मंगलवार, 12 जुलाई 2016

सोलह वर्ष की आयु - समय ने दीवाना बन दिया - सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' Suresh Chandra Shukla


सोलह वर्ष की आयु में जब समय ने दीवाना बना दिया
(बचपन के संस्मरण आज लिख रहा हूँ क्योकि मुझे मालुम है की भविष्य में इन्हें लिखने का कभी समय नहीं मिलेगा क्योंकि साहित्यिक लेखन का दबाव होगा।)



अर्थशास्त्र  में  नोबेल  पुरस्कार विजेता और भारत रत्न पुरस्कार  विजेता अमर्त्य सेन के साथ 

हम इस आयु में राजकुमार और राजकुमारी से कम नहीं होते
यह आयु बहुत संयत होती है. मन से  अंकुर फूटने लगते हैं. हवा के झोंके किसी भी नरम टहनी को लचका देते हैं. समय के रथ पर सवार हम सभी इस आयु में राजकुमार और राजकुमारी से कम नहीं होते हैं. आकर्षण और नयनप्रियता एक बार में जो मन में समां गयी वह बहुत समय तक रहती है. 
उत्साह और उमंग की होती है यह आयु. जैसे छोटा शिशु हाथ से छूकर और मुख  में हर वस्तु  डालकर स्वयं  उसे पहचानना चाहता है ठीक उसी तरह मन स्वतन्त्र -स्वच्छन्द अपनी कल्पनाओं के वशीभूत होकर आनन्दित होता है और अपने मित्रों को अपने व्यवहार से संतुष्ट करता है और साथ.साथ सैर करना दूर-दूर तक घूमना फिरना। हंसना और हंसाना।  इस आयु में समय ने मुझे दीवाना बना दिया था. सीमाओं ने आभास कराया, उत्सुकता ने उसे जगाया, फिर ऐसा भी हुआ जब मैं  सारी -सारी रात सो नहीं पाया।
विचारों से विचार उपजते उससे नयी कविता और गीत लिखकर गीत भेंट कर दिया करता था।  मुझे नहीं मालुम कि वे गीत कितने अच्छे थे या नहीं थे पर उस समय मनभावन लगते थे. आप किसी से खुश होते हो, किसी को उपहार देना चाहते हो. या तो भौतिक  उपहार और दूसरा अहसासों का उपहार। मेरे पास देने के नाम पर केवल कविता और अहसास होता। जिसपर कविता लिखता उसे भेंट कर देता।  मेरे पास वे कवितायें नहीं हैं पर भविष्य में यदि लोगों ने बचा रखी होंगी तो शायद प्रगट हो जायें।  मेरे मित्र अक्सर कहते कि मैं अनेकों पर कविता क्यों लिखता हूँ. मुझे एक विषय एक व्यक्ति पर ही कविता लिखनी चाहिए यह बात तब की है जब मैं अनाड़ी था आयु सम्भवता पंद्रह-सोलह वर्ष की रही होगी।  मेरा उस समय कहना था. मैं सभी को अपना मन खोल कर नहीं दिखा सकता था  मेरे पास मेरी कवितायें -भावनायें थीं. कवितायें और मेरी स्नेहिल भावनायें उसकी छाया/ कॉपी  भर है.  
माँ ने परिश्रम करना और सादगी से रहना सिखाया 
चूँकि मेरी माँ (श्रीमती किशोरी देवी) ने गाय पाली थी उसका नाम श्यामा था. मेरी माँ अक्सर मुझे सुबह चार-पांच बजे उठा देती और  गाय के चारा-पानी और सफाई आदि में मदद लेतीं थीं. मैं घर में छोटा था. बड़े भाई की पढ़ाई पर ध्यान दिया जाता था. हमेशा बड़ी संतान की तरक्की पर माता-पिता की ज्यादा नजर होती है. छोटे को दुलार तो मिलता है पर कार्य सभी के करने पड़ते हैं. मेरे जीवन के लिए यह बहुत अच्छा रहा. परिश्रमी होना, जो साधारण कहना मिले उसे प्रेम से खा लेना और जमीन तथा तखत पर भी खुशी-खुशी सो जाना ये सब मेरी माँ की सिखाई हुई बातें हैं जो मुझे आज भी सम्बल देती हैं.
मेरा अनुभव है आप जिससे बहुत प्रेम करते हैं यदि वह आपसे बहुत प्रेम करता है तो ऐसा भी होता है कि वह प्रेम में आपके खिलाफ बहुत बड़ा निर्णय भावना में बहकर ले लेता है.  उसे मालुम होता है कि आप उससे  हर हाल में प्रेम करते रहेंगे।  यह बात प्रेमी की हो या रिश्तेदारों की या सगे सम्बन्धी की.  मेरे मामले में यह सोलह आने सच साबित हुई है. इससे एक बात तो होती है  कि आपके विरोध में कार्य करने और निर्णय लेने वाले पर आप जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाते हो या इसका एक पक्ष और है. 
मैं आपसे प्रेम करता हूँ , और आप मुझसे सभी कुछ छीन लेते हो । तो आप मांगने के हकदार नहीं होते भले मैं देने को तैयार रहूं।  सबका अपना सच होता है. सबकी अपनी-अपनी करनी और अपने-अपने अनुभव होते हैं.
सभी धर्मों के मित्र  अपने मित्रों के साथ अवकाश के समय घर के बाहर पार्क में बैठे रातभर गप्पे मारना अभी भी याद है. लखनऊ नगर में आयोजित कुछ बड़े कविसम्मेलनों, फिल्म प्रदर्शनों, नौटंकियों को अपने साथियों के साथ देखने जाता था और वहां  आयोजक सदस्य से अपने वयवहार से घनिष्टता बनाने की कोशिश करता था. इससे नए-नए परिचित मिले कुछ जुड़े, कुछ छूटे। 
तब मेरे मित्र हिन्दू, मुस्लिम सिख, ईसाई सभी थे और जन्माष्टमी और रामलीला देखने सभी साथ-साथ जाते थे. यहाँ तक कि मोहल्ले में चन्दा मांगने के लिए जब जाता तो वे सभी साथ देते थे. 
बहुत से विद्वानों और स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से मिला 
यहाँ मैं  साहित्यकारों से जिनसे उस आयु में मिला जिन मशहूर स्वत्रता सेनानी और नेताओं, शिक्षाविदों और समाज सेवियों से मिला उनका जिक्र नहीं कर रहा हूँ. उसके लिए अलग से लेख लिखूंगा।  उस समय के बहुत से लोग हैं जैसे स्वतंत्रता सेनानियों में शचींद्र नाथ बक्शी, रामकृष्ण खत्री, दुर्गा भाभी, गंगाधर गुप्ता जी शिक्षाविदों में सत्य नारायण त्रिपाठी, डा दुर्गाशंकर मिश्र, भारती गांधी और जगदीश गांधी, समाजसेवियों में  पुरानी  लेबर कालोनी ऐशबाग के भगत जी जिन्हें हम पापाजी कहते थे, सम्पादकों में  शिव सिंह सरोज, अशोक जी वीरेंद्र सिंह जी और वचनेश त्रिपाठी जी आदि-आदि.  
आईये मेरी पुरानी स्वरचित कविता  का कुछ आनंद लीजिये।
पास रहना, अजनबी कहना, रोज की बात थी.
साथ चलना, फिर खिलखिलाना, रोज की बात थी
पहेलियां बुझा न सके, बस यही चर्चा में रहा,
चित  में बसा था जिन्हे, रोज उनकी बात थी

