शनिवार, 28 मार्च 2020

मेरे मित्र शायर मजरूह सुल्तानपुरी - (जन्मशती वर्ष पर) सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' Suresh Chandra Shukla

  मेरे मित्र शायर मजरूह सुल्तानपुरी 
            - शरद आलोक, Oslo, 28.03.2020
 लन्दन में पहली मुलाक़ात। हमारी आयु में बड़ा अन्तर पर दोस्ती में नहीं 
मेरी और मजरूह सुल्तानपुरी की आयु में बहुत अन्तर था.  मजरूह साहेब की जन्मतिथि  1 अक्टूबर 1919 और 
मेरे जन्मतिथि 10  फरवरी 1954.  हमारी आयु में 35 साल का अन्तर था. उन्होंने कभी महसूस नहीं होने दिया कि मैं उनसे छोटा हूँ या युवा लेखक हूँ. 
मेरी पहली मुलाक़ात लन्दन में हुई थी. 
लन्दन में कविसम्मेलन और मुशायरे का कार्यक्रम था. लन्दन में भारत के हाईकमिश्नर डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी जी ने मुझे आमंत्रण भिजवाया था. मैं नार्वे से प्रकाशित होने वाली पत्रिका स्पाइल-दर्पण का सम्पादक था. 
पहले भी लन्दन में साहित्यिक कार्यक्रम में भाग लेने जा चुका था.  

कविसम्मेलन और मुशायरे के मंच पर बायें से हजरत जयपुरी, मजरूह सुल्तानपुरी, स्वयं मैं (सुरेशचंद्र शुक्ल) गोपालदास नीरज, सुरेन्द्र अरोड़ा, श्रीमती कमला सिंघवी, डॉ. लक्ष्मीमल सिंघवी जी, पद्मा सचदेव और कुछ कविगण थे.  मेरा परिचय मजरूह सुल्तानपुरी से परिचय आदरणीय लक्ष्मीमल सिंघवी जी ने कराया था. हजरत जयपुरी जी के साथ एक युवक आया था वह शायद उनका पौत्र था.
मैंने मजरूह सुल्तानपुरी जी से पहली ही बार में  उनसे हस्ताक्षर लिए उन्होंने उर्दू में हस्ताक्षर किये थे. और अपना विजिटिंग कार्ड दिया।   
दोस्ती फिल्म का वह गीत
मैंने बचपन में खुद 'दोस्ती' फिल्म श्रमहितकारी केंद्र (सेंटर वाली पार्क) पुरानी लेबर कालोनी में देखी। उस फिल्म में मजरूह सुल्तानपुरी जी ने क्या गीत गीत लिखे थी. मुझे दोस्ती फिल्म का वह गीत मुझे बहुत पसंद था जब देखो रेडियो में बजता रहता था, आपको जरूर याद आ जायेगा।
"चाहूँगा मैं तुझे सांझ सबेरे, फिर भी कभी अब नाम को तेरे, 
आवाज मैं न दूँगा, । 
देख मुझे सब है पता, सुनता है तू मन की सदा  
मितवा .. .. मेरे यार तुझको बार -बार आवाज मैं न दूँगा।
दर्द भी तू, चैन भी तू ,  दर्श भी तू,  नैन भी तू 
मितवा .. . . मेरे यार तुझको बार -बार आवाज मैं न दूँगा। "
क्या पता था कि जिनकी फिल्म मैंने बचपन में देखी थी उनसे कभी मुलाक़ात भी होगी।  पर ईश्वर की कृपा देखिये कि लन्दन में मुलाक़ात हुई, मंच पर एक साथ कविता पढ़ी और बाद में मित्र बन गये. 
लन्दन के बाद मैनचेस्टर में कवी सम्मेलन में और नजदीकियां बढ़ीं और घंटों बातचीत हुई. इसका श्रेय जाता है डॉ. लता पाठक और डॉ. सतीश पाठक को. मुझे  पाठक जी के घर में मजरूह सुल्तानपुरी, गोपालदास नीरज और हजरत जयपुरी जी के साथ ठहराया गया था. 
बातचीत के दौरान उन्होंने बताया कि जब वह एक बार एक मुशायरे में पाकिस्तान गए थे तो उनकी कविता बैनर पर दूसरे के नाम से लिखी हुई लगी थी. जब आयोजकों को पता चला टन उन्होंने क्षमा माँगी।
उनकी उर्दू बहुत अच्छी थी.  बहुत से शब्द मुझे समझ में नहीं आते तो वह हिन्दी में समझा देते थे.
मैनचेस्टर, ब्रिटेन में डॉ. सतीश पाठक जी के घर शाम को पार्टी चल रही थी मैं, हजरत जयपुरी और मजरूह सुल्तानपुरी साथ साथ बैठे थे. मजरूह जी ने मुझे मुंबई आने की दावत दी.  तभी हजरत जयपुरी ने कहा कि मेरे पास आना मैं पीटा नहीं हूँ. उनका इशारा  मजरूह जी की तरफ था.  हजरत जयपुरी  ज्यादा बूढ़े लगते थे जबकि मजरूह से तीन साल छोटे थे. हजरत जयपुरी का जन्म 15 अप्रैल 1922 को हुआ था जबकि मजरूह जी का जन्म 1 अक्टूबर 1919 में हुआ था जैसा कि ऊपर लिख चुका हूँ.
फिल्म बनाने का सपना
मेरे मन में फिल्म बनाने का ख्याल आया. मेरे पास कोई ख़ास अनुभव नहीं था. केवल दिल्ली के प्रो. शिवशंकर अवस्थी (राजेन्द्र अवस्थी जी के पुत्र)  द्वारा निर्देशित दूरदर्शन के लिए एक टेलीफिल्म में मैंने एक दुकानदार का अभिनय किया था. और ब्रिटेन से एक सोनी का प्रोफेशनल डिजिटल कैमरा खरीदा था.

