शुक्रवार, 3 फ़रवरी 2012

सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' से साक्षात्कार

 सुरेशचंद्र शुक्ल 'शरद आलोक' से साक्षात्कार, 10 फरवरी जन्मदिन  पर  

प्रवासी भारतीय दिवस में शरद आलोक महात्मा गांधी जी की पौत्री  इला गांधी को स्पाइल और वैश्विका भेंट करते हुए
  

१० फरवरी को आपका जन्मदिन है, आपको शुभकामनायें. आपने लेखन कब शुरू किया?
धन्यवाद.  अपनी कविता 'आकुल वसंत' की कुछ पंक्तियों  से आपका स्वागत करता हूँ.   
'आओ रुको यहाँ कुछ देर बन्धु!
समय ने बांधे यहाँ सेतु बन्धु,
आकुल वसंत अपने गाँव बन्धु,
मिलेगी यहाँ सबको छाँव बन्धु!'
जब कक्षा ९ में था तब मेरी पहली कविता  का प्रकाशन १९६९ में हुआ जब मैं कक्षा  नौ में पढता था.  पहली कविता वर्षा पर आधारित थी. मेरी शिक्षा १ से ३ तक पूनम शिक्षा निकेतन, कक्षा चार और पांच की शिक्षा नगरपालिका स्कूल में हुई. मैंने हाई स्कूल गोपी नाथ लक्ष्मणदास रस्तोगी इंटर कालेज, लखनऊ  में और माध्यमिक शिक्षा दयानंद ऐंग्लो वैदिक कालेज में तथा स्नातक की शिक्षा बी एस एन वी डिग्री कालेज लखनऊ में हुई थी. 
आपको बचपन में किन लेखकों से प्रेरणा मिली?
कक्षा नौ में पढ़ते हुए एक कविता लिखी थे जिसकी कुछ पंक्तियाँ प्रस्तुत हैं:
'अगर तुम दूजों पर आधीन,
चढ़ोगे क्या उन्नति सोपान?
करोगे कठिन परिश्रम वीर,
बनोगे स्वावलंबी इंसान!
 मेरी माँ कठिन परिश्रमी थीं और रामायण का रोज पाठ करती थीं. मुझे भी पढाई से अधिक रामायण पढ़ने पर जोर देती थीं. स्कूल  में अध्यापकों ने मेरे ऊपर प्रभाव डाला. मेरी माँ की शिक्षा का ही फल है कि जहाँ कहीं भी सोने को मिले छे वह कठोर हो या नरम वहां सो जाऊं और जो भी ईमानदारी और स्वाभिमान से रूखा-सूखा  मिल जाए उसे खाकर गुजरा करना.   
नगरपालिका स्कूल में मेरे अध्यापक रामविलास और नन्हां महाराज और रस्तोगी कालेज में दुर्गाशंकर मिश्र और सुदर्शन सिंह का सानिध्य मिला तथा डी  ए वी इंटर कालेज में रमेशचन्द्र अवस्थी, देवेन्द्र मिश्र, उमादत्त त्रिवेदी और वी पी सिंह का स्नेह मिला.  इन्हीं विद्यालयों में मुझे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों और लेखकों से मिलने का अवसर मिला जिनके विचारों ने मेरे ऊपर प्रभाव डाला.  क्रांतिकारियों  में शचीन्द्र नाथ बक्शी, गंगाधर गुप्ता,  रामकृष्ण खत्री, दुर्गा भाभी, प्रकाशवती के साथ-साथ लेखकों में महादेवी वर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, रमई काका, अमृतलाल नागर, भगवती चरण वर्मा, शिवसिंह 'सरोज', आदि से मिल चुका था और जिन्हें समारोहों में सुना भी था.  आयु में असमानता होने के बाद भी गंगाधर गुप्ता जी मेरे मित्र थे जिन्होंने मुझे अनेक अपने मित्र स्वतंत्रता सेनानियों से मिलवाया था.  इन्हीं लोगों का मेरे ऊपर असर पड़ा होगा. वैसे तो तारों की टिमटिमाहट, फूलों की महक, तितलियों के पीछे भागकर पकड़ने की ललक में चुपके से आकर कोई कुछ दे गया हो तो मुझे स्मरण नहीं है.  स्कूल-कालेजों पर आयोजित अन्त्याक्षरी और वादविवाद प्रतियोगिता में भाग लेकर बहुत कुछ सीखा था.

