गुरुवार, 2 अगस्त 2012

आज रक्षाबंधन का दिन है।

रक्षाबंधन में पूर्णिमा चाँद बहुत भला लगता है पर जब दिखाई दे तब  
ओस्लो में कल मैंने माया को पूरा चाँद दिखाया था, जिसे आज बदली और बरसात होने के कारण आसमान में चाँद देखना असंभव है।  आज रक्षाबंधन का दिन है। उत्तर भारत में ही नहीं वरन पूरे विश्व में जहां-जहां भी भारतीय बसे हैं वे रक्षाबंधन पर्व मनाते हैं। ईमेल से कई पत्रों में रक्षाबंधन की शुभकामनाएं प्राप्त हुई तो भारत की यादें ताजी हो गयीं। अपनी बड़ी बहन श्रीमती आशा तिवारी जी से रक्षाबंधन के अवसर पर आशीर्वाद प्राप्त किया किया।
पिछले वर्ष रक्षाबंधन के दिन यहाँ ओस्लो में मेरे घर पर डॉ. विद्याविन्दु सिंह और लखनऊ विश्विद्यालय में हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्ष और कवियित्री कैलाश देवी सिंह जी ने राखी बांधी थी।  माया ने शान्तिनिकेतन में हिन्दी विभाग के विभागाध्यक्ष रामेश्वर मिश्र को राखी बांधी थी।  राखी के धागे कितना पवित्र रिश्ता जोड़ देते हैं। आज ईमेल के माध्यम से रक्षाबंधन पर्व पर शुभकामनाओं का आदान-प्रदान हुआ।
पहले रक्षाबंधन सुरक्षा, त्याग, औ र  बलिदान की प्रतिमूर्ति हुआ करता था, आज भाई-बहन का रिश्ता निभाने की मर्यादा  मानने वालों पर निर्भर होती है। कोई गैर होकर भी भाई-बहन का फर्ज निभाकर रक्षाबंधन की लाज रखते हैं, कोई केवल धन को महत्त्व देता है जो बहन के लिए त्याग और बलिदान नहीं कर पाता ।  सभी की अपनी अपनी मान्यताएं और सीमायें हैं जिनमें वे सभी बंधे हैं।
'भाई-बहन का रूठना
प्यार से उन्हें मनाना
एक कोख में पले और बड़े हुए भी भुला देते हैं फर्ज
दूर के सुहावने बोल से खींचे चले जाते हैं।
अहसासों के रिश्ते जब मिश्री घोलने लगते हैं तो
वह अपने, सिर्फ अपने हो जाते हैं।'
ये पंक्तियाँ मुझे स्वर्गीय रामश्रय त्रिवेदी की पुत्री यानि हमारी जननो जिज्जी तथा  पिताजी के गाँव की बिटानिया  बुआ  जो दोनों ही अपने सगों से पहले हमारे घर रक्षा बंधन और भैयादूज के दिन आती थीं। जन्नो   जिज्जी (जान्हवी)  हमको तथा बिटानिया बुआ पिताजी को तिलक लगाकर धागे बांधती थी।  मिठाई लाती थीं.

 स्वतन्त्र विचारों में परिवर्तन 
जीवन के अर्थ  समय के साथ बदलने लगा है।  जहाँ पश्चिम में स्वतन्त्र सोच का विशेष महत्त्व है वहीं अभी भी बहुत से लोग यहाँ रहकर भी दूसरों की सोच के पराधीन हैं. अपने परिवार पर तो सभी लोग खर्च कर सकते होंगे। पर वह व्यक्ति कंजूस नहीं है जो दूसरों पर दिल खोलकर खर्च करता है।

मैंने अपने नार्वेजीय भाषा में छपे कवितासंग्रह 'फ्रेम्मदे फ्युग्लेर' (अनजान पंछी) में एक बुजुर्गों पर लिखी एक कविता में लिखा था-
'बुजुर्गों आप अपना धन अपने लिए
अपने इलाज के लिए
अपनी बैसाखियों के लिए प्रयोग करें,
अपनी संतान के लिए 'ज्याजाद एकत्र न करें।'
यह एक लम्बी कविता है। जब इसे पढता हूँ बुजुर्गों की आँखें नम हो जाती हैं. इस कविता में उनका एकाकीपन, उनकी असमर्थता और आदर्श उन्हें कचोटता  है। पर कुछ कर नहीं सकते।
एक कहावत है-
'पूत सपूत तो क्यों धन संचै
पूत कुपूत तो क्यों धन संचै।'
साहित्य समाज का दर्पण होता है और कविता उसकी अभिव्यक्ति का एक माध्यम है।
नार्वे में घोंगा के कीमत 
इस बार नार्वे में गर्मी का मौसम बरसात में बदल गया है।  लोग धूप  को तरस गए हैं।  बरसात के कारण घोंगाओं की भरमार हो गयी है. कुछ स्थानों पर इनसे बहुत नुकसान  पहुँच रहा है।  एक नगर में तो नगरपालिका ने एक किलो घोंगा एकत्र करने की कीमत दो सौ नार्वेजीय क्रोनर रखे हैं।  लोगों से इसमें सहयोग देने की अपील की है।
(ओस्लो, 02-08-12) 

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