मेरे फूफा जी श्री रमेश मिश्र जी दादर मुंबई में रहते थे. सोचा कि फिल्म निर्माण के बारे में जा-जाकर सूचनायें प्राप्त करूँ  और  अपने स्वयं अनुभव करूँ।
जब मैंने स्वयं प्रयास किया भारतीय फिल्म डिवीजन में तो वहां कहासुनी हो गयी तब मेरे मित्र नवनीत के सम्पादक गिरिजाशंकर त्रिवेदी अपने मित्र के साथ बीचबचाव कराने आये थे.  
राजकमल स्टूडियो गया जो दादर में ही स्थित था जो मेरी बुआ जी के दादर स्थित घर से पैदल जाया जा सकता था अतः अपनी बुआ जी को भी ले गया और व्ही शांताराम के पुत्र किरण जी से मिला और उन्होंने चाय पिलायी। और उनके एक व्यक्ति ने मुझे पूरा स्टूडियो घुमाया।
जब मैंने मजरूह सुल्तानपुरी जी को फोन किया तो उन्होंने मुझे अपने पास बुला लिया वह एक बिल्डिंग में रहते थे. उन्होंने चाय पिलाई और बताया की उनके बेटे का निधन हो गया है और उनका पौत्र फ़िल्मी कैरियर शुरू करने वाला है. 
मजरूह सुल्तानपुरी जी ने मुझे सलाह दी कि मैं किसी से भी फ़िल्मी दुनिया में बहस और कहासुनी न करूँ और कहीं किसी कागज़ पर हस्ताक्षर नहीं करूँ।  उन्होंने अपने कुछ विजिटिंग कार्ड दिए थे कि जरूरत पड़ने पर उसे दे देना और बाद में बात करने के  लिए कहना।  उनकी सलाह काम आ गयी.  जब मैं  फिल्मसिटी गया तो वहां के सचिव ने न की मुझे नाश्ता पानी कराया बल्कि एक व्यक्ति को भेज करके फिल्म सिटी में घुमवा दिया और चल रही सूटिंग देखा।  कार्यालय में वहां के स्टूडियो का किराया आदि पूछा और खुश होकर आ गया.

मजरूह सुल्तानपुरी का जीवन परिचय 
मजरूह सुल्तानपुरी का जन्म 1 अक्टूबर 1919 को उत्तरप्रदेश में स्थित जिला सुल्तानपुर में हुआ था. इनका असली नाम था "असरार उल हसन खान" मगर दुनिया इन्हें मजरूह सुल्तानपुरी के नाम से जानती हैं. 

मजरूह साहब के पिता एक पुलिस उप-निरीक्षक थे. और उनकी इच्छा थी की अपने बेटे मजरूह सुल्तानपुरी  को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलाये और वे बहुत आगे बढे. 