आपकी पहली पुस्तक कब छपी? आप इस पर क्या कहना चाहेंगे?
मेरे बड़े भाई राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल जब कक्षा दस में थे तो उन्होंने शौखिया कवितायें लिखीं थीं. मेरे अध्यापक नन्हा महाराज भी छंद और सवैया लिखते थे.  मैंने भी एक गणेश वंदना लिखी. मेरे बड़े भाई ने बड़े जोर का थप्पड़ मारा. वे सोच रहे थे कि कहीं पढ़ाई-लिखाई छोड़कर केवल मेरा मन कविता कहानी में न लग जाये.  और जब भी मुझे खेलकूद में पदक मिलता था तो वह बहुत प्रोत्साहित करते थे.  वही भाई १५ अगस्त १९७० को साइकिल से विश्व यात्रा करने निकल पड़े.  मुझे भाई की कमी बहुत खलने लगी. मेरे मझिले भाई रमेशचंद्र शुक्ल पी ए सी (पुलिस) में भरती हो गए थे.  सन १९९२ में मेरी नौकरी अपने  पिताजी के साथ कारखाने 'सवारी एवं मालडिब्बा कारखाना, लखनऊ' में लग गयी.  उस समय मैंने केवल दसवीं कक्षा ही पास  की थी.  पिता की आर्थिक मदद के लिए की गयी नौकरी से पता चला कि श्रमिक जीवन क्या होता है?  कारखाने  की संस्कृति से मजदूरों की स्थितियों से परिचित हुआ.  सन १९७५ में डी एवी कालेज से इंटर पास करते ही मेरी पहली पुस्तक 'वेदना' प्रकाशित होकर आ गयी.  विद्यालय और आस पड़ोस के  लोगों की निगाह में एक कवि  परन्तु स्वयं उस समय मैं अपने आपको  और अधिक संघर्षशील बनाता गया. पुस्तकालय में पठन-पाठन बढ़ने लगा. सामजिक सेवा में भी उन्मुख होता रहा.  'वेदना' के बारे में 'स्वतन्त्र भारत' और 'नवजीवन'  दैनिक समाचारपत्र में समीक्षा छपी. मेरी कविता और कहानी  विद्यालय की पत्रिका में छपी. 

आपका नार्वे कब और कैसे जाना हुआ?
मेरी पहली काव्य पुस्तक प्रकाशित हो चुकी थे. मेरे भाई १९७२ में नार्वे पहुंचकर वहीं रहने लगे थे. उन्होंने वहां से एक पत्रिका १९७८ में आरम्भ की जिसका नाम 'परिचय' था. वह चाहते थे कि मैं उनके कार्य में हाथ बटाऊँ  अतः उन्होंने मुझे लिखा और कहा कि स्नातक होना जरूरी है. मैंने बी एस एन वी डिग्री कालेज में १९७७ में दाखिला ले लिया  था. साथ में मेरी रेलवे की नौकरी भी चलती रही.
जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में राजनैतिक आन्दोलन चला. इंदिरा गांधी जी ने आपातकाल की स्थिति घोषित की.  इस सारे प्रकरण में जो कालेज की पढाई दो साल में होनी चहिये थी वह तीन साल में हुई.  २३  जनवरी १९८० को लखनऊ के चारबाग  रेलवे स्टेशन पर प्रातः मुझे बहुत से मित्र और परिवार के सदस्य छोड़ने आये थे. एयरफ्लोट जहाज से मास्को में एक दिन के विश्राम के बाद २६ जनवरी को मैं ओस्लो के फोर्नेब्यु  एयरपोर्ट पर पहुँच गया था.  वहाँ पर रहने के लिए मुझे पढ़ाई करनी थी अतः ओस्लो विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया.

