सभी नेता (सत्ता और विपक्ष दोनों के ) के बिकेंगे मकान
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'
 1
राष्ट्र पिता गाँधी का देश फिर से जगा है,
मनुज के जो काम आये, वही सगा रिश्ता।
नफरतों की राजनीति-दूकान बंद करो!
रक्त के रिश्ते से बड़ा मानवता का रिश्ता।

देश नायक बुद्ध, नानक, गांधी व टेरेसा हैं,
देश-मानवता पे लड़े विश्व के वे मेरे आदर्श हैं।
सीमा पे तैनात हैं अपना घरबार छोड़ के,
कोटि-कोटि प्रणाम उन्हें, देश के शीर्षस्थ हैं।। 

 2
उदघाटन करना बंद करो और लिखना अपने नाम,
नहीं तुम्हारे पिता का पैसा, जनता पैसे से अभिमान।
सब उदघाटन तख़्त हटेंगे यदि सच्ची सत्ता आयेगी।
घोटाले में लिप्त सभी नेता (-शुभचिंतक) के बिकेंगे मकान।।

बच्चों को समान शिक्षा-निशुल्क चिकित्सा देंगे।
देश में नहीं बिकेगा पानी, न नेताओं को पेंशन।
श्रमिक और संस्कृति कर्मी करेंगे जब उदघाटन,
राष्ट्रवाद जनता से आये, न नेता के झूठे भाषण।।

जब पारदर्शी बने व्यवस्था, नेता की कलई खुलेगी।
कौन-कौन प्रतिनिधिमंडल में, जनता सब देखेगी।।
आज बात करते दूजों की अपने कॉलर में झाकें,
किसकी सत्ता बेची और बचाई तुमने कितने डालर में?

स्वच्छ जल हो, प्रदूषणमुक्त हो हर गाँव : सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

स्वच्छ जल हो, प्रदूषणमुक्त हो हर गाँव - सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'

प्रवासियों उठो तुम तरकश के बाण से,
देश को साक्षर बनाने में अपना योग दें
गाँव में चलायें निजी साक्षरता अभियान।
स्वच्छ जल हो, प्रदूषण मुक्त हो हर गाँव।।
माता पिता की मृत्यु पर उत्सव मनाते हैं.
किस तरह की जीत का दम्भ भरते हैं।
शोक-श्रद्धांजलि जन्मदाता को दे न पाया,
वह कहाँ कब हो सकेगा राष्ट्र की छाया।
भेदभाव के बना रहे हैं जो अपने-अपने कानून,
निरक्षर जनता को बता रहे डिजिटल का जुनून।
किसान के खेत छीनकर स्मार्ट शहर का नशा,
उठो युवाओं अब दिखाओ तुम विश्व को दिशा।।
जब तलक नारी और पुरुष में भेदभाव लक्षण है,
फुसलाने के लिए बनाये गए कानून, आरक्षण है।
साक्षरता बिना कभी नहीं होगा देश का विकास,
जब तलक भ्रष्टाचार और अपराध को संरक्षण है।।

- सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' , Oslo, 05.03.2020

मंगलवार, 3 मार्च 2020

सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' प्रवासी मंच, साहित्य अकादमी दिल्ली में.

 सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' 
प्रवासी मंच, साहित्य अकादमी दिल्ली में.

https://www.youtube.com/watch?v=PHnw9VC9qTI

रविवार, 1 मार्च 2020

जनता हैं हम, नहीं भेंड़ बनेंगे: सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक',

जनता हैं हम, नहीं भेंड़ बनेंगे: सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', 
बन्धुवर, कैसा हो मेरे सपनों का भारत, कविता पढ़िये।
जनता हैं हम, नहीं भेंड़ बनेंगे:
गरीबी से आजादी माँगो,
साक्षरता घर- घर फैलाओ।
जीवन से जो हार चुके हों,
उनके मन में जोश जगाओ।

दुनिया में जितने किसान है,
अन्नदाता बनते महान हैं।
गाँधी के सपनों की दुनिया,
गाँवों में सबके विहान हैं।।
साक्षरता बिन पिंजरे के पंछी,
नारी बिना ये समता कैसी?
समाज अभी भी पुरुष प्रधान हैं,
नारी बिना साझेदारी कैसी?
नदी- तालाबों पर कब्जे से,
जनता माँग रही हैं आजादी।
लघु उद्योगों की करो वापसी,
भ्रष्ट पूंजीपतियों से आजादी।।
साँस भी लेना दूभर भैया- बहना,
प्रदूषण से लेंगे हम आजादी।
साइकिल से भर जायें सड़कें,
लेंगे हम मोटर- गाड़ी से आजादी।।
कहाँ गये वे मैदान जहाँ थे,
कब्जे में जो- जो शामिल थे।
नालों- नहरों अवरोध जहाँ पर,
अवैध कब्जे से चाहें आजादी।।
सूत कात कपड़े पुनः बनायें,
कृषि को हम लघु उद्योग बनायें।
हो हर जगह नारी आन्दोलन,
नारी को समान भागीदार बनायें।।
दिव्यागों को मिले सहूलियत,
देश प्रगति में सब साथ निभायें।
नहीं चाहिये अब मन्दिर- मस्जिद,
स्कूल-लघु उद्योग केन्द्र बनायें।।
शान्ति पूर्ण आन्दोलन होंगे।
गरीब मांगे दंगो से पूरी आजादी।
हम पैसे से मुक्त चुनाव करेंगे,
अशिक्षित नेताओं से आजादी।।
भारत तो भाई बेमिसाल है,
अपने देश का हम नाम करेंगे।
साधू सन्यासी अब काम करेंगे।
अब और नहीं आराम करेंगे।
यहाँ न अब कोहराम मचेंगे,
सब हाथों को काम मिलेंगे।
उल्लू बहुत बने हैं भाई-बहना,
जनता हैं हम, नहीं भेड़ बनेंगे।।
अंत में
मेरा दिल कहता है कि नार्वे के बच्चों की तरह भारत में भी बच्चों को समान निशुल्क शिक्षा, स्वास्थ सेवा और भोजन मिले। इसी से प्रेरित होकर सपना देखता हूँ कि भारत में सभी के पास काम, अपनी भाषा में शिक्षा और सभी महिलाओं की देश के विकास में और राजनीति में पचास प्रतिशत भागीदारी हो।
सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक', ओस्लो, 01.03.2020