सोमवार, 11 जुलाई 2016

शिशुकाल से बालकाल तक -सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक' Suresh Chandra Shukla

शिशुकाल से बालकाल तक 



अपने बचपन को  स्मरण करते हुए  आपको अपनी एक पुरानी  कविता से  सराबोर करने का प्रयास कर रहा हूँ।  आशा है  कि  आपको भी अपना बचपन याद हो आयेगा।  स्मृति के फूल झड़ेंगे  और आप शायद  आनन्दित हों पढ़कर।  
ओ मेरे बचपन फिर आना 
मधुर-मधुर बचपन फिर आये,
फिर से मुझको गीत  सुना ये   ।
जिसमें खोकर भूलूँ दुखड़े,
बचपन - मित्रों से पुनः मिलाये।  

झूलों में वह पैंग मारना ,
पैंग  मार कर नभ को छूना। 
कभी अकेले कभी  साथ में ,
घूम-घूमकर चक्कर  खाना। . 

लुका  छिपी का खेल सुहाना ,
कभी रुलाना कभी हँसाना ,
रूठे हुये  को पुनः  मनाना ,
चूम-चूमकर  गले लगाना।  

स्वाधीनता दिवस  जब आये   ,
प्रभात फेरी , ध्वज लहराना। 
गली -गली  में द्वार-द्वार तक,
देशभक्ति के नारे  गाना। 

ओ मेरे बचपन फिर आना 
नये  पुराने राग  सुनाना। 
बिछड़े मीतों को  मिलवाना,
यादों  की  बांसुरी बजाना। 

दौड़-दौड़  तितली के पीछे ,
उसे पकड़ना , उसका मरना। 
फिर  पुस्तक में  उसे संजोना ,
सुख-दुःख साँझा रिश्ता रखना। 

झूठ -मूठ  थी लगी  भली  थीं,  
माँ -दादी  की  कही कहानी। 
सुनकर  रोमांचित हो जाते ,
सुधियों  की बस रही  निशानी।।  


संस्मरण 
(मेरे पास बचपन की कोई तस्वीर नहीं है. स्कूल में एक सामूहिक चित्र खींचा गया था पर मेरे पास नहीं है यदि किसी के पास मेरी बचपन की तस्वीर हो तो कृपया उसे ई-मेल से भेंट की कृपा करें या इसमें किसी प्रकार का सहयोग भी सराहनीय होगा। कभी -कभी  विचार करता हूँ कि यदि चित्रकार होता तो स्कैच/रेखाओं से चित्र बनाकर लोगों को अपने बचपन के बारे में बताता।
बचपन की दो बातें याद हैं. एक चीन ने जब १९६२ में  भारत पर आक्रमण किया था तब हमने अपनी बस्ती में बड़ों के साथ भारत की एकता और चीन के खिलाफ फेरी में सम्मिलित हुये थे. दूसरी बात याद है कि विवेकानंद जी की जन्मशती पर हमने सहयोग के लिए कार्ड खरीदे थे उनकी कन्याकुमारी उनकी याद में स्मारक बन्ने में सहयोग के लिए.
बचपन में हम मस्त रहते हैं. कोई चिंता नहीं। कोई परवाह नहीं। नये-नये  सपने बनते और मिटते। आपस में प्रेम से खेलते-लड़ते और फिर एक हो जाते जैसे कुछ हुआ ही नहीं। इसी लिए कहा गया है बचपन सबसे अच्छा होता है।  स्कूल में छुट्टी होने के बाद हम तरह-तरह से चलते, मटकते हुए, कूदते फांदते हुए.  बचपन में कितना आनन्द मिलता था यह विचार कर मन पुलकित हो जाता है.  
पूनम शिक्षा निकेतन में 
नर्सरी से कक्षा तीन तक 
पूनम शिक्षा निकेतन बड़ी कालोनी ऐशबाग में स्थित है. इसे इप्रूवमेंट ट्रस्ट कालोनी भी कहते हैं. यह पुरानी  श्रमिक बस्ती ऐशबाग और स्वरूप कोल्ड स्टोरेज-राष्ट्रीय स्वरूप समाचार-पत्र प्रेस  के मध्य में स्थित है.

विद्यालय की मालकिन और बड़ी आंटी के नाम से ख्याति प्राप्त कौशल्या जी इस स्कूल की प्रधानाचार्य हैं.
अभी भी वह रोज रिक्शे से प्रातः स्कूल आती हैं, यह मुझे उनके  निजी रिक्शाचालक से बातचीत से मालुम हुआ जब मार्च २०१६ को एक दिन सुबह लखनऊ प्रवास में स्कूल के सामने टहलते हुए जा रहा था.
उनके पति जिन्हें हम अंकल जी कहते थे वह रेलवे में कार्यरत थे जिनकी बहुत पहले मृत्यु हो चुकी है.