आपको कभी न भूलने वाले लोगों में आप किन्हें याद करेंगे?
भारत में महादेवी वर्मा, जैनेन्द्र कुमार,  कमलेश्वर, अमृता प्रीतम, श्याम सिंह शशि,  दुर्गा भाभी, गंगाधर गुप्ता  और जयप्रकाश नारायण तथा नार्वे में इंदिरा गांधी,  नोबेल पुरस्कार विजेताओं:  नेलसन मंडेला,  देशमांद टूटू, दलाई लामा,  नेताओं: ग्रू हार्लेम ब्रुंतलांद,  
 मारित नीबाक,  हाइकी होल्मोस,  येन्स  स्तूलतेनबर्ग,  थूरस्ताइन  विन्गेर, आन कैथ  वेस्तली  आदि को भुला नहीं सकता.  साथ में अपनी माँ किशोरी देवी शुक्ल  और पत्नी माया भारती को जिन्होंने मुझे बहुत साथ दिया.

प्रश्न: आपको दिल्ली में १० से १२ जनवरी को संपन्न हुए अंतर्राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव 2012 में आकर कैसा लगा.
हर सम्मलेन एक उत्सव होता है और  एक संगम भी इन अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में बहुत कुछ सीखने को मिलता है. हिन्दी भाषा पर बहुत से विद्वानों के विचारों  को सुनने, अपनी बात कहने और  देश विदेश में हिन्दी के विकास  और उसके  नए आयामों का पता चलता है.  शोध लेखों को पढ़ा जाता है, समस्याएं और समाधानों पर विचार विमर्श होता है.
जयपुर में ७ से ९ जनवरी २०१२ तक होने वाले प्रवासी भारतीय दिवस में भाग लेने के बाद  आजाद भवन और  हंसराज स्नातकोत्तर महाविद्यालय दिल्ली में साहित्य महोत्सव में सम्मिलित हुआ.मुझे अंतर्राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव में सम्मिलित होकर अच्छा लगा. उद्घाटन समारोह में सभी वक्ताओं के विचार सुनना बहुत सुखद लगा.
तीन दिन तक चलने वाले इस विशाल अंतर्राष्ट्रीय साहित्य महोत्सव में अनेक मुद्दों पर चर्चा हुई.   

हिंदी साहित्य ने विश्व में प्रसार बहुत पाया है और उसकी लोकप्रियता भी देश-विदेश में बढ़ रही है. इससे हिदी जगत संतुष्ट है परन्तु हिंदी साहित्य और भाषा को वह संरक्षण नहीं मिला है जो विश्व की बड़ी भाषाओँ को प्राप्त है.

प्रवासी साहित्य पर आपके क्या विचार हैं?
प्रवासी साहित्य दिशा और दृष्टि पर एक सत्र हंसराज कालेज के सेमिनार कक्ष में हुआ था.  उपस्थित होने वालों की अहम् भूमिका थी, जिसमें विदेश में रहने वाले हिन्दी रचनाकारों में डॉ. श्याम मनोहर  पाण्डेय, उमेश अग्निहोत्री,  दिव्या माथुर, उषा राजे सक्सेना, शैल अग्रवाल,  राजी सेठ,  और स्वयं मैं और अन्य  थे.
इसमें नारायण कुमार, परमानन्द पांचाल,  डॉ. महेश दिवाकर, प्रो. डॉ. बाबूराम, डॉ. स्वाती पवार, महेश भारद्वाज, राकेश पाण्डेय, अनिल जोशी,  प्रेम कुमार शुक्ल, संजू मिश्र और जय प्रकाश शुक्ल थे.
मेरे विचार से साहित्य को शोध अथवा अध्यापन की दृष्टि से बेशक कोई नाम दें, जैसे साहित्य में वादों  के नाम जैसे: छायावाद और प्रगतिवाद आदि. या दूसरे शब्दों में आप हमारे साहित्य को विदेश में लिखा जाने वाला हिन्दी साहित्य कहिये, प्रवासी साहित्य कहिये  शरणार्थी साहित्य कहिये या आम हिन्दी साहित्य; मुझे कोई आपत्ति नहीं है.  आप उसे क्या समझते हैं किस दृष्टि से देखते हैं.
क्या प्रवासी साहित्य को आरक्षण की जरूरत है या नहीं है? इस पर भी सभी के विचार अलग-अलग हो सकते हैं? सभी को किसी भी साहित्यिक विचारधारा को सुनने और पढ़ने में ऐतराज नहीं होना चहिये बेशक उससे सहमत हों या नहीं हों. हर एक के किसी भी विषय पर स्वतंत्रता से दिए उसके विचार हो सकते हैं.   सहमत और असहमत होना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
साहित्य अकादमी ने आरक्षित प्रवासी साहित्य प्रकाशित किया है.  जो अधूरा ही नहीं बल्कि संपादक के आरक्षण के तरीके पर सवाल भी उठाता है, आज पत्रकार, लेखक और संपादक को खोजी होना चाहिए, यदि कोई संकलन सम्पादित कर रहा है तो सम्बंधित पत्रिका और भारतीय पत्रिकाएं पढनी चाहिए और सूचनाएं एकत्र करने की जिम्मेदारी केवल उसकी होनी चाहिए. शायद उसके सम्पादक स्वयम भी साहित्यिक आरक्षण से आये होंगे? 
मैं तेजेन्द्र शर्मा से सहमत हूँ कि हमको साहित्यिक आरक्षण नहीं चाहिए.  वर्तमान साहित्य की ओर  से प्रो. मुशाब्बीर और प्रो. असगर वजाहत तथा कृपा शंकर  ने विदेशों में लिखे जा रहे  साहित्य को बहुत पहले उजागर कर दिया था.   डॉ. इला प्रसाद  की भावना को भली भांति समझता  हूँ जहां वह अपने साहित्य को प्रवासी नहीं कहलाना चाहती हैं. विदेशों में ३२ वर्षों से तीन पत्रिकाओं का संपादन करते हुए विदेशों में विभिन्न देशों में रहने वाले रचनाकारों की अनेक रचनाएं हमारी पत्रिकाओं में स्थान पाकर उसकी शोभा बढ़ा  चुकी हैं.