बस मन में  जो पर्दा रहा, उसी का अफसोस है,
लखनऊ से अमरीका तक, रोज उसकी बात की. 
हाँ और ना में कभी फर्क, समझा नहीं मदहोश था.
प्रेम में झांकना, दीप में तापना,  रोज की बात थी.

गीतों में मेरे नाचना, नयनों से छिप-छिप देखना।
मंच पर घुंघरू की तरह, बेबाक होकर थिरकना।
आज सब कुछ याद है, पर कुछ नहीं मैं कर सका.
वह उसके मन के पृष्ठ थे, ये मेरे मन का फलसफा।
हाई स्कूल के मित्रगण 
कक्षा नौ से दस तक मेरी कक्षा में अनेक मित्र आये और गये. सोलह वर्ष की आयु थी, तब तक कुछ कवितायेँ लिखी थीं. स्कूल में खेल और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में कुछ इनाम चटकाये थे. हिन्दी और साहित्य में रूचि के बाद भी सभी विषयों की तरफ ध्यान नहीं गया बस इसके अलावा किसी बात का अफ़सोस नहीं रहा क्योंकि परीक्षा में पास होने के लिए सभी विषयों में पास होना जरूरी होता है.
इस अवस्था में मन में स्वप्नों की हिलोरें, अल्हड़ता का रंग, मित्रों के साथ समय बिताने की मस्ती हर कोई स्मरण जरूर करेगा। अनेक जीती जागती कहानियां कभी स्पर्श करके निकल जातीं या कभी दर्शन देकर कुछ समय के लिए लुप्त हो जातीं। कक्षा नौ से दस तक मेरी कक्षा में अनेक मित्र आये और गये. अवस्था में कुछ मेच्योरिटी /परिपकवता आने लगी थी.  तब समय ने मुझे दीवाना बना दिया था.
हाई स्कूल के मित्रगणों में बहुत से मित्र रहे पर कुछ का ही जिक्र यहाँ करूँगा अनेक मित्रों से मित्रता के अलग-अलग केंद्र बिंदु थे.
जिनके साथ पार्कों या स्नस्थानों में फ़िल्में देखने जाता उसमें अहमद अली, विजय सिंह दिनेश जायसवाल, ओम प्रकाश, आत्मा राम मुख्य थे.
सिनेमाहाल में जिनके साथ जाता था उनमें मनोज सिंह, आनंद प्रकाश गुप्त, विजय सिंह आदि मुख्य थे.


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