पूनम शिक्षा निकेतन स्कूल में मैंने नर्सरी से लेकर कक्षा तीन तक शिक्षा प्राप्त की है.
स्कूल के आँगन में हमारी पंक्ति बनाकर प्रार्थना होती थी.
उस समय मेरी एक अध्यापिका थीं वह पुरानी श्रमिक बस्ती में १९ /७ में रहती थीं. एक शुक्ला आंटी के नाम से मशहूर थीं जो इसी कालोनी में १३/४ में रहती थीं. इसी में सं १९८६-१९८७ में नीरू पढ़ाती थी.
कागज की नाव बरसात का पानी 
बरसात में यहाँ आँगन में पानी भर जाता था हम लोग कागज़ की नाव बनाकर तैराते थे. कागज को मोम से रगड़ते थे ताकि कागज़ की नाव पानी को सहन कर सके. दो तरह की नाव बनाना ( एक सादी नाव और दूसरी जिसमें ऊपर आधी में ऊपर से ढकी हो ताकि नाव में सवार पानी बरसने पर न भीगें।) . कागज के जहाज  बनाकर अध्यापिका के न होने पर उसे कक्षा में ऊपर उड़ाना बहुत अच्छा लगता था. हम एक दूसरे के ऊपर भी उड़ाते थे बड़ा अच्छा लगता था.
जब कक्षा तीन में था तब बरसात में कभी-कभी कक्षा की छत से पानी टपकता था.
कागज के फूल 
इसी विद्यालय में हमने कागज़ के फूल, हार बनाना सीखा था. पलास्टिक के  तार जिससे कुर्सी आदि बुनते हैं उसी तार से हमको बेल्ट बनाना सिखाया गया. कागज के फूल बनाते और घर में माँ और पिताजी को भेंट करते थे.
तार से  बनी बेल्ट/पेटी हम अपनी पैन्ट में बांधते थे.
मीठे -मीठे शहतूत 
स्कूल एक पीछे गली और उसके बाद एक बगिया थी जहाँ शहतूत के अनेक पेड़ थे. हम शहतूत तोड़ने अवकाश के समय जाया करते थे. अपने बाल मित्रों के साथ वहां जाना बहुत अच्छा लगता था. स्कूल एक पीछे गली ऐशबाग ईदगाह के पीछे की दीवारों को आगे जाकर मिलती थी और यह गली पुरानी श्रमिक बस्ती के ब्लाक नम्बर ६० के सामने समाप्त होती थे जहाँ एक और स्कूल है.
लंगड़ी-टांग का खेल 
हम जब स्कूल में पहले आ जाते तो हम एक खेल प्रायः खेलते थे जिसे हम लंगड़ी-टांग  कहते थे. इस खेल में एक व्यक्ति एक टांग से दौड़-दौड़कर दूसरों को छूने की कोशिश करता था. हम उसकी पीठ  को बार-बार छूकर उसे छेड़ते थे. जिसे वह छू लेता था तब उसकी बारी आती थी. फिर वह सहपाठी एक टांग से फुदकता हुआ दूसरों को छूने का प्रयास करता।
हाई स्कूल के मित्रगण 
कक्षा नौ से दस तक मेरी कक्षा में अनेक मित्र आये और गये. सोलह वर्ष की आयु थी, तब तक कुछ कवितायेँ लिखी थीं. स्कूल में खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कुछ इनाम चटकाये थे. हिन्दी और साहित्य में रूचि के बाद भी सभी विषयों की तरफ ध्यान नहीं गया बस इसके अलावा किसी बात का अफ़सोस नहीं रहा क्योंकि परीक्षा में पास होने के लिए सभी विषयों में पास होना जरूरी होता है.
इस अवस्था में मन में स्वप्नों की हिलोरें, अल्हड़ता का रंग, मित्रों के साथ समय बिताने की मस्ती हर कोई स्मरण जरूर करेगा। अनेक जीती जागती कहानियां कभी स्पर्श करके निकल जातीं या कभी दर्शन देकर कुछ समय के लिए लुप्त हो जातीं। कक्षा नौ से दस तक मेरी कक्षा में अनेक मित्र आये और गये. अवस्था में कुछ मेच्योरिटी /परिपकवता आने लगी थी.

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