आप  ३२ वर्षों से नार्वे में हैं वहां हिंदी की पत्रकारिता की क्या स्थिति है?
नार्वे से इस समय तीन पत्रिकाएं प्रकाशित हो रही हैं.  १- 'स्पाइल-दर्पण' जिसका प्रकाशन १९८८ में आरम्भ हुआ और अभी भी नियमित छपती है.  २००७ में वैश्विका  शुरू हुई जो बाद में बंद हो गयी थी. अभी दिसंबर २०११ से वैश्विका दोबारा छपना शुरू हो गयी है.
इसके आलावा एक पत्रिका 'प्रवासी' नाम से कभी-कभी छपती है.  इसके अलावा सन २००६ के बाद से जनवरी २०१२ तक नार्वे से कोई भी दूसरी पत्रिका छपी दिखाई नहीं पड़ी. 
अमेरिका न्यूयार्क में हुए आठवें  विश्व हिन्दी सम्मलेन याद आ गयी. जो एक यादगार सम्मेलन  था.
जिसमें  नार्वे से प्रकाशित हिंदी की दो पत्रिकाओं 'स्पाइल-दर्पण' और 'वैश्विका' का भी लोकार्पण हुआ था. अन्य दर्जनों साहित्यिक पत्रिकाओं और पुस्तकों के साथ और यह कार्य अपने कर कमलों से किया गया था गिरिजा व्यास जी ने.
वैश्विका का प्रकाशन अब साप्ताहिक के रूप में दोबारा शुरू किया है.  जयपुर में 'भारतीय प्रवासी दिवस में इसके  'भारतीय प्रवासी दिवस अंक  २०१२'  का बहुत स्वागत हुआ. वैश्विका का लोकार्पण पद्मश्री श्याम सिंह शशि ने 'स्पाइल-दर्पण' के  जोरबाग, नयी दिल्ली कार्यालय में विश्व हिन्दी दिवस १० जनवरी २०१२ को किया था.  