मजरूह सुल्तानपुरी ने अपनी शिक्षा तकमील उल तीब कॉलेज से ली और यूनानी पद्धति की मेडिकल की परीक्षा उर्तीण की. और इस परीक्षा के बाद एक हकीम के रूप में काम करने लगे..

लेकिन उनका मन तो बचपन से ही कही और लगा था. मजरूह सुल्तानपुरी को शेरो-शायरी से काफी लगाव था. और अक्सर वो मुशायरों  में जाया करते थे. और उसका हिस्सा बनते थे. और इसी कारण उन्हें काफी नाम और शोहरत मिलने लगी.  और वे अपना सारा ध्यान शेरो-शायरी और मुशायरों में लगाने लगे और इसी कारण उन्होंने  मेडिकल की प्रैक्टिस बीच में ही छोड़ दी. बताते चले की इसी दौरान उनकी मुलाकात मशहूर शायर जिगर मुरादाबादी से होती हैं..  और उसके बाद लगातार मजरूह साहब शायरी की दुनिया में आगे बढ़ते रहे. उन्हें लोगो का काफी प्यार मिलाता रहा. उनके द्वारा लिखी शेरो शायरी लोगो के दिलो को छू जाती थी. और वो मुशायरो की शान बन गए..

सब्बो सिद्धकी इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित एक संस्था ने 1945 में एक मुशायरा का कार्यक्रम  मुम्बई में रक्खा और इस कार्यक्रम का हिस्सा मजरूह सुल्तान पुरी भी बने. जब उन्होंने अपने शेर मुशायरे में पढ़े तब वही कार्यक्रम में बैठे मशहूर निर्माता ए.आर.कारदार उनकी शायरी सुनकर काफी प्रभावित हुए. और मजरूह साहब से मिले और एक प्रस्ताव रक्खा की आप हमारी फिल्मो के लिए गीत लिखे. मगर  मजरूह सुल्तानपुरी से साफ़ मना कर दिया फिल्मों  में गीत लिखने से क्युकी वो फिल्मो में गीत लिखना अच्छी बात नहीं मानते थे. इसी कारण ये प्रस्ताव ठुकरा दिया..

पर जिगर मुरादाबादी ने समझाया उन्हें और अपनी सलाह दी की फिल्मो में गीत लिखना कोई बुरी बात नहीं हैं. इससे मिलने वाली धनराशी को  अपने परिवार को भेज सकते हैं खर्च के लिए. फिल्मे बुरी नहीं होती इसमे गीत लिखना कोई गलत बात नहीं हैं.  जिगर मुरादाबादी की बात को मान कर वो फिल्मो में गीत लिखने के लिए तैयार हो गए. 
  
और उनकी मुलाकात जानेमाने संगीतकार नौशाद से हुयी और नौशाद जी ने उन्हें एक धुन सुनाई और उस धुन पर गीत  लिखने को कहा..  

तब मजरूह सुल्तानपुरी ने अपना पहला फ़िल्मी सफ़र की शुरुआत की नौशाद की सुनाई हुयी एक धुन से. और लिखा एक गाना जिसके बोल थे कुछ इस तरह "गेसू बिखराए, बादल आए झूम के" इस गीत के बोल सुनकर नौशाद काफी प्रभावित हुए उनसे, और अपनी आने वाली नयी फिल्म  "शाहजहां" के लिए गीत लिखने प्रस्ताव रखा. 
और यही से शुरू हुआ उनका फ़िल्मी सफ़र का दौर और बन गयी एक मशहूर जोड़ी मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार नौशाद की. और लगातार एक के बाद एक फिल्मो में गीत लिखते रहे. और सफलता की चोटी पर चढते रहे.

न भूलने वाले गीतकार
अक्टूबर 2019 से  अक्टूबर 2020 तक उनका शताब्दी वर्ष है. उनके गीतों के माध्यम से जहाँ जहाँ भी हिन्दी और उर्दू की दुनिया है वहां-वहां उन्हें याद किया जायेगा।  ईश्वर की बहुत कृपा है कि उन्होंने मुझे मजरूह जी और अनेकों गीतकारों / लेखकों से मिलाया और सानिधि का अवसर दिया।  

 













चित्र में बायें से मोहम्मद रफ़ी, लता मंगेशकर और मजरूह सुल्तानपुरी।


 

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