विश्व हिन्दी सम्मलेन का उद्घाटन  संयुक्तराष्ट्र संघ के भवन में संपन्न हुआ था उस समय संयुक्त राष्ट्र संघ में हमारे राजदूत निरुपम सेन जी थे.  भारत के अमेरिका में राजदूत रोनेन सेन थे जो पहले ब्रिटेन में भारत के राजदूत थे.  यहाँ देश विदेश के हिन्दी प्रेमियों और विद्वानों से मिलना हुआ था और विचार-विमर्श हुआ था.
भारतीय प्रवासी दिवस में इस बार प्रवासी कार्य मंत्रालय के अनेक छोटे बड़े अधिकारियों से वार्तालाप में अनेक विषय और  प्रश्न सामने आये थे जिसमें भारतीय प्रवासियों द्वारा किये जा रहे उत्कृष्ट कार्यों के लिए दिए जा रहे प्रोत्साहन की सराहना के साथ आर्थिक दृष्टि से किये जा रहे कार्यों कार्यों पर भी चर्चा हुई थी .
नार्वे में हिन्दी का शिक्षण
नार्वे में हिन्दी की शिक्षा संगीता शुक्ल के नेतृत्व में हिन्दी स्कूल, विश्वविद्यालय में प्रो पेतेर जोलर  तथा मीना ग्रोवर और कुछ हिन्दी सेवियों द्वारा धार्मिक  संस्थाओं द्वारा दी जाती है. विदेशों में ३२ वर्षों तक हिन्दी के  प्रचार -प्रसार में लगे रहकर  और अनेक हिन्दी की पत्रिकाओं का सम्पादन करते हुए देखा  है कि हिन्दी का प्रसार शुरू में धीमी गति से और बाद में तीव्र गति से बढ़ा  है. जिसके लिए मुझे और मेरे परिवार को अधिकाधिक समय और धन खर्च करना पड़ा है. लेकिन हिन्दी सिखाने के लिए प्रवासी भारतीयों ने अपने बच्चों को हिंदी सिखाने की हमारी बात मानी और अपने बच्चों को हिन्दी सिखाने के लिए भेजने लगे. कुछ अविभावक जो पहले अंगरेजी शिक्षा के लिए अपने बच्चों पर दबाव डालते थे उन्होंने देखा कि बच्चों को न ही अंगरेजी अच्छी तरह आ रही है और न ही हिन्दी. हिन्दी जिनकी मात्र  भाषा है और साथ ही जिनकी मात्रभाषा हिंदी नहीं है उन्होंने भी अपने बच्चों को मात्र भाषा घर में और हिंदी निजी स्कूलों में बच्चों को पढ़ने के लिए भेजना शुरू किया जिसका असर अच्छा पड़ा.
हिन्दी शिक्षा से आत्मविश्वास और अभिव्यक्ति करने की क्षमता बड़ी
बच्चों के मन में आत्मविश्वास बढ़ा और उनकी अभिव्यक्ति करने की क्षमता भी बड़ी क्योंकि हिंदी स्कूल में उन्हें योग शिक्षा, अभिव्यक्ति करने के लिए सभी बच्चों को सभी के बीच में जो सीखा है उसे कहने के  अभ्यास ने उनके आत्मविश्वास में बढ़ोत्तरी की थी. 
भारत में मुझे अनेक बेसिक स्कूलों में जाने का अवसर मिला है. मैंने देखा है कि बच्चों को मेरी बात सुनने के बाद हिन्दी को भी अन्य विषयों जैसे गणित, विज्ञान और अंग्रेजी की तरह समय देने का वायदा किया और उन्होंने अपनी अपनी बढ़ती रूचि का इजहार किया.  यदि हम हिन्दी और किसी भी भारतीय भाषा में प्रवीण होंगे तो विद्यार्थियों को अभिव्यक्ति में प्रवीणता हासिल होगी जो विकास के लिए बहुत जरूरी है. शब्द के उच्चारण और उसकी समझ तेजी से बढ़ती है. हिंदी के अध्यापक का हिन्दी के अच्छे ज्ञान का होना जरूरी है. यदि अध्यापक को ही हिन्दी नहीं आयेगी तब वह अपने शिक्षार्थियों को क्या सिखाएगा.

अच्छा पत्रकार वह जो आलोचनात्मक और समन्वयात्मक दृष्टि रखे
जो अच्छा पत्रकार नहीं है वह अच्छा संपादक कैसे हो सकता है.  समन्वयात्मक, आलोचनात्मक और क्रिएटिव होना एक अच्छे अध्यापक और संपादक को  होना बहुत जरूरी है.  जो संपादक समन्वय भावना नहीं रखता और खोजी नहीं है वह अच्छे संकलन का संपादक नहीं कर सकता. 
कुछ लेखकों को कमलेश्वर जी के सामने रोते हुए देखा, जिन्होंने कहा कि उन्होंने बहुत साहित्य लिखा है पर उनको कोई नहीं पूछता. क्योंकि उनकी एक भी रचना लोकप्रिय या चर्चित नहीं हैं.  कमलेश्वर जी कहते थे कि एक अच्छे रचनाकार को मूल रचना लिखनी पड़ेगी. उसे आलोचनात्मक रुख से अपनी रचनाओं की आत्मपरख करनी होगी.  साहित्यकार और संपादक मित्र कन्हैया लाल नंदन जी ने मुझसे कहा था कि साहित्य में भेदभाव रखने वाले साहित्यकार को उसके जीवित रहते ही नकार दिया जाता है. 
क्या आप नार्वे में हिन्दी लेखकों के बारे में प्रकाश डालेंगे?
पहले नार्वे में भारतीयों के बारे में प्रकाश डालते हैं. नार्वे में भारतीयों ने आना लगभग सौ वर्ष पहले शुरू किया. जिसमें प्रोफ़ेसर बाराल कलकत्ता से आये थे जिन्होंने अपना विवाह एक नार्वेजीय लड़की से किया था, जिनके नाम से थ्रोंद फ्येल( पहाड़ी) में एक म्यूजियम है. वैसे भारतीय घुमक्कड़ स्वभाव के होते हैं. अधिक संख्या में भारतीयों का आना सन १९७० से सन १९७५ तक हुआ. इसके बाद पढ़ाई, विवाह करके, या परिवार  के सदस्यों को बुलाकर  भारतीयों की संख्या बढ़ी. पिछले चार-पांच वर्षों से अभी तक अनेक कंप्यूटर के क्षेत्र में कार्य करने लोग आये.
आज नार्वे में भारतीयों की संख्या साढ़े दस हजार है, जबकि पूरे नार्वे की आबादी पैंतालीस लाख है.
बाराल ने अंगरेजी में कुछ पुस्तकें लिखी थी.  हरे कृष्णा मिशन ने गीता की तीन लाख प्रतियाँ नार्वेजीय भाषा में भावानुवाद के साथ नार्वे में घर-घर पहुंचाई है जिसमें संस्कृत और हिन्दी भी है.
प्रोफ़ेसर ब्रोरवीक ने गीता का अलग अनुवाद किया था.
डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल  सन १९७२ में नार्वे आये थे जिनकी अपनी साईकिल यात्रा पर दो पुस्तकें वन्दे मातरम प्रेस लखनऊ से सन १९७३ और १९७५ में प्रकाशित हुई थीं. सन १९७८ में नार्वे में भारतीय कल्याण परिषद् (इन्डियन वेलफेयर सोसाइटी) के नेतृत्व में पहली हिन्दी पत्रिका का प्रकाशन हुआ. जिसमें सन १९८० से लेकर १९८५ तक मुझे भी संपादन करने का अवसर मिला. 
मेरा नार्वे आना २६ जनवरी १९८० को हुआ. मेरा पहला काव्य संग्रह १९७५ में वेदना शीर्षक से छप चुका था.  अन्य भारतीय जिनकी पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं उनके नाम हैं:  स्वर्गीय पूर्णिमा चावला, स्वर्गीय हरचरण चावला,  इन्दर खोसला,  संगीता शुक्ल, सुरेशचन्द्र शुक्ल 'शरद आलोक'  और
मीना ग्रोवर हैं.  इसके अलावा पात्र पत्रिकाओं में जिनकी कहानियां छपी हैं उनके नाम हैं: अरुणा शुक्ल की पांच कहानियां, शाहेदा बेगम की चार कहानियां,  अलका भटनागर की दो कहानियां और फैजल नवाज चौधरी की दो कहानियां हिन्दी में स्पाइल-दर्पण में छप चुकी हैं.  कवितायें लिखने वालों में राय भट्टी, इंदरजीत पाल, माया भारती हैं पर इनकी कोई पुस्तक नहीं छपी है. 
अनुवादकों में, संगीता शुक्ल, मीना ग्रोवर, आस्त्री घोष  और सुरेशचंद्र शुक्ल प्रमुख हैं. 
आपकी प्रिय रचना कौन सी है?
आठ काव्य संग्रहों में 'रजनी', 'नंगे पांवों का सुख', 'नीड़ में फंसे पंख' और 'गंगा से ग्लोमा तक' काव्यसंग्रहों  की कुछ हद तक चर्चा हुए है. अर्धरात्रि का सूरज और प्रवासी कहानियां को भी थोड़ी बहुत चर्चा मिली. 
मेरी कुछ कविताओं ने और कहानियों ने पत्य्क्रम में जगह पायी है और जिन्होंने पाट्यक्रम  में लगाया है उनमें से अधिकाँश लोगों से मैं नहीं मिला हूँ.  'मंजिल के करीब', 'मदरसों के पीछे', 'वापसी' और 'लाहोर छूटा अब दिल्ली न छूटे'   कहानियां और नीड़ में फंसे पंख,  'सड़क पर विचरते देवदूत', 'बेरोजगारों का दर्द', 'विरोधाभास' और 'पर्यावरण देवी' आदि हैं.
मुझे लग रहा है कि मुझे अपनी प्रिय रचना की तलाश है, शायद अभी वह रची नहीं गयी.
आप विदेशों में रहने वाले लेखकों और हिन्दी प्रेमियों को क्या सन्देश देना चाहेंगे?
पहला कि साहित्य और राजनीति दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और बिना राजनैतिक दृष्टिकोण के कोई भी साहित्य पूर्ण नहीं हो सकता.  दूसरा कि जो लोग विदेश में रहते हैं वे जिस देश में भी रह रहे हैं वहां की राजनीति में सक्रिय हिस्सा लें.  इससे वह अपना वहां के अंग बनकर हर कार्य में वहां के मूल लोगों के साथ हिस्सा बटाएँगे  और अपनी भाषा और संस्कृति को उसका हक़ दिलाएंगे.
मुझे ओस्लो पार्लियामेंट और राष्ट्रीय पार्लियामेंट में मेरी नार्वे में पार्टी ने चुनाव लड़ाया और जीतकर २००३ से २००७ नगर पार्लियामेंट का प्रतिनिधि रहा.  आज भी राजनैतिक पार्टी और सांस्कृतिक संस्थाओं का प्रतिनिधि हूँ.  
अपनी भाषा, अपने देशवासियों और अपनी संस्कृति से प्रेम करना और उसपर गर्व करना सीखिए और अपने बच्चों को सिखाइये. आपके बच्चे आप पर गर्व करेंगे और आपका आजीवन साथ निभाएंगे.  
अंत में हिन्दी का और अपनी मात्रभाषा का प्रयोग कीजिये और दूसरी भाषा  में भी प्रवीण होइए. खासकर जिस देश और समाज में रह रहे हैं वहां की भाषा और संस्कृति का पूरा ज्ञान रखिये. आप स्वयं, अपने बच्चो और अपने बुजुर्गों को कंप्यूटर और अत्याधुनिक उपकरणों की शिक्षा देकर प्यार से उन्हें जोड़िये.  जो अपनापन अपने लोगों से मिलता है वह किसी अन्य से नहीं मिल सकता. बेशक दूसरों से साधन अधिक मिल जाएगा.
'क्या दे पायेंगे अपनापन,
यह स्वचालित काफी चाय संयंत्र
जो कभी मिलता था
माँ, बहन, बेटी के हाथों 
एक प्याला चाय का सोंधापन!'   
अंत में: यह मत सोचिये कि देश ने आपको क्या दिया है यह सोचिये कि आपने देश को क्या दिया है. हिन्दी की पुस्तकें उपहार में दीजिये और पत्रव्यवहार में अधिक से अधिक हिन्दी का उपयोग कीजिये.  फोन, कम्पूटर, ई-पैड, पर हिन्दी आ चुकी है. हिन्दी एक वैज्ञानिक भाषा है, उसकी लिपि अत्यन्त  सरल और प्रायोगिक है.  
शून्य के पंछी चलते चलो
पूर्णिमा की मत देखो राह
अमावस  का फैला साम्राज्य
कर रहे चन्द्रकला की चाह..
निरुत्तर आज सभी हैं प्रश्न
प्रश्न का उत्तर केवल एक
सूर्य है आज अकेला यहाँ
अंधियारे के दीप अनेक